Friday, December 24, 2021

असमिया सिनेमा का समकालीन स्वर

पिछले महीने गोवा में आयोजित 52वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के भारतीय पैनोरमा की उद्घाटन फिल्म के रूप में सेमखोरको चुना गया था. डिमासा भाषा में बनी इस फिल्म को असमिया अभिनेत्री एमी बरुआ ने निर्देशित किया है. बकौल बरुआ  यह फिल्म सेमखोर लोगों की प्रथाओं, रीति-रिवाजों और लोक धारणाओं का प्रतिनिधित्व करती है जो बाहरी दुनिया से 'अछूते' रहना चाहते हैं.डिमासा असम और नागालैंड के कुछ हिस्सों के जातीय-भाषाई समुदाय की एक बोली है.  सेमखोर डिमासा में बनी पहली फिल्म है.

जब रीमा दास की असमिया फिल्म बुलबुल कैन सिंगऔर विलेज रॉकस्टारको राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया तब सबकी नजर समकालीन असमिया फिल्मों की ओर गई. गौरतलब है कि वर्ष 2019 में विलेज रॉकस्टारको भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए भेजा गया था.  इसी तरह भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिसकी भी खूब चर्चा हुई थी. मांस के रूपक के माध्यम से यह फिल्म समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. फिल्म का ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है.

जहां रीमा दास की फिल्म बुलबुल कैन सिंगअसम के ग्रामीण इलाके में अवस्थित है और किशोर और युवा की वय संधि पर खड़े बोनी, सुमन और बुलबुल की कहानी कहती है, वहीं आमिसमें शहरी इलाके में रहने वाले युवा सुमन, जो एक शोधार्थी है, और पेशे से डॉक्टर निर्मली के मध्य पनपे परकीया प्रेम को रचा गया है. इस विवादास्पद फिल्म ने असमिया सिनेमा के 85 वर्ष के इतिहास में एक तीखे बहस को जन्म दिया. आमिस गुवाहाटी में अवस्थित है जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.

असमिया भाषा में बनने वाली फिल्मों में पर्याप्त विविधता रही है जो इस सिनेमा के इतिहास के अनुकूल है. वर्ष 1935 में ज्योति प्रसाद आगरवाला ने पहली असमिया फिल्म जयमती का निर्माण और निर्देशन किया था. उन्होंने फिल्म के तकनीकी पक्ष को सीखने के लिए जर्मनी की यात्रा की थी और हिमांशु राय के साथ रह कर फिल्म निर्माण को सीखा. फिर उन्होंने असम की ओर रुख किया था. आगरवाला के बाद बाद के दशक में प्रवीण फूकन, निप बरुआ और भूपने हजारिका जैसे हस्तियों ने असमिया सिनेमा जगत को संवारा था.

सही मायनों में असमिया सिनेमा को देश-विदेश में प्रसिद्धि जानू बरुआ ने दिलवाई जो पिछले चालीस वर्षों से असमिया भाषा में सिनेमा बना रहे हैं. अब तक उनकी फिल्मों को बारह राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. फिल्म संस्थान, पुणे से प्रशिक्षण के बाद बरुआ ने पहली फिल्म अपरूप (1982)’ निर्देशित किया था. अपनी कथानक की वजह से यह फिल्म आमिस की तरह ही चर्चित रही. इसमें में भी परकीया प्रेम को दर्शाया गया है. एक विवाहिता स्वेच्छा से दूसरे पुरुष के साथ रहने चली जाती है. उनकी फिल्म सागरलै बहु दूर (1995)’ और हालोदिया चराय बाओ धान खाय (1987)’ को देश-विदेश के फिल्म समारोहों में काफी सराहना मिली. हालोदिया चराय बाओ धान खायअसमिया में बनने वाली पहली फिल्म थी जिसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए स्वर्ण कमल से नवाजा गया था. बरुआ सामाजिक चेतना से संपन्न फिल्मकार हैं. उनकी फिल्मों में हाशिए का समाज और स्त्री स्वाधीनता का स्वर प्रमुखता से अभिव्यक्त होता रहा है. हिंदी समाज और दर्शकों के बीच बरुआ की फिल्में हालांकि उस रूप में चर्चा का विषय कभी नहीं बनी जैसा कि सत्यजीत रे या मृणाल सेन की फिल्में रही. इसकी एक वजह उत्तर-पूर्व की संस्कृति से अलगाव है जो बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों में भी दिखाई देती है.

पिछले वर्ष रिलीज हुए निकोलस खारकोंगोर की अखोनीजैसी फिल्म को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की चिंता के केंद्र में उत्तर-पूर्व का समाज और संस्कृति कभी नहीं रहा है. प्रसंगवश, वर्ष 1992 में जब बरुआ की फिरंगतिको दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया गया और सत्यजीत रे की फिल्म आगंतुक  को पहली तो यह कहा गया कि रे की वजह से फिरंगतिसर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पाने से वंचित रही. हालांकि बरुआ सत्यजीत रे से हुई अपनी मुलाकात को शिद्दत से याद करते हैं. उनके प्रशंसा के शब्द को वे आज भी भूल नहीं पाए हैं और कहते हैं कि मेरे लिए यह सपने के सच होने जैसा था.पर बॉलीवुड की बेरुखी को बरुआ भी बातचीत में रेखांकित करते हैं. वे उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा की समकालीन संस्कृति के बारे में कहते हैं: आपको समझना होगा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा का बाजार बहुत छोटा है. लोकल स्तर पर जो फिल्म उद्योग है उस पर सरकार का ध्यान नहीं है. जो फिल्मकार हैं वह व्यावसायिक फिल्मों की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, उन पर हिंदी फिल्मों का असर है. लेकिन कुछ युवा फिल्मकार काफी अच्छा काम कर रहे हैं. उन्हें यदि सहायता मिले तो निस्संदेह अच्छी फिल्में लेकर आएँगे.

सिनेमा बड़ी पूंजी की मांग करता है और निर्माण-वितरण का कारोबार बाजार पर निर्भर है. लेकिन बाजार नहीं होने के बावजूद बरुआ जैसे फिल्मकार असमिया समाज और संस्कृति को सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर लाने में सफल रहे हैं. सच्चाई यह है कि आज भी सेमखोरजैसी फिल्में बन रही है. यह कहने में कोई संकोच नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में भारत की विविध संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि हिंदी में बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में. और इस बात से जानू बरुआ भी सहमत हैं.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Sunday, December 12, 2021

ध्रुपद संगीत में लयकारी का सम्मान

 

ध्रुपद के वरिष्ठ गायक अभय नारायण मल्लिक को वर्ष 2019 के लिए राष्ट्रीय कालिदास सम्मान देने की घोषणा पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने की. यह सम्मान शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मिला है. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, पच्चासी वर्षीय मल्लिक बिहार के प्रसिद्ध दरभंगा-अमता घराने से ताल्लुक रखते हैं. ध्रुपद के सिरमौर रामचतुर मल्लिक के शिष्य रहे अभय नारायण मल्लिक इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है. उनके पुत्र संजय मल्लिक भी ध्रुपद के चर्चित गायक थे जिनका इसी वर्ष कोरोना महामारी के दौरान निधन हो गया.

मिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. तेरहवीं पीढ़ी के युवा गायक, विदुर मल्लिक के पोते, समित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 'निराशा के बीच यह सम्मान हमारे लिए खुशी लेकर आया है.' दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री) के ओज पूर्ण गौहर-खंडार वाणी और पंडित विदुर मल्लिक के ठुमरी गायन की चर्चा आज भी होती है. इंटरनेट के प्रसार ने शास्त्रीय संगीत की पहुँच को आसान कर दिया है. कोई भी रसिक चाहे तो रामचतुर मल्लिक, विदुर मल्लिक या उनके पुत्र राम कुमार मल्लिक के गाए ध्रुपद या ठुमरी शैली में विद्यापति के पदों को सुन सकता है.

दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तलवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहर, डागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. खुद मल्लिक ध्रुपद के साथ-साथ ठुमरी और विद्यापति के भक्ति पदों को देश-विदेश में गाते रहे हैं और उनके नाम कई कैसेट/सीडी हैं. वे आकाशवाणी से भी लंबे समय तक जुड़े रहे.

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. मैथिली के कवि विद्यापति लोक भाषा के रचनाकारों में अग्रगण्य हुए. दरभंगा घराने में ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ा, लेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ा, वैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. सुखद रूप से देश-विदेश में पिछले दशकों में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. समित मल्लिक कहते हैं कि युवा वर्ग काफी संख्या में ध्रुपद सीख रहे हैं. कुछ साल पहले हुई मुलाकात में पंडित अभय नारायण मल्लिक ने मुझे बताया था कि ‘खयाल का अति हो गया था!’ 

(रवि रंग, प्रभात खबर, 12.12.21)

Thursday, December 02, 2021

निर्देशकों को संवारने वाला समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता

 


सिनेमा के  जाने-माने आलोचक, फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता (1921-2011) के जन्मशती वर्ष की शुरुआत पिछले दिनों कोलकाता में हुई. उनकी पुत्री, जानी-मानी अभिनेत्री अपर्णा सेन ने श्रद्धांजलि देते हुए चिदानंद दास गुप्ता मेमोरियल ट्रस्ट के स्थापना की घोषणा की है. संयोग से महान फिल्मकार सत्यजीत रे (1921-1992) की जन्मशती भी इस वर्ष मनाई जा रही है. सर्वविदित है कि दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध थे.

वर्ष 2008 में प्रकाशित उनकी किताब सीइंग इज विलिविंग’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है- मैंने पहली फिल्म आलोचना वर्ष 1946 में लिखी थी जिसके एक साल बाद हमने कलकत्ता फिल्म सोसाइटी की शुरुआत की. 20वीं सदी में सिनेमा कला का आविर्भाव और विकास हुआ. तकनीक के माफर्त महज कुछ ही दशकों में विशाल दर्शक वर्ग तक इस कला ही पहुँच हुईसभी कलाओं को खुद में समाहित करने की वजह से समकालीन समय और समाज को प्रभावित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो उठी. इसके साथ ही सिनेमा माध्यम के स्वरूप, रसास्वादन और समाज के साथ अंतर्संबंधों की पड़ताल भी शुरु हुई.

चिदानंद दास गुप्ता आजाद भारत में सिनेमा संस्कृति के प्रवर्तकों में से एक थे.  वर्ष 1947 में फिल्म सोसाइटी की स्थापना उन्होंने सत्यजीत रे और हरि साधन गुप्ता के साथ मिल कर की थी. आश्चर्य नहीं कि बाद के वर्षों में जब विश्व सिनेमा के पटल पर सत्यजीत रे अग्रिम पंक्तियों में खड़े हुए तब उनकी फिल्मों का विस्तार से विवेचन-विश्लेषण उन्होंने ही किया था, जो द सिनेमा आफ सत्यजीत रे’ में संग्रहित है. इसके अतिरिक्त टाकिंग अबाउट फिल्मसद पेंटेड फेसस्टडीज इन इंडियाज पापुलर सिनेमा उनकी चर्चित किताबें हैं. उन्होंने फेडरेशन ऑफ फिल्म सोसाइटीज ऑफ इंडिया (1960) की शुरुआत भी की थी. रे इसके अध्यक्ष रह चुके थे और दासगुप्ता सचिव.  इन संस्थाओं के माध्यम से विश्व की बेहतरीन फिल्में देखने और विश्लेषण करने का मौका सिनेमा प्रेमियों और बाद के दशक में उभरे सिनेमा निर्देशकों को मिला. 70-80 के दशक में देश में समांतर सिनेमा की जो धारा बही (चिदानंद दास गुप्ता  इसे अनपॉपुलर सिनेमा कहते हैं) उसे श्याम बेनेगल, अडूर गोपालकृष्णन, गिरीश कसरावल्ली जैसे फिल्मकारों ने पुष्ट किया. इन निर्देशकों ने अपनी सिनेमाई यात्रा में हमेशा फिल्म सोसाइटी की भूमिका को रेखांकित किया है.

साठ वर्षों के लेखन कर्म में चिदानंद दास गुप्ता ने करीब 2000 से ज्यादा देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए निबंध लिखे. उनके निबंध सिनेमा के अखबारी समीक्षाओं से अलग हैं. साथ ही हाल के दशक में भारतीय सिनेमा के देश-विदेश में जो अकादमिक अध्येता उभरे हैं उससे भी अलग है. जो चीज उन्हें अलगाती है वह है उनकी सहज शैली. बिना किसी विशिष्ट शब्दावली (जार्गन) के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों, संबंधों के परिप्रेक्ष्य में सिनेमा को वे रोचक ढंग से परखते हैं. जब वे किसी फिल्म निर्देशक के बारे में लिखते हैं तब उनकी फिल्मों की विवेचना के साथ ही निर्देशक का राजनीतिक और सामाजिक बोध भी घेरे में आ जाता है. इसी क्रम में वे दूसरे निर्देशकों से तुलना भी करते चलते हैं. मसलन श्याम बेनेगल की फिल्मों की विवेचना करते हुए वे नोट करते हैं:

बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति, चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन, क्राफ्टमैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं, जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.

वर्ष 1997 में चिदानंद दास गुप्ता भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में नेशनल फेलो के रूप में मनोनीत थे. उस दौरान हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार भी वहीं फेलो थे. उनको याद करते हुए वे कहते हैं-उनको देख कर लगा नहीं कि वे इतने बड़े निर्देशक और सिनेमा के समीक्षक हैं. वे रवींद्रनाथ ठाकुर के दादा द्वारका नाथ ठाकुर, जो एक  बड़े व्यवसायी थे, उन पर फिल्म बनना चाहते थे.”  दुर्भाग्य से फिल्म बन नहीं पाई. दास गुप्ता फिल्म के लिए जरूरी वित्तीय पूंजी नहीं जुटा पाए थे. तलवार कहते हैं कि उन्होंने इस फिल्म की स्क्रिप्ट को ड्रामेटाइज किया था और संस्थान में मौजूद फेलो से सेमिनार के दौरान टेबल पर विभिन्न पात्रों के संवाद बुलवाए थे. काफी आनंद आया था इसमें.

चिदानंद दास गुप्ता भले समीक्षक के रूप में चर्चित रहे हों उन्होंने फिल्में भी निर्देशित की थी. वर्ष 1972 में उन्होंने पहली फिल्म बिलेत फेरेट’ यानी फॉरेन/लंदन रिटर्न निर्देशित की थी, जो तीन कहानियों को समेटे हैं. एक कहानी ऑक्सफोर्ड से लौटे शख्स के इर्द-गिर्द है, जो परिवार की इच्छा के विपरीत व्यवसाय को चुनता है. आमोदिनी (1994) उनकी चर्चित फिल्म है, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 18वीं सदी में बंगाल के ब्राह्मण समाज में मौजूद कुलीनवाद (धनी व्यक्ति के बीच बहुविवाह की प्रथा) पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है. हास्य से पूर्ण इस फिल्म में अपर्णा  सेन और कोंकणा सेन शर्मा की भी भूमिका है.

फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता पर उनका समीक्षक रूप हावी रहा. दास गुप्ता और रे के जन्मशती वर्ष में सत्यजीत रे की पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उन्होंने जो लिखा है उससे बात समाप्त करना रोचक होगा. उन्होंने लिखा है-“ पाथेर पांचाली सिनेमाई भाषा और इसकी भारतीयता दोनों ही दृष्टियों से पहले कहीं न दिखाई देने वाली पूर्णता और आवेग को दर्शाने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत की प्रतीक बनी...इनमें से बहुत सी प्रवृत्तियाँ नये भारतीय सिनेमा का अंग बन गई हैं और पहचान की कमी वाली व्यावसायिक फार्मूला फिल्मों के विरुद्ध प्रतिवाद का अंग भी बन गई हैं.”  यदि रे दुनिया भर के समीक्षकों के प्रिय रहे तो दासगुप्ता 20वीं सदी के प्रमुख भारतीय निर्देशकों के प्रिय समीक्षक थे. यह सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, अडूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों पर लिखे उनके लेख से स्पष्ट है. वे निर्देशकों को संवारने वाले समीक्षक-आलोचक थे.

 (न्यूज 18 हिंदी के लिए)