Monday, February 26, 2024

कुमार शहानी: एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार का जाना


अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत किया था तब भी वे फिल्म बनाने को लेकर उत्सुक थे. उन्होंने मुझे कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रुचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है.

अब उनकी फिल्में, लेखन, व्याख्यान और मुलाकातें ही हमारी स्मृतियों में रहेंगी. वे सहज और सौम्य व्यक्ति थे. कुछ वर्ष पहले जब एक बार बातचीत के लिए मैंने उन्हें फोन किया और परिचय देते हुए कहा कि मिलना चाहता हूँ, उन्होंने दोपहर के समय दिल्ली के आईआईसी में बुलाया. मैंने कहा कि—सर, मैं दिन में नौकरी करता हूँ, क्या फोन पर बात हो सकती है. उन्होंने शाम का समय दिया. फिर मैंने पूछा कि छह बजे के बाद यदि बात करुँ तो उन्हें दिक्कत तो नहीं होगी? उन्होंने बेहद शालीनता से कहा कि-नहीं. फिर जोड़ा-नौकरी करना जरूरी है.
‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. वे सिनेमा के विचारक और एक कुशल शिक्षक भी थे. मुझे याद है कि करीब बीस साल पहले उन्होंने जेएनयू में कार्ल थियोडोर ड्रेयर की चर्चित फिल्म द पैशन ऑफ जॉन ऑफ आर्क (1928) पर एक व्याख्यान दिया था.
पिछली सदी के साठ के दशक में समातंर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल के संग उन्होंने पुणे स्थित फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) से फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लिया था. फिल्म संस्थान में उन्हें ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया, वहीं छात्रवृत्ति लेकर जब वे पेरिस गए तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस (ए जेंटल वुमन, 1969)’ फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों ही निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म-निर्माण की शैली उनकी निजी है.
बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन और फॉर्म के प्रति एकनिष्ठता उनकी फिल्मों में जैसा दिखता है, सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है. उन्होंने कहा था कि ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहाँ ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है.
उनकी सभी फिल्मों में ‘फॉर्म’ के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. वे कहते थे ‘रंग हमारे होने की खुशबू को परिभाषित करता है.’ ‘माया दर्पण’ से लेकर ‘चार अध्याय’ तक ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग उल्लेखनीय है.
यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. वे सिनेमा माध्यम पर तकनीक के बढ़ते जोर को लेकर चिंतित रहते थे.
शहानी अक्सर अपने जन्म स्थान लरकाना (सिंध, पाकिस्तान) की चर्चा करते थे. साथ ही रंगों के मेल और भारतीय सभ्यता और संस्कृति में इसकी केंद्रीयता को रेखांकित करते रहे. वे खुद को घटक की तरह ही विभाजन (पार्टीशन) की संतान कहते थे.
‘माया दर्पण’ निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है, पर यह फिल्म उसका अतिक्रमण करती है. शहानी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थे, फिल्म में सामंतवाद का विरोध है. इस फिल्म में उनकी वर्ग-चेतन दृष्टि स्पष्ट दिखती है. जब मैंने फिल्म में कहानी से अलग ‘ट्रीटमेंट’ के बाबत सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था: “मैंने ‘माया दर्पण’ में सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है. इस फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है. उस डांस में जो ऊर्जा है वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है. यह काली के रंग में भी है.”
कुमार शहानी कहते थे कि जब आप फिल्म बनाते हैं तब आप एक विशिष्ट काम करने की इच्छा रखते हैं-- खास कर जब आप स्वतंत्रता की बात करते हैं. एक तरह से वैयक्तिक स्वतंत्रता इस फिल्म की मूल भावना है. कला में यह स्वतंत्रता किस रूप में आए, शहानी की यह फिल्म इस बात की खोजबीन करती है.
कुमार शहानी की फिल्मों में बिंब (इमेज) सायास रूप से भारतीय चित्रकला से प्रेरित दिखते हैं. अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह जैसे समकालीन फिल्मकारों पर उनका स्पष्ट प्रभाव है. माया दर्पण के बाद की उनकी फिल्मों का अध्ययन संगीत से उनके जुड़ाव के आधार पर ही किया जा सकता है. उनकी फिल्मों पर हिंदी में गंभीर विवेचना की जरूरत है. ये फिल्में भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगी हैं, राजनीतिक विचारधारा का यहाँ समावेश है. असल में, शहानी दोनों के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे.

Wednesday, February 21, 2024

मीडिया का लोकतंत्र: समीक्षा


 लोकसभा चुनाव के महज कुछ हफ्ते शेष बचे हैं. वर्तमान शासन के दस साल बाद भी विपक्षी पार्टियों के लिए चुनावी रणनीति का कोई ऐसा सिरा दिखाई नहीं दे रहा जिससे कहा जा सके कि मुकाबला दिलचस्प होगा. क्या यह चुनाव बिना किसी चुनौती के संपन्न होगाविपक्षी पार्टी पर भारतीय जनता पार्टी ने मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री कहते फिर रहे हैं कि आएगा तो मोदी ही!

प्रधानमंत्री की छवि एक ब्रांड (मोदी है तो मुमकिन हैमोदी की गारंटी आदि) के रूप में इन वर्षों में पुख्ता हुई है. प्रधानमंत्री के इस कल्ट’ को कारोबारी मीडिया भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. जो प्रधानमंत्री की राजनीति और विचारधारा के आलोचक हैं, वे भी उनकी लोकप्रियता से इंकार नहीं करते. उनकी लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उदारीकरण के साथ हिंदुत्व की जो बयार बही उससे जुड़ता है. भाषाई मीडियाजिसका अप्रत्याशित विकास इन्हीं दशकों में हुआ हैसमाज में आए बदलाव को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ा है. इसी सिलसिले में एक नेटवर्क का विस्तार भी हुआ हैदूर दराज के गाँव-कस्बों तक मीडिया (मुख्यधारा और सोशल) की पहुँच बढ़ी है. विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी मीडिया के माध्यम से मोदी की लोकलुभावन अपील को अपने तयी देखते-परखते हैं, चुनाव में वोट करते हैं.

चूँकि मीडिया एक पूंजीवादी उपक्रम है (प्रिंट पूंजीवाद)इसलिए मुनाफे की संस्कृति से ही इसका संचालन होता हैलोकहित हाशिए पर ही रहते आए हैं. वैसे प्रकाशन व्यवसाय भी कोई अपवाद नहीं है,  यहाँ भी लेखकों की ब्रांडिंग पर जोर रहता है. उनकी छवि भुनाने की कोशिश होती है. हाल के वर्षों में हिंदी लोकवृत्त में यह प्रवृत्ति बढ़ी है.

बहरहालराम मंदिर निर्माण के बाद हिंदुत्व और विकास की जुगलबंदी का शोर और बढ़ा है. इस शोर के बीच रोजगारबढ़ती असमानताअल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना और संस्थानों के लगातार कमजोर होने की चर्चा सुनाई नहीं देती. स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्रचेता मीडियाकर्मियों पर जो दबिश बढ़ी हैउसके बारे में खुल कर बोलने में आम नागरिकों में हिचक है. सोशल मीडिया में भी एक तरह का सेल्फ-सेंसरशिप है. ऐसे में, मुख्यधारा का मीडिया सरकार के एजेंडे को ही अपना एजेंडा मान कर आगे बढ़ रहा है. हाल के दिनों में अडानी समूह के मीडिया क्षेत्र में बढ़त को हम उनके कारोबारी हित के नजरिए से देख-परख सकते हैं.

वैसे दिल्ली में आने से पहले ही मोदी की ब्रांडिंग शुरू हो गई थीजिसे मीडिया का भरपूर सहयोग मिला था. वर्ष 2012 में चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पृष्ठ पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी थी. साथ ही इंडिया टुडेकारवां और आउटलुक पत्रिकाओं के कवर पर भी नरेंद्र मोदी छाए हुए रहे.  इंडिया टुडे में जहाँ एक ओपिनियन पोल के हवाले से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बतायावहीं कारवां और आउटलुक पत्रिका ने मोदी की छवि को लेकर कुछ तल्ख सवाल किए थे. मोदी को लेकर मीडिया के अंदर दो ध्रुव थे. बाद के वर्षों में यह दूरी और बढ़ती गई. हिंदी टेलीविजन मीडिया के हवाले से बात करें तो रवीश कुमार और सुधीर चौधरी इस ध्रुव के ओर छोर कहे जा सकते हैं.

उदारीकरण के बाद भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदला. कॉरपोरेटमीडिया और राजनीतिक दलों में हर तरफ जोर प्रबंधन पर बढ़ा. मीडिया में जहाँ ब्रांड मैनेजर की अहमियत संपादकों से ज्यादा बढ़ी वहींराजसत्ता में मीडिया मैनेजरों की घुसपैठ किसी भी सक्षम नौकरशाहों से कम नहीं है. समयांतर पत्रिका (मई, 2012) के लिए मोदी और मीडिया’ लेख में मैंने लिखा था:

कोई भी पाठक यदि सरसरी तौर पर भी टाइम के लेख को पढ़े तो उसे समझने में यह देर नहीं लगेगी कि यह एक महज पीआर (जनसंपर्क) का काम है जिसे नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजरों ने बखूबी अंजाम दिया है.”  

इन वर्षों मीडिया के चरित्र में जो बदलाव हुए हैं, नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग में जो इसकी भूमिका रही हैसोशल मीडिया का जो उभार हुआ है उसका एक लेखा-जोखा पिछले दिनों लेखक विनीत कुमार की प्रकाशित किताब- मीडिया का लोकतंत्र में दिखाई देता है.

जैसा कि शीर्षक और अध्यायों से स्पष्ट है इस किताब में मीडिया और लोकतंत्र बीज शब्द हैं. किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को केंद्रीयता प्राप्त है. इसकी रक्षा का भार नागरिक समाजमीडियान्यायालय और राजनीतिक दलों पर है. मीडिया चूँकि लोकतंत्र में आम जनता की आँख और कान की तरह होते हैंजाहिर है उससे अपेक्षा रहती है कि वह सबकी खबर ले. सबको खबर दे. सवाल है कि क्या मोदी के शासन काल में मीडिया जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता के सामने सच कहने में सफल रही? इसका जवाब नकारात्मक ही है. मीडिया की आवाज दबी रही. स्वर हकलाने का ही रहा. आज जोर सेल्फी पत्रकारिता पर है. प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी, संपर्क साध कर पत्रकार-संपादक खुद को धन्य महसूस करते फिरते हैं. कारोबारी मीडिया का जोर सत्ता के साथ सांठगांठ करने पर बढ़ा है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अखबार और टेलीविजन चैनलों के स्पेशल इवेंट’ हैंजहाँ मंच पर मालिक और संपादक सत्ता’ पर काबिज लोगों के साथ नज़र आते हैं.

यह किताब मीडिया का लोकतंत्रबरास्ते पीआर एजेंसी’, मीडिया नैरेटिवफ़ेक बनाम फैक्ट’, मीडिया राष्ट्रवादअलविदा लोकतंत्र!’ और न्यू मीडियाडेटा पैक का लोकतंत्र जैसे अध्यायों में विभक्त है. इस किताब की भूमिका में विनीत लिखते हैं:

साल 2014 के बाद मीडिया का चरित्र पूरी तरह बदल गया है और अब तक सत्ता से विवेकपूर्ण असहमति को पत्रकारिता माना जाता रहा हैयह क्रम उलटकर सत्ता के साथ होना ही पत्रकारिता हैऐसा कहने से यह किताब रोकती है.” हालांकि इस किताब में जो विवरणउदाहरणसंदर्भ और ब्यौरे हैं, वह लोकवृत्त में पहले से मौजूद हैं. मीडिया के रवैये को लेकर मीडिया के अंदर ही टीका-टिप्पणी और किताबें लिखी जाती रही है. लेखक इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं:

आप जब इसके पन्ने-दर-पन्ने पलटते हुए संदर्भों से गुजरेंगे तो संभव है कि लगेगा इसमें नया क्यायह तो हमें पहले से पता है...”. लेखक की पक्षधरता स्पष्ट है. हिंदुत्ववादी राजनीति और सत्ता के विरोध में वह खड़ा है. लेकिन देश की विशाल आबादी (खास कर उत्तर और पश्चिम भारत) तक मोदी की पहुँच के कारणों पर इसमें विचार नहीं किया गया हैन हीं मीडिया के उपभोक्ताओंनागरिकों की सोच को ही शामिल किया गया है. इस लिहाज से यह एक किताब भी एक इको चैंबर की तरह है, जहाँ हम (लिबरल) सिर्फ अपनी आवाज ही सुनते हैं.

मीडिया के पाठकोंदर्शकों की पसंद को लेकर अकादमिक दुनिया में शोध की पहल नहीं दिखती. विनीत मीडिया शोध और अध्ययन से जुड़े रहे हैंउनसे अपेक्षा थी कि वे दर्शकों की पसंदइच्छा को लेकर इस किताब में चर्चा करते ताकि मोदी की लोकप्रियता के कारणों की एक झलक हमें मिलती. महज उदाहरणोंकिताब के संदर्भों के आधार पर मीडिया के बदलते चरित्र-- जहां जनसंपर्क (पीआर) की भूमिका बढ़ती चली गई है-- की मुकम्मल तस्वीर सामने नहीं आती. हांकिताब में वर्ष 2013 में उत्तरकाशी-केदारनाथ में आई तबाही और मोदी को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया में जो झूठी खबर छपी- मोदी इन रैम्बो एक्टसेव्स 15000’ , को एक केस स्टडी के रूप में विस्तार से विश्लेषण किया गया हैविनीत बताते हैं कि किस तरह एक ही मीडिया संस्थान के दो उपक्रम (प्लेटफॉर्म) अलग-अलग तरीके से खबरों को प्रस्तुत करते हैं और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे को काटते भी चलते हैं! हालांकि यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि टाइम्स ग्रुप के लिए इस तरह की खबर सिर्फ पीआर का मसला नहीं रहा है.

बीस साल पहले जब मैं टाइम्स ग्रुप के अखबार नवभारत टाइम्स पर शोध कर रहा थाइस तरह की खबर पेड न्यूज’ की शक्ल में आने लगी थी. वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में यह खुल कर सामने आ गया था. चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से मोटी रकम लेकर पैकेज’ के तहत टाइम्स ग्रुप ने मीडिया नेट कंपनी (2003) और प्राइवेट ट्रीटीज (2005) की शुरुआत कर दी थी. इसका विस्तार से उल्लेख मैंने अपनी किताब हिंदी में समाचार (2013)’ और शोध आलेख राइटिंग खुश खबरहिंदी न्यूज़ पेपर्स इन नियो लिबरल ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’ (2021) में किया है. आश्चर्य है कि विनीत अपने लेख में कहीं भी इस पहलू का जिक्र नहीं करतेजबकी इस अध्याय में विनीत विज्ञापन गुरु (अबकी बार, मोदी सरकार’ वाले) पीयूष पांडे की आत्मकथात्मक किताब पांडेमोनियमपीयूष पांडे ऑन एडवरटाइजिंग (2015) को लेकर अनावश्यक रूप से करीब दस पेज खर्च करते हैं. इसी तरह कई ऐसी किताबों से उदाहरण हैं जिसे संक्षेप में दिया जा सकता था. वैसे यह पूरी किताब ही सेड/शी सेड (किसने क्या कहा) की शैली में ही लिखी गई है, जहाँ पर अद्यतन किताबों के संदर्भ और विवरण तो मिलते हैं पर लेखकीय विश्लेषण का अभाव दिखता है. मीडिया की रिपोर्टिंग में ऐसी छूट की गुंजाइश तो है, पर जब आप शोध/आलोचना कर रहे हैं तो लेखक से अपेक्षा रहती है कि उसकी दृष्टि और तैयारी से पाठक रू-ब-रू होगा.  ऐसे में पूरी किताब में लेखक कहीं पीछे छूट जाता है और अन्य' हावी हो जाते हैं. पाठकों के लिए यह उलझन पैदा करता है. पठनीयता भी प्रभावित होती है. किताब में जिन लेखकों को उद्धृत किया गया, अधिकांश के साथ कोई खंडन-मंडन नहीं है, न ही लेखक की तरफ से सवाल हीं उछाला गया है. एक किताब सारे सवालों का जवाब भले न दे, पाठकों के मन में बीजारोपण तो कर ही सकती है!

इस शताब्दी के दूसरे दशक में जहाँ इंटरनेट के मार्फत आभासी दुनिया में एक अंतरराष्ट्रीय लोकवृत्त के निर्माण की संभावना बनी, वहीं सूचनाओं के आल-जाल में तथ्य और सत्य के बीच की रेखा धुंधली हो गई. यथार्थ और आभासी के बीच फेक न्यूज का ऐसा तंत्र खड़ा हुआ जिसे सत्ता का सहयोग हासिल है. यह अमेरिका से लेकर भारत जैसे लोकतंत्र के लिए चुनौती का विषय बना है. पिछले दिनों अभिनेत्री पूनम पांडेय की मौत की खबर  फेक न्यूज बन कर आई जिसे बीबीसी जैसी संस्थाओं ने भी बिना किसी जांच-परख के स्वीकार कर लिया था.

विनीत अपने लेख मीडिया नैरेटिवफेक बनाम फैक्ट’ में इस मुद्दे से विमर्श रचते हैं. कोरोना के दौरान जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ फेक न्यूज टीवी चैनलों पर फैलाया गया विनीत उसे विश्लेषण की जद में लेते हैं. वे आजतक के कार्यक्रम में दिखाए कोई झुठला नहीं पाएगा राम मंदिर का इतिहासजाने कितना अहम है टाइम कैप्सूल (राम मंदिर के नीचे रखा जाएगा टाइम कैप्सूलदेखें क्या है तैयारीकार्यक्रम की पड़ताल करते हैं. विनीत लिखते हैं:

आजतक की दर्जनों फुटेज देखने के बाद भी एक भी ऐसी तस्वीर नहीं मिली जिससे कि राम जन्मभूमि परिसर में टाइम कैप्सूल डाले जाने संबंधी तैयारी की पुष्टि हो सके. यह स्थिति जी न्यूजरिपब्लिक भारतटाइम्स नाउसभी चैनलों के साथ रही.”

हालांकि इस अध्याय में भाषाई वर्चस्व के बीच हिंग्लिश की शरणस्थली की चर्चा करना विषय-वस्तु के साथ मेल नहीं खाता है. उसके लिए एक अलग स्वतंत्र अध्याय की गुंजाइश थी. खुद लेखक ने लिखा है कि वे इस विषय पर अन्यत्र लिख चुके हैं.

उल्लेखनीय है कि राममंदिर के उद्घाटन समारोह में जैसा कि उम्मीद थीटेलीविजन चैनलों में राम राज्य’ का बोलबाला रहा. उससे पहले ही इंडिया टुडे टीवी चैनल पर राम आएँगे’, टीवी 9 पर मंदिर वहीं बनाएँगे और एनडीटीवी पर राम रिटर्न्स’ जैसे कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे. ऐसा नहीं है कि पहली बार टीवी ने भावनात्मक मुद्दे को लेकर बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के कार्यक्रम, बहस आदि किए हो. मोदी के शासनकाल में टीवी में राष्ट्रवाद के ऊपर बहस-मुबाहिसा का जोर बढ़ा है, जहाँ पर समावेशीसामासिक संस्कृति की बात नहीं होती. असल मेंहिंदी समाचार चैनल अपने शुरुआत से ही विचार-विमर्श की जगह सनसनी को अपने केंद्र में रखा. आज उग्र राष्ट्रवाद हिंदुत्व का आवरण ओढ़ कर हमारे सामने है. जैसा कि कुंवर नारायण ने अपनी कविता (अयोध्या, 1992) में लिखा है:

हे राम,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकाव्य!

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं.

यह लाखों सर और लाखों हाथ समकालीन भारतीय मीडिया के हैं. राष्ट्रीय मीडिया सत्ता के साथ हैजिससे नागरिक समाज और विपक्ष को लड़ना है. पर कैसेक्या लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया विपक्ष के लिए एक कारगर हथियार साबित होगाइस किताब का आखिरी अध्याय न्यू मीडियाडेटा पैक का लोकतंत्र’ खबरों और विभिन्न लेखकों की किताबों (राहुल रौशन, अंकित लाल, स्वाति चतुर्वेदी, रोहित चोपड़ा, सिरिल और परंजय गुहा ठाकुरता आदि)  के हवाले से इन्हीं मुद्दों को अपने घेरे में लेता है.

आखिर मेंलेखक ने किताब में नोट किया है कि "कारोबारी मीडिया के लिए लोकतंत्र नागरिकों की हिस्सेदारी से चलनेवाली एक सतत प्रक्रिया न होकरएक प्रबंधन है जिसे कि वो अपने ऑक्सीजन प्रदाता के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं." पर क्या हमारा मीडिया हमारे लोकतंत्र से अलग है? ‘मीडिया का लोकतंत्र में मीडिया की आलोचना तो है पर इस बुनियादी सवाल पर चुप्पी है. जब संकट लोकतंत्र पर हो तब समकालीन मीडिया की कोई भी आलोचना उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के बाद समाजराजनीति और पूंजीवाद (खुफिया पूंजीवाद) में आए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता हैजिसका इस किताब में नितांत अभाव है. 

(प्रभात खबर, 25.02.24)

Sunday, February 04, 2024

दरभंगा घराने के ध्रुपद का सम्मान


 हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद  के लिए दरभंगा-अमता घराने की चर्चा होती रही है. यह घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर राज के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया. बिहार में इसके कद्रदान नहीं रहे.

पिछले दिनों दरभंगा घराने के चर्चित गायक और ध्रुपद के शिक्षक राम कुमार मल्लिक को शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई. 71 वर्षीय मल्लिक दरभंगा में रहते हैं और पंडित विदुर मल्लिक गुरुकुल (दरभंगा) में छात्र-छात्राओं को ध्रुपद में प्रशिक्षण दे रहे हैं. पंडित विदुर मल्लिक उनके पिता और गुरु थे जो 80 के दशक में वृंदावन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी.

इसी घराने में पंडित रामचतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी जैसे प्रसिद्ध गायक हुए हैं, जिन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. करीब पचास साल के बाद इस घराने के हिस्से पद्म पुरस्कार आया है, जबकि विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक जैसे ध्रुपदिए भी इसके हकदार थे. राम कुमार मल्लिक कहते हैं, यह अचल पद है. सारी दुनिया की संगीत का तत्व समझिए इसे. ख्याल विचलित हो सकता हैध्रुपद नहीं. कनकमुरकी मूर्छना नहीं लगता, यह मीड़ और गमक की चीज है.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. जिस तरह कबीर के पदों के लिए कुमार गंधर्व और मीरा के पदों के लिए किशोरी अमोनकर विख्यात हैंउसी तरह से दरभंगा घराने के गायक विद्यापति के पदों को गाते रहे हैं. मल्लिक कहते हैं चारों पट की गायकी दरभंगा घराने में आपको मिलेगी. ध्रुपद के साथ मैं ख्यालदादराठुमरीगजल-भजनलोकगीत भी गाता हूँ.

वे कहते हैं कि तानसेन के घराने से ही हमारे पूर्वजों ने गायन सीखा था. राधाकृष्ण और कर्ताराम (दो भाई और थे) ने ग्वालियर में रह कर भूपत खान जीजो तानसेन के नाती थेसे बाइस वर्ष तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की जिसके बाद वे नेपाल बादशाह के पास आए. वहाँ वे दरबारी गायक थे. कालांतर में वे दरभंगा राज से जुड़े. इस घराने में पखावज और सितार के भी कुशल कलाकार हुए हैं. मल्लिक बताते हैं कि हमारे घराने में शिवदीन पाठक हुए (मेरे दादाजी के मामा) उनका जो सितार बजता था वह तो विश्व में कोई नहीं बजा पाया. उनकी ऊँगली का रखाव इतना सुंदर (सही) थासब स्वरों के अंदर बद-बदबद-बद होता था. रामेश्वर पाठक ने उन्हीं की छत्रछाया में कुछ-कुछ सीखा था.” रामेश्वर पाठक की चर्चा सितारवादक रविशंकर भी अपनी आत्मकथा में करते हैं. वे सितार के गुर सीखने अमता भी गए थे.  जहाँ बिहार के बेतिया, गया घराने के शास्त्रीय संगीत की आज चर्चा नहीं होती, वहीं दरभंगा घराने की नई पीढ़ी शास्त्रीय संगीत का अलख जगाए हुए हैं. मल्लिक दरभंगा घराने के बारहवीं पीढ़ी के सिद्ध गायक हैं.