Thursday, September 26, 2019

एक एक्टिविस्ट के संस्मरण



हाल ही में अनुज्ञा बुक्सदिल्ली से हिंदी के आलोचक वीर भारत तलवार की किताब प्रकाशित हुई है- झारखंड में मेरे समकालीन. जैसा कि किताब के नाम से स्पष्ट है तलवार ने इस किताब में झारखंड के उन बुद्धजीवियोंराजनीतिककर्मियों के बारे में लिखा है जिनके साथ उन्होंने काम किया थाजो उनके संघर्ष में साथी थे.

अकादमिक दुनिया में आने से पहले तलवार खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे.  70 के दशक के में वे झारखंड आंदोलन में शरीक थे. वर्ष 1978 में उनके नेतृत्व में हुआ झारखंड क्षेत्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन का ऐतिहासिक महत्व है. साथ ही उनका लिखा पैंफलेट- झारखंड: क्याक्यों और कैसे?’ एक तरह के अलग झारखंड राज्य आंदोलन के लिए घोषणा पत्र साबित हुआ. वर्ष 1981 में तलवार शोध करने जेएनयूदिल्ली आ गए पर जैसा कि उन्होंने अपनी चर्चित किताब झारखंड के आदिवासियों के बीच: एक एक्टीविस्ट के नोट्स’ (ज्ञानपीठ प्रकाशन2008) में लिखा है-लेकिन झारखंड को इतनी दूर छोड़ आने पर भी झारखंड मुझसे छूटा नहीं. हाथ छूटे तो भी रिश्ते नहीं छोड़े जाते!’ तलवार ने अपनी इस किताब में उन्हीं रिश्तों को याद किया है.

सहज भाषाआलोचनात्मक दृष्टि और संवेदनशीलता इस किताब को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है.  इस संस्मरण किताब में निर्मल मिंजदिनेश्वर प्रसादनागपुरी भाषा के कवि और झारखंड आंदोलन के नेता वी.पी. केशरीलेखक और प्रशासक कुमार सुरेश सिंह और बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रोफेसर डाक्टर रामदयाल मुंडा का व्यक्तित्व और कृतित्व शामिल हैं.  लेकिन यह किताब केवल व्यक्ति-विशेष के साथ बिताए पलों का लेखा-जोखा नहीं है बल्कि यादों के झरोखों से झारखंड के अतीत, वर्तमान और भविष्य की चिंताओं को भी रेखांकित करता है. जैसा कि निर्मल मिंज के ऊपर लिखे अपने लेख में तलवार ने लिखा है- झारखंड आंदोलन सिर्फ अलग राज्य का एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था. यह झारखंड प्रदेश के नव-निर्माण का आंदोलन भी था. यह झारखंडी जनता के मूल्यों और मान्यताओं के आधार पर एक नयी झारखंडी संस्कृति की रचना करने का आंदोलन भी था. यह झारखंडी भाषाओं को उनका अधिकार दिलाने और उनमें साहित्य रचना करने का आंदोलन भी था.’ इस सांस्कृतिक आंदोलन में डॉक्टर मिंज तलवार के सहयोगी बने. इस लेख में मिंज एक मानवतावादीउच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी के रूप में हमारे समाने आते हैं. 

इसी तरह प्रोफेसर दिनेश्वर प्रसाद को तलवार बेहद आत्मीय ढंग से याद करते हैं. राँची विश्वविद्यालय में उनके निर्देशन में तलवार ने पीएचडी में दाखिला लिया पर आंदोलनकारी व्यस्तताओं के चलते उसे पूरा नहीं कर पाए. हालांकि तलवार के साथ उनके अकादमिक संबंध जीवनपर्यंत रहे. उनकी किताब लोक साहित्य और संस्कृति की चर्चा करते हुए तलवार ने नोट किया है- मिथकों और लोक कथाओं में कल्पना की बहुत अजीबो-गरीब और ऊँची उड़ान होती है. कल्पना की इन अजीबो-गरीब संरचनाओं को समझना और उसका विश्लेषण करना दिनेश्वर जी का सबसे प्रिय विषय था.’ इस लेख के माध्यम से तलवार के व्यक्तित्व पर भी रोशनी पड़ती है. उनमें आत्मालोचन का भाव दिखता है.

इस किताब में शामिल कुमार सुरेश सिंह के ऊपर लिखा लेख बेहद महत्वपूर्ण है. 43 खंडो में प्रकाशित पीपुल ऑफ इंडिया’ प्रोजेक्ट उन्हीं की देख-रेख में संपन्न हुआ था. डॉक्टर सिंह एक कुशल प्रशासक होने के साथ साथ लेखक भी थे. बिरसा मुंडा और उनके आंदोलन पर लिखी उनकी चर्चित किताब द डस्ट स्टार्म एंड द हैंगिग मिस्ट’ को आधार बना कर ही महाश्वेता देवी ने अरण्येर ओधिकार (जंगल के दावेदार) लिखा था. तलवार ने डॉ. सिंह के साथ एक बातचीत के हवाले से लिखा है- उसे पढ़ कर लगता है जैसे किसी ने बाहर-बाहर से देख-सुनकर लिख डाला हो.’  

रामदयाल मुंडा को अमेरिका से वापस राँची विश्वविद्यालय लाने में वही सूत्रधार थे. जब उन्होंने आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं का विभाग खुलवाया तो मुंडा को निदेशक के रूप में नियुक्त किया. सिंह मुंडा को विद्यार्थी जीवन से जानते थे जब वे खूंटी में अनुमंडलाधिकारी थे और उन्होंने समारोह में उन्हें एक कविता सुनाई थी. यह कविता एक नहर पर थीजिसका उद्धाटन खुद सिंह ने किया था - मेरे राजा/कैसी है तुम्हारी यह नहर/पानी कम/और लंबाई हिसाब से बाहर/पटता है केवल एक छोर/ और बाकी/रह जाता ऊसर. तलवार ने लिखा है- डॉ. सिंह इस व्यंग्य पर तिलमिलाने के बजाए उस विद्यार्थी की प्रतिभा और साहस पर मुग्ध थे. और इस किताब में सबसे रोचक और प्रभावी लेख रामदयाल मुंडा के ऊपर  क़रीब 100 पेज का संस्मरण हैजिसमें उनके जीवन और रचनाकर्म का मूल्यांकन भी शामिल है. साथ ही तलवार इस लेख में  झारखंडी भाषासाहित्य और संस्कृति की समीक्षा भी करते चलते हैं. उन्होंने मुंडा को झारखंडी बुद्धिजीवियों का सिरमौर कहा है.  इस लेख में तलवार चर्चित फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो के निर्देशन में मुंडा के ऊपर बनी एक डॉक्यूमेंट्री नाची से बाची’ को खास तौर पर रेखांकित करते हैं.

तलवार ने मुंडा के साथ अपने संबंधों का काफी विस्तार से किताब में जिक्र किया है. वे मुंडा की पहली पत्नीअमेरिकी नागरिकप्रोफेसर हैजेल लुट्ज़ के साथ अपनी मुलाकात का भी उल्लेख करते हैं, जिनसे मुंडा का तलाक हो गया था. किताब से एक अन्य प्रसंग का जिक्र यहां हम करते हैं:
1983 में मैं मानुषी की संपादक मधु किश्वर के साथ झारखंड आया तो दोपहर बाद मैं और मधु उनसे मिलने मोरहाबादी आए. मधु जनजातीय भाषा विभाग के बाहर सीढ़ियों पर बैठी रही और मैं पास में ही रामदयाल के घर से उन्हें बुला लाया. रामदयालजो शायद दोपहर का भोजन करके आराम कर रहे होंगेवैसे ही सिर्फ धोती पहने नंग-धडंग बदन में जैसे गाँव में आदिवासी रहते हैं-अपने विभाग में आ गए.....उस दिन किसी बात पर मैं मधु किश्वर से नाराज था और उन दोनों की बातचीत से दूर बैठा रहा. उसी मुद्रा में मेरी एक फोटो मधु ने खींच दी जिसमें खाली बदन बैठे रामदयाल भी दिख रहे हैं. वह रामदयाल के साथ एक मात्र फोटो है अन्यथा उन दिनों किसी के साथ फोटो खिंचाने का कभी ख्याल ही नहीं आता था.’ 
लेखक: वीर भारत तलवार

इस लेख में मुंडा का चरित्र उभर से सामने आता है, पर ऐसा नहीं है कि तलवार मुंडा के व्यक्तित्व से मुग्ध या आक्रांत हैं. जहाँ वैचारिक रूप से विचलन दिखता है उसे वे नोट करना नहीं भूलते. आदिवासियों की अस्मिता के सवाल को उठाते हुए तलवार लिखते हैं- यह अजीब बात है कि मुंडाओं के पूर्वजों को हिंदू ऋषियों-मुनियों से जोड़ने के लिए एक ओर वे सागू मुंडा की आलोचना कर रहे थेदूसरी ओर खुद अपने लेख में यही काम कर रहे थे.’ मुंडा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी और संस्कृतकर्मी थे, जिनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. पर जैसा कि तलवार ने लिखा है उनका विकास एक जननेता के रूप में कभी नहीं हुआ. मुंडा आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य बने थे. तलवार क्षोभ के साथ लिखते हैं- राजनीतिक सत्ता हासिल करने के मोह में रामदयाल ने अपने जीवन की जितनी शक्ति और समय को खर्च कियाअगर वही शक्ति और समय उन्होंने अपने साहित्य लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र के कामों में लगाया होता-जिसमें वे बेजोड़ थे और सबसे ज्यादा योग्य थे-तो आज उनकी उपलब्धियाँ कुछ और ही होती.’ साथ ही इसी प्रसंग में तलवार समाज में एक बुद्धिजीवी की क्या भूमिका होनी चाहिए इसे भी नोट करते हैं.

एक बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिरोध की भूमिका में रहता है और उसकी पक्षधरता हाशिए पर रहने वाले उत्पीड़ित-शोषित जनता के प्रति रहती है. राजनीतिक सत्ता एक बुद्धिजीवी को बोझ ही समझती है और इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. वे राम दयाल मुंडा की भाषाई संवेदना और समझ को उनके समकालनी अफ्रीकी साहित्य के चर्चित नाम न्गुगी वा थ्योंगो के बरक्स रख कर परखते हैं और पाते हैं कि जहाँ न्गुगी अंग्रेजी को छोड़ कर अपनी आदिवासी भाषा की ओर मुड़ गए थेवहीं मुंडा मुंडारी भाषा में लिखना शुरु किया, ‘धीरे धीरे अपनी भाषा छोड़कर हिंदी की ओर मुड़ते गए.’  यह बात वृहद परिप्रेक्ष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों पर भी लागू होती है जो प्रसिद्धि और पहुँच के लिए अंग्रेजी पर अपनी नजरें टिकाए रहते हैं.

तलवार इस किताब में आदिवासी भाषा और लिपि का विमर्श भी रचते हैं. साथ ही पूरी किताब में आदिवासी साहित्यसमाज पर गहन टिप्पणी भी करते चलते हैं, जो शोधार्थियोंअध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण रेफरेंस बनकर सामने आता है. इस किताब को तलवार की एक अन्य किताब-झारखंड आंदोलन के दस्तावेज (नवारुण प्रकाशन2017) के साथ रख कर पढ़नी चाहिए.

(दी लल्लनटॉप वेबसाइट पर प्रकाशित)


Sunday, September 22, 2019

विश्व सिनेमा में भारतीय फिल्में


ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘द गार्डियन’ के लिए फिल्म समीक्षकों ने इस सदी की विश्व की बेहतरीन सौ फिल्मों की एक सूची बनायी है, जिसमें भारत से ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को भी जगह मिली है. अनुराग कश्यप निर्देशित दो भागों में बनी इस फिल्म को दर्शकों और भारतीय सिनेमा के अध्येताओं, समीक्षकों ने भी खूब सराहा था. द गार्डियन ने इसे चर्चित गैंगस्टर फिल्म ‘द गॉडफादर’ के टक्कर का भारतीय सिनेमा कहा है.

पिछले दो दशकों में बॉलीवुड का जोर नाच-गानों, पॉपुलर फॉर्मूला से इतर एक सार्थक सिनेमा गढ़ने पर है. इसी दौर में निर्माता-निर्देशकों का एक ऐसा वर्ग उभरा है, जिनका उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक रूप से ऐसे विविध विषयों को परदे पर परोसना रहा, जो दर्शकों को उद्वेलित करे. इन फिल्मों में ‘मेलोड्रामा’ का पुट तो है, लेकिन समकालीन भारतीय समाज का यथार्थ भी साथ लिपटा हुआ परदे पर आता है. हिंदी सिनेमा में मनोरंजन के साथ यथार्थ का पुट हमेशा से ही दर्शकों और समीक्षकों को पसंद आता रहा है. पचास के दशक में बनी दो बीघा जमीन, जागते रहो, मदर इंडिया, प्यासा ऐसी ही फिल्में थीं.

इन दिनों निर्माता-निर्देशकों की एक प्रमुख प्रवृत्ति भूमंडलीकरण के इस दौर में फिल्मों में स्थानीयता का आग्रह है. स्थानीय जमीन पर विकसित होकर ही ये भारतीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंच रही है. राजकुमार हिरानी, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, हंसल मेहता आदि ऐसे ही फिल्मकार हैं. फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में भी धनबाद के इर्द-गिर्द कोयला माफियाओं का जीवन है.

कोई भी सूची अंतिम नहीं होती. और जाहिर है, इस बात पर हमेशा बहस की गुजांइश रहती है कि कोई फिल्म छूट गयी और कौन सी जगह पायी. ऐसा नहीं है कि इन दो दशकों में हिंदी फिल्मों को ‘मिलेनियल पब्लिक’ ने नहीं सराहा है या समीक्षकों ने चर्चा नहीं की. राजकुमार हिरानी की ‘थ्री इडिएट्स’, ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’, विशाल भारद्वाज की ‘मकबूल’, ‘ओंकारा’, अनुराग कश्यप की ‘देव डी’, ‘ब्लैक फ्राइडे’, दिबाकर बनर्जी की ‘खोसला का घोंसला, ‘ओए लकी, लकी ओए’, हंसल मेहता की ‘शाहिद’, ‘अलीगढ़’ आदि ऐसी ही कुछ फिल्में हैं, जिन्होंने पिछले दो दशक में हिंदी सिनेमा को नया आयाम दिया है.

किसी भी उत्कृष्ट कला की तरह सिनेमा की पहचान भी समय के निकष पर ही होती है. सत्यजीत रे की फिल्मों की समीक्षा, आलोचना आज भी होती है. प्रसंगवश रे ने वर्ष 1948 में ‘भारतीय फिल्मों के साथ समस्या क्या है?’ लेख में लिखा था- ‘सिनेमा का उपजीव्य खुद जीवन ही है. यह अविश्वसनीय है कि जिस देश ने पेंटिंग, संगीत और कविता को इतना ज्यादा प्रेरित किया, वह सिनेमा बनानेवालों को उद्वेलित ना करे.’ इसे कुछ इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि आजादी के 70 साल बाद भी क्या कारण है कि आर्थिक और तकनीक रूप से सक्षम भारतीय सिनेमा विश्व सिनेमा की ऊंचाई छूने में असफल है? जबकि, तथ्य यह है कि भारत में प्रति वर्ष सबसे ज्यादा फीचर फिल्मों का निर्माण होता है.

सवाल यह भी है कि पिछले दो दशकों में महज एक फिल्म ही क्यों इस लिस्ट में 59वें स्थान पर जगह बना पायी? सच तो यह है कि अनुराग कश्यप ने सिनेमा निर्माण की जिस ऊंचाई को इस फिल्म में पाया है, उसे फिर से वे दोहरा नहीं सके हैं. इस बात को खुद उन्होंने स्वीकारा भी है. विश्व स्तर पर भारतीय सिनेमा की जहां उत्कृष्ट कला के रूप में चर्चा होती है वहां सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन की फिल्मों और समांतर सिनेमा के दौर में बनी मणि कौल, कुमार साहनी, श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन की फिल्में ही होती हैं. बाकी बॉलीवुड की फैक्ट्री से निकली फिल्में फुटनोट में भी शामिल नहीं होतीं. ऐसा क्यों है? इस सवाल का जवाब बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक ही दे सकते हैं, यदि वे अपनी कला के प्रति ईमानदार हैं.

(प्रभात खबर, 22 सितंबर 2019)

Thursday, September 12, 2019

तथ्य और सत्य के बीच फेक न्यूज


समकालीन मीडिया के लिए 21वीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में संभावनाओं और चुनौतियों से भरा रहा है. मेनस्ट्रीम मीडिया के बरक्स इंटरनेट जनित नया मीडिया (डिजिटल मीडिया) ने पब्लिक स्फीयर में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और एक नए लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है. पर इस दशक के जाते-जाते फेक न्यूज का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ जिसकी चपेट में नया मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ गया. वर्तमान में वैश्विक से लेकर स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक समाज के लिए फेक न्यूज की पहचान और इससे निपटने की चुनौती मीडिया और नागरिक समाज में होने वाले विमर्श का एक महत्वपूर्ण विषय है. पर सवाल है कि फेक न्यूज क्या है? भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए और वर्ष 2019 में होने वाले सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए यह किस रूप में चुनौती बन कर उपस्थित है? क्या इसकी जड़ में सामाजिक-राजनीतिक कारण हैं या महज संचार की नई तकनीक से उपजी हुई समस्या है? और आखिर में, इस समस्या का समाधान किन रास्तों से होकर गुजरता है?
फेक न्यूज और प्रोपेगैंडा
फेक न्यूज का इतिहास प्रिंटिंग के इतिहास जितना ही पुराना है. पहली बार 16वीं सदी में इस परिघटना से हमारा सामना होता है. पहले पैंफलेट या न्यूजबुक की प्रतियों की बिक्री बढ़ाने के लिए कपोल कल्पित खबरों का इस्तेमाल होता था, फिर बाद में अखबारों में भी बिक्री को बढ़ाने के लिए मनगढंत खबरों का इस्तेमाल किया जाने लगा. हालांकि जैसे-जैसे 19वीं सदी में वैज्ञानिकता, वस्तुनिष्ठता और निष्क्षपता पर जोर बढ़ा अखबार अपनी प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित होने लगे और साथ ही अपने पाठकों के प्रति भी उत्तरदायी होने लगे.[i] पर पिछले कुछ वर्षों में, खास कर वर्ष 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद, पूरी दुनिया के मीडियाकर्मियों, अध्येताओं, समाज वैज्ञानिकों के बीच फेक न्यूज को लेकर एक बहस छिड़ गई है.
जाहिर है खबर की शक्ल में मनगढंत बातें, दुष्प्रचार,  अफवाह आदि समाज में पहले भी फैलते रहते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैंबारीक फर्क है. ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता ना हो फेक न्यूज कहलाता है. इस तरह की खबरों की मंशा सूचना, शिक्षा या मनोरंजन करना नहीं होता है बल्कि समाज में वैमनस्य फैलाना, लोगों को भड़काना होता है. लोगों के व्यावसायिक हित के साथ-साथ राजनीतिक हित भी इससे जुड़े होते हैं.
पिछले दिनों ब्रटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन (बीबीसी) ने फेक न्यूज के खिलाफ वैश्विक स्तर पर एक मुहिम शुरु किया. भारत में इसी के तहत लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि जो लोग फेक न्यूज़ को बढ़ावा दे रहे हैंवो देशद्रोही हैं.’ साथ ही उन्होंने कहा कि ये प्रोपेगैंडा है और कुछ लोग इसे बड़े पैमाने पर कर रहे हैं.[ii]
फेक न्यूज भूमंडलीकरण के दौर में, मूलत: संचार क्रांति के साथ समाज में जो नई तकनीकी आई है उससे उभरी समस्या है. कंप्यूटरस्मार्ट फोनइंटरनेट (टूजीथ्री जीफोर जी) और सस्ते डाटा पैक की दूर-दराज इलाकों तक पहुँच ने मीडिया के बाजार में खबरों के परोसने, उसके उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया को खासा प्रभावित किया है. अब कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति चाहे तो संदेश का उत्पादन और प्रसारण कर सकता हैइसे एक खबर की शक्ल दे सकता है. मेनस्ट्रीम मीडिया (अखबार, टेलीविजन समाचार चैनल, ऑन लाइन वेबसाइट आदि) पर जैसे-जैसे बाजार का दबाव बढ़ा और मनोरंजन का तत्व हावी हुआ है, खबरों की परिभाषा भी बदल गई. मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य मुनाफा कमाना, पाठकों की संख्या में बढ़ोतरी, टीआरपी बटोरना, ऑन लाइन ट्रैफिक बढ़ाना हो गया. मेनस्ट्रीम मीडिया के ऊपर विश्वसनीयता का संकट और  फेक न्यूज का जाल एक साथ फैलता गया. कई बार फेक न्यूज की चपेट में मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ जाता है. कारण, टेलीविजन न्यूज चैनलों और अखबारों का एजेंडा सेट करने में सोशल मीडिया की एक बड़ी भूमिका उभर कर आई जो एक अलग शोध का विषय है.
पर क्या फेक न्यूज को हम महज तकनीक जनित समस्या के रूप में देखें या इसकी जड़ में सामाजिक, राजनीतिक प्रवृतियाँ हैं? सामाजिक विकास के साथ-साथ मीडिया के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है. किसी भी देश-काल में समाज में जो प्रवृतियाँ मौजूद रहती हैं मीडिया उससे अछूती नहीं रहती. साथ ही कोई भी तकनीक उसके इस्तेमाल करनेवालों पर आश्रित होती है. आधुनिक समय में फेक न्यूज की जड़ में असंवेदनशीलता, असुरक्षा, असहिष्णुता, समाज में व्याप्त भेद-भाव और राजनीतिक महत्वाकांक्षा है जो कई बार ट्रोल (troll)’ और बोट (bot)’ के रूप में सामने आती है.[iii] वर्तमान में पूरी दुनिया में- अमेरिका, ब्राजील से लेकर भारत तक- राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है. बात राष्ट्रवादियों की हो या सामाजवादियों की, उनके पास एक पूरी टीम है जो फेक न्यूज के उत्पादन, प्रसारण में रात-दिन जुटी रहती है. वर्ष 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के समय और वर्ष 2018 में ब्राजील में हुए चुनावों के समय व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के जरिए फेक न्यूज का कारोबार काफी फला-फूला. सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से देकर चुनाव आयोग तक के लिए फेक न्यूज एक बड़ी चुनौती है. पर क्या राजनीतिक पार्टियों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे इस चुनौती से निपटेंगे?
फेक न्यूज के पीछे जो तंत्र काम करता है उसकी पड़ताल करते हुए  बीबीसी के शोध में पता चला है कि लोग 'राष्ट्र निर्माण की भावना से राष्ट्रवादी संदेशों वाले फेक न्यूज़ को साझा कर रहे हैं और राष्ट्रीय पहचान का प्रभाव खबरों से जुड़े तथ्यों की जांच की जरूरत पर भारी पड़ रहा है. हालांकि बीबीसी की इस शोध प्रविधि (मेथडोलॉजी) पर सवाल खड़ा किया जा रहा है. राष्ट्रवादी विचारधारा वाले,  बीबीसी के इस शोध को केंद्र में वर्तमान भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ एक प्रोपेगैंडा कह रहे हैं.  बीबीसी ने भारत में महज 40 लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर लोगों के सोशल मीडिया के बिहेवियर को विश्लेषित किया है. बीबीसी का यह निष्कर्ष आधा-अधूरा ही माना जाएगा.  हालांकि जिस तरह के वातावरण में आज पत्रकारिता की जा रही है उसमें खबरों के उत्पादन में भावनाओं की भूमिका अलग से रेखांकित किए जाने की जरूरत है. गौरतलब है कि भारत की आजादी के दौरान जब राष्ट्रवाद का उभार हो रहा था तब आधुनिक संचार के साधनों के अभाव मेंमौखिक संचार के माध्यम से फैलने वाली अफवाहों से साम्राज्यवादियों के खिलाफ मुहिम में राष्ट्रवादियों को फायदा भी पहुँचता था. वर्ष 1857 में हुए भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अफवाह लोगों को एकजुट कर रहे थे, इतिहासकार रंजीत गुहा (2009:31-48) ने इस बात को रेखांकित किया है.[iv] शाहिद अमीन (2006: 43-45) ने भी चौरी-चौरा के प्रंसग में लिखा है कि मौखिक खबरों के माध्यम से अफवाह (गोगा) तेजी से फैल रहे थे.[v]
दूसरी तरफ साम्राज्यवादी ताकतें भी प्रोपेगैंडा से बाज नहीं आ रही थी. याद कीजिए कि बीबीसी में काम करते हुए लेखक-पत्रकार जार्ज ऑरवेल ने क्या लिखा था. उन्होंने बीबीसी के प्रोपेगैंडा से आहत होकर अपने इस्तीफा पत्र में लिखा था- मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपेगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा, जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके.[vi]  साथ हीनहीं भूलना चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर कियाप्रोपगैंडा में भाग लिया, उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है.
पत्रकारिता के क्षेत्र में बीबीसी की साख वर्षों से रही है. वह खबरों को विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ ढंग से परोसने के लिए वह जानी जाती है. पर सवाल है कि फेक न्यूज क्या महज प्रोपेगेंडा हैयदि हम प्रोपेगेंडा को फेक न्यूज मानें तो इसकी जद में बीबीसी जैसे संगठन भी आ जाएँगे. पत्रकारिता जैसे पेशे में जहाँ डेडलाइन का दबाव पत्रकारों पर हमेशा रहता है, वहाँ मानवीय भूल की गुंजाइश भी हमेशा रहती है. पर जल्दीबाजी में या भूलवश तथ्यों के सत्यापन में की गई गलती को हम फेक न्यूज नहीं मान सकते हैं.
दस वर्ष पहले, वर्ष 2009 में लोगों के बीच आपसी संवाद के लिए व्हाट्सएप जैसे मैंसेजिंग प्लेटफार्म का इस्तेमाल शुरु किया गया और देखते ही देखेते फोन के माध्यम से संवादों के संप्रेषण की इस प्रविधि ने एसएमएसके इस्तेमाल को काफी पीछे छोड़ दिया. लेकिन हाल के वर्षों में भारत में व्हाट्सएप जैसे मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर कई बार झूठी खबरों (ऑडियो, वीडियो और फोटोशॉप का इस्तेमाल कर) को इस तरह परोसा और प्रसारित किया गया कि कई जगहों पर हिंसा भड़की उठी और मॉब लिंचिंग में जानें गईं. इस सबके मद्देनजर व्हाट्सएप ने एक साथ मैसेज को कई समूहों में फारवर्ड करने की सीमा तय कर दी है. साथ ही यदि कोई संवाद अग्रसारित (फॉरवर्ड) होकर किसी के पास पहुँचता है तो संवाद पाने वालों को इस बात की जानकारी मिल जाती है. इससे संवादों, खबरों के उत्पादन के स्रोत के बारे में अंदाजा मिल जाता है. हालांकि फेक न्यूज को रोकने में ये पहल नाकाफी साबित हुए हैं. पिछले दिनों देश की संसदीय समिति ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कर्ताधर्ताओं को जवाबतलब किया ताकि आने वाले चुनाव में इन प्लेटफॉर्म के माध्यम से फैलने वाली अफवाहों और फेक न्यूज पर रोक लगे और नागरिकों के हितों और अधिकारों की रक्षा की जा सके.
चुनावी रणनीति में सोशल मीडिया की भूमिका
केपीएमजी और गूगल के मुताबिक वर्ष 2011 में भारतीय भाषाओं में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 4 करोड़ 20 लाख थी जो वर्ष 2016 में बढ़ कर 23 करोड़ 40 लाख हो गई, वर्ष 2021 में यह संख्या बढ़ कर 53 करोड़ 60 लाख हो जाएगी. साथ ही वर्तमान में करीब 96 प्रतिशत लोग इंटरनेट का इस्तेमाल मोबाइल के माध्यम से करते हैं. किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों और कार्यकर्ताओं के लिए जहाँ मास मीडिया संवाद पहुँचाने का एक माध्यम हुआ करता था, पिछले कुछ वर्षों में यह एक-दूसरे से संवाद करने के साथ-साथ चुनावी रणनीति का एक हथियार भी बन कर उभरा है. चुनावों के दौरान हर बड़ी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के अपने वार रूमहोते हैं, जहाँ से मीडिया पर निगाह रखी जाती है और इन्हें प्रभावित करने की कोशिश होती है ताकि इनके राजनीतिक एजेंडे को लागू किया जा सके.

एक आंकड़ा के मुताबिक भारत में करीब 90 करोड़ वोटर हैं जिसमें से करीब 50 करोड़ के पास इंटरनेट की सुविधा है. करीब 30 करोड़ फेसबुक यूजर्स हैं जबकि 20 करोड़ व्हाट्सएप मैसेज सेवा का इस्तेमाल करते हैं. आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान हर राजनीतिक पार्टियाँ सोशल मीडिया के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठना चाहेगी. यहाँ व्हाट्सएप के साथ-साथ शेयर चैट जैसे मैसेजिंग के देसी अवतारों पर भी सब दलों की नजर है, पर यह समकालीन मीडिया-विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया है और ज्यादातर लोगों की नजर से ओझल ही है. छोटे शहरों-कस्बों में शेयर चैट जैसे प्लेटफॉर्म, जो भारतीय भाषाओं में मुफ्त में उपलब्ध हैं, काफी लोकप्रिय हैं. फिलहाल राजनीतिक पार्टियाँ इन देसी मैसेजिंग प्लेटफॉर्म का प्रोपेगैंडा के लिए खूब इस्तेमाल कर रही हैं.

असल में जैसा कि पामेला फिलिपोसे (2019: 152) ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब में लिखा है:  वर्ष 2013 और वर्ष 2015 में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान हमने पहली बार मीडिया जनित राजनीतिक गोलबंदी को अपने उच्चतम शिखर पर देखा और इन्हीं चुनावों में पहली बार देश में राजनीतिक संचार के लिए सोशल मीडिया के समुचित इस्तेमाल की परख एक टूल के रूप में हुई.[vii] अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नये मीडिया के इस्तेमाल में आगे रही पर जल्दी ही कांग्रेस, समाजवादी पार्टी आदि भी सोशल मीडिया के इस्तेमाल की पहल में तेजी से आगे बढ़ी. वर्ष 2019 के फरवरी महीने में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने भी टविटर जैसे माध्यम को अपनाया. गौरतलब है कि मेनस्ट्रीम मीडिया पर मनुवादी होने का आरोप लगाने के साथ ही उनका कहना था कि जिस तरह की राजनीति वे करती हैं उसमें सोशल मीडिया जैसे माध्यम की उन्हें जरूरत नहीं है. स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज करना अब किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है.

वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी दलों की सरकार बनने के बाद सरकार के मंत्री, राजनेता अखबारों और समाचार चैनलों से ज्यादा, नये मीडिया पर सक्रिय रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सभी मंत्रियों और सांसदों की सक्रियता सोशल मीडिया पर ज्यादा दिखी. टिवटर पर नरेंद्र मोदी के 44.7 मिलियन और फेसबुक पर 43.2 मिलियन फॉलोअर हैं. 2014 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी टिवटर पर आए और तेजी से उनके फॉलोअरों की संख्या बढ़ी. वर्तमान में वे सत्ताधारी नेताओं की तरह ही सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. जहाँ फेसबुक और टविटर जैसे माध्यमों का इस्तेमाल राजेनता अपने कार्यकर्ताओं तक संदेश पहुँचाने के लिए कर रहे हैं, वहीं इसका इस्तेमाल आम जनता तक अपनी बातें पहुँचाने के लिए भी कर रहे हैं. यह प्रोपेगैंडा और फेक न्यूज फैलाने का जरिया भी साबित होता है और जाने-अजाने पक्ष और विपक्ष के नेता, सरकार में शामिल मंत्री इस कृत्य में शामिल हो जाते हैं.

निष्कर्ष
फेक न्यूज के कई आयाम है जिसमें खबरों के उत्पादन, प्रसारण, स्रोत, तथ्य प्रमुख हैं. सोशल मीडिया के दौर में सच्ची और फर्जी खबरों के बीच तथ्यों, स्रोतों की पहचान (फैक्ट चेकिंग), क्रास चेकिंग आदि आम नागरिकों के लिए मुश्किल है. फेक न्यूज की वजह से फेसबुकव्हाट्सएपस्नैप चैट, ट्विटर जैसे प्लेटफार्म की विश्वसनीयता पर भी संकट है. बड़ी पूंजी से संचालित नये मीडिया पर राष्ट्र-राज्य और नागरिक समाज की तरफ से काफी दबाव है. इन पर पक्षधरता और वस्तुनिष्ठ नहीं होने का आरोप भी लगा है. वर्तमान में हिंदी में ऑन लाइन न्यूज मीडिया के जो वेबसाइट हैंवहाँ क्लिकबेट (हेडिंग में भड़काऊ शब्दों का इस्तेमाल ताकि अधिकाधिक हिट मिले) और सोशल मीडिया पर खबरों के शेयर करने की योग्यता (शेयरेबलिटी) पर ज्यादा जोर रहता है. निस्संदेह डिजिटल मीडिया की वजह से बहस-मुबाहिसा का एक नया क्षेत्र उभरा है जिससे लोकतंत्र मजबूत हुआ हैपर कई बार यहाँ पर जो असत्यापित या अपुष्ट खबरें दी जाती है वह सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुँचती है और फेक न्यूज की शक्ल लेती है. हालांकि इसी बीच मेनस्ट्रीम अखबार और टीवी समाचार चैनलों के साथ-साथ ऑनलाइन के कई ऐसे वेबसाइट भी उभरे हैं जो फेक न्यूज के बारे में जागरुकता फैलाते हैं और इन फर्जी खबरों से आम जनता को अवगत करा रहे हैं. हाल ही में सोशल मीडिया के कर्ताधर्ता भी विभिन्न संगठनों के साथ मिल कर फेक न्यूज को फैलने से रोकने के लिए जरूरी कदम उठा रहे हैं, जिनमें तथ्यों की जाँच, सत्यापन पर काफी जोर है.
साथ ही, दुनिया भर की सरकारें सोशल मीडिया पर फेक न्यूज की बढ़त को रोकने के लिए कानून लाने पर विचार कर रही है. लेकिन मीडिया पर किसी तरह की कानूनी बंदिश लोकतांत्रिक समाज के लिए मुफीद नहीं है. लोकतांत्रिक समाज के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक जरूरी शर्त है. मास मीडिया तथ्यों के माध्यम से सत्य तक पहुँचने का एक जरिया रहा है. लेकिन पोस्ट-ट्रुथ के इस दौर में यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि फेक न्यूज से लड़ाई लंबी है और हाल-फिलहाल फेक न्यूज की समस्या का कोई सीधा हल नहीं दिखता है. इसी को ध्यान में रखते हुए ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने पिछले दिनों अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा कि फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है. फिर सवाल है कि रास्ता किधर है? रास्ता संचार की नई तकनीक और इन तकनीकी के मार्फत डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले समुदायों से होकर ही जाता है. लोगों में समझबूझ और जागरुकता फैलाने से लेकर, माध्यम के प्रति शिक्षित करने, तथ्यों को सत्यापित करने, क्रास चेकिंग आदि से फेक न्यूज की समस्या से लड़ा जा सकता है.

(संवाद पथ, जनवरी-मार्च 2019 में प्रकाशित)

संदर्भ

[i] देखें,द इकॉनामिस्ट 1843 मैग्जीन, https://www.1843magazine.com/technology/rewind/the-true-history-of-fake-news

[ii] देखें, बीबीसी हिंदी, 12 नवंबर 2018, https://www.bbc.com/hindi/india-46175929

[iii] भारत में इंटरनेट ट्रोल किस तरह काम करते हैं इसके बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें, स्वाति चतुर्वेदी (2016), आई एम ए ट्रोल, नयी दिल्ली: जगरनॉट. साथ ही देखें, रवीश कुमार (2018), द फ्री वॉयस, नयी दिल्ली: स्पीकिंग टाइगर.

[iv] रंजीत गुहा (2009), ट्रांसमिशन, अरविंद राजगोपाल (सं) द इंडियन पब्लिक स्फीयर में संग्रहित, नयी दिल्ली: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस.

[v] शाहिद अमीन (2006), इवेंट, मेटाफर, मेमोरी:चौरी चौरा 1922-1992, नयी दिल्ली: पेंग्विन बुक्स.

[vi] देखें, जार्ज आरवेल का इस्तीफा पत्र (1943), http://www.bbc.co.uk/archive/orwell/7430.shtml

[vii] पामेला फिलिपोसे (2019), मीडियाज शिफ्टिंग टेरेन, नयी दिल्ली: ओरियंट ब्लैकस्वान