Monday, October 25, 2021

कल और आज के शायर साहिर

 

वर्षों पहले गुलजार ने कहा था कि सिनेमा वाले मुझे साहित्य का आदमी समझते हैं और साहित्य वाले सिनेमा का’. साहिर लुधियानवी (1921-1980) के साथ ऐसा नहीं है. वे सिनेमा और साहित्य दोनों दुनिया में एक साथ समादृत रहे हैं. वे जितने अच्छे शायर थे उतने ही चर्चित गीतकार. पिछले दिनों अर्जुमंद आरा और रविकांत के संपादन में जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ ने  साहिर लुधियानवी जन्मशती विशेषांक प्रकाशित किया है जो यह इस बात की ताकीद करता है. खुद साहिर इस बात से वाकिफ थे कि साहित्य क्षेत्र में फिल्मी साहित्य को लेकर अच्छी राय नहीं हैइसलिए उन्होंने फिल्मी गीतों के संकलन गाता जाये बंजारा की भूमिका में लिखा है: मेरा सदैव प्रयास रहा है कि यथासंभव फिल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के निकट ला सकूँ और इस प्रकार नये सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को जन-साधरण तक पहुँचा सकूं.  साहिर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे और प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे. उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर नजर डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मजलूमों, मखलूकों के साथ थे अपने काव्य और जीवन में.

खुद वे अपने ऊपर फैज, मजाज, इकबाल आदि की शायरी के असर की बात स्वीकार करते थे. इस विशेषांक में अतहर फारुकी ने नोट किया है कि उर्दू शायरी के अवामी प्रसार में, यानी अवाम के साहित्यक आस्वादन को बेहतरीन शायरी से परिचित कराने में साहिर लुधियानवी फैज से भी आगे निकल जाते हैं.’ हो सकता है कि इसमें अतिशयोक्ति लगे पर यह स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि उनकी रोमांटिक शायरी फिल्मी गीतों का अंग बन कर, रेडियो, कैसेट और अब यू-टयूब जैसे माध्यमों से होकर देश और दुनिया के बड़े हिस्से तक पहुँची.

आजाद हिंदुस्तान के दस साल बाद प्यासा (1957) फिल्म के लिए लिखा उनका गाना समाज में व्याप्त विघटन और मूल्यहीनता को दर्शाता है, जो आज भी मौजू है.

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया

ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया

ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

इसी फिल्म वे पूछते हैंजिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं. साहिर ने 1948 में पहला फिल्मी गीत (बदल रही है जिंदगी, फिल्म-आजादी की राह पर) लिखा और सौ से ज्यादा फिल्मों में करीब 800 गाने लिखे. उनके इस सफर पर एक नजर डालने पर स्पष्ट है कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ उनके गानों में बखूबी व्यक्त हुई. 

हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. गानों के माध्यम से कहानियाँ आगे बढ़ती है जिसमें किरदारों के मनोभाव व्यक्त होते हैं पर साहिर, शैलैंद्र जैसे शायर रूपकों, बिंबों के माध्यम से आजाद भारत के आस-पड़ोस की घटनाओं, देश-विदेश की हलचलों को भी बयान करते हैं. सच तो यह है कि फिल्मी गानों को आधार बना कर आधुनिक भारत की राजनीति और इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है.

पिछले सदी के साठ का दशक देश के लिए काफी उथल-पुथल भरा रहा था. इसी दशक में चीन और पाकिस्तान के साथ भारत ने युद्ध लड़ा था. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत हुई थी. हरित क्रांति के बीज इसी दशक में बोये गए थे. निराशा और उम्मीद के बीच साहिर ने आदमी और इंसान (1969) फिल्म में लिखा:

फूटेगा मोती बनके अपना पसीना

दुनिया की कौमें हमसे सीखेंगी जीना

चमकेगा देश हमारा मेरे साथी रे

आंखों में कल का नजारा मेरे साथी रे

कल का हिदुंस्तान जमाना देखेगा

जागेगा इंसान जमाना देखेगा

समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न और सामाजिक न्याय साहिर के मूल सरोकार रहे हैं जिसे संपादक अर्जुमंद आरा ने साहिर के सरोकार लेख में रेखांकित किया है. अब्दुल हई साहिर लुधियानवी की प्रसिद्धि फिल्मी गानों से पहले उनके काव्य संग्रह तल्खियाँ (1944) से फैल चुकी थी. साहिर की मौत से पहले रिलीज हुई कभी-कभी (1976) फिल्म के गानों ने उनकी शोहरत में और भी तारे टांके. पैतालिस साल के बाद भी उनका लिखा युवाओं के लब पर है. --

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँ ही

उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूँ ही

मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही...

यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि असल में यह गाना उनके पहले काव्य संग्रह तल्खियाँ में संकलित है जिसका सरल रूप गाने में इस्तेमाल किया गया. इस गीत के लिए उन्हें दूसरा फिल्म फेयर पुरस्कार मिला (पहला फिल्म फेयर पुरस्कार ताजमहल फिल्म के गाने जो वाद किया के लिए). इस गाने में नॉस्टेलजिया है और बीते जमाने की तस्वीर  है. इसे देश में लगे आपातकाल (1975) की पृष्ठभूमि में भी सुना समझा जा सकता है.

पत्रिका के संपादकों ने बिलकुल ठीक लिखा है कि साहिर साहब सिर्फ किताबी अदब के नहीं थे, सिनेमा, ग्रामोफोन, कैसेट और रेडियो के भी उतने ही थे, जितने मुशायरों और महफिलों के, जितने हिंदी के उतने ही उर्दू के, जितने हिंदुस्तान के उतने ही पाकिस्तान के, और जितने कल के उतने ही आज के.”  

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Sunday, October 24, 2021

एक क्रांंतिकारी जीवन का आख्यान: सरदार उधम

समकालीन राजनीति में इतिहास की घटनाएँ समय समय पर नए अर्थ और विवाद के साथ उद्धाटित होती रहती है. खास तौर पर जब बॉलीवुड की कोई फिल्म रिलीज होती है तो आहत भावनाएँ उग्र राष्ट्रवाद की शक्ल में हमारे सामने आती हैं. ऐसे में पिछले दिनों अमेजन प्राइम ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई शूजित सरकार निर्देशित और विक्की कौशल अभिनीत फिल्म ‘सरदार उधम’ अपवाद ही कही जाएगी. एक तरह से यह फिल्म उग्र राष्ट्रवाद का प्रतिकार है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में पनपा राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ था, जहाँ आत्म और अन्य की अवधारणा हिंदू-मुस्लिम-सिख के रूप में नहीं दिखती थी. आश्चर्य नहीं कि क्रांतिकारी उधम सिंह फिल्म में ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ के रूप में हमारे सामने आते हैं.


पिछले कुछ सालों में राष्ट्रवादी भावनाएँ ‘उड़ी’, ‘केसरी’ जैसी फिल्मों में भी अभिव्यक्त हुई है जहाँ जोश ‘हाई’ था, पर बॉलीवुड की शैली में बनी इन फिल्मों से ‘सरदार उधम’ की कोई होड़ नहीं है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह फिल्म स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी उधम सिंह (1899-1940) के जीवन वृत्त को चित्रित करती है.
उधम सिंह की दास्तान मुख्यधारा के इतिहास और पापुलर कल्चर में फुटनोट में ही दर्ज है, इस कमी को यह फिल्म संवेदनशीलता के साथ पूरा करती है. फिल्म की शुरुआत वर्ष 1931 के पंजाब से होती है, पर इसके केंद्र में है जालियाँवाला बाग का नरसंहार (1919), जिसे जनरल रेजिनॉल्ड डायर ने अंजाम दिया था. उस समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर थे. 21 वर्ष के बाद उधम सिंह ने लंदन में माइकल ओ डायर की कॉक्सटन हॉल (1940) में भरी सभा में गोली मार कर हत्या कर दी और नरसंहार का बदला लिया था. उन्हें उसी वर्ष फांसी दे दी गई थी.
भगत सिंह ने बम का दर्शन में लिखा है- ‘आतंकवाद संपूर्ण क्रांति नहीं है और क्रांति आंतकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती.’ उधम सिंह और भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े कामरेड थे. यह फिल्म गाँधी-नेहरू के अहिंसात्मक रास्ते से अलग भगत सिंह और उधम सिंह के क्रांतिकारी जीवन को वृत्तचित्र की शैली में हमारे सामने लाती है, हालांकि फिल्म में ‘फिक्शन’ का तत्व भी है. यह फिल्म एक रैखिक आख्यान के विपरीत विभिन्न देश-काल में यात्रा करती है. विक्की डोनर, पीकू और अक्टूबर जैसी फिल्में को निर्देशित कर चुके शूजित सरकार ने सधे ढंग से इस फिल्म को ‘सेपिया टोन’ में शूट किया है. खास कर जालियाँवाला बाग के नरसंहार को चित्रित करते समय उन्होंने उधम सिंह के जज्बात, आक्रोश और घनीभूत पीड़ा को जिस रूप में चित्रित किया गया है वह हिंदी सिनेमा परंपरा में अभूतपूर्व है. हालांकि अनेक दर्शकों के लिए यह थोड़ा बोझिल हो सकता है, पर उधम सिंह की निडरता, दृढ़ इच्छा शक्ति जो बाद के क्रांतिकारी जीवन में दिखी उसका बीज यहीं जन्म लेता है.
पिछले सदी के शुरुआती दशक के पंजाब और लंदन को अपने प्रोडक्शन डिजाइन के जरिए मानसी ध्रुव मेहता और दिमित्री मालिच ने जीवंत बना दिया है. यह बड़ी सिनेमाई उपलब्धि है. हिंदी-अंग्रेजी में बनी यह फिल्म पूरी तरह से विक्की कौशल की है, जिसे उन्होंने शिद्दत के साथ जिया है.

(प्रभात खबर, 24.10.21)

Sunday, October 10, 2021

मन समंदर में उठती लहरें: कासव


इस हफ्ते मराठी के चर्चित फिल्मकार सुमित्रा भावे-सुनील सुकथनकर निर्देशित ‘कासव’ (2017) फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हुई. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित इस फिल्म के केंद्र में मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) है. बॉलीवुड के फार्मूलों से दूर, ‘मेंटल-जजमेंटल’ के फ्रेमवर्क से बाहर यह फिल्म कछुए (कासव) के रूपक के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक सुरक्षा और परिवार की परिभाषा को खूबसूरती से हमारे सामने लेकर आती है.

यह फिल्म जानकी (इरावती हर्षे) और मानव (आलोक रजवाड़े) के इर्द-गिर्द  घूमती है. मानव एक युवा है जिसके मन में उठ रहे बवंडर की देख-भाल करने वाला कोई नहीं, वहीं जानकी एक अधेड़ उम्र महिला है जो अवसाद से गुजर चुकी है पर बीती स्मृतियाँ उनके मन में अभी भी ताजी है. दोनों के आपसी रिश्तों के माध्यम से हम डिप्रेशन से गुजरने वालों की असुरक्षा, अकेलापन, भय, सहानुभूति और समानुभूति जैसे भावों से परिचित होते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक आंकड़ा के मुताबिक करीब 28 करोड़ लोग दुनिया भर में अवसाद से पीड़ित हैं. कहा जा रहा है कि 21वीं सदी में मानसिक बीमारियों की बात करें तो अवसाद दुनिया भर में सबसे ज्यादा लोगों को अपनी जद में लेगा. सही समय पर सहयोग और चिकित्सा सुविधा न मिले तो अवसाद आत्महत्या के रूप में सामने आता है. इस फिल्म की शुरुआत में मानव आत्महत्या की कोशिश करता है, पर वह भाग्यशाली है की उसे जानकी जैसी संवेदनशील स्त्री का साथ मिलता है, एक ऐसा वातावरण मिलता है जहाँ उसके प्रति पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं है. समंदर के नजदीक, प्रकृति के बीच मानव धीरे-धीरे अवसाद से उबरता है. फिल्म में मनोचिकित्सक, अवसाद से उबरने में दवा की भूमिका को रेखांकित किया गया है. 

असल में यह फिल्म सुमित्रा भावे- सुनील सुकथनकर निर्देशित मानसिक स्वास्थ्य को केंद्र में रख कर बनी फिल्मों की त्रयी को पूरा करता है. इससे पहले ‘देवराई (2004)’ और ‘अस्तु (2016)’ का निर्देशन वे कर चुके हैं. जहाँ देवराई के केंद्र में सिजोफ्रेनिया है, वहीं अस्तु फिल्म के केंद्र मे डिमेंशिया/अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है. फिल्म और थिएटर के चर्चित कलाकार और पेशे से मनोचिकित्सक डॉक्टर मोहन आगाशे ‘देवराई’ की तुलना ‘ए ब्यूटीफूल माइंड’ फिल्म से करते हैं. इस फिल्म में चर्चित कलाकार अतुल कुलकर्णी और सोनाली कुलकर्णी हैं.

प्रसंगवश, अस्तु और कासव को मोहन आगाशे ने सह-प्रस्तुत किया है. वे कहते हैं कि मैं प्रोडूसर या बिजनेसमैन नहीं हूँ, पर चूँकि सुमित्रा भावे जिन उसूलों को मानती थीं, उन्हीं पर मैं भी चलता रहा हूँ तो हमने इसे प्रस्तुत करने का निर्णय लिया. वे सिनेमा के दृश्य-श्रव्य शैक्षणिक माध्यम के रूप में इस्तेमाल पर जोर देते हैं. हालांकि वे कहते हैं कि ‘चूँकि मैं इस फिल्म से जुड़ा रहा हूँ इसलिए इस फिल्म के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा.’ अस्तु और कासव में उन्होंने अभिनय भी किया है.

जहाँ कासव के केंद्र में एक युवा है वहीं अस्तु’ फिल्म एक ऐसे पिता के इर्द-गिर्द है जो सारी जिंदगी परिवार के केंद्र में रहने के बाद बुढापे में हाशिए पर है. एक दिन वह अपनी बेटी के साथ बाजार जाता है और एक हाथी को देख कर सवारी करने की उसमें बच्चों सी उत्कंठा जग जाती है. वह हाथी वाले के साथ चला जाता है और बेटी से बिछुड़ जाता है. उसे न अपना भूत याद है न ही वर्तमान. मोहन आगाशे ने खूबसूरती से अल्जाइमर से पीड़ित बुर्जुग की भूमिका निभाई है, जो मर्म को छूती है. उसकी स्थिति एक बच्चे की तरह है. वह समझ ही नहीं पता कि उसके साथ क्या हो रहा है. बेटी जिसे उसने जन्म दिया है अब उसके लिए माँ की तरह है! इस फिल्म को देखते हुए बरबस पिछले साल रिलीज हुई और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित ‘द फादर’ की याद आ जाती है. ‘द फादर’ में एंथनी हॉपकिंस बार-बार यह सवाल पूछते हैं-व्हाट अबाउट मी?’ इस फिल्म में डिमेंशिया/अल्जाइमर से पीड़ित 83 वर्षीय एंथनी ने जिस खूबसूरती से बीमार व्यक्ति के अंतर्मन को टटोला है वह दुर्लभ है. 


हिंदुस्तान में इन बीमारियों के प्रति लोगों में सूचना और  संवेदना का अभाव है. यदि आप इस बीमारी से पीड़ित किसी व्यक्ति संसर्ग में आए हैं इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि जिस तरह से मोहन आगाशे और एंथनी हॉपकिंस ने किरदार को निभाया है, जिस तरह से फिल्म हमारे सामने उद्घाटित होती है वह अल्जाइमर पर लिखे लेखों और किताबों पर भारी है. यही सिनेमा माध्यम की ताकत भी है. दोनों ही फिल्में बॉलीवुड की फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य के सवाल पर जो स्टीरियोटाइप दिखता है उससे दूर है. 

हालांकि ‘अस्तु’ और ‘द फादर’ फिल्म देखते हुए लगता है कि ये फिल्म जितना बीमार व्यक्ति की परेशानियों के बारे में है, उतनी ही केयर गिवर (देखभाल करने वालों के) के बारे में भी है. उनके मन में खीझ, विवशता, असहायता बोध जैसे भाव एक साथ उभर कर आते हैं. आर्थिक और मानसिक दोनों तरह की परेशानियों को वहन करना परिवारों के लिए आसान नहीं होता. अभी सिनेमा के फोकस में शहरी मध्यवर्गीय परिवार है, उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में निम्नवर्गीय, शहर से दूर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के सवालों पर भी फिल्मकारों की नजर जाएगी.


(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

मानसिक स्वास्थ्य बरास्ते सिनेमा

 मनोरंजन का आयाम सिनेमा के साथ ऐसा जुड़ा कि दृश्य-श्रव्य शैक्षणिक माध्मय के रूप में इसके इस्तेमाल की पहल दुनिया में कम ही हुई. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान मनोचिकित्सक, सिनेमा और थिएटर के नामचीन अदाकार डॉक्टर मोहन आगाशे मानसिक स्वास्थ्य के हवाले से सिनेमा की अहमियत को रेखांकित कर रहे थे. कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर के मनोचिकित्सक बुर्जगों और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की देख-रेख पर खास कर जोर दे रहे हैं. आज ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ पर इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि हमारा सिनेमा इस मुद्दे को लेकर कितना संवेदनशील रहा है. किस तरह से सिनेमा में इस समस्या का निरुपण हुआ है और वे अपनी बात दर्शकों तक पहुँचाने में कितने सफल रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि सिनेमा या बॉलीवुड में मानसिक स्वास्थ्य के सवाल पर चुप्पी है. पिछले सदी में ‘खिलौना’, ‘सदमा’, ‘दिलवाले’ कुछ ऐसी फिल्में थी जिसमें मानसिक बीमारी से पीड़ितों को केंद्र में रखा गया है. हाल के दशकों में ‘तारे जमीन पर’, ‘डियर जिंदगी’ आदि फिल्मों में इस बीमारी से इलाज की तरफ भी इशारा किया गया है. पर बॉलीवुड फिल्मों की अपनी सीमा है. मानसिक स्वास्थ्य जैसे मुद्दों की पड़ताल करते हुए इन फिल्मों में कैशोर्य भावुकता का अनायास समावेश हो जाता है.
यहां पर खास तौर से मराठी के फिल्मकार सुमित्रा भावे (1943-2021) का जिक्र जरूरी है जिन्होंने पिछले दशक में सुनील सुकथनकर के साथ मानसिक स्वास्थ्य को केंद्र में रख बेहतरीन फिल्में निर्देशित की. दुर्भाग्यवश इस वर्ष अप्रैल में उनका निधन हो गया. बात ‘देवराई (2004)’ फिल्म की हो जिसके केंद्र में सिजोफ्रेनिया है, ‘अस्तु (2016)’ की हो जिसके केंद्र मे डिमेंशिया/अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है या ‘कासव (2017)’ की जिसके केंद्र में डिप्रेशन (अवसाद) की समस्या है. इन तीनों फिल्मों में संवेदनशीलता के साथ मानसिक स्वास्थ्य, बीमार व्यक्ति की देख-रेख और देखभाल करने वालों को होने वाली परेशानियों का निरूपण है.

‘अस्तु’ फिल्म एक ऐसे पिता के इर्द-गिर्द है जो सारी जिंदगी परिवार के केंद्र में रहने के बाद बुढापे में हाशिए पर है. एक दिन वह अपनी बेटी के साथ बाजार जाता है और एक हाथी को देख कर सवारी करने की उसमें बच्चों सी उत्कंठा जग जाती है. वह हाथी वाले के साथ चला जाता है और बेटी से बिछुड़ जाता है. उसे न अपना भूत याद है न ही वर्तमान. मोहन आगाशे ने खूबसूरती से अल्जाइमर से पीड़ित बुर्जुग की भूमिका निभाई है, जो मर्म को छूती है. उसकी स्थिति एक बच्चे की तरह है. वह समझ ही नहीं पता कि उसके साथ क्या हो रहा है. बेटी जिसे उसने जन्म दिया है अब उसके लिए माँ की तरह है!
आगाशे कहते हैं कि सुमित्रा भावे दुनिया की एक मात्र ऐसी निर्देशक थी जिन्होंने एचआईवी-एड्स से लेकर अवसाद जैसे मुद्दों पर फिल्में निर्देशित की. समाज में आज भी मानसिक बीमारियों को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता और बीमार व्यक्ति के ऊपर लांछन लगाया जाता है. उल्लेखनीय है कि इन फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया. वे कहते हैं कि एक मनोचिकित्सक के रूप में मैं इन फिल्मों का इस्तेमाल शिक्षण-प्रशिक्षण में करता हूँ.

(प्रभात खबर, 10 अक्टूबर 2021)