Tuesday, October 30, 2018

बीते जमाने की तस्वीर

मौसम चाहे बहार का हो या पतझड़ का, वह आपके मन और मिजाज पर प्रभाव डालता है. इसलिए कवियों के यहाँ वसंत, या कह लें कि उम्मीद के मौसम का जिक्र ज्यादा होता है. मनोवैज्ञानिक भी इस बात पर जोर देते हैं कि सुबह-शाम, धूप-छांव के कारण पड़नेवाला असर मौसमी रोगों को बढ़ावा देते हैं. 
बहरहाल, जैसे ही ठंड की दस्तक हवाओँ में होती है मैं थोड़ा सा उदास और थोड़ा नॉस्टेलजिक होने लगता हूँ. मन बचपन की स्मृतियों, यानी गांव की ओर लौटने लगता है. हम जैसे प्रवासियों के लिए यह मौसम दशहरा, दीवाली, छठ की यादें लेकर आता है और आँखें भींग जाती है.
पिछले दिनों पटना से मेरी मौसी ने माँ-पापा की एक धुंधली सी तस्वीर की मोबाइल से ली गई तस्वीर भेजी, जो 27 साल पुरानी थी. माँ-पापा की एक साथ पुराने जमाने की ऐसी तस्वीर बमुश्किल एक-दो ही हैं. कहते हैं कि तस्वीर बीते समय के साथ एक समझौते की तरह होती है. जैसे ही मैंने माँ को यह तस्वीर दिखाई, माँ चौंक कर बोली- यह तो मैं हूँ. फिर उसने कहा कि मैंने इसे अपनी साड़ी से पहचाना.
मेरे लिए यह तस्वीर कवि आलोकधन्वा की कविता से भी जुड़ती है- एक जमाने की कविता. पापा जब भी गाँव आते, माँ के लिए साड़ी लाते थे. आलोकधन्वा ने लिखा है- माँ जब भी नयी साड़ी पहनती/गुनगुनाती रहती/हम माँ को तंग करते/ उसे दुल्हन कहते/माँ तंग नहीं होती/ बल्कि नया गुड़ देती/गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते. 
पापा इन दिनों अस्वस्थ रहने लगे हैं. तस्वीर देख कर माँ ने कहा- आदमी भी क्या से क्या हो जाता है! मैंने आलोकधन्वा से फोन करके पूछा कि एक ज़माने की कवितापढ़ते हुए मैं भावुक हो गया, क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थे? उन्होंने कहा- स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थी, जिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. अब माँ तो सिर्फ एक मेरी ही नहीं है. भावुकता स्वाभाविक है.
मैंने उनसे कहा कि आपने लिखा है-माँ थी अनपढ़ लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी/ कई बार नये गीत भी सुनाती/रही होगी एक अनाम ग्राम कवि'. जब मैंने उनसे कहा कि मेरी माँ भी गाना गाती थी (है) शाम में और अक्सर पापा उससे गाना सुनने की फरमाइश करते. तो इस पर उन्होंने कहा कि देखिए आप मेरी ही बात कह रहे हैं. फिर मैंने पूछा कि क्या यह नॉस्टेलजिया नहीं है? तब उन्होंने जवाब दिया कि नहीं, यह महज नॉस्टेलजिया नहीं है.
आलोकधन्वा ने कहा कि जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा है, अपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ मिलता है. चाहे वह विद्यापति हो, रिल्के हो या नेरुदा. मुझे याद हो आया कि बाबा नागार्जुन ने भी लिखा है- याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम…’

(प्रभात खबर, 30 अक्टूबर 2018, कुछ अलग कॉलम के तहत प्रकाशित)