Thursday, March 30, 2023

दिल्ली में लावणी के रंग

 


दिल्ली के कला समारोहों में शास्त्रीय नृत्य दिखाई देती रहती हैपर लोक नृत्य नजरों से ओझल ही रहता है. ऐसे में पिछले दिनों महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्डस (मेटा) के तहत हुए नाट्य समारोह में लावणी नृत्य और गीत-संगीत को देखना सुखद था.

महाराष्ट्र के लोकप्रिय नृत्य लावणी का इतिहास सैकड़ों साल पुराना हैलेकिन अभी भी उसे वह रुतबा हासिल नहीं है जो शास्त्रीय नृत्य को. देश की आजादी के बाद शास्त्रीय नृत्य-संगीत को जहाँ राज्य से सुविधा और प्रश्रय हासिल हुआ वहीं लोक नृत्य-संगीत पिछड़ते गए. सच तो यह है कि आधुनिक समय में लोक नृत्य की कई संवृद्ध परंपरा क्षीण हो रही है. इसके लिए राजसत्ता’ और जनसत्ता’ दोनों ही जिम्मेदार हैं.

लावणी के साथ शुरुआती दौर से (19वीं सदी में पेशवा के समय) से स्त्रियों की यौनिकता (सेक्सुअलिटी)उनकी अदम्य इच्छा की खुली अभिव्यक्ति जुड़ी रही है. यह नृत्य मातृसत्तात्मक समाज की उपज हैजिससे समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्ग जुड़े रहे हैं और उनके जीवन-यापन का साधन रहे हैं. इनके उपभोक्ता (द्ष्टा) पुरुष ही होते रहे हैं और गीतकार भी. इसे एक बड़े दर्शक समूह (पाडाची) और प्राइवेट दर्शक (बैठक) दोनों के लिए खेला जाता रहा है. दोनो शैली में पर्याप्त भिन्नता रहती है.

आजादी के बाद वर्ष 1948 में बाम्बे स्टेट (वर्तमान महाराष्ट्र) के मुख्यमंत्री बाळासाहेब खेर ने इस नृत्य पर फूहड़ता और अश्लीलता के आरोप लगने के बाद प्रतिबंध लगा दिया था. बाद में हालांकि प्रतिबंध हटा दिया गया पर इसे साफ-सुथरा’ बना दिया गया! अश्लीलता के साथ-साथ लावणी के साथ कई और मिथक जुड़ते गए. एक पक्ष स्त्री कलाकारों के शोषण का भी है.

तमाम वाद-विवादों के बावजूद 21वीं सदी में यह नृत्य महाराष्ट्र के शहरों, कस्बों में और  टीवी-सिनेमा के माध्यम से मनोरंजन का साधन बना रहा है. हाल में लावणी के लिए नए गीत भी लिखे जा रहे हैं. मराठी फिल्मों के लिए भी इसे तैयार किया जा रहा है. बॉलीवुड भी गाहे-बगाहे लावणी नृत्य को समाहित करता रहा हैपर उसमें लावणी की मात्र एक झलक ही दिखती रही जिसकी आलोचना होती रहती है.

सवाल है कि 21वीं सदी में किस रूप में लावणी को देखे-परखें?   हिंदी-मराठी में लिखे लावणी  के रंग’ नाटक में लावणी से जुड़े सवालोंमिथकों, इतिहास और आधुनिक समय में इसकी पहचान को बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया. लावणी के रंग’ के लेखक-निर्देशक भूषण कोरगांवकर लावणी के शोध से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. इससे पहले उन्होंने लावणी को लेकर एक वृत्तचित्र नटले तुम्च्यासाठी’ (बिहाइंड द अडोर्नड वेल) भी बनाई थी और साथ ही मराठी में संगीत बारी’ नाम से एक किताब भी लिखी.

इस नाटक में ठेका मालकिन बनी अभिनेत्री गीतांजली कुलकर्णी सूत्रधार के रूप में मंच पर आती है जो दर्शकों को लावणी के इतिहासरूप-रंगविविध प्रकार से परिचय कराती हैं. आम धारणा से उलट वर्तमान में लावणी से पुरुष कलाकार भी जुड़ने लगे हैं. साथ ही इसमें सिर्फ कामोत्तेजक गीत-संगीत आधारित नृत्य ही नहीं होता है. सच है कि लावणी में श्रृंगारिक पक्ष प्रभावी रहा हैपर ऐसा नहीं कि पर इसमें सामाजिक सच्चाई की अभिव्यक्त नहीं होती रही है. नाटक के दौरान एक गीत-नृत्य में दिखाया गया कि किस तरह एक औरत अपने शराबी पति के शराब से छुटकारा पाने पर खुश है. साथ ही बेमेल विवाह की समस्या भी यहाँ दिखाई देती है. होली के प्रसंग को दिखाता एक नृत्य में हिंदुस्तानी सुगम गीत-संगीत की छाप दिखाई दिया. समय के बदलाव के साथ इस नृत्य के सामाजिक-राजनीतिक आयाम भी जुड़ते गए हैं. स्त्री यौनिकता के साथ स्त्री स्वतंत्रता का सवाल भी है!

जाहिर है लावणी में नृत्य-संगीत के विभिन्न प्रकारों का समावेश होता रहा है. संगीत बारी की बैठकी में गीत-संगीत और अदाकारी पर जोर रहता है. नाटक में कुलकर्णी के अलावे संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत चर्चित अभिनेत्री शकुंतलाबाई नागरकरगौरी जाधवपुष्पा सातारकर और अक्षय मावलंकर गायक-नर्तक थे. ढोलक की थाप के संग लावणी के इन पेशवर नर्तकों के घुंघरुओं से बंधे पाँव मंच पर जादू जगाते हैं. यह नाटक लावणी को लेकर जो लोक मन में भ्रांति है उसे तोड़ने में सफल है.

नाटक के दौरान दर्शकों की फरमाइश पर भी नृत्य पेश किए गए. अच्छी बात यह थी कि इस पूरे नाटक में गायकों-नर्तकों का संवाद दर्शक के साथ कायम रहा.

भूषण कोरगांवकर बातचीत में कहते हैं कि लावणी पिछले कुछ सालों में पापुलर हो रही है पर जो पारंपरिक रूप से लावणी करते रहे हैं उन्हें वह लोकप्रियता नहीं मिल रही है जबकि दूसरे वर्ग के लोग इसे सीख कर प्रदर्शित कर रहे हैं उन्हें लोकप्रियता मिल रही है.’  वे जोड़ते हैं कि इससे लावणी महज एक शैली, जो कि फास्ट-पेस्ड है और फिल्मी आइटम नंबर के करीब है, में सिमट रही है और विविधता दिखाई नहीं देती.

उम्मीद करते हैं कि दर्शकों के साथ इस नाटक का संवाद भविष्य में कायम रहेगा और वे लावणी के विविध स्वरूप से परिचित होंगे. पारंपरिक लावणी का लावण्य और लालित्य बना रहेगा.


Saturday, March 25, 2023

ऑस्कर मिला, बनेगा डॉक्युमेंट्री का बाजार?

 


द एलीफेंट विस्परर्सडॉक्युमेंट्री (शार्ट) के लिए कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिले ऑस्कर पुरस्कार के बाद अचानक सिनेमा प्रेमियोंसमीक्षकों का ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्युमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. इस साल शौनक सेन की ‘ऑल दैट ब्रीदस’ और पिछले साल रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्युमेंट्री 'राइटिंग विद फायरको ऑस्कर के डॉक्युमेंट्री (फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. नई तकनीक की उपलब्धता ने भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को प्रेरित किया है. मेघनाथ  पिछले चालीस सालों से डॉक्युमेंट्री निर्माण में सक्रिय हैं. उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. गाड़ी लोहरदगा मेल’, विकास बंदूक की नली से’, नाची से बांची (बीजू टोप्पो के साथ) आदि उनकी चर्चित डॉक्युमेंट्री है. भारत में डॉक्युमेंट्री की स्थितियुवा फिल्मकारों, प्रदर्शन की समस्या को लेकर अरविंद दास ने उनसे बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश:

पहली बार किसी डॉक्युमेंट्री (द एलीफेंट विस्परर्स)' को ऑस्कर पुरस्कार मिला है. आप इस सफलता को कैसे देखते हैं?

मुझे खुशी है कि ‘द एलीफेंट विस्परर्स को ऑस्कर पुरस्कार मिला. आज से तीस साल पहले आम लोगों को डॉक्युमेंट्री के बारे में पता नहीं था. फिल्म्स डिवीजन में, सरकार प्रायोजित फिल्म समारोहों में डॉक्युमेंट्री दिखाई देती थी. इसका बाजार कभी नहीं बन पाया. एलीफेंट विर्सपरर्स नेटफ्लिक्स की फिल्म है तो हम उम्मीद करते हैं कि ऑस्कर मिलने के बाद आने वाले समय में ओटीटी प्लैटफॉर्म डॉक्युमेंट्री फिल्मों को महत्व देंगे.

क्या यह सच है कि तकनीक में आए बदलाव ने डॉक्युमेंट्री बनाना आसान कर दिया है?

बिल्कुल, चालीस साल पहले कुछ नहीं था. सैल्यूलाइड पर हम फिल्में बनाते थे. बीटा और डिजिटल के आने के बाद डॉक्युमेंट्री बनाना और उसे संपादित करना आसान हो गया. तकनीक का आज विकेंद्रीकरण हो गया है. इससे डॉक्युमेंट्री बनाने और दिखाने दोनों में ही सुविधा हो गई है. मास कम्यूनिकेशन के संस्थानों में वृत्तचित्रों के लिए माहौल बना है, छात्रों की रुचि इसमें जगी है. लेकिन अभी और माहौल बनाने की जरूरत है ताकि लोग समझें कि मनोरंजन के अलावा भी सिनेमा के कई रूप हैं. मनोरंजन के अलावे सिनेमा के सामाजिक, शैक्षणिक मूल्य भी हैं.

द एलीफेंट विस्परर्स'ऑल दैट ब्रीदस पर्यावरण को आधार बनाती है. 'राइटिंग विद फायर' एक अखबार ‘खबर लहरिया’  के प्रिंट से डिजिटल के सफर के इर्द-गिर्द है. पायल कपाड़िया की  नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’  फिल्म संस्थान को आधार बनाती है. इन युवा फिल्मकारों के बारे में आप क्या सोचते हैं?

पिछले दस-पंद्रह सालों में जो युवा फिल्मकार आए हैं, उनकी प्रशंसा करता हूँ. चालीस साल पहले हमने जब डॉक्युमेंट्री बनाना शुरु किया था तबसे गुणवत्ता कहीं बेहतर हुई है. तकनीक और सौंदर्य काफी अच्छा हो गया है. पहले फिल्म्स डिवीजन की फिल्में होती थी, जो कभी कभी बोरिंग भी हो जाती थी. डॉक्युमेंट्री कोई एक विषय आधारित तो होती नहीं. कोई पर्यावरण को लेकर, तो कोई स्त्री मुद्दो को लेकर तो कोई राजनीतिक मुद्दों को लेकर ये फिल्में बनाते हैं.

आपके पसंदीदा डॉक्युमेंट्री फिल्मकार कौन रहे है?

मैं दो नाम लूंगा. एक आनंद पटवर्धन, दूसरा तपन बोस (जो मेरे गुरु है). लेकिन सबसे ज्यादा मैं बोलूंगा के पी शशि के बारे में जो पिछले दिनों गुजर गए. चालीस के करीब उन्होंने वृत्तचित्र बनाई. 80 के दशक में ही वह समय से आगे डॉक्युमेंट्री बना रहे थे. न्यूक्लियर रेडिएशन को लेकर लिविंग इन फियर, नर्मदा को लेकर ए वैली रिफ्यूजेज टू डाई और इसी तरह उन्होंने वी हू मेक हिस्ट्रीऔर द नेम ऑफ मेडिसिन’ जैसी डॉक्युमेंट्री बनाई. उन्होंने दो फिक्शन भी बनाई. आनंद पटवर्धन, तपन बोस जब फिल्म निर्माण में सामाजिक यथार्थ को लेकर आए तो डॉक्युमेंट्री में एक नई रंगत आई.

समांतर सिनेमा के फिल्मकार मसलनश्याम बेनेगल, मणि कौल, कुमार शहानी भी वृत्तचित्र बना रहे थे उस दौर में...

हां, वो फिक्शन में बना रहे थे. जैसा कि हम कहते हैं कि साइंस पढ़ रहे हैं पर उसके अंदर फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी है... तीनों ही एक-दूसरे से अलग हैं. इसी तरह से डॉक्युमेंट्री सिनेमा में दो धाराएं रही हैं. मैं यह नहीं कहता कि कौन अच्छा है, कौन बुरा. हम उसमें नहीं जाते हैं. दोनों की अपनी महत्ता है.

इतने सालों के बाद आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन आसान नहीं हो पाया है, कोई नेटवर्क नहीं है. कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद भी ऑल दैट ब्रीदस'राइटिंग विद फायर' नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’   आम लोगों के देखने के लिए उपलब्ध नहीं है...

हां, हम वृत्तचित्र बनाने वाले एक नेटवर्क नहीं बना पाए. इन फिल्मकारों के बीच कोई कोऑर्डिनेशन नहीं है, जो दुखद है. हमारी भी कमजोरी रही. पीएसबीटी ने बहुत वृत्तचित्र बनाई और प्रोमोट किया. इसी तरह फिल्म्स डिवीजन भी अपने तरीके से काम कर रहा था, हम उनके शुक्रगुजार हैं. नेहरू के पास सिनेमा को लेकर एक दृष्टि थी. ब्रिटिश जब जा रहे थे, उनका जो 'लेफ्टओवर प्रोपेगैंडा' था उसे वह फिल्म्स डिवीजन में लेकर आए. दुर्भाग्य से बाद में राजनीतिक समुदाय की सिनेमा की समझ बहुत परिष्कृत नहीं रही.

युवा डॉक्युमेंट्री फिल्मकारों के लिए आपकी क्या सलाह है?

मैं युवा फिल्मकारों की प्रशंसा करता हूँ. पिछले बीस सालों में सिनेमा की क्वॉलिटी में बदलाव आया है. हम बस यह कहना चाहेंगे उनसे की आप गुड आइडिया को बैड फार्म से संप्रेषित नहीं कर सकते. उन्हें फॉर्म को महत्व देना होगा. मसलन, मैंने शशि के साथ गाँव छोड़ब नाहि बनाई जो मात्र छह मिनट की फिल्म थी.

 (नवभारत टाइम्स के लिए)

Friday, March 24, 2023

क्या ‘द एलीफेंट व्हिस्परर्स' की सफलता डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन का रास्ता खोलेगी?


भारत के हिस्से आई ऑस्कर पुरस्कारों की चर्चा सब तरफ है, जिसका इंतजार दशकों से था. 95वें ऑस्कर समारोह में 'आरआरआर' फिल्म के 
नाटू-नाटू गाने से काफी उम्मीद थी, पर द एलीफेंट व्हिस्परर्स' डॉक्टूमेंट्री (शार्ट) के लिए कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिला ऑस्कर बहुत से लोगों के लिए अप्रत्याशित है. इसके साथ ही अचानक सिनेमा प्रेमियों, समीक्षकों का ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. नेटफ्लिक्स पर इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को देखने वालों की होड़ लगी है. मुदुमलाई नेशनल पार्क में स्थित इस वृत्तचित्र के केंद्र में एक हाथी (रघु) और उसे पालने वाले आदिवासी समुदाय के बोम्मन और बेली हैं. बेहद संवेदनशीलता से यह वृत्तचित्र पर्यावरण, वन्यजीवों के संरक्षण, इंसान और जानवरों के बीच आत्मीय संबंध को दिखाती है.

ऑस्कर पुरस्कार की घोषणा से पहले इस कॉलम में मैंने लिखा था कि इस बार डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से काफी उम्मीद है. द एलीफेंट व्हिस्परर्सके साथ-साथ शौनक सेन की ऑल दैट ब्रीदस (फीचर) की भी ऑस्कर पुरस्कार के लिए दावेदारी थी. ऑल दैट ब्रीदस की तरह पिछले साल भी रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायरको ऑस्कर के डॉक्यूमेंट्री (फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. पिछले कुछ सालों में देश में युवा वृत्तचित्र फिल्मकारों का एक समूह उभरा है जिसने दुनियाभर के फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा है.

असल में, नई तकनीक की उपलब्धता ने भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को प्रेरित किया है. पिछले दिनों रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष ने लिखा कि जब उनसे स्टीवन स्पीलबर्ग ने पूछा कि उनकी फिल्म की यात्रा में सबसे ज्यादा चकित करने वाली क्या बात रही?’ उन्होंने कहा था कि एक बैकपैक में समा जाने वाले साजो-समान के साथ तीन लोगों की एक टीम ने इस फिल्म पर काम किया, जो ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुई है!’ स्पीलबर्ग ने इस पर आश्चर्य जाहिर किया था.

पर ऐसा नहीं कि भारतीय वृत्तचित्रों की चर्चा विश्व पटल पर पहले नहीं हुई हो. बॉलीवुड का इतना दबदबा है कि सिनेमा के ज्यादातर समीक्षक डॉक्यूमेंट्री की बात नहीं करते, जबकि आनंद पटवर्धनअमर कंवर संजय काकमाइक पांडेय, मेघनाथ, कमल स्वरूप जैसे वृत्तचित्र निर्देशकों को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. समांतर सिनेमा के ख्यात निर्देशक मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल आदि ने भी कई चर्चित वृत्तचित्रों का निर्माण किया है. कम संसाधनों में बनी इन वृत्तचित्रों के विषय और शैली में पर्याप्त विविधता है.

भारत में गैर फीचर फिल्मों की यात्रा फीचर फिल्मों के साथ-साथ चलती रही. देश की आजादी के बाद वृत्तचित्रों की भूमिका जनसंचार और शिक्षा तक सीमित रही. बाद के दशक में सामाजिक यथार्थ, विषमता को दिखाने पर फिल्मकारों का जोर बढ़ा. ऑस्कर की ही बात करें तो वर्ष 1978 में विधु विनोद चोपड़ा की मुंबई के स्ट्रीट चिल्ड्रेन पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री चेहरा (एन एनकाउंटर विद फेसेस) को ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था. इससे दस साल पहले वर्ष वर्ष 1968 में फली बिलिमोरिया की डॉक्यूमेंट्री द हाउस दैट आनंद बिल्ट भी ऑस्कर के लिए शार्ट डॉक्यूमेंट्री खंड में नामांकित हुई थी. इन दोनों वृत्तचित्रों को भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन ने तैयार किया था. दोनों डॉक्यूमेंट्री यूट्यूब पर देखी जा सकती है.

क्या यह आश्चर्य नहीं ऑल दैट ब्रीदस और 'राइटिंग विद फायर' विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित होने के बावजूद आज भी भारत में प्रदर्शित नहीं हुई है? हम यह उम्मीद नहीं कर रहे कि इसे हम नजदीक सिनेमाघरों में देख पाएँगे पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो रिलीज हो ही सकती है. असल में, डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रसारण को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है. ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म भी बड़े स्टारों की फिल्मों को लेकर जितने तत्पर रहते हैं उतने प्रयोगधर्मी फिल्मों या वृत्तचित्रों को लेकर नहीं. पिछले दिनों एक बातचीत में प्रयोगधर्मी युवा फिल्म और वृत्तचित्र निर्देशक पुष्पेंद्र सिंह ने कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म उनकी फिल्मों के लिए जो पैसा उन्हें दे रही है वह हास्यास्पद है. औने-पौने दाम में वे इसे खरीदने के लिए तत्पर रहते हैं.’

ऐसे में ज्यादातर डॉक्यूमेंट्री फिल्में फिल्म समारोहोंकॉलेज-विश्वविद्यालयों में या निर्देशकों के व्यक्तिगत प्रयास से ही उपलब्ध होती रही हैं. जाहिर है इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाताजैसा फीचर फिल्मों का होता है. फलस्वरूप ये आम दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं. पिछले वर्षों में कोरोना महामारी की वजह से देश में ज्यादातर फिल्म समारोह भी स्थगित ही रहे और ये डॉक्यूमेंट्री मुट्ठी भर दर्शकों तक ही सीमित रही. सच यह है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. क्या द एलीफेंट व्हिस्परर्सकी सफलता संसाधनों को आकर्षित करने के साथ-साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए रास्ते खोलेगी

Saturday, March 18, 2023

पुस्तक समीक्षा: नवजागरण के अंतर्विरोध

 


वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार भारतीय नवजागरण के गंभीर अध्येता हैं। नवजागरण को लेकर हिंदी में राम विलास शर्मा सहित अनेक आलोचकों की किताब उपलब्ध है। लेकिन वर्ष 2002 में आई तलवार की किताब रस्साकशी: 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांतसंदर्भ ग्रंथ के रूप में शोधार्थियों के बीच प्रतिष्ठित है। ऐसा नहीं कि तलवार किताब लिख कर चुप बैठ गए। उन्होंने भारतीय नवजागरण पर अपना शोध और लेखन जारी रखा। रस्साकशीमें उन्होंने हिंदी नवजागरण पर सवाल खड़ा करते हुए लिखा, “भारतीय नवजागरण मुख्यत: धर्म और समाज के सुधार का आंदोलन था जबकि हिंदी नवजागरण का मुख्य लक्ष्य यह कभी नहीं रहा।उनकी स्थापना है कि हिंदी नवजागरण के बजाय इसे हिंदी आंदोलनकहा जाए।

बगावत और वफादारी: नवजागरण के इर्द-गिर्दकिताब इसी की कड़ी है, जिसमें विभिन्न समय पर लिखे लेखों का संकलन है। यह किताब नवजागरण के नायकों के विचारों और उनकी रचनाओं का शोधपरक विश्लेषण करती है। तलवार लिखते हैं कि अपने धर्म की रक्षा और सुधार का उद्देश्य गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा करते हुए हम किन विचारों का सहारा लेते हैं, किन उपायों से अपना उद्देश्य हासिल करते हैं?’ इस पर ध्यान देना जरूरी है। इस किताब में वे हिंदू-मुस्लिम नवजागरण की भद्रवर्गीय धाराओं में मौजूद अंतर्विरोधों को रेखांकित करते है।

किताब का शीर्षक सर सैयद अहमद खां के ऊपर लिखे पचास पेज के लंबे लेख से लिया गया है। उन्होंने विभिन्न कोणों से सैयद अहमद के ऊपर इस निबंध में विचार किया है। सन 1857 में हुए आंदोलन (सैयद इसे बगावत कहते हैं) के संदर्भ में तलवार ने नोट किया है कि इसमें सैयद अहमद न सिर्फ एक सरकारी मुलाजिम की हैसियत से शरीक थे, बल्कि वे सबसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने उसके बारे में लिखा, उसका विवेचन किया।वे लिखते हैं कि सैयद अंग्रेजी शासन के प्रति वफादार थे और इस विद्रोह के समर्थक नहीं थे, हालांकि उनका एक और पक्ष हिंदुस्तानियों, खास कर मुस्लिम कौम के प्रति उनकी वफादारी का भी है। विद्रोह के बाद अंग्रेजों के मन में मुसलमानों के प्रति जो द्वेष था वे इसे बदलना चाहते थे। उन्होने ईसाई धर्म और इस्लाम का तुलनात्मक अध्ययन किया। अलीगढ़ मोहम्मडन ओरिएंटल कॉलेज (अलीगढ़ विश्वविद्यालय) की स्थापना के संदर्भ में तलवार ने लिखा है कि सैयद के आधुनिक शिक्षा संबंधी प्रयासों में मुसलमानों ने उतना सहयोग नहीं किया, जितना हिंदुओं ने किया।

इस किताब में हिंदू धर्म प्रकाशिका सभाके संस्थापक श्रद्धाराम फिल्लौरी के ऊपर एक महत्वपूर्ण निबंध है। हिंदी में उनके ऊपर बहुत कम लिखा गया है। इसी तरह हिंदी नवजागरण के प्रसंग में खड़ी बोली आंदोलन के अगुआ अयोध्याप्रसाद खत्री और शिवप्रसाद सितारेहिंदपर भी मूल्यांकन है। बिना किसी वाग्जाल में उलझे, सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा में तलवार इस किताब में ऐसे सवाल खड़े करते हैं जो नवजागरण संबंधी प्रचलित विचारों को घेरे में लेती है। रामविलास शर्मा की स्थापनाओं के परिप्रेक्ष्य में हिंदी क्षेत्र में सन 1857 के बाद आए बदलावों का एक सम्यक लेखा-जोखा भी इस किताब में है।

 बगावत और वफादारी: नवजागरण के इर्द-गिर्द

वीर भारत तलवार

प्रकाशक | वाणी प्रकाशन

मूल्य: 399 | पृष्ठ: 152

 (आउटलुक हिंदी, 4 अप्रैल 2023)