Sunday, December 16, 2012

सरोकार के बगैर: हिंदी अखबार


आज़ादी के बाद संविधान सभा ने 1950 में हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा भले ही दिया, हिंदी पत्रकारिता तकनीक कौशल, विज्ञापन, कुशल प्रबंधन आदि से वंचित रही. सत्ता की भाषा अंग्रेजी के बने रहने के कारण सरकारी सुविधाएँ, विज्ञापन, प्रौद्योगिकी वगैरह का लाभ अंग्रेजी अखबारों को ही मिलता रहा. हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी बना रहा. साथ ही हिंदी क्षेत्रों में शिक्षा की कमी और प्रति व्यक्ति आय का न्यूनतम स्तर पर होना हिंदी पत्रकारिता को वह स्थान नहीं दिला पाया, जिसकी वह हकदार थी.


प्रसिद्ध पत्रकार अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने 1953 में लिखा था, “विज्ञापन समाचार पत्रों की जान है, पर पौष्टिक तत्वों के अभाव में जैसे इस देश के मनुष्यों में तेज नहीं दिखता, वैसे ही हिंदी समाचार पत्रों में निस्तेज पत्रों की संख्या ही अधिक है.”  पर वर्तमान में यह बात लागू नहीं होती. सबसे ज्यादा पाठकों की संख्या वाले दस अखबारों में हिंदी के तीन अखबार हैं और अंग्रेजी का महज एक अखबार. बाकी के अन्य अखबार क्षेत्रीय भाषाओं के हैं. हिंदी के अखबार निस्तेजनहीं बल्कि सतेजहैं.  


आपातकाल, मंडल आयोग और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद जैसी राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाओं ने हिंदी क्षेत्रों में खबरों के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ा दी. इसी दौरान हिंदी क्षेत्र में हुए राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप हिंदी सत्ताधारियों की भाषा के रूप में भी उभरी. पिछले दशकों में हिंदी भाषी प्रदेशों में शिक्षा का स्तर सुधरा है तथा प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है. पहली बार 1978-79 में हिंदी के अखबारों के पाठकों की संख्या अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बढ़ी और यह बढ़त आगामी सालों में बढ़ती ही गई.  पाठकों की संख्या में वृद्धि ने हिंदी के अखबारों में नए आत्मविश्वास का संचार किया. उदारीकरण (1991) के बाद हिंदी अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों में भी काफी इजाफा हुआ है. हालांकि अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी के अखबारों के मुकाबले विज्ञापन की दर ज्यादा है, पर हाल के वर्षों में यह खाई उतरोत्तर कम होती गई है. उदारीकरण के बाद भारत में फैलते बाजार में हिंदी मीडिया के व्यवसायिक हितों के फलने-फूलने का खूब मौका मिला.


दुनिया भर में प्रकाशन व्यवसाय पूंजीवाद के आरंभिक उपक्रमों में से एक रहे हैं. अखबारों का प्रकाशन भी पूंजीवाद के विकास के इतिहास से जुड़ा हुआ है. पूंजीवाद के प्रसार के लिए अखबारों का शुरू से ही इस्तेमाल होता रहा है और अखबार अपने प्रसार और मुनाफे के लिए पूँजी का सहारा लेते रहे हैं. भूमंडलीकरण के साथ पनपे नव-पूंजीवाद और हिंदी अखबारों के बीच संबंध काफी रोचक हैं. भारत सरकार की उदारीकरण की नीतियों और भूमंडलीकरण के साथ आई संचार क्रांति ने हिंदी अखबारों की रूप-रेखा और विषय वस्तु में आमूलचूल परिवर्तन लेकर आया. यदि हम अखबारों की सुर्खियों पर गौर करें तो यह परिवर्तन सबसे ज्यादा दिखाई देता है. अखबारों की सुर्खियाँ महज घटनाओं का लेखा-जोखा भर नहीं होती. किसी समय विशेष में अखबार की सुर्खियाँ राज्य, समाज और सत्ता के आपसी संबंधों, उसके स्वरूप और स्वरूप में आ रहे बदलाव को प्रतिबिंबित करती है. दूसरे शब्दों में, आदर्श स्थिति में सुर्खियाँ समकालीन इतिहासको निरूपित करती है.


उदारीकरण के बीस वर्षों बाद अगर वर्तमान में हम हिंदी के किसी भी अखबार के साल भर की सुर्खियों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उनका जोर खेल, आर्थिक खबरों और मनोरंजन पर ज्यादा हैं. इसके साथ ही पिछले दशकों में पत्रकारिता के अराजनीतिक’  होने पर जोर बढ़ा है. राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की बातें अब पत्रकारिता के लिए अवगुण मानी जाती हैं. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है- नवउदारीकृत व्यवस्था में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज्य, सत्ता और आवारा पूंजी का समर्थन. अखबारों में विरले ही हमें भूमंडलीकरण के बाद बहुसंख्यक जनता की जीवन स्थितियों के बारे में कोई खबर या आवारा पूंजी की आलोचना दिखाई पड़ती है.


भूमंडलीकरण के बाद अखबारों को मिली नई तकनीक की सुलभता, टेलीविजन चैनलों का प्रसार,   बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों से जुड़े क्रिकेट के खिलाड़ियों की छवि का इस्तेमाल और खिलाड़ियों की एक ब्रांड के रूप में बाजार और जन सामान्य में बनी पहचान को हिंदी पत्रकारिता ने भी खूब भुनाया है. अब अखबारों के लिए क्रिकेट का खेल महज खेल की बातनहीं रही वह भारतीय अस्मिता और संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है और इसे बनाने में भूमंडलीकरण के बाद उभरी टेलीविजन और भाषाई प्रिंट मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है. 


1986 के नव भारत टाइम्स में एक विज्ञापन
सवाल उठता है कि वर्तमान में अखबार राजनीतिक खबरों के मुकाबले आर्थिक खबरों को क्यों ज्यादा तरजीह दे रहे है? क्यों क्रिकेट की खबरें खेल-जगत के पन्नों से निकल कर लगातार पहले पन्ने पर सुर्खियाँ बटोर  रही हैमनोरंजन जगत की खबरों को पहले पन्ने की सुर्खियों में छापने के पीछे कौन सी संपादकीय दृष्टि काम कर रही है?


इन सवालों के जवाब के लिए भी हमें आर्थिक उदारीकरण की नीतियों और उसके बाद फैली बाजारवादी, प्रबंधकीय व्यवस्था के फलस्वरूप राज्य के स्वरूप में आए परिवर्तनों पर गौर करना पड़ेगा. क्योंकि भारतीय मीडिया ने भी भूमंडलीकरण के बाद इन बदलावों के बरक्स अपने प्रस्तुतीकरण, प्रबंधन, खबरों के चयन आदि में परिवर्तन किया है. 


हाल ही में द न्यूयार्करने भारतीय अखबार उद्योग को विश्लेषित करते हुए सिटीजंस जैनशीर्षक से एक लंबा लेख छापा. इस लेख के केंद्र में टाइम्स ऑफ इंडियासमूह था. समूह के मालिक जैन बंधु कहते हैं हम अखबारों का कारोबार नहीं करते. हम विज्ञापन का कारोबार करते हैं.अखबार के प्रबंधन की नजर में उनके खरीददार पाठक नहीं बल्कि विज्ञापनदाता हैं जो इसका इस्तेमाल अपने खरीददारों तक पहुँचने के लिए करते हैं. इस संबंध में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अधीन ही प्रकाशित होने वाले हिंदी के अखबार नवभारत टाइम्स’ (2003) की इस टिप्पणी पर गौर करना रोचक होगा, “यह नये इंटरनेशनल आकार और साज-सज्जा वाला देश का पहला हिंदी अखबार बना. हमने इस विचार को सबसे पहले कूड़े में डाल दिया कि भाषाई पत्रकारिता का मतलब सिर्फ राजनीति परोसना होता है. इसलिए साइंस और टेक्नोलॉजी से मनोरंजन तक नवभारत टाइम्स ने वक्त की नब्ज का साथ दिया. अध्यात्म, रोजमर्रा की जिंदगी के जरूरी पहलुओं, कारोबार, सिनेमा, पर्सनल फाइनेंस और शौक सभी क्षेत्रों में हमने आपको नयेपन से बावस्ता रखा. और इस तरह एक खुले आधुनिक संसार से लगातार जुड़े रहने की पहल की.” 


भूमंडलीकरण की प्रक्रिया सिर्फ आर्थिक कारणों की वजह से ही दुनिया में प्रभावी नहीं हुई है, बल्कि दुनिया भर के विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की नीतियों ने भी इस प्रक्रिया में सहयोग पहुँचाया है. यदि हम बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में करें तो वर्ष 1947 में देश क आजाद होने के बाद भारतीय राज्य की अवधारणा समाजवादी लक्ष्यों से प्रेरित रही. इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक राजनीति को आधार बनाया गया. आजादी के बाद के तीन दशकों में योजना आयोग का गठन, उद्योगीकरण, सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज का कार्यान्वयन जैसे मुद्दे राष्ट्र-राज्य के सामने हावी थे. उस दौर में राजनीति को आधुनिक भारत की नियति और नियंता के रूप देखा जाता रहा.  नतीजतन, उस दौर के हिंदी अखबारों में भी राजनीतिक खबरों को प्रमुखता मिलती रही. लेकिन अस्सी के दशक के आखिरी दौर और नब्बे के दशक के आरंभ में अपनाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण प्रबंधन और अर्थतंत्र की गतिविधियाँ राष्ट्र-राज्य के क्रिया-कलापों पर हावी होने लगीं. इसका सीधा असर हिंदी मीडिया पर भी पड़ा.


70 के दशक के बाद भारतीय भाषाई प्रेस में आए बदलाव को मीडिया विश्लेषक रॉबिन जैफ्री ने क्रांतिकहा है. पर इस क्रांतिके पीछे की राजनीति को वे विश्लेषित नहीं करते, जिसने हिंदी अखबारों को अराजनीतिक बनाया है.

(जनसत्ता, रविवार मीडिया कॉलम के तहत 16 दिसंबर 2012 को संपादित अंश प्रकाशित. 'हिंदी में समाचार' शीर्षक से लेखक की किताब 2013 में प्रकाशित होने वाली है)

Monday, November 05, 2012

प्रेम की भाषा: मैथिली



बोली, बानी और भाषा की बात हो तो स्वभाविक है कि मैथिली की चर्चा होगी. इस बार  दिल्ली में संपन्न हुए भारतीय भाषा महोत्सव, समन्वय की मूल अवधारणा इसी के इर्द-गिर्द थी. एक सत्र प्रेम की अपरूप भाषा: भाषा का अपरूप प्रेमके ऊपर था. अपरूप शब्द विद्यापति की कविताओं में बार-बार आता है और यहीं से यह शब्द सूरदास की कविताओं की तरफ भी जाता है. आश्चर्य नहीं कि हिंदी की चर्चित प्रेम कहानी रसप्रिया में फणीश्वरनाथ रेणु भी चरवाहे मोहना को देख कर अपरूप रूप की बात करते हैं.

बहरहाल, विद्यापति प्रेम और श्रृंगार के कवि के रूप में इतने प्रसिद्ध हुए कि उनके व्यक्तित्व और साहित्य के अन्य पहलूओं की उपेक्षा हुई. निस्संदेह उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति पदावलीप्रेम का काव्य है. इस काव्य को उन्होंने देशी भाषा मैथिली में लिखा था. प्रेम और भाषा को लेकर विद्यापति जितने सजग थे, भारतीय भाषाओँ में उनका कोई सानी नहीं. मध्ययुग में जब देशी भाषाओं की लहर पूरे देश में फैल रही थी तो इसके अगुआ विद्यापति थे. संस्कृत के वे पंडित थे लेकिन उनका भाखा प्रेमअद्वितीय था. उनके ही शब्दों में कहें तो अपरूप था.’  कबीर ने बाद में संसकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर कहा.विद्यापति ने संस्कृत को कूप जल कहे बिना कहा- देसिल बयना सब जन मिट्ठा. एक मायने में भारतीय भाषाओं के समन्वय की वे वकालत कर रहे थे, जो वर्तमान संवेदनाओं के नजदीक कही जा सकती है. 

(समन्वय, 2-4 नवंबर 2012)
मैथिली भाषा अपनी मिठास के लिए जानी जाती है. पर ऐसा नहीं कि सिर्फ उसमें कोमलकांत पदावली में गीत ही लिखे गए और सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं हुई. विद्यापति दरबारी कवि थे. उनसे कबीर की तरह सामाजिक सच को ठोस रूप में हमारे सामने लाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन अपनी महेशवाणी और नचारी में मध्ययुग के समाज की गरीबी, पराधीनता और विभेद को जिस रूप में उन्होंने सामने रखा वह विशेष अध्ययन और शोध की मांग करता है. 

उनकी कविता वस्तुत: सामंती मनोवृत्ति के विरोध की कविता है. मध्ययुगीन समाज में वे नारी के दुख के भी कवि हैं. तुलसीदास ने बहुत बाद में कहा- पराधीन सपनेहु सुख नाहिं. सामंती समाज में स्त्रियों की वेदना को इन शब्दों में विद्यापति ने व्यक्त किया- कौन तप चूकलहूँ भेलहूं जननी गे (हे विधाता, तपस्या में कौन सी चूक हो गई कि स्त्री होके जन्म लेना पड़ा!)

विद्यापति ही अपने अराध्य शिव से कह सकते हैं कि क्यों भीख मांगते फिर रहे हो/ खेती करो इससे गुण गौरव बढ़ता है’ (बेरि बेरि अरे सिब हमे तोहि कइलहूँ, किरिषि करिअ मन लाए/ रहिअ निसंक भीख मँगइते सब, गुन गौरब दुर जाए).

विद्यापति और शिव को लेकर कई तरह के मिथक मिथिला के समाज में आज भी प्रचलित है. कहते हैं कि उनके गीतों और कविताओं को सुनने खुद शिव एक नौकर, उगना का रूप धर उनके यहाँ रहने आए थे. मिथिला की संस्कृति के निर्माण में विद्यापति की एक बड़ी भूमिका है. आज भी मिथिला में शादी-विवाह या खेती-बाड़ी विद्यापति के गीतों के बिना नहीं होती.

मधुबनी जिले में इसी मिथक को लेकर उगना महादेव का एक प्राचीन मंदिर हैं. मंदिर के प्रांगण में एक मूर्ति विद्यापित की भी है. ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि हमारा समाज कवि की मूर्ति भी उसी प्रांगण में स्थापित करे जहाँ उसके अराध्य हो. 

साहित्य के अनुरागी और शिव के भक्त एक साथ वहाँ जाते हैं. वैसे ही जैसे कि दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर सिर नवाने वाला अमीर खुसरो की कब्र पर अकीदत करना नहीं भूलता.

(चित्र साभार आईएचसी, कथक गुरु शोभना नाराय'उगना रे' की प्रस्तुति में. ब्लॉग लेखक महोत्सव में परिचर्चा के दौरान. जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 7 नवंबर 2012 को प्रकाशित)

Saturday, September 22, 2012

शिमला में निर्मल वर्मा

सितंबर की इस शाम बारिश की गंध और हवा में रोमांस है. बादलों का घेरा शहर को अपने आगोश में लिए हुए हैं. शर्ट में ठंड लगती है पर स्वेटर या स्वेट शर्ट पहनने का मन नहीं होता. ऊंची पहाड़ियों पर देवदार के पेड़ शांत और स्थिर खड़े हैं. जैसे वे सिर्फ आपको सुनेंगे भर, कहेंगे कुछ नहीं. एक आकाशधर्मा गुरु की तरह जिसके पास आपके विचारों, भावों को सुनने का पर्याप्त समय होता है.

रात की इस खामोशी और अंधेरे में गेस्ट हाउस में सिर्फ हमारी साँसे सुनाई दे रही है. पता नहीं बगल के कमरे में कोई है भी या नहीं. मैंने धीरे से रीना से कहा- 'भूत से डर तो नहीं लगता!

दिल्ली की भागमभग से दूर, मैदानों में पले-बढ़े हमारे लिए हिल स्टेशनों की नीरवता एक ख्याल सी लगती है. यूँ तो शिमला कई बार आया, पर शादी के बाद यह शिमला की पहली यात्रा थी. कुछ शब्द हमारी जबान पर मुश्किल से चढ़ते हैं. मेरे लिए हनीमून एक ऐसा ही शब्द है.

बहरहाल, छाता लेकर जब हम अगले दिन शहर घूमने निकले तो धूप के छोटे-छोटे टुकड़े खिले थे. आसमान पूरी तरह साफ नहीं था. कुछ दिनों से यहाँ बारिश हो रही थी. पर ऐसा क्यों लग रहा है कि शिमला से हर वर्ष शिमला छीजता जा रहा है. या यह सिर्फ मेरे मन का वहम है!

शहर तो वही है. मॉल रोड, गिरजा घर, गेयटी थियेटर, पुरानी किताबों की दुकानें और दूर  सामने की जाखू की पहाड़ी पर स्थित हनुमान की विशाल मूर्ति.  फिर ऐसा क्यों लगता है मुझे?

शाम होते ही मॉल रोड पर सैलानियों की भीड़ इतनी कि पाँव रखने की जगह नहीं. शोर-शराबा और बीयर की गंध!  रात होते ही सड़कों पर आवारा कुत्ते. पता नहीं पहाड़ पर स्थित शहरों में रोमांस होता है या उसकी ओबा-हवा में जो हमें अपनी ओर खींचती है.

अपने अंदर इतिहास की कई गाथाएँ समेटे वॉयसराय लॉज (वर्तमान में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) एक ऐतिहासिक धरोहर (हेरिटेज ब्लिडिंग) है. पर बाहर से यह जितना भव्य दीखता है अंदर से उतना ही खोखला. छत से टप टप रिसता पानी, लकड़ियों में लगे घुन और रख-रखाव की बुरी व्यवस्था इस इमारत की बदहाली की कहानी बयां करती है. कहते हैं कि निर्मल वर्मा ने अपने चर्चित उपन्यास लाल टीन की छत यहीं रह कर लिखा था.

निर्मल वर्मा की कहानियों, यात्रा वृत्तांतों में शिमला कई बार, कई तरहों से आया है. बचपन की स्मृतियाँ किसी भी लेखक, रचनाकर के लिए बेहद कीमती होती हैं. और यदि वह रचनाकार निर्मल वर्मा की तरह प्रतिभावान हो तो रचनाकार की स्मृतियों के साथ शहर एक पाठक के मन में अपना संसार गढ़ते हैं.

शिमला जब-जब गया मन हर बार लाल टीन की छत वाले निर्मल वर्मा के उस शहर को ढूंढ़ता रहा. शाम में मॉल रोड स्थित गेयटी थिएटर में निर्मल वर्मा की दो कहानियों धूप का एक टुकड़ा और डेढ़ इंच ऊपर का मंचन है. बाहर सड़कों पर जितनी ही ज्यादा भीड़ है, इस खूबसूरत थिएटर के अंदर उतने ही कम लोग. 

नाटक खत्म होने के बाद थिएटर से निकल कर हम सामने ही एक किताब की दुकान में घुस गए. तरह तरह की किताबों से सजे इस दुकान में निर्मल वर्मा की कोई किताब नहीं मिली. मैंने दुकानदार से लगभग चिढ़ कर कहा, आपका शहर निर्मल वर्मा को याद कर रहा है और आपके यहाँ उनकी एक भी किताब क्यों नही है.

जवाब में यह चिर-परिचित जुमला सुनने को मिला- हिंदी की किताबें कहाँ बिकती हैं!

चीड़ों पर चाँदनी संस्मरण में निर्मल वर्मा ने लिखा है, क्या यह शिमला है-हमारा अपना शहर-या हम भूल से कहीं और चले आए हैं

इस बार शिमला से आने के बाद मेरे मन में यह सवाल गूँजता रहा.

(समांतर स्तंभ के तहत जनसत्ता, 26 सितंबर 2012 को प्रकाशित)

Sunday, July 29, 2012

दम तोड़ती सिक्की कला


उत्तरी बिहार के दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी जिले की महिलाएँ मिथिला पेंटिग के साथ-साथ वर्षों से सिक्की कला से जुड़ी रही है. जहाँ मिथिला पेंटिंग को देश-विदेश में प्रतिष्ठा और सम्मान मिला वहीं यह कला शुरु से ही संरक्षण और सहयोग के अभाव से जूझती रही है.

इस कला में एक तरफ मिथिला की ग्रामीण महिलाओँ की रचनात्मक ऊर्जा और लोक चेतना की झलक मिलती है वहीं ये उनके लिए मनोरंजन और समय के सदुपयोग का एक जरिया भी है. सदियों से एक परंपरा के रुप में यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती-फूलती रही. रंग-बिरंगी सिक्की को टकुआ से गूंदती, मौनी-पौती बनाती दादी-नानी की एकाग्र आँखें अब भी लोगों के जेहन में है. पर दो दशकों में मिथिलांचल के गाँवों से भारी मात्रा में लोगों के पलायन और अपनी जड़ और जमीन से उखड़ने की वजह से यह कला दम तोड़ रही है. पहले मिथिला के हर गाँव में सिक्की आर्ट विस्तार पाती थी, लेकिन अब यह महज कुछ गाँवों में सिमट कर रह गई है. वर्तमान में रैयाम, उमरी बलिया, सरिसबपाही, सुरसंड, यदुपट्टी और करुणा-मल्लाह जैसे कुछ गाँव इस कला के केंद्र हैं. हालांकि हाल के कुछ वर्षों में सिक्की कला को एक व्यवसायिक आधार मिला है जिससे इससे जुड़ी महिलाओं की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया है.

मधुबनी जिले के बेलारही गाँव की 92 वर्षीया जानकी देवी वर्षों तक इस कला से जुड़ी रही. वृद्धावस्था के कारण अब वह इस कला को नहीं साधती पर जैसे ही मैंने उनसे सिक्की कला का जिक्र छेड़ा वो मुस्कुरा दी और बोली, “कैसे आपको इसकी याद आई. अब तो कोई याद नहीं करता.” वे कहती हैं कि उन्होंने इसे खेलते-कूदते बचपन में अपनी चाची से सीखा था पर अब युवतियों में इसके प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखता.

जहाँ बारिश की प्रचुरता हो सिक्की की उपज वहाँ ज्यादा होती है. विशेष रुप से नदीतालाबों के कछार पर दलदल जमीन में इसकी पैदावार होती है. मिथिलांचल नदी और तालाबों के लिए विख्यात है और यहाँ सिक्की प्रचुर मात्रा में मिलती रही है, फलतसिक्की कला विशेष रूप से उत्तरी बिहार की उपज है! जो इसे देश के अन्य भागों में बांस, सरकंडा, मूंज या खर से बनाई जाने वाली कलाकृतियों से विशिष्ट बनाता है.

सिक्की कलाकार सुनहरे रंग की सिक्की को पहले विभिन्न रंगों से रंगते हैं फिर टकुआ (पाँच-छह इंच लंबी लोहे की मोटी सुई जिसके पेंदी में चौड़ा बेंट लगा रहता है, ताकि पकड़ने में सुविधा हो) और कैची की सहायता से वे तरह तरह की आकृतियाँ बनाते हैं. मिथिला पेंटिंग में जिन विषयों का इस्तेमाल होता है अमूमन उसे ही कलाकार सिक्की आर्ट में भी उकेरते रहे हैं. मसलनमछलीसूर्यकदंब,आम का पेड़, आँख, गुलदान, दुर्गाशिवनाग-नागिन, कछुआ आदि. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मिथिला पेंटिंग की तरह ही इसके विषय-वस्तु में भी विस्तार आया है. अब वे इसे बाजार की माँग के मुताबिक भी तैयार करने लगे हैं.

इस कला की विशिष्टता यह है कि जहाँ एक ओर इसे घर-दीवारों की सजावट के रुप में काम में लिया जाता है, वहीं इसका इस्तेमाल, ड्राइ फ्रूटसमसाले, गहने, फूल-पत्ती आदि रखने के काम में लिया जाता रहा है.

60-70 के दशक में इस कला को मधुबनी ज़िले में रैयाम गाँव की विंदेश्वरी देवी और सीतामढ़ी जिले के सुरसंड की कुमुदनी देवी जैसी प्रतिभा मिली जिन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. दोनों ही कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. इन्हीं दशकों में गंगा देवी और सीता देवी भी मिथिला पेंटिंग को बुलंदी पर पहुँचा रही थी. 

विंदेश्वरी देवी के भाई रामानंद ठाकुर बताते हैं कि कला के पारखी और कलाविद उपेंद्र महारथी ने विंदेश्वरी देवी को पटना स्थित शिल्प अनुसंधान संस्थान से जोड़ा था और उनकी बनाई आदमकद शंकर की मूर्ति की काफी चर्चा हुई थी. रामानंद ठाकुर बताते हैं “1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के हाथों विंदेश्वरी देवी को पुरस्कार दिया गया था, लेकिन उसके बाद सरकार ने कोई सुध नहीं ली. उन्होंने बताया कि विंदेश्वरी देवी ने इस कला को लेकर जर्मनी और अमेरीका की भी यात्रा की थी. विंदेश्वरी देवी के परिवार की महिलाएँ और इस गाँव की अन्य 25-30 महिलाएँ अब भी सिक्की कला से जुड़ी हुई है. पिछले पाँच सालों से गरीबों और ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के लिए बिहार सरकार की पहल जीविका ने इस गाँव की महिला कलाकारों में एक नई ऊर्जा भरा है. रैयाम की सुधा देवी बताती हैं, “15-20 वर्ष पहले लगने लगा था कि यह कला अब समाप्त हो जाएगीलेकिन फिर से जीविका ने हमें एक आशा दी है.” वो बताती हैं जीविका ने हमें एक बड़ा बाजार मुहैया कराया है और साथ ही हमें नए डिजाइन भी इनसे मिलता है जिससे हम इस कला में रुप में तरह तरह के प्रयोग कर रहे हैं. इस गाँव के कलाकार दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, गोवा आदि शहरों में होने वाली विभिन्न प्रदर्शनियों में अपनी कला लेकर जाते रहे हैं.

मिथिला में शादी-विवाह के अवसर पर और लड़कियों के द्विरागमन (गौना)के समय दहेज के रुप में सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है जो आज भी कायम है. हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रुचि इस क्षेत्र के बाहर, देश-विदेश के लोगों की है उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं. स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.

पिछले दिनों बिहार के 100 साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें बिहार के विभिन्न कला रुपों की झांकी थी. प्रदर्शनी में जहाँ मिथिला पेंटिंग के कई स्टॉल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था.

कुमुदनी देवी के पुत्र और मिथिला कलाकार चक्रधर लाल कहते हैं, “जितना समय इस कला को साधने में लगता है उतना मेहनताना नहीं मिलता. इसलिए अब लोगों की रुचि इसमें नहीं रही है. इतने ही समय में मिथिला पेंटिंग बनाने पर ठीक ठाक कमाई हो जाती है.” चक्रधर लाल कहते हैं कि इस कला को व्यवसायिक रुप से बाजार मुहैया कराने की जरुरत थी और कलाकारों को संरक्षण दिया जाना चाहिए था पर सरकार ने गैर सरकारी संस्थानों के भरोसे सब कुछ छोड़ रखा है. उनकी चिंता कलाकारों की कम और खुद के हित साधने की ज्यादा है.

E book: Link http://pothi.com/pothi/book/ebook-arvind-das-gardish-mein-ek-chitra-shaili

(जनसत्ता, रविवारी में 29 जुलाई 2012 को प्रकाशित)