Thursday, August 26, 2021

जे नाची से बाची: रामदयाल मुंडा का मंत्र


पिछले दिनों विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया
पर आदिवासी बुद्धिजीवियों की चर्चा कहीं नहीं दिखी. मुख्यधारा के विमर्श में वे अक्सर छूट जाते हैं. आज झारखंड के आदिवासी बुद्धिजीवी रामदयाल मुंडा का 82वां जन्मदिन है. डॉक्टर रामदयाल मुंडा (1939-2011) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे झारखंड आंदोलन के अगुआ थे. उनकी पहुँच देश-विदेश के साहित्यिक- सांस्कृतिक-राजनीतिक मंचों तक सहज रूप में थी. रामदयाल मुंडा की प्रतिष्ठा गुजरातमहाराष्ट्रउत्तर-पूर्वी आदिवासी समाजों में जैसी रहीवैसी बहुत कम आदिवासी बुद्धिजीवियों की रही है. आदिवासी समाज, साहित्यकला और संस्कृति के संदर्भ में उनके योगदान का सम्यक मूल्यांकन अभी बाकी है.

वे अक्सर कहते थे- जे नाची से बाची. आदिवासी संस्कृति उनकी चिंता के केंद्र में था. ढोल-मांदर, नगाड़े के साथ, बांसुरी बजाते हुए उनकी छवि लोगों के जेहन में अभी भी हैउन्हें पद्मश्री के साथ ही संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. नाची से बाची (2017) नाम से ही झारखंड के डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने एक वृत्तचित्र बनाई है जो उनकी जीवन यात्रा और रचनाशीलता को आत्मीयता के साथ हमारे सामने लेकर आती है. झारखंड के त्योहार सरहुल को लोकप्रिय बनाने में उनका खास योगदान रहा है. इस वृत्तचित्र की शुरुआत मुंडा की आवाज में सरहुल के मंत्र से ही होती है. इस फिल्म में राँची के पास दिउड़ी जैसे छोटे से गाँव से अमेरिका तक की उनकी यात्रा को दर्शाया गया हैजहाँ वे पीएचडी के लिए गए और मिनिसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे थे. अमेरिका से वापस आकर वे राँची विश्वविद्यालय में आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं के निदेशक के रूप में नियुक्त हुए और बाद में इस विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने. विषय-वस्तु के साथ ही फिल्म निर्माण के दृष्टिकोण से भी यह वृत्तचित्र खास है. मुंडा की इस यात्रा में दर्शक भी सहज रूप से साथ हो लेता है.

लगभग तीस साल तक मुंडा के नजदीक रहे मेघनाथ बातचीत में कहते हैं कि एक संस्कृतिकर्मी के रूप में मुंडा औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त थे. वे कहते हैं, “ रामदयाल मुंडा ने आदिवासी नृत्य को मेहमाननवाजी के रूप में किए जाने को हतोत्साहित किया. उन्होंने इसे वैल्यू से जोड़ कर देखा.”  मेघनाथ अखरा (ओपन ऑडिटोरियम) का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं कि आदिवासी अखरा में श्रोता और गाने वालादेखने और नाचने वाला होता है. इसमें परफार्मर और ऑब्जर्वर का सामंती दृष्टिकोण है. देखने वाला यह सोचता है कि कोई मेरे लिए नाच रहा/रही है. उनके सानिध्य में रह कर मैं यह समझा की अखरा में परफार्मर और ऑब्जर्वर की भूमिका अलग-अलग नहीं है. मेघनाथ स्वीकारते हैं कि इस फिल्म में मुंडा के राजनीतिक जीवन का चित्रण नहीं हो पाया है.

हिंदी में रामदयाल मुंडा के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन नहीं दिखता है. डॉक्टर वीर भारत तलवार की किताब झारखंड में मेरे समकालीन (2019) अपवाद हैजिसमें एक लंबा संस्मरणात्मक और विश्लेषणात्मक लेख मुंडा के ऊपर है. इस लेख के शुरुआत में ही तलवार लिखते हैंभारत के आदिवासी बुद्धिजीवों पर जब भी विचार किया जाएगारामदयाल मुंडा का नाम उनके श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में गिना जाएगा. रामदयाल को सिर्फ आदिवासी बुद्धिजीवी के रूप में नहीं देखना चाहिए. उन्हें भारतीय बुद्धिजीवी के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लेकिन झारखंड बुद्धिजीवियों के तो वे सिरमौर ही थे.” असल में तलवार झारखंड आंदोलन में उनके संघर्ष में साथी थे और उनके साथ लंबा संग-साथ रहा था. मुंडा जब अमेरिका में थे तब 70 के दशक में उनके साहित्य को तलवार ने ही प्रकाशित किया था.

आदिवासी भाषा और लिपि के विमर्श के बरास्ते इस लेख में मुंडा का ईमानदार एवँ लोकतांत्रिक चरित्र उभर कर सामने आता है. पर ऐसा नहीं है कि तलवार मुंडा के व्यक्तित्व से मुग्ध या आक्रांत हैं. जहाँ वैचारिक रूप से विचलन दिखता है उसे वे नोट करना नहीं भूलते. पिछले साल हेमंत सोरेन की सरकार ने झारखंड विधानसभा में 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिलको पास किया. इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. यह बिल फिलहाल मंजूरी के लिए केंद्र सरकार के पास है. यहाँ पर इस बात का उल्लेख जरूरी है कि रामदयाल मुंडा ने आदिवासियों के धर्म के सवाल को अपनी किताबों में गंभीरता से विश्लेषित किया है. वे आदिवासियों को हिंदू नहीं मानते थे. सत्ता के द्वारा आदिवासियों के ऊपर हिंदू धर्म थोपने के खिलाफ थे.

आदिवासियों की अस्मिता के सवाल को उठाते हुए हालांकि तलवार नोट करते हैं- यह अजीब बात है कि मुंडाओं के पूर्वजों को हिंदू ऋषियों-मुनियों से जोड़ने के लिए एक ओर वे सागू मुंडा की आलोचना कर रहे थेदूसरी ओर खुद अपने लेख में यही काम कर रहे थे.’ मुंडा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी और संस्कृतकर्मी थेजिनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. पर जैसा कि तलवार ने लिखा है उनका विकास एक जननेता के रूप में कभी नहीं हुआ. मुंडा आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य बने थे. तलवार क्षोभ के साथ लिखते हैं- राजनीतिक सत्ता हासिल करने के मोह में रामदयाल ने अपने जीवन की जितनी शक्ति और समय को खर्च कियाअगर वही शक्ति और समय उन्होंने अपने साहित्य लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र के कामों में लगाया होता-जिसमें वे बेजोड़ थे और सबसे ज्यादा योग्य थे-तो आज उनकी उपलब्धियाँ कुछ और ही होती. एक बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिरोध की भूमिका में रहता है और उसकी पक्षधरता हाशिए पर रहने वाले उत्पीड़ित-शोषित जनता के प्रति रहती है. राजनीतिक सत्ता एक बुद्धिजीवी को बोझ ही समझती है और इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. 

तलवार राम दयाल मुंडा की भाषाई संवेदना और समझ को उनके समकालीन अफ्रीकी साहित्य के चर्चित नाम न्गुगी वा थ्योंगो के बरक्स रख कर परखते हैं और पाते हैं कि जहाँ न्गुगी अंग्रेजी को छोड़ कर अपनी आदिवासी भाषा की ओर मुड़ गए थेवहीं मुंडा मुंडारी भाषा में लिखना शुरु किया, ‘धीरे धीरे अपनी भाषा छोड़कर हिंदी की ओर मुड़ते गए.’  यह बात वृहद परिप्रेक्ष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों पर भी लागू होती है जो प्रसिद्धि और पहुँच के लिए अंग्रेजी पर अपनी नजरें टिकाए रहते हैं.

आज रामदयाल मुंडा के नाम पर झारखंड में कई आयोजन रहे हैं जिसमें उनकी प्रतिमा का अनावरण भी शामिल है. इन प्रतीकात्मक आयोजनों से अलग जरूरत इस बात की है कि मुंडा ने लेखन और सांस्कृतिक कर्म के द्वारा जो अलख जगाया उसे दूर तक पहुँचाया जाए, उनके कार्य की सम्यक आलोचना हो. एक बुद्धिजीवी को याद करने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता.


(न्यूज 18 हिंदी के लिए, 23 अगस्त 2021)

Monday, August 16, 2021

सांस्कृतिक विविधता की विरासत

 


देश के विभिन्न इलाकों में कला और सांस्कृतिक रूपों की आवाजाही होती रही है. कला विदुषी कपिला वात्स्यायन ने ठीक ही नोट किया है कि ‘भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की यह विशेषता है कि इतिहास के किसी विशेष युग में देश के किसी भाग में जन्मे आंदोलन, कलारूप और शैली को देश के किसी सर्वथा दूरस्थ प्रदेश में फलने फूलने का अवसर मिलता है.’ आजादी के बाद सांस्कृतिक विविधता के बीच एकता और देश के विकास के लिए कला और संस्कृति की महत्ती भूमिका को आधुनिक भारत के निर्माताओं ने स्वीकारा था. पं. नेहरू ने भले ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ पर जोर दिया, पर वे कला और सांस्कृतिक संस्थानों के निर्माण को लेकर भी उतने ही तत्पर थे.

इसी का परिणाम था कि आजादी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954), ललित कला अकादमी (1954), राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय (1964) जैसे संस्थानों की स्थापना हुई. प्रदर्शनकारी, दृश्य, पारंपरिक और आधुनिक कला रूपों, साहित्य, सिनेमा के पोषण और संरक्षण में इन संस्थानों का ऐतिहासिक योगदान है. जहाँ संगीत नाटक अकादमी के हिस्से संगीत, नृत्य और नाटक कला को बढ़ावा देने और विविध संस्कृतियों की विरासत को सहेजन की जिम्मेदारी रही, वहीं ललित कला अकादमी के जिम्मे मूर्तिकला, चित्रकला आदि रहे. आधुनिक और समकालीन के साथ साथ लोक, जनजातीय कला और कलाकारों का संरक्षण भी इसमें शामिल है. साहित्य अकादमी विभिन्न भाषाओँ में लिखे गए साहित्य का प्रचार-प्रसार और अनुवाद का काम करता रहा है. देश में साहित्यिक गतिविधियों की देख-रेख में भी इसकी भूमिका रेखांकित करने योग्य है. ये संस्थान देश के प्रमुख कला-सांस्कृतिक संस्थानों के साथ ही साथ विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकार और अकादमियों के साथ समन्वय और मेल-जोल भी करती रही है.

देश की आजादी के समय विभाजन की त्रासदी ने साहित्य, कला और संस्कृति जगत से जुड़े कलाकारों को गहरे प्रभावित किया था, लेकिन राष्ट्र निर्माण की भावना उनके अंदर हिलोरें मार रही थी. यही कारण है कि पचास-साठ के दशक में एक साथ अखिल भारतीय स्तर पर साहित्य, संगीत, सिनेमा, चित्रकला, प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में प्रतिभाओं का विस्फोट दिखाई देता है. इन प्रतिभाओं ने विभिन्न संस्थानों को सहेजा-सवाँरा.

बाद के दशकों में अन्य संस्थानों में आए गिरावट के साथ ही इन संस्थानों में भी भाई-भतीजावाद, अंदरुनी राजनीति और खींचतान के स्वर सुनाई पड़ने लगे. स्वायत्तता होने के बावजूद परोक्ष रूप से सत्ताधारी राजनीतिक दलों का दखल पुरस्कारों, छात्रवृत्तियों से लेकर प्रशासनिक पदों पर नियुक्तियों में देखने को मिला. कई संस्थानों में ऐसे लोग शीर्ष पर पहुँचे जिन्हें कला-संस्कृति से कोई सरोकार नहीं रहा. ऐसे में हर क्षेत्र में प्रतिभाशाली कलाकारों की पहचान मुश्किल हो गई और उनमें कुंठा जन्म लेने लगी. हाल के वर्षों में ऐसा कम ही देखने को मिला है जब साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा के समय वाद-विवाद न हो. फिर भी जहाँ राष्ट्रीय स्तर के इन संस्थानों में कम से कम पारदर्शिता और जवाबदेही की गुंजाइश दिखती है, वहीं हिंदी क्षेत्र में राज्य स्तरों पर कला और संस्कृति के संवर्धन के लिए जो संस्थान अस्तित्व में आए उनमें ज्यातादर पतनशील हैं, उनमें किसी तरह के नवाचार की गुंजाइश नहीं दिखती.

उदाहरण के लिए यह नोट करना उचित होगा कि मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के क्षेत्र में विभिन्न कलाकारों का सम्मान हुआ है और देश-विदेश में इस कला की प्रतिष्ठा हुई है, लेकिन पेंटिंग के गढ़ दरभंगा-मधुबनी में एक भी कला-दीर्घा नहीं है जहां पेंटिंग का प्रदर्शन हो सके. यही बात अन्य लोक कलाओं और कलाकारों के बारे में भी सच है. लोक कलाकारों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है. भोपाल में स्थित जनजातीय संग्रहालय अपवाद ही कहे जाएँगे. इसी तरह भारत भवन, भोपाल (1982) ने भी कला के विभिन्न रूपों के संरक्षण और संवर्धन में योगदान दिया है. प्रसंगवश, अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भारत भवन के निदेशक थे, तब भूरीबाई की प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया. इस वर्ष भीली चित्रकला के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

इसी तरह सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सिनेमा को संरक्षित करने के उद्देश्य से पुणे में फिल्म संस्थान की स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद 1964 में संस्थान में ही राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना की गई. अपने आप में देश में यह एक मात्र ऐसा संस्थान है जो फिल्मों के संग्रहण, प्रसार और संरक्षण में जुटा है. भारत में हर साल करीब पंद्रह सौ से ज्यादा फीचर फिल्में बनती है, इस लिहाज से यहां पर जो संग्रहण हो रहे हैं वह बेहद कम है. देश को एक सूत्र में जोड़ने में बॉलीवुड प्रभावी है, पर भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. राज्य स्तरों पर भी फिल्म संग्रहालय की व्यवस्था होनी चाहिए जहाँ विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में संग्रहीत की जा सके.

विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों से जुड़े कलाकारों, अधिकारियों से बात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में ये संस्थान संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, ऐसे में किसी भी तरह की योजनाओं और नई गतिविधियों के लिए बजट का हर वक्त टोटा लगा रहता है. वर्तमान वित्तीय वर्ष (2021-22) के बजट में संस्कृति मंत्रालय के लिए 2687.99 करोड़ रुपए का प्रावधान है जो भारत सरकार के कुल बजट का करीब 0.08 प्रतिशत है जबकि वर्ष 2020-21 में यह 3149.96 करोड़ रुपए था जो कि कुल बजट का लगभग 0.1 प्रतिशत था. इस तरह इस साल बजट में पिछले साल के अनुमानित बजट से करीब 15 प्रतिशत की कटौती की गई.

पिछले दशकों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में ‘सॉफ्ट पावर’ पर जोर बढ़ा है. जरूरत है भारतीय कला और संस्कृति की विविधता का अतंरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार हो. लोकतांत्रिक भारत की पहचान को कला-संस्कृति के रूपों की बहुलता और विविधता पुख्ता करते हैं. साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर आम नागरिकों, स्कूल-कॉलेज के छात्रों का जुड़ाव इन अकादमियों से बढ़े. डिजिटल तकनीक इसमें सहायक हो सकती है. बदलते वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए कला और सांस्कृतिक अकादमियों को आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में नए सिरे से अपनी भूमिका को परिभाषित करने की जरूरत है. इन संस्थानों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा है

(15 अगस्त 2021, प्रभात खबर)

Thursday, August 05, 2021

लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा है: मैनेजर पांडेय


प्रोफेसर मैनेजर पांडेय हिंदी के वरिष्ठ आलोचक हैं. सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना दोनों क्षेत्र में इन्होंने लेखन किया है. आलोचना की विचारधारा, सामाजिकता और साहित्य के समाजशास्त्र पर इनका विशेष जोर रहा है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय भाषा केंद्र से ये लंबे समय तक जुड़े रहे. प्रोफेसर पांडेय जीवन के अस्सीवें साल में हैं और आलोचना कर्म में अभी भी सक्रिय हैं. दिल्ली स्थित आवास पर उनसे अरविंद दास ने बातचीत की, एक अंश प्रस्तुत है:

देश 75 वां स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहा है. पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी राजनीतिक दल का वर्चस्व बढ़ा है, विपक्ष की भूमिका कम हुई है. ऐसे में समाज में साहित्यकार की क्या भूमिका आप देख रहे हैं?
किसी भी लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा है. विरोध स्वीकार्य नहीं भी हो तो भी सत्ता को उसका सम्मान करना चाहिए. साहित्यकार वर्तमान और भविष्य की चिंता के बारे में बताता है. जब विरोध की राजनीति परिदृश्य से गायब हो रही हो तब साहित्यकारों की भूमिका बनती है. वे जनता की समस्याओं के बारे में सहीं ढंग से सोचे, लिखें और बोलें ताकि लोग सजग हों. असल में दिक्कत यह है कि सत्ताधारी वर्ग साहित्य पढ़ते ही नहीं. वे नहीं जानते कि साहित्य क्या कह रहा है, क्या कहना चाह रहा है. समस्या यह है कि अबकी सरकार विरोध को बर्दाश्त नहीं करती है. अनेक पत्रकार सत्ता विरोधी लेखन की वजह से पकडें गए उन पर ब्रिटिश कालीन राजद्रोह (सिडिशन) का कानून लगा है.
आप आलोचना में सामाजिकता पर जोर देते रहे हैं. कोरोना महामारी के समय में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एक दूरी दिखाई दी है...
साहित्य के माध्यम से ही आलोचकों की भूमिका तय होती है. यदि कविता सत्ता विरोधी है तो आलोचक का काम है कि उसका विवेचन कर लोगों के सामने ले आए. साथ ही भाषा का खेल को खोलना आलोचना का दायित्व है. कोरोना काल में बिहार, उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मजदूरों का विभिन्न शहरों- दिल्ली, बैंगलौर, हैदराबाद, से पलायन हुआ है. दर्दनाक स्थितियों में यातना सहते हुए वे भागे. बैचेन करने वाले ये दृश्य हमने टीवी पर देखे. इन्हें प्रवासी मजदूर कहा गया. बिहार का मजदूर जो दिल्ली आया वह प्रवासी कैसे हो गया? दूसरे देश में जाने वाले, गिरमिटिया, को प्रवासी मजदूर कहा जाता था. अगर एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना ही प्रवासी होना है तो फिर सारा केंद्र सरकार प्रवासियों की सरकार हो जाएगी. ऐसे ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जैसे नारे कोराना से बचाव के लिए बने हैं. सोशल डिस्टेंसिंग इस देश में पाँच हजार वर्षों से है. दलितों को दूर रखने का काम सवर्ण करते रहे हैं. आप इसे फिजिकल डिस्टेंसिंग (शारीरिक दूरी) कहिए. एक आलोचक इन्हीं सब चीजों पर विचार कर सकता है, लोगों का ध्यान आकृष्ट कर सकता है. पिछले दिनों मैंने वेबिनारों में इन पर बातचीत की है.
किसान आंदोलन, एनआरसी, सीएए के खिलाफ आंदोलनों में साहित्यकारों का जुड़ाव किस रूप में आप देख रहे हैं?
कुछ लोग इन आंदोलनों से जुड़े. दिल्ली के अगल-बगल में वे धरना-प्रदर्शन में भी गए. लेकिन जेपी मूवमेंट के दौरान जिस तरह साहित्यकार जुडें, जैसे रेणु या नागार्जुन, उस तरह से बड़े लेखक इन आंदोलनों से नहीं जुड़े है. कारण चाहे जो भी हो. यह भी भय हो कि सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करे. जितने बड़े पैमाने पर साहित्यकारों को इनमें शामिल होना चाहिए था, वे नहीं हुए.
सूरदास पर आपने पीएचडी की थी, अनेक समकालीन रचनाकारों पर भी लिखा है. आपके प्रिय रचनाकार कौन रहे हैं?
मैंने अपने समय के ही रचनाकारों का नाम लूँगा. सूर-तुलसी-कबीर सबके प्रिय हैं. एक हैं बाबा नागार्जुन. उनसे मेरा व्यक्तिगत संबंध था. वे जब दिल्ली आते थे तब मेरे घर पर रुकते थे. बाबा नागार्जुन मुख्यत: किसान-मजदूरों के कवि थे. वे जन आंदोलनों के कवि थे. दलित, आदिवासी पर उन्होंने कविता लिखी है. इन सब कारणों से वे मुझे पसंद हैं. वे जटिलता को कला नहीं मानते थे. एक उनकी कविता है-जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं, जनकवि हूँ मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं. बहुत लोग हकलाहट को ही कविता समझते हैं, नागार्जुन उनमें से नहीं हैं. दूसरे मेरे प्रिय कवि हैं आलोकधन्वा जिन्होंने लिखना बंद कर दिया है. तीसरे मेरे प्रिय कवि हैं, जिन पर मैंने लिखा भी है, कुमार विकल. पंकज चतुर्वेदी, बोधिसत्व की कविता भी मुझे पसंद हैं.
आपको नामवर सिंह ‘आलोचकों का आलोचक’ कहते थे...
नामवर सिंह मुझे किनारे करने के लिए इस तरह के फतवे देते थे. उनके कहने का अर्थ ये था कि मैं व्यावहारिक आलोचनाएँ नहीं लिखता. जो आदमी सूरदास पर पूरी किताब लिखा हो उसे व्यावहारिक आलोचना नहीं लिखने वाला कहना कैसी ईमानदारी है! मैंने उपन्यास और लोकतंत्र किताब में अनेक उपन्यासों की आलोचना की है. अभी मेरी किताब आई है-हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान. उसमें कई लेख हैं व्यावहारिक आलोचना के. और तो और देश के विभाजन को लेकर अज्ञेय ने जो कविता-कहानी ‘शरणार्थी’ में लिखी उसका विवेचन-विश्लेषण भी मैंने किया. विभाजन त्रासदी पर छायावादी कवियों, प्रगतिशीलों ने भी नहीं लिखा. फुटकर कविता की अलग बात है. हम रचना का मूल्यांकन करते हैं, रचनाकार का नहीं. इसलिए आलोचकों का आलोचक कहना झूठ है.
जेएनयू से आप लंबे समय तक जुड़े रहे हैं. जिस तरह का आरोप-प्रत्यारोप इन दिनों सुनाई दे रहा है वह विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता/स्वायत्तता पर सवाल खड़े करता है?
जेएनयू की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को नष्ट करने के लिए कुछ लोग लगे हुए हैं. फिर भी अगर जेएनयू के छात्र और अध्यापक, जो इसकी प्रतिष्ठा करना चाहते हैं, जीवित, जागृत और सजग रहें तो नष्ट नहीं होगा. मेरी जितनी समझ बनी है, देश की उच्च शिक्षा ही संकट में है उसी में जेएनयू भी है.
आप 'दारा शिकोह' पर लंबे समय से काम करते रहे हैं. कब तक किताब प्रकाशित होने की उम्मीद है.
ऐसा है, ये आप जो आप देख रहे हैं (सोफे पर फैली किताबों की तरफ इशारा करते हुए), दारा शिकोह पर मैं काम कर रहा हूँ. एक-दो महीने में पूरा कर लूँगा, फिर किताब प्रेस में जाएगी.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)