Sunday, January 24, 2021

नाउम्मीदी के बीच बेहतरीन की तमन्ना


पिछले दिनों जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का ऑनलाइन आयोजन किया गया. इस समारोह में पाकिस्तान के युवा निर्देशक उमर रियाज की एक डॉक्यूमेंट्री- ‘कोई आशिक किसी महबूब से’, भी दिखाई गई. जहाँ फीचर फिल्मों के प्रदर्शन के लिए कई माध्यम हैं वहीं आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन फिल्मकारों के लिए मुश्किल पैदा करता है.

बहरहाल, ‘कोई आशिक किसी महबूब से’ वृत्तचित्र का शीर्षक दक्षिण एशिया के मकबूल और महबूब शायर फैज अहमद फैज की शायरी से उधार लिया गया है. असल में इस डॉक्यूमेंट्री में फैज अहमद फैज की शायरी, गज़ल और उनकी जिंदगी के लम्हों को कैद किया गया है. हालांकि इसमें फैज खुद उपस्थित नहीं है. उनके संस्मरण उनकी बेटियों के हवाले से इस डॉक्यूमेंट्री में आया है. साथ ही पाकिस्तान के चर्चित अदाकार और उर्दू साहित्य को लयात्मक और अपने सस्वर पाठ से चर्चित करने वाले जिया मोहिउद्दीन के हवाले से फैज की उपस्थिति दर्ज होती है.

यह वृत्तचित्र खुद मोहिउद्दीन की जीवन यात्रा भी है. गौरतलब है कि मोहिउद्दीन का प्रशिक्षण लंदन स्थित रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्टस (राडा) से पचास के दशक में हुआ था और तब से वे विभिन्न रूपों में पाकिस्तान और ब्रिटेन के मंच पर अपनी अदाकारी का प्रदर्शन करते रहे हैं. टीवी और सिनेमा से भी उनका जुड़ाव रहा है. करीब तीस साल से वे लाहौर में साल के आखिरी दिन उर्दू साहित्य का पाठ करते रहे हैं, जिसका इंतजार पाकिस्तान के साहित्य प्रेमी बेसब्री से करते हैं. फैज के जन्मशती वर्ष में उन्होंने सिर्फ उन्हीं के नज्मों का पाठ किया.
यह वृत्तचित्र व्यक्ति विशेष से ऊपर उठ कर पाकिस्तानी समाज में उर्दू भाषा, कला और रिवायत की बेकद्री पर एक आलोचनात्मक नजरिया प्रस्तुत करता है. जैसा कि मोहिउद्दीन एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘यहां अदाकारी को फन नहीं समझा जाता है’. काव्य पाठ और पढ़ने के दौरान स्वर के उतार-चढ़ाव पर जोर देते हुए मोहिउद्दीन पूछते हैं- लफ्ज के नीचे जो नहीं कहीं गई बात है, वो क्या है?’ इसी बात को कवि केदारनाथ सिंह अपनी कक्षाओं में कहते थे कि कविता ‘बिटविन द लाइंस’ होती है.
इस डॉक्यूमेंट्री में क्राफ्ट पर काफी ध्यान दिया गया है. बकौल रियाज इसे बनाने में उन्हें सात साल लगे और उनकी मेहनत दिखती भी है. सिनेमैटोग्राफी और कुशल संपादन इस वृत्तचित्र को एक सफल फीचर फिल्म के करीब ले जाता है. पाकिस्तान के आम नागरिकों, चौक-चौराहों के जो दृश्य कैद किए गए हैं वे काव्यात्मक हैं, फैज की कविता के भाव बोध और संवेदना से मेल खाते हैं. साथ ही पुरानी तस्वीरों-फुटेज का इस्तेमाल भी बारीकी से किया गया है.

जब मोहिउद्दीन फैज की इस नज्म को पढ़ते हैं- आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो/ दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो/ ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो/ राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो, तब पाकिस्तान की राजनीति, मिलिट्री शासन और समाज के हाशिए पर रहने वालों की पीड़ा एक साथ उभर कर सामने आ जाती है.
डॉक्यूमेंट्री के शुरुआत में एक टिप्पणी है- महबूब जिंदगी में बेहतरीन की तमन्ना है और आशिक उस बेहतरीन की तलाश. यह किसी भी कला और कलाकार के लिए हमेशा सच है.

(प्रभात खबर, 24 जनवरी 2021)

Sunday, January 10, 2021

जीवन में सही सुर की तलाश


नए साल की शुरुआत ‘तेरहवीं’ से करना
अटपटा लगता है, पर मौत का कोई कैलेंडर नहीं होता. सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्म ‘रामप्रसाद की तेरहवीं’ के केंद्र में मौत का सवाल है, पर साथ ही यह सवाल भी लिपटा हुआ है कि जीवन की तरह मौत भी क्या उत्सव है?

फिल्म के शुरुआत में मद्धिम रोशनी में घर के कोने वीरान पड़े हैं. परिवार के मुखिया संगीतकार रामप्रसाद (नसीरुद्दीन शाह) को जीवन में सही सुर की तलाश है. रामप्रसाद की मौत के बाद शोक मनाने आए उनके छह बच्चों, नाते-रिश्तेदारों के आपसी व्यवहार, संवादों से घर में जीवन का एक नया रूप दिखाई देता है. ऐसे में मौत का शोक, क्रिया-कर्म की बातें पारिवारिक सवालों-उलझनों में पीछे छूट जाती है. यहां ‘मृत्यु का अमर अपार्थिव पूजन’ नहीं है. सिर्फ रामप्रसाद की पत्नी (सुप्रिया पाठक) के चेहरे पर वेदना और पीड़ा की झलक है. ऐसे में वह व्यथित होकर पूछती है कि शोक का क्या अर्थ है? तस्वीर पर फूल-माला अर्पित कर, क्या महज तेरह दिनों में क्रिया-कर्मो के सहारे दिवंगत की स्मृतियों से पिंड छुड़ाया जा सकता है?

चर्चित अदाकार सीमा पाहवा के निर्देशन में बनी इस ‘फैमिली ड्रामा’ में हास्य-व्यंग्य के तत्वों का कुशलता से समावेश किया गया है, जिससे फिल्म कहीं बोझिल नहीं होती. श्मशान घाट में अंतिम क्रिया के लिए लकड़ी की खरीददारी में भी यहां मोल-तोल है! मृत्यु भोज के लिए बनी कचौड़ी के लिए भी सवाल-जवाब है! जैसा कि हर हास्य-व्यंग्य की कलाकृति के साथ होता है, पहले हम हंसते हैं पर अंतत: यथार्थ की चुभन हमें रुलाती है. रामप्रसाद छह बच्चों के पिता हैं, उनके निधन के बाद कोई भी उनकी विधवा को संग-साथ रखने को राजी नहीं होता. सबके पास अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का बहाना है. माता-पिता का अपने बच्चों के साथ पालक-पोषक का रिश्ता होता है, पर उन दोनों के बीच के आत्मीय रिश्ते बच्चों की आँखों से अक्सर ओझल ही रहते हैं. दोनों के बीच करीब पचपन साल का संग-साथ रहा है. इस फिल्म में पिता के जाने के बाद बच्चों से ज्यादा माँ की स्मृतियों में ही वे जिंदा हैं. मौत के बाद घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते को यह फिल्म यथार्थपरक ढंग से संवेदनशीलता के साथ सामने लाती है. साथ ही मध्यवर्गीय परिवार की नैतिकता, पाखंड और खोखलापन भी उजागर होता है. हालांकि फिल्म में अच्छा-बुरा, हीरो-विलेन आदि का द्वंद नहीं है.

अपनी पहली फिल्म में सीमा पाहवा का लेखन-निर्देशन आश्वस्त करता है. इस फिल्म में विभिन्न चरित्रों को मनोज पाहवा, विनय पाठक, निनाद कामत, परमब्रत चटर्जी, विनीत कुमार, बिजेंद्र काला, विक्रांत मेसी, कोंकणा सेन शर्मा आदि ने बखूबी निभाया है. किरदारों के लिए स्क्रीन टाइम भले ही कम हो, सबने अपनी अलग पहचान छोड़ी है. फिल्म में गीत-संगीत का समावेश खलता है. फिल्म को आगे ले जाने या मनोरंजन में इसकी कोई भूमिका नहीं है.

नए साल में कोरोना का भय अभी हावी है. दिल्ली के जिस मल्टीप्लेक्स में हम सिनेमा देखने गए थे, वहाँ बमुश्किल पंद्रह लोग मौजूद थे. ऐसे में क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इस फिल्म को रिलीज करना मुफीद नहीं होता जहाँ इसकी पहुँच एक बड़े दर्शक वर्ग तक सहज ही होती?

(प्रभात खबर, 10 जनवरी 2021)