Sunday, May 31, 2020

बेआवाज़ महफिल से गए गीतकार योगेश

हिंदी फिल्मों में  गीतों को एक अहम मुकाम हासिल है. पर क्या यही बात गीतकारों के बारे में कही जा सकती है? 70 के दशक के चर्चित गीतकार योगेश (1943-2020) भरी महफिल से चुपचाप उठ कर चले गए, बिना किसी आवाज के. सच तो यह है कि भले ही उनके गीत लोगों की जुबान पर रहेपर वे वर्षों पहले ही विस्मृति में धकेल दिए गए थे. उन्हें फिल्मी दुनिया में वह जगह हासिल नहीं हो सकीजिसके वे हकदार थे. 

'जिंदगी कैसे है पहेलीया 'कहीं दूर जब दिन ढल जाएजैसे गाने सुनते ही हमें सुपरहिट फिल्म 'आनंद' और सुपरस्टार राजेश खन्ना-अमिताभ बच्चन की याद आती है. जिंदगी के फलसफे को इन सीधे-सादे शब्दों में ढालने वाले योगेश ही थेजिनका पूरा नाम योगेश गौर था. सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में  तैयार हुए इन गीतों ने उन्हें संगीत प्रेमियों के बीच मकबूलियत दी थी. असल में गीतकार शैलेंद्र के गुजरने के बाद एक जो खालीपन था उसे योगेश के भावपूर्ण गीतों से  भरने की एक उम्मीद जगी थी. उनके गीतों में शैलेंद्र की तरह ही आस-पास के जीवन के अनुभव व्यक्त हुए.  इसी दौर में निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की फिल्में  शहरी मध्यवर्गीय जिंदगी के इर्द-गिर्द बुनी गई, जिसे योगेश के गीतों का भरपूर सहयोग मिला था. बात मिली फिल्म की हो रजनीगंधा की या छोटी सी बात की. योगेश के शब्दों ने उसमें जादू भर दिया था, जो सुनने वालों के दिलों को बेधता रहा. 'आए तुम याद मुझे' जैसे गाने में रोमांस और नॉस्टेलजिया एक साथ मिलता है. इसी तरह 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन मेंया 'कई बार यूँ ही देखा है जैसे गाने उस दौर के युवा प्रेमियों के जीवन दर्शनकश्मकश को बिना किसी बनावट के हमारे सामने लेकर आया. ये गाने वही लिख सकता है जिसने जीवन और उसकी पेचीदगियों को देखा और जिया हो. 

उल्लेखनीय है कि कि 'कई बार यूँ ही देखा हैगाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. लता मंगेशकर ने भी योगेश के लिखे कई गानों को स्वर दिया था. उन्होंने श्रद्धांजलि देते हुए याद किया कि 'योगश जी बहुत शांत और मधुर स्वभाव के इंसान थे.इसी स्वभाव के चलते 80 के दशक में जिस तरह की तड़क-भड़क हिंदी फिल्मों के गीत-संगीत के क्षेत्र में देखने को मिली वे खुद को अनफिट पाते रहे. हालांकि उस दौर में बॉलीवुड में जो गुटबाजी थी इसके भी वे शिकार हुए, पर उन्होंने कभी गिला-शिकवा व्यक्त नहीं किया. 

बाद के वर्षों में भी कुछ गाने उन्होंने लिखे थे लेकिन उसमें 70 के दशक के योगेश की छाप नहीं दिखी. वर्ष 2017 में हरीश व्यास की फिल्म 'अंग्रेजी में कहते हैंके भी कुछ गाने उन्होंने लिखे थेजो उनकी आखिरी फिल्म थी. उन्हें वर्ष 1962 में आई फिल्म सखी रॉबिन फिल्म के गाने- तुम जो आ जाओ तो प्यार आ जाएसे ब्रेक मिला थाजिसे मन्ना डे और सुमन कल्याणपुरे ने स्वर दिया.


पचपन साल के फिल्मी कैरियर में योगेश के लिखे गानों की फेहरिस्त भले ही उनके समकालीन गीतकारों जितनी लंबी नहीं होपर जो भी गीत उन्होंने लिखे वे धरोहर के रूप में हमारे पास हमेशा रहेंगे. जब भी सावन की फुहारें पडेंगी हम गुनगुना उठेंगे- रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन बिना यह महसूस किए कि इसे योगेश ने लिखा था


(प्रभात खबर, 31 मई 2020)

Sunday, May 17, 2020

सूरज सा चमकता सत्यजीत रे का सिनेमा

बांग्ला सिनेमा के चार प्रमुख स्तंभों सत्यजीत रे (1921-1992), मृणाल सेन, तपन सिन्हा और ऋत्विक घटक की फिल्मों की तुलना होती रही है. पर, निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि सत्यजीत रे पहले ऐसे फिल्म निर्देशक थे जिन्होंने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पटल पर स्थापित किया. वर्ष 1992 में विश्व सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनकी फिल्मों के बारे में अकीरा कुरोसावा ने कहा था- 'सत्यजीत रे की फिल्मों को जिसने नहीं देखा, मानो वह दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहा है'.
अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) के साथ उन्होंने विश्व सिनेमा को एक नया मुहावरा और शैली दी. इस फिल्म में यथार्थ में लिपटी एक काव्यात्मक मानवीय दृष्टि और गहन संवेदना को सबने सराहा था. सत्यजीत रे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिनकी अभिरूचि और गति पेंटिंग, संगीत, साहित्य आदि में थी. पाथेर पांचाली के साथ अपराजितो और अपूर संसार फिल्मों ने इसे बखूबी साबित किया. हालांकि पाथेर पांचाली जैसी सराहना और सफलता इन दो फिल्मों को नहीं मिली, लेकिन फिल्म समारोहों में इसे हाथों-हाथ लिया गया. आजादी के बाद करवट बदलते देश, परंपरा और आधुनिकता के बीच की कश्मकश इन फिल्मों में मिलती है. अपू त्रयी का पार्श्व संगीत महान सितार वादक रविशंकर ने दिया था.
समय के साथ सत्यजीत रे की फिल्मों के आस्वादन में बदलाव आता रहा है. समांतर सिनेमा के दौर में एफटीआईआई से निकले युवा निर्देशकों ने भी उनके फिल्म निर्माण और राजनीति की खूब आलोचना की थी. वे ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों से ज्यादा प्रभावित थे. हालांकि सत्यजीत रे ने भी उन्हें नहीं बख्शा था.
पचास-साठ साल के बाद आज भी ‘जलसाघर’ या ‘चारुलता’ जैसी फिल्में दर्शकों और सिने-समीक्षकों को एक साथ उद्वेलित करती है. उनकी अधिकांश फिल्में चर्चित साहित्यक कृति पर आधारित रही है, लेकिन जब हम इसे परदे पर देखते हैं तब एक नया दृश्य-श्रव्य अनुभव से भर उठते हैं. हिंदी में बनी उनकी दो फिल्मों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ का जिक्र प्रासांगिक है. दोनों ही प्रेमचंद की प्रसिद्ध रचना है पर रे के हाथों ये कहानी अलग अर्थ और व्यंजना लेकर परदे पर आई. साहित्य और सिनेमाई रिश्ते को लेकर बहस होती रही है, पर जैसा कि गालिब ने कहा है- क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब/आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की.
पिछले हफ्ते भारत सरकार के ‘फिलम्स डिवीजन’ ने सत्यजीत रे की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और उन पर बनी फिल्मों के ऑनलाइन प्रसारण कर विधिवत सत्यजीत रे जन्मशती वर्ष की शुरुआत की. रे ने फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल को एक इंटरव्यू में कहा था (सत्यजीत रे नाम से इस डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन बेनेगल ने किया था) कि उन्होंने विषयगत दुहराव अपने फिल्मी कैरियर में नहीं किया. ‘घरे बायरे (1983)’ फिल्म के सेट पर काम में निमग्न रे को दिखाती यह डॉक्यूमेट्री उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को दर्शकों के सामने लेकर आती है. साथ ही हम सत्यजीत राय की रचना प्रक्रिया और संघर्ष से भी रू-ब-रू होते हैं.
बच्चों के लिए उन्होंने पचास साल पहले ‘गोपी गाइन बाघा बाइन’ फिल्म निर्देशित किया था जो फैंटेसी और संगीत के लिए आज भी याद की जाती है. यह कहानी बच्चों की पत्रिका संदेश में छपी थी, जिसे उनके दादा ने लिखा था. वे इस पत्रिका के संपादक भी थे. बाद में सत्यजीत रे ने इसे पुर्नप्रकाशित और संपादित किया. वे सिनेमा के गंभीर अध्येता भी थे. सिनेमा पर लिखे उनके लेखों का संग्रह-‘अवर फिल्मस, देयर फिल्मस’ नाम से चर्चित है.

(प्रभात खबर, 17.05.2020)

Thursday, May 07, 2020

इंफोडेमिक से लड़ाई: कोरोना महामारी


कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम को लेकर दुनिया भर में युद्ध स्तर पर कोशिश की जा रही है. इस वायरस के वैक्सीन की खोज भी जारी है. हालांकि  'लॉकडाउनके  बीच समाज में सूचनाओं का जाल भी चारों ओर फैला हुआ है. सही सूचनाएँ जहाँ आम लोगों की दुश्चिंताएँ कम करती हैंवहीं इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाले दुष्प्रचार लोगों की परेशानियाँ बढ़ाने का कारण बनते हैं. इस महामारी से बचाव के लिए जहाँ विशेषज्ञों की टीम के माध्यम से सही सूचनाएँ लोगों तक पहुँचती है, वहीं बेबुनियाद और अवैज्ञानिक समाधान से भी सूचना संसार अंटा पड़ा है. साथ ही, हाल ही में जिस तरह से लॉकडाउन के बीच कई जगहों पर प्रवासी कामगारों की भीड़ उमड़ीवह चिंताजनक है. इसी तरह से दुष्प्रचारफेक न्यूज की वजह से लोगों में समान खरीद कर घरों में जमा करने की होड़ भी दिखी. सामाजिक सौहार्द के बदले इस महामारी को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी मीडिया के कुछ हिस्से में देखने को मिला है.

कोरोना महामारी के बीच इस तरह के दुष्प्रचार को इंफोडेमिक’ कहा जा रहा है. शब्दकोष में यह शब्द अभी जगह नहीं पा सका हैपर वर्ष 2002-3 में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिन्ड्रोम (सार्स) वायरस के फैलने के दौरान पहली बार इस शब्द की चर्चा हुई थी.  शाब्दिक अर्थ में इसे सूचना महामारी’ कह सकते हैं- सूचनाओं की अधिकता जो दुष्प्रचारअफवाह की शक्ल लेती है. महामारी से लड़ने मेंसमाधान ढूंढ़ने में यह बाधा बन कर खड़ी हो जाती है.  लोगों में भय का संचार भी इससे होता है. मानवीय भय और असुरक्षा के बीच सही सूचनाएँ एकजुटता को बनाए रखती हैंजो इस महामारी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हाल में कहा कि हमारा साझा दुश्मन कोविड-19 हैलेकिन दुष्प्रचार के माध्यम से जो इंफोडेमिक’ फैला है वह भी दुश्मन है.’ इसी बात को डब्लूएचओ के महानिदेशक टेडरोस गेब्रेयसस ने भी कहा कि हम ना सिर्फ महामारी से लड़ रहे हैं बल्कि इंफोडेमिक से भी लड़ रहे हैं.’ असल में लोगों का विश्वास हासिल कर ही सरकार और स्वास्थ्य एजेंसियाँ इस महामारी के रोकथाम का उपाय कर सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने संबोधन में नागरिकों से सहयोग की बार-बार अपील की है.

समाज के विकास की अवस्था के साथ ही संचार की तकनीकी और माध्यम का भी विकास होता रहा है. औपनिवेशिक शासन के दौरान  रिसालेहरकारेडाकभाट आदि खबरोंसूचनाओं के प्रसार का माध्यम होते थे. फिर अखबारों की दुनिया से गुजरते हुए हमारा समाज रेडियो और टेलीविजन जैसे जनसंचार के माध्यम तक पहुँचा.  भूमंडलीकरण के साथ हम एक बड़े सूचना समाज का हिस्सा बन गए हैं. समकालीन समाज में सूचना और तकनीक हमारे जीवन का अंग है. इंटरनेट के माध्यम से फैली सोशल मीडिया हमारी संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है. पिछले दशक में जिस तेजी से सोशल मीडिया की पहुँच बढ़ी है वह अखबारटेलीविजन जैसे मीडिया के मुकाबले अप्रत्याशित कही जा सकती है.

प्रसंगवशइतिहासकार रंजीत गुहा ने एक अध्ययन में नोट किया है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान  किसान विद्रोहों और सिपाही विद्रोह को सत्ता सरकारी कागजातों में महामारी’ के रूप में देख रही थी. यहाँ महामारी सत्ता के नजरिए से एक अलग अर्थ की व्यंजना करती हैजिसमें किसानों की सामूहिक उद्यमों की नकार है. वे लिखते हैं कि इन विद्रोहों के प्रसार में अफवाहों की एक बड़ी भूमिका थी. उस समय में हमारे समाज में शिक्षा का प्रसार बेहद कम था और खबरों के प्रसार की गति बहुत ही धीमी थी. वर्तमान समय में इंटरनेट के माध्यम से पलक झपकते ही सूचनाएँ मीलों की दूरी तय कर लेती है. जाहिर है खबर की शक्ल में मनगढंत बातेंदुष्प्रचारअफवाह आदि समाज में पहले भी फैलते रहते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैंबारीक फर्क है. 

ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता ना हो फेक न्यूज कहलाता है. इस तरह की खबरों की मंशा सूचना या शिक्षा नहीं होता है बल्कि समाज में वैमनस्य फैलानालोगों को भड़काना होता है. लोगों के व्यावसायिक हित के साथ-साथ राजनीतिक हित भी इससे जुड़े होते हैं. समाज में तथ्यों के सत्यापन की संस्कृति का अभाव भी इसके लिए जिम्मेदार है.

सच यह है कि  कोई भी तकनीक इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है. दुष्प्रचार फैलाने का जिम्मा भी उन्हीं लोगों पर हैजो तकनीक का इस्तेमाल संचार के लिए कर रहे हैं. 

इंफोडेमिक के लिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों के सिर दोष मढ़ा जा रहा है. पर  लॉकडाउन’ के बीच घर से काम करने के दौरानस्कूली शिक्षा के लिए सूचना की नई तकनीक और सोशल मीडिया मुफीद साबित हो रहे हैं. साथ ही अखबार और टेलीविजन जैसे पारंपरिक जनसंचार के माध्यमों से जुड़े पत्रकार इंटरनेट के प्लेटफार्म का इस्तेमाल खबरों के संग्रहण और प्रसारण में कर रहे हैंजो एक हद तक दुष्प्रचार को रोकने में सहायक है.

(प्रभात खबर, 7 मई 2020)

Saturday, May 02, 2020

इरफान अभी यात्रा के बीच थे

मकबूल में इरफान
इरफान (1967-2020) अभी यात्रा के बीच थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. हिंदी सिनेमा को उनसे काफी उम्मीदें थी. हिंदी जगत की बोली-बानी, हाव-भाव, किस्से-कहानी पर पिछले दो दशकों में बॉलीवुड में जोर बढ़ा है. उदारीकरण  के दौर में विकसित इस देशज चेतना के वे प्रतिनिधि कलाकार थे. उनकी अदाकारी में एक सम्मोहन था, जिसे देखने-परखने वालों ने  उनके एनएसडी के दिनों में ही नोट किया था. पुराने दौर के लोग  ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ (1987-88) नाटक में उनके अभिनय को याद करते हैं.
वे एनएसडी के अस्तबल से निकले ऐसे घोड़े थे, जिसकी आँखों में बड़े परदे के सपने थे. पर बहावलपुर हाउस (एनएसडी) से बॉलीवुड और हॉलीवुड की उनकी यात्रा काफी लंबी और संघर्षपूर्ण थी. छोटा परदा (टेलीविजन) एक पड़ाव था. वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में एनएसडी के अग्रजों- नसीरुद्दीन  शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर और समकालीन पीयूष मिश्रा के साथ ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया वह हिंदी सिनेमा के प्रेमियों के बीच उन्हें मकबूलियत दी. फिल्म मक़बूल (2004) ही थी जिसे  मैंने बड़े परदे पर ‘चाणक्य’ सिनेमा हॉल में दो बार देखा था. फिल्म देखने के बाद मैंने जनसत्ता अखबार के लिए एक टिप्पणी लिखी- ‘खेंचे है मुझे कुफ्र’. इसमें बॉलीवुड में थिएटर की पृष्ठभूमि से आए कलाकारों की दुखद स्थिति और बेकद्री का जिक्र था. इरफान खुद इस बेकद्री को झेल चुके थे.
हालांकि इससे पहले एनएसडी के दिनों के मित्र और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की कैंपस राजनीति को केंद्र रख कर बनी ‘हासिल (2003)’ फिल्म  ने उन्हें पहचान दिला दी थी. कहने को वे मीरा नायर की बहुचर्चित ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) और तपन सिन्हा की पुरस्कृत फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ (1990)  में दिखे थे, पर उन्हें नोटिस नहीं किया गया. बाद में मीरा नायर की ‘नेमसेक’ ने जहाँ उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वहीं तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ (2012) ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया.
मैं फिर से उनकी कम चर्चित फिल्म ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ (2017) देख रहा था, जिसमें उनके साथ मलयालम फिल्मों की काबिल अभिनेत्री पार्वती थिरूवोथु है. इस फिल्म में उन्हें जितना स्क्रीन टाइम मिला है उतना उन्हें पूरे कैरियर में दो-एक फिल्मों में ही मिल पाया. क्राफ्ट पर एक अभिनेता की पकड़ के लिए यह फिल्म देखी जानी चाहिए. उनकी हँसी, आँखों की भाव-भंगिमा, संवाद अदायगी का अंदाज उन्हें आम दर्शकों के करीब ले आता है. यही कारण है कि उनके असमय गुजरने का दुख किसी आत्मीय के गुजरने का दुख है.
इस फिल्म में प्रेम के फलसफे को उन्होंने जिस खूबसूरती और खिलंदड़ापन के साथ जिया है वह हमारे समय के करीब है. इरफान का किरदार कहता हुआ प्रतीत होता है- प्रेम में हैं तो अच्छा , प्रेम को खो चुके हैं तो फिर से नए प्रेम की तलाश में रहिए…एक और जिंदगी आपका इंतज़ार कर रही है.
मैंने नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा आदि को मंच पर नजदीक से देखा-सुना है. पर इरफान को कभी नहीं देखा. मुझे उनसे रश्क है जो उनके करीब थे. मैं कभी उनसे बात नहीं कर पाया. मुझे दुख है कि मैं कभी मिल भी नहीं सका.
‘करीब करीब सिंगल’ फिल्म में जब वे अपनी तीसरी प्रेमिका से मिलने जाते हैं  तो उसे नृत्य में मग्न पाते है. एक झरोखे से वे उसे देखते हैं और उसके लिए काग़ज़ पर एक नोट छोड़ जाते हैं- ‘तेरी उड़ान को मेरा सलाम.’ सलाम इरफान!