Thursday, September 19, 2013

Inked in khush khabri and caution





Courtesy: The Hindu (May 20, 2013),  Prashant Jha: For Hindi journalism, the expansion in numbers has coincided with a change in the nature of content, confirming an earlier thesis of the creation of a ‘new public sphere’ 

In 2005-2006, the late Prabhash Joshi and Ajit Bhattacharjea – doyens of Indian journalism – visited Tilonia in Rajasthan. An advertisement for Reliance Mobile was splashed on the back page of Dainik Bhaskar, declaring that one could speak to anyone, anywhere in the country, for a rupee. The same ad slogan appeared on the front page of the same paper, in the same edition, as the news lead. 

The local editor of the paper came to meet Mr Joshi, and told him, “The ad came to us on the condition that we would provide them editorial support.” In English, this was called creating a ‘favourable editorial context’. Mr Joshi was to remark that not only were advertisements being published, there was an effort to control the space around it as well. 

Last week, Audit Bureau of Circulation (ABC) released figures of newspaper circulation for the final six months of 2012. It confirmed a trend that is now well established. Hindi newspapers sold the highest number of copies among dailies in all languages in India, clocking a circulation of 15 million copies in the July-December period. 

In a seminal book published in 2007, ‘Headlines from the Heartland’, the media critic, Sevanti Ninan has attributed this massive expansion in the Hindi ‘public sphere’ to a mix of factors – rising literacy, increase in purchasing power, the political churning with the Mandal and Mandir agitations in the Hindi heartland, the advent of TV which created a hunger for news, technology, push by market forces and localisation of news with proliferation of district editions. 

A recent book,Hindi Mein Samachar, News in Hindi, by researcher Arvind Das, argues that while there has been a rapid expansion, this does not correspond with a similar qualitative transformation for the better. 
Das studied journalism at the Indian Institute of Mass Communication (IIMC), and then enrolled in Jawaharlal Nehru University for his PhD. For his doctoral work, Das decided to examine the evolution of Hindi journalism by doing a rigorous content analysis of the Delhi edition of a single newspaper, Navbharat Times, published by the Bennett Coleman. There have been more changes in the Hindi press in the last 20 years compared to 185 years before that, he argues.
Karan Thapar, Ravish Kumar and Avinash at the launch of the book

Compared to 1986, Hindi papers in the last decade have more pages, more frequent and regular supplements, more photos, colour, graphics, design, and visuals. The ‘look and feel’ of papers had altered. In terms of content, an average front page story in 1986 was eight columns and politics dominated the coverage. Now, there were fewer and shorter stories; political and international coverage had reduced. Instead, economic/business news and sports coverage had increased by a significant proportion. ‘Khush khabri’, good news, is give priority. 

Issues related to Dalits, farmers, and workers neither found space then; nor does it now. There is a tendency to promote Hindu religious customs and idioms. There has however been an increase in the coverage of ‘women’s issues, even though stereotypes about representation remain and ‘sensitivity’ is missing. 

Das also examined the use of the language, and found that two decades ago, the Hindi used in print was ‘clear’, ‘crisp’, ‘conversational’, and more ‘Hindustani’ in nature – using words derived from various other linguistic traditions, like Sanskrit and Farsi, without compromising the integrity of the language. Words used in popular literature were borrowed. In 2005, there was a far greater use of English words, including full sentences – even when ‘unnecessary’. A new ‘Hingrezi’, mix of Hindi and English, language was being devised with strong influences of the market and Bombay cinema. 

Despite not being a language purist, the author contends this does not meet the needs of the Hindi-speaking belt, especially first-time readers who do not have other language skills and access to other sources of information. He told The Hindu, “Hindi does not have a vast idiom of social science research. Knowledge production still mostly happens in English. In that context, the media – now that it has resources – could play a role in giving us that language.” Das adds there is similar no investment in improving content. “Why does no Hindi paper have a foreign correspondent anywhere?” 

Theorists have spoken of how inherent in the transition from elite to a mass based public sphere is the degeneration of discourse. Das appears to subscribe to this view. But few can doubt the positive implications of the growth in Hindi journalism. In her work, Ninan convincingly argued that the public sphere had become ‘truly public’ in the process. Newspapers have democratised debate, widened information horizon, and raised public expectations vis-a-vis the State. 

But the role of the market, which has partly made this shift possible, remains a source of anxiety. Prabash Joshi narrated to Das an anecdote, in 2008, a year before his death. A news bureau was auctioned off in Ratlam of Madhya Pradesh for Rs 5 lakh; the role of the ‘bureau chief’ and the ‘boys’ he hired was not to collect news, but revenue for their own pockets and the newspaper management. The ability of Hindi papers to sustain their growth, contribute in expanding public sphere – while remaining true to journalism – will define their future.

Wednesday, September 18, 2013

हिंदी में समाचार का विमोचन

नई दिल्ली, 11 मई. (जनसत्ता ब्यूरो) वरिष्ठ आलोचक वीरभारत तलवार ने हिंदी पत्रकारिता से साहित्यकारों के जुड़े रहने की परंपरा का जिक्र करते हुए शनिवार को यहाँ कहा कि पत्रकार साहित्यिक हो या गैर साहित्यिक लेकिन उसे प्रोफेशनलहोना चाहिए और मूल्यों की चिंता जरूर की जानी चाहिए. 
 
यह बात उन्होंने यहाँ अरविंद दास की पुस्तक हिंदी में समाचारके लोकार्पण के असर पर अपने अध्यक्षीय संबोधन में कही. तलवार ने इस पुस्तक को हिंदी पत्रकारिता के बदलाव की किताब बताते हुए कहा कि इस इस बदलाव की कहानी इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती, अगर पुस्तक में मूल्यों में बदलाव की चिंता न की गई होती. उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में भूमंडलीकरण के दौर के अंतरविरोधों का गहराई से विश्लेषण किया गया है. उन्होंने कहा कि पुस्तक में धर्म और बाजार के गठजोड़ पर जो दृष्टि गई है वह पत्रकारिता के इतिहास को समाज परिवर्तन का इतिहास भी बना देती है.
आइ टीवी के अध्यक्ष करन थापर ने इस अवसर पर भाषा के स्वभाव का उल्लेख करते हुए कहा कि अखबार की भाषा औपचारिक भाषा है जबकि आपके ड्राइंग रूम में मौजूद टेलीविजन हर उस चीज से होड़ कर रहा है जो आप कर रहे हैं. टीवी उसी भाषा में होना चाहिए जिसमें आप बात करते हैं. टीवी अगर आम आदमी की भाषा की जगह औपचारिक भाषा में होगा तो वह एकदम नकली हो जाएगा. उन्होंने खबरिया चैनलों पर होने वाली अटकलबाजियों का जिक्र करते हुए शुक्रवार को दो मंत्रियों (पवन कुमार बंसल और अश्विनी कुमार) के इस्तीफों पर चली अटकलबाजी का जिक्र किया, जो, उन्होंने कहा कि पाँच घंटे चली. थापर ने कहा कि अगर इसकी जगह बीबीसी होता तो पांच घंटे अटकलों में नहीं लगाए जाते. वहां विश्वनीयता का ध्यान रखा जाता है.
उन्होंने कहा कि टीवी चैनलों की बहसें भी तमाशा खड़ा करने और झगड़ा करने वाली होती है. टीवी चैनल दरअसल, टीआरपी की दौड़ में लगे हैं. उन्होंने कहा कि बीबीसी स्वायत्त है. वह विज्ञापन के लिए नहीं भागता. थापर ने कहा कि अगर आप न्यूज वैल्यूसे अलग होते हैं तो आपकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है और यह पत्रकारिता नहीं है. 
एनडीटीवी इंडिया के कार्यकारी संपादक रवीश कुमार ने अस्सी और नब्बे के दशकी की हिंदी पत्रकारिता का जिक्र करते हुए बताया कि उस दौर में अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही थी लेकिन इसके बावजूद हम उतने प्रभावी नहीं थे. सत्ता पर (अंग्रेजी अखबारों की तुलना में) असर करने में हम पीछे रह जाते हैं. अस्सी और नब्बे का दशक भी हमारे लिए स्वर्ण युग नहीं था और आज का दौर भी नहीं है. हम हिंदी में पत्रकारीय संवेदन नहीं बल्कि मनोरंजन में तब्दील हो जाते हैं. उन्होंने कहा कि अस्सी के दशक में राजनीतिक पत्रकारिता होती थी और आज हम अगर मनोरंजन या व्यापार की तरफ जाते हैं तो इसे देखा जाना चाहिए.

रवीश ने टीवी में भी भाषा का ध्यान रखे जाने पर सहमति जताते हुए कहा कि भाषा के साथ-साथ हमने उसका भाव भी मारा है. इन चीजों को हम समाप्त करने देंगे तो कैसी स्थिति बनेगी, इस पर सोचना होगा. इस मौके पर जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने भी अपने विचार रखे. पुस्तक के लेखक अरविंद दास ने इस अवसर पर कहा कि भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज और राजनीति में जो परिवर्तन आए, वे मीडिया और खास तौर पर भाषाई मीडिया में भी आए. इस पुस्तक में उस परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित किया गया है. यह एक तरह से मेरा शोध कार्य है. शुरुआत में कार्यक्रम का संचालन कर रहे मोहल्ला लाइव अविनाश  ने कहा कि इस किताब में पहली चिंता भाषा की है और इसमें बहुसंख्यक जनता को केंद्र में रखा गया है.
 (जनसत्ता से साभार)

Saturday, July 06, 2013

लोक संस्कृति के रंग

महासुंदरी देवी (1921-2013)
पिछले साल मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के ऊपर एक शोध के सिलसिले में मैं महासुंदरी देवी से मिलने मधुबनी के करीब उनके गाँव रांटी गया था. पूस मास की हल्की धूप थी. आंगन के बीचों-बीच मड़वे पर सफेद साड़ी और लाल रंग का स्वेटर पहने  वे मिथिला कलाकारों को प्रशिक्षित करने में मशगूल थीं. वृद्धावस्था के कारण उन्होंने पेंटिंग करना भले छोड़ दिया था, पर आस-पड़ोस के गाँव की महिलाओं को नियमित प्रशिक्षण देना नहीं छोड़ा था. उनके आंगन में कदम रखते ही मैथिली कवि रमण कुमार सिंह की एक कविता - 'कोहबर लिखती औरतें', मेरे दिमाग में कौंध गई. 'यहाँ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का रंग नहीं है/ और न ही है/ किसी अंतरराष्ट्रीय चित्रकार की तूलिका/ जिसकी पेंटिंग बिकती है ऊँची बोली पर/ बाजार में हाथों हाथ.मिथिला पेंटिंग की बोली भले ही बाजार में ना लगेपर आज अतंरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रसिद्धि और पहुँच दोनो है. भूमंडलीकरण के इस दौर में जहाँ एक ओर अंतरराष्ट्रीयता का बोलबाला हैवहीं दूसरी तरफ स्थानीयता का आग्रह भी बढ़ा है. भूमंडलीकरण की एकरुपता की संस्कृति को लोक संस्कृति और कला से चुनौती मिल रही है. महासुंदरी देवी की एक पोती की शादी हाल ही में हुई थी, और उनके घर की भीत पर कोहबर, सियाराम, सूर्य, नैना-जोगिन, बाँस, मछली, अष्टदल कमल के चित्र उकेरी हुई थी. 

मिथिलांचल में शादी के बाद वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे 'कोहबर' कहा जाता है. इस घर की दीवारों पर कागज या कपड़े पर मिथिला पेंटिंग बनी होती है. मिथिला पेंटिंग को इस 'कोहबर' की चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित करने में महासुंदरी देवी का अप्रतिम योगदान  है. गंगा देवी, सीता देवी और जगदंबा देवी के साथ मिल कर उन्होंने इस लोक कला को आधुनिकता के रंग में रंगा. कोहबर, पूरइन, अष्टदल कमल, बांसपर्री के अतिरिक्त मिथिला पेंटिंग में वर्तमान में  सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक रंग भी दिखाई पड़ते हैं. पिछले दिनों मधुबनी जिले में कुछ कलाकारों ने पेड़-पौधे पर देवी-देवताओं के चित्रों को मिथिला पेंटिंग की शैली में उकेरने की मुहिम शुरु की, ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके. इसी तरह इस पेंटिंग में भ्रूण हत्या और सांप्रदायिकता जैसे विषयों को भी कलाकारों ने अपनी 'कर्ची-कलम' का आधार बनाया है. महासुंदरी देवी के भतीजे और चर्चित चित्रकार संतोष कुमार दास सांप्रदायिकता जैसे विषय पर वर्षों से काम कर रहे हैं. सैकड़ों साल पुराने इस कला में परंपरा और आधुनिकता का यह समावेश इसे समकालीन भाव बोध के करीब लाता है जो इस कला के विकसनशील होने का प्रमाण है. 
एक परंपरा के रूप में कायस्थ और ब्राह्मण परिवारों में मिथिला पेंटिंग की धारा पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रही है. हाल के वर्षों में समाज के हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय की महिलाओं का भी दखल बढ़ा है.  यह नोट करना जरुरी है कि  इन महिलाओं को महासुंदरी देवी और उनकी देवरानी कर्पूरी देवी ने वर्षों प्रशिक्षित किया. मल्लाह समुदाय से ताल्लुक रखने वाली रांटी की दुलारी देवी इसका उदाहरण हैं. हाल ही में एक आत्मकथात्मक किताब 'फॉलोइंग माइ पेंट ब्रश'  में  भी इसका जिक्र मिलता है. इसके आलावा, बिहार के समस्तीपुर जिले के दलित पृष्ठभूमि से आने वाली मालविका राज ने लीक से हट कर बुद्ध के जन्म से पहले से लेकर महापरिनिर्वाण तक की एक श्रृंखला बना कर मधुबनी पेंटिंग को नया विस्तार दिया है. 
महासुंदरी देवी का जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में हुआ था. बचपन में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया और उन्हें उनकी चाची देव सुंदरी देवी ने पाला पोसा. उनसे ही उन्होंने इस कला को  सीखा था. उन्होंने बताया कि पहली बार 1961-62 में भाष्कर कुलकर्णी उनके ही बनाए चित्रों को मिथिला से बाहर ले गए थे. फिर धीरे-धीरे गंगा देवी, सीता देवी और जगदंबा देवी जैसे सिद्धहस्त कलाकारों ने भी इस पेंटिंग पर अपनी गहरी छाप छोड़ी. इस सबों ने मिथिला कला को अमेरिका, जापान और यूरोप के कई देशों की कलार्दीघाओं में पहुँचाया. मिथिला जैसे सामंती समाज में, जहाँ स्त्रियों की स्वतंत्रता आज भी एक स्वप्न है, इस कला ने आर्थिक रूप से महिलाओं को संवृद्ध किया है और घर से बाहर निकलने की आजादी भी दी है.
वर्ष 2011 में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए महासुंदरी देवी को पद्मश्री से नवाजा था. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या इस बात का उन्हें कोई मलाल है कि उन्हें अन्य समकालीन कलाकारों की तरह पहले पद्म पुरस्कार नहीं मिल पाया. महासुंदरी देवी ने  मुस्कुराते हुए कहा कि नहीं,  इससे क्या फर्क पड़ता है.पर उनके घर वाले  जो खुद मिथिला पेंटिंग की थाती को संभालने में वर्षों से लगे हैं इस बात को रेखांकित करना नहीं भूले की यदा-कदा सरकार इन कलाकारों की सुध लेती है और फिर वर्षों सन्नाटा रहता है!
अरिपन और सूजनी कला में महासुंदरी देवी को महारत हासिल थी, पर महासुंदरी देवी की चित्र-शैली और उसमें लोक सांस्कृतिक तत्वों की समीक्षा अभी बाकी है. गंगा देवी, सीता देवी और जगदंबा देवी का वर्षों पहले देहांत हो चुका है. महासुंदरी देवी के निधन के बाद ऐसा लगता है कि मिथिला कला के एक युग का अंत हो गया. मिथिला पेंटिंग के गढ़ दरभंगा-मधुबनी जिले के गाँव हैं, पर वहाँ एक भी कलार्दीघा नहीं है. सुना है कि राज्य के नेताओं ने महासुंदरी देवी के देहावसान पर गहरा शोक व्यक्त किया था. पर सही मायने में जिले में एक कलादीर्घा की स्थापना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्दांजलि होगी.


(चित्र: महासुंदरी देवी रांटी में, जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कॉलम में 7 सितंबर 2013 को प्रकाशित)

Friday, June 28, 2013

नेकर के किनारे

धूप खूब खिली है. लोग नंगे बदन नेकर के तट पर लेटे धूप सेंक रहे हैं. कुछ विद्यार्थियों के हाथों में किताब और नोट बुक भी दिख जाती हैवैसे नेकर का पानी गंदला हैनदी पर बना पुल भी सेन या टेम्स पर बने पुल से कोई स्पर्धा करता नहीं दिखता. नेकर नदी और हाइडेलबर्ग को लेकर मेरे मन में एक छवि अल्लामा इकबाल की एक नज्म से जुड़ी हुई थी- एक शाम-दरियाए नेकर के किनारे.

हाइडेलबर्ग शहर की रौनक नेकर के दोनों तटों पर बसे विश्वविद्यालय से हैशहर खुश मिजाज दिखता है.  इसमें एक ठहराव है और समय के साथ ना चलने की जिद्दी धुन भी. कोई बनावटीपन या दिखावा नहींशहर का फैलाव भले ही कम हो पर सैलानियों की आवाजाही ज्यादा है

ऊँची पहाड़ियों पर बने कैसल के ऊपर पहुँचे तो मन में केदारनाथ सिंह की पंक्ति गूँजी- यहाँ से देखोकरीने से सजे मकानों का सुर्ख रंग, पहाड़ी पर हरे-भरे पेड़ और बीच में बहती नेकर नदी. मानो शहर बुद्ध की ध्यान मग्न प्रतिमा में बदल गया हो.

सोचता हूँ, सात सौ साल पहले यह शहर और विश्वविद्यालय कैसा रहा होगामन में नालंदा विश्वविद्यालय की छवि उभरती है. पुराने शहर के अंदरूनी हिस्से में हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय की पुरानी इमारत और एक संग्रहालय भी है. सन 1386 में स्थापित जर्मनी के सबसे पुराने इस विश्वविद्यालय ने इतिहास के कई थपेड़े झेलेनाजी जर्मनी में अन्य विश्वविद्यालयों की तरह इसने भी हिटलर का समर्थन किया था. हालांकि विश्वयुद्ध के दौरान विध्वंस से यह बच गया था, पर उस दौर में पुस्तकालय की किताबों को लोग शहर से दूर गाँवों-कस्बों में ले गए, ताकि विध्वंस की हालत में उसे बचाया जा सके. यूरोप में और खास कर जर्मनी में युद्ध कालीन इतिहास की गाथा को सहेज कर रखा गया है ताकि आने वाली पीढ़ी उस सबक से कुछ सीख सके. हाइडेलबर्ग की यात्रा से पहले हम कोलोन स्थित 'नेशनल सोशिलिज्म म्यूजियम' गए थे, जो नाजी जर्मनी में गेस्टापो (खुफिया पुलिस) का मुख्यालय था. उन दीवारों पर उस दौर की ज्यादती और व्यथा का विवरण भले ही विचलित करता हो, पर मानवता के इतिहास के लिए इसे सहेजना जरुरी लगता है

बहरहाल, पुराने शहर की गलियों में भटकने के बाद हम अल्लामा इकबाल की रिहाइश की खोज में निकले. उन्होंने हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय से दर्शन, साहित्य और जर्मन भाषा की पढ़ाई की और बाद में म्यूनिख से पीएचडी की थीउनकी स्मृतियों को सुरक्षित रखते हुए नेकर के तट पर एक मार्ग का नाम- 'इकबाल उफेर' रखा गया है. 'उफेर' यानी स्ट्रीटनेकर के दूसरे तट पर एक स्ट्रीट है -'फिलॉसफेन वेग'. सैकड़ों साल पुराने मकानों से घिरी इस स्ट्रीट पर कहते हैं कि कई दार्शनिकों ने अपने निशान छोड़े हैं! इसी के इर्द-गिर्द एक मकान के बाहर एक नेमप्लेट दिखती है जिसमें लिखा है: 'दार्शनिक, कवि और पाकिस्तान के जनक  (मानस पिता) यहाँ रहते थे'. 
 

'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' लिखने वाले कवि इकबाल और एक अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग करने वाले विचारक इकबाल के साथ तालमेल बिठाने में मुझे परेशानी हुई. उनका व्यक्तित्व एक साथ कई विरोधाभासों  को समेटे हुए था

खैर, मेरी इन उलझनों का जवाब अगले दिन हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई संस्थान में मिला जहाँ मुझे हिंदी मीडिया पर बोलना थायह संस्थान पिछले पचास सालों से दक्षिण एशियाई भाषा, साहित्य और संस्कृति के ऊपर शोधशिक्षण-प्रशिक्षण को बढ़ावा दे रहा हैं. इस संस्थान में प्रवेश करते ही रचनाकर्म में रत रवींद्रनाथ ठाकुर की एक आवक्ष प्रतिमा ('बस्ट') दिखती हैइकबाल की तरह ठाकुर भी दक्षिण एशिया के एक ऐसे प्रतिनिधि शायर और विचारक थे, जिन्हें किसी एक राष्ट्रीयता में कैद नहीं किया जा सकता

संस्थान के वर्तमान निदेशक प्रोफेसर हंस हार्डर खुद हिंदी और बांग्ला के विद्वान हैं. मेरी नजर कोल्हापुरी चप्पल पर पड़ी जो उन्होंने पहन रखी थी. मैंने तारीफ की तो मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा कि आम तौर पर विश्वविद्यालय में हम ये पहन कर नहीं आते, पर आज गरमी है, तो चलेगा. और फिर यह दक्षिण एशियाई संस्थान तो है ही

आज लोग इसे भले ही याद न करें, पर 20वीं सदी की शुरुआत में अल्लामा इकबाल, जाकिर हुसैन, राम मनोहर लोहिया जैसे राजनेता-विचारक जर्मनी शिक्षा-दीक्षा के लिए आए थे. जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि लोहिया की पीएचडी थीसिस का वर्तमान में कोई अता-पता नहीं है. भारत सरकार को चाहिए कि वह जर्मनी के साथ मिल कर उनके शोध प्रबंध की खोज का उपक्रम करे, ताकि पता चल सके वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में किन विचारों-चिंताओं से जूझ रहे थे
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में 28 जून 2013 को प्रकाशित)