Sunday, February 28, 2010

होरी खेलूँगी बिस्मिल्लाह

अज़रा कहती है, तुम कितना कुछ यूरोप के बारे में जानते हो, लेकिन मैं भारत के बारे कुछ नहीं जानती. हां, जब मैं बोसनिया में थी तब बचपन में पढ़ी थी भारत के बारे में..वहां कि वर्ण व्यवस्था के बारे में..चार या पाँच तो जाति होती है..अब मुझे याद नहीं.

अज़रा जिगन विश्वविद्यालय की शोध छात्रा है. बोसनिया की है, लेकिन वर्षों से जर्मनी में रहती है. कल होली के बारे में पूछ रही थी. माँ से मैंने जब यह कहा तो हँसते हुए उनका कहना था, 'पूआ बनाके खिला देना उसे...'

बिना रंग के आप किसी को 'होली' कैसे समझा सकते हैं...रंग तो क्या मैं ढूँढूंगा..हां, हल्दी साथ लेकर आया हूँ..उसे हल्दी ज़रूर लगाऊँगा..क्या पता वह कह उठे...बिस्मिल्लाह..!
(चित्र में, अज़रा के साथ लेखक)

Wednesday, February 24, 2010

'मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका है'

यहाँ बर्फ़ की चादर धीरे-धीरे सिमट रही है. कहीं-कहीं घास पर बर्फ़ का चकत्ता ऐसे दिखता है मानो धुनिया ने रूई धुन कर इधर-उधर फैला रखी हो.

सबेरे टिपटिप बारिश हो रही थी. भीगते-भागते, पहाड़ियों को पार करते, विश्वविद्यालय की कैफ़ेटेरिया पहुँचे मुश्किल से एक-दो मिनट हुए होंगे कि मेरे कानों में आवाज़ आई, आर यू मिस्टर कुमार? आँखे उठाई, सामने वे खड़े थे. मैंने देखा, घड़ी की सुई आठ बज कर 30 मिनट पर ठहरी हुई है.

मैंने जैसे ही आहिस्ते से अपने बैग से कैमरा निकाल कर मेज पर रखा उन्होंने पूछा, क्या आप मेरी तस्वीर लेंगे, इसे छापेंगे! कोई बात नहीं..

अपनी कमीज़ के कॉलर को ठीक करते हुए उन्होंने कहा... अब शायद ठीक रहेगा और मुस्कुरा दिया.
फिर अचानक जैसे कुछ याद करते हुए उन्होंने पूछा आर यू ए सांइटिस्ट ऑर जर्नलिस्ट?
 
असल में मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो घुमना पसंद करते हैं और शायद इस वजह से ज्यादा गोरा हूँ. 35 वर्ष पहले मैं भारत गया था फिर नहीं जा पाया.”, कुछ सफाई देते हुए उन्होंने कहा.

जिगन विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर युरगेन बेल्लर्स के साथ हमारी बातचीत का यह अवांतर प्रसंग था:

यहाँ तो अब मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका हैं. हां, छात्र संघों में अब भी मार्क्स की धमक सुनाई पड़ेगी आपको. विश्वविद्यालयों में ज्यादातर प्रोफ़ेसर परंपरागत रूप से मार्क्सवादी नहीं है, वे लेफ्ट-लिबरल हैं. अब उनका सारा ज़ोर पर्यावरण मुद्दों और सेक्स के मामले में होने वाले भेदभाव के मार्क्सवादी विवेचन पर है.

जब मैं विश्वविद्यालय का छात्र था तब ऐसा नहीं था. 60 के दशक का दौर अलग था...सब तरफ छात्रों के अंदर असंतोष और विद्रोह था. मैं भी कट्टर मार्क्सवादी था लेकिन अब पूरी तरह से बदल चुका हूँ... मैं अब एक कंजरवेटिव हूँ. लेकिन मेरा मामला टिपिकल नहीं है. 

मैंने समाजवादी जर्मनी में कट्टरता को झेली है. मैं पश्चिमी जर्मनी का हूँ और मेरी बीवी पूर्वी जर्मनी से ताल्लुक रखती है. वह वहाँ से भाग कर पश्चिमी जर्मनी आना चाहती थी. उसे जेल में क़ैद कर दिया गया. वहाँ उसे दो-तीन साल बंदी बना कर रखा गया, फिर उन्होंने उसे नौकरी और अन्य सुविधाएँ देकर वहाँ के समाज में सामंजस्य के साथ रखने की कोशिश की. लेकिन जब उन्हें लगा कि ऐसा संभव नहीं है तो फिर उसे छोड़ दिया गया.
इन बातों की चर्चा आज कोई नहीं करता. 

मेरी बीवी पागल हो चुकी है. मैं उससे नहीं मिलता. वह कहती है कि मैं उसका हत्यारा हूँ...क़ैद में बंद रहने का खामियाजा उसे अब भुगतना पड़ा है (लेट कांसिक्वेंसेज ऑफ़ प्रिज़न)...

फिर जैसे कहीं कोई ख्याल आया और वे कह उठे, इट्स फ़ेट...यू मस्ट लिव इट.... मैं भी उनकी बातचीत में कहीं खो गया था, जैसे सोते से जाग कर कहा, यस, यस...

(चित्र में जिगन विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर युरगेन बेल्लर्स) (अमृत वर्षा, दिल्ली, में मार्च 5 मार्च 2010 को प्रकाशित)

Friday, February 12, 2010

घर एक सपना है

बचपन में हम एक खेल खेला करते थे. बब्बू, आपको याद है, तब हम पूर्णिया में रहते थे गाँव नहीं लौटे थे! हमारे मकान के पिछवाड़े में काफ़ी जगह थी. हम खुरपी से ज़मीन खोद कर पानी डालते थे. उसमें इकन्नी-दुअन्नी गाड़ते थे और फिर सूखी मिट्टी से उसे पूरी तरह से ढक देते थे.

हम सपने बुनते थे कि जब इस पैसे से पेड़ निकलेगा तब कैसे-कैसे पैसे उसमें फलेंगे. क्या हम पेड़ पर चढ़ कर पैसे तोड़ पाएँगे. कोई बात नहीं, चाचा से हम कह देंगे वे तोड़ दिया करेंगे हमारे लिए. यों जब पैसे बड़े हो जाएँगें तब खुद गिर गिर के इधर-उधर बिखरें पड़ें मिलेंगे, पके आम की तरह. लेकिन यदि रुपए फले तो!
वे तो तेज़ हवा में उड़ जाएँगे...!

वे बचपन के दिन थे. आपको याद है बब्बू, राजा भर्तहरी के गीत गाने वाले, बनगाँव महिषी के गुदरीया बाबा. चाचा उन्हें खाना खिलाते थे, माँ उन्हें गुदरी देती थी. चाचा ग्रहों के दोष से बचने के लिए उनसे उपाय पूछते थे. वे हर बार नए ग्रहों के दोष के बारे में बताते थे. कभी शनि की दशा ठीक नहीं होती थी, तो कभी चाचा के मंगल में दोष होता था.


गुदरीया बाबा हमारा भी हाथ देखते थे. क्या हमारे हाथ में विद्या रेखा है, क्या हम विदेश जाएँगे बताइए ना, हम उनसे पूछते थे. फ्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट पहुँच कर मैंने एक बार फिर से अपने हाथ को उलट-पुलट कर देखा, हां चंद्र पर्वत पर एक रेखा तो है शायद...!


यहां जिगन में (कल प्रोफ़ेसर डेटलिफ बता रहे थे जिग नाम की एक नदी है) विश्वविद्यालय के इस गेस्ट हाउस के बाहर, मेरे इस खूबसूरत कमरे के ठीक सामने बर्फ़ की चादर फैली है. यहां का तापमान अभी माइनस सात डिग्री है. सेमल के फूल की तरह बर्फ़ के फाहे हवा में तैर रहे हैं. सामने कई पत्रहीन नग्न गाछ (पेड़) एक सीध में खड़े हैं.


भाई, हमारा बचपन बीतता गया, पैसों के पेड़ हम कहाँ देख पाए...इन वर्षों में लेकिन सपनों के पेड़ में काफ़ी नव पल्लव खिलते गए. हमने सतरंगी सपने देखना छोड़ा नहीं. हमारे बचपन में न कोई समुद्र था न ही कोई बर्फ़. पापा के पास इतने पैसे कहां थे कि हमें कहीं बाहर घुमाने ले जाते. हमें घर से बाहर भेज कर पढ़ाने का साहस किया, यह क्या उनके लिए आसान था.? उनके सपने हमारे सपनों से जुड़ते गए.


अजीब संयोग है, ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा था वह हमारी दुनिया नहीं थी. पहली बार बर्फ़ गिरते देख रहा हूँ यह भी एक दूसरी दुनिया है. यूरोप देखने की, वहाँ रह कर पढ़ने-लिखने की मन में चाह थी. लेकिन कब? यह पता नहीं था.


आज आपकी बहुत याद रही है. बचपन में मेरे लिए रेत का घरौंदा और बालू का घर आप बनाते थे. कितना अच्छा होता आप यहाँ होते और बर्फ़ में मेरे लिए एक घर बनाते. मेरा हाथ अब भी इतना सुघड़ नहीं कि घर बना पाऊँ. घर एक सपना है...!


(जनसत्ता में 19.02.2010 को प्रकाशित)