Saturday, July 30, 2016

राष्ट्र सारा देखता है

पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के आने से राष्ट्र-राज्य की शक्ति में कमी आई है.  हालांकिराष्ट्र-राज्य की शक्ति में आई कमी के साथ-साथ इन्हीं वर्षों में दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद  का उभार भी हुआ है. पिछले महीने यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के लिए हुए जनमत संग्रह दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती और राष्ट्र-राज्य की कमजोर होती शक्ति को फिर से पाने का ही एक प्रयास है. अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के इमिग्रेशन, मुस्लिम समुदाय को लेकर दिए गए भड़काऊ बयानों को हम इसकी अगली कड़ी के रूप में देख सकते हैं.

भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में इसकी अभिव्यक्ति पिछले कुछ महीनों से विभिन्न मुद्दों (लव जिहाद, बीफ बैन, जेएनयू, कश्मीर) के बहाने राष्ट्रवाद के ऊपर चल रही बहस के रुप में भी देखी जा सकती है.

इस बहस के पीछे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की  राजनीति,  आत्म और अन्य की एकांगी व्याख्या और भारतीय इतिहास की औपनिवेशिक समझ-बूझ की एक बड़ी भूमिका है, जो भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रितानी हुकूमतों के काल के आधार पर विभाजित करके देखती रही है.

बहरहाल, ये सारी बहसें अखबारों, खबरिया चैनलों और खास कर प्राइम टाइम’ के माध्यम से जिस रूप में हमारे सामने आ रही है, वह एक अलग विश्लेषण की मांग करता है. दुनिया भर में बाजार और सूचना क्रांति को भूमंडलीकरण का मुख्य औजार माना गया है.  प्रसंगवशभारत में भूमंडलीकरण के बाद ही भाषाई अखबारों और खबरिया चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ.

सवाल है कि भारत में राष्ट्रवाद और मीडिया के इस संबंध को हम किस रूप में देखेंक्या यह भूमंडलीकरण के साथ ही सहज रुप से विकसित हुए हैंया भारतीय संदर्भ में इसकी कोई ख़ास विशेषता है?

राष्ट्रवाद के उदय और उभार के पीछे बेंडिक्ट एंडरसन ने प्रिंट पूंजीवाद’ की भूमिका को रेखांकित किया है. उनका मानना है कि राष्ट्र की अवधारणा हमारी कल्पना में ही साकार होती हैऔर इसे साकार बनाने में मास मीडिया की एक बड़ी भूमिका होती है. हालांकि, भारत में भाषाई मीडिया और खास तौर पर खबरिया चैनल जिस तरह के राष्ट्रवाद को इन दिनों बढ़ावा दे रहे हैं वह उग्र-राष्ट्रवाद का नमूना है. पिछले दिनों कश्मीर में चरमपंथी बुरहान वानी के सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत और बाद के घटनाक्रम पर कुछ न्यूज चैनलों के कवरेज और उन्मादी बहस-मुबाहिसा को देख कर कश्मीर के आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने आक्रोश में इसे न्यूजरूम नैशलनिज्म’ का नाम दियाजो हिंदुस्तान में वाद-विवाद-संवाद की पुरानी परंपरा को कुंद करता है.  यह राष्ट्रवाद कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग तो मानता हैपर जब कोई कश्मीर भू-भाग में रहने वाले कश्मीरियों की वेदना-संवेदना का जिक्र करता है तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जाता है. 

उल्लेखनीय है कि भारत में 19वीं सदी के आखिरी और 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने राष्ट्रवाद को खूब बढ़ावा दिया था. यह राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ था, पर आज़ादी के बाद एक संप्रभु राष्ट्र-राज्य में राष्ट्रवाद और मीडिया का वहीं स्वरूप नहीं रह गया जो आजादी के संघर्ष के दिनों में था. हालांकि, आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में अखबारफिल्म और सरकारी रेडियो- टेलीविजन राष्ट्र निर्माण में सहयोग दे रहे थे, पर उनमें उग्रता नहीं थीं. मीडिया का प्रसार और पब्लिक स्फीयर में उसकी भूमिका भी सीमित थी. 

पिछले दशकों में हिंदी क्षेत्र में मंडल-कमंडल की एक नई राजनीति सामने आई. साथ ही लोगों की आय और शिक्षा में भी बढ़ोतरी हुई और एक नया पाठक-दर्शक वर्ग उभरा है, जिसे हम नव मध्यम वर्ग कह सकते हैं. मीडिया की पहचान एक हद तक इसी वर्ग (टारगेट आडिएंश) से जुड़ी हैं. इस वर्ग में बहुसंख्यक दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर और महिलाएँ शामिल नहीं हैं. 

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम हैलोकतंत्र की एक मजबूत संस्था है, उसकी एक स्वायत्त संस्कृति है. जब भी हम मीडिया और राष्ट्रवाद के संबंधों की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के इस द्वंद्वात्मक रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया  का विस्तार हुआ है लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य पाठकों की संख्या को बढ़ाना, टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है.   

साथ ही हमें इन मीडिया संस्थानों के संपादकों-मालिकों की राजनीतिक और कारोबारी हितों को भी रेखांकित करना होगा. क्या यह अनायास है कि पिछले कुछ वर्षों में मीडिया घराने के मालिक संसद में पहुँचने के लिए लालायित रहते हैं. कुछ मालिक-संपादक बकायदा राजनीतिक पार्टियों के साथ मंच साझा करने में, उनके करीबी कहलाने में गर्व महसूस करते हैं. जाहिर हैऐसे में राष्ट्रवाद और संस्कृति की उनकी समझ उनके चैनलों पर उनकी राजनीति से प्रेरित दिखेगी. बात चाहे जेएनयू की होकश्मीर की हो या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की.

साथ ही, राष्ट्रवाद जैसे जटिल मुद्दे के विवेचन-विश्लेषण में मीडियाकर्मियों की शिक्षण-प्रशिक्षण की भी अपनी भूमिका है. पिछले दो दशकों में जिस तरह से मीडिया का उभार हुआ है और जिस तरह राजनीति मीडिया जनित होकर प्राइम टाइम के माध्यम से हमारे सामने आती है वह पत्रकारों के पेशेवर होने की मांग करती है. वर्तमान में मीडिया में पेशेवर नैतिकता की दरकार किसी भी अन्य पेशे से ज्यादा है. दुर्भाग्यवशभारत में मीडिया के अभूतपूर्व फैलाव के बाद जो मीडिया संस्कृति विकसित हुई है उसमें अभी भी पत्रकारों के शिक्षण-प्रशिक्षण पर विशेष जोर नहीं है. फलत: कई बार पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के पैरोकार बन जाते हैं और उनके एजेंडे को ही मीडिया का एजेंडा मान लेते हैं.

Wednesday, July 13, 2016

सद्भाव के सुर

पंडित अभय नारायण मल्लिक के साथ लेखक
ऐसे समय में जब चारों तरफ हिंसा की खबरें हैंहिंसा की तैयारी चल रही हैइस मानसून में राग मल्हार या दरबारी कान्हरा की चर्चा बेमानी-सी लगती है. पर जब राजनीतिचाहे वह सत्ता की हो या धर्म कीलोगों को जोड़ने के बजाय बांटने की हो रही होसदियों से एक व्यापक समाज की पहचान से जुड़ी सांस्कृतिक स्मृति और इतिहास को मिटाने पर तुली होतब संगीत की याद बेतहाशा आती है.

स्मृतियों में डूबा-उतराया मैं पिछले दिनों हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद के एक चर्चित घराने दरभंगा शैली के एक प्रतिनिधि और संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पंडित अभय नारायण मल्लिक से मिलने उनके घर गया. जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर चुकेशरीर से कमजोर मल्लिक के सुर और उनकी बोली-वाणी में मजबूती और मिठास अब भी बरकरार है. राग कान्हरा और राग दीपक की चर्चा करते हुए उनकी आंखों में चमक बढ़ जाती है. पिछले साल बिहार में चुनाव के दौरान जब सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय नेता दरभंगा पहुंच कर इस शहर से दरभंगा मॉड्यूल’ और आतंकवाद के तार जोड़ रहे थेतब मन मायूस हो गया था. दरभंगा या किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान हिंसा या अलगाव से नहीं बन सकती है. हाल में उत्तर प्रदेश में शामली जिले के कैराना में ऐसा ही कुछ होता दिखा है. किराना घराने के सिरमौर उस्ताद अब्दुल करीम खान के साथ कैराना का नाम जुड़ा हैपर राजनीतिक पार्टियों और मीडिया को झूठ-अफवाहों के सिवा कुछ पता नहीं! या फिर जान-बूझ कर एक साजिश के तहत सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिश हो रही है.

बहरहालवर्तमान पीढ़ी भले ही दरभंगा घराने से अपरिचित होमिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. इसे दरभंगा-अमता घराना के नाम से जाना जाता है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. पंडित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. ध्रुपद के श्रेत्र में दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री)पंडित सियाराम तिवारी (पद्म श्री)पंडित विदुर मल्लिक के गायन की चर्चा आज भी होती है. दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तालवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. यह एक उदाहरण है कि राष्ट्र की सीमा भले ही एक-दूसरे को अलगाती हैमगर संगीत एक-दूसरे को जोड़ता रहा है. यही बात रवींद्र संगीत के बारे में भी कही जा सकती है.

दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. गौरतलब है कि ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. पखावज के नामी वादक पंडित रामाशीष पाठक दरभंगा घराने से ही थे.
पं रामचतुर मल्लिक पंडित जी के गुरु थे

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ालेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ावैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. पिछली सदी के शुरुआती दशकों में ध्रुपद की लोकप्रियता में कमी आई. सुखद रूप से एक बार फिर पिछले तीन-चार दशकों से देश-विदेश में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. पंडित अभय नारायण मल्लिक ने बताया कि खयाल का अति हो गया था!

दरभंगा महाराज के दरबार से जुड़ा यह घराना आजादी के बाद भी बिहार में संगीत के सुर बिखेरता रहा. पुराने दौर के लोग याद करते हैं कि 60-70 के दशक में दरभंगालहेरियासराय में होने वाली दुर्गापूजा के दौरान किस तरह पंडित रामचतुर मल्लिक की अगुआई में देश भर के संगीत के दिग्गज अपनी मौसिकी का जादू बिखरते थे. लेकिन बाद के दशकों में जैसे-जैसे बिहार में राजनीतिक माहौल प्रतिकूल होता गयादरभंगा में भी ध्रुपद की परंपरा सिमटने लगी.

इसके बाद धीरे-धीरे दरभंगा से इस घराने का कुनबा देश के विभिन्न शहरों में जमता गया. हालांकि पंडित अभय नारायण मल्लिक अभी भी दरभंगा और अपने गांव अमता को शिद्दत से याद करते हैं. विद्यापति के पद को गाते हुए वे अतीत को याद करने लगते हैं और बताते हैं कि दरभंगा रेडियो स्टेशन में उनके गाए विद्यापति के पद रिकॉर्ड में मौजूद होने चाहिए. उन्होंने याद किया कि उनके गुरु पंडित रामचतुर मल्लिक भी अपनी गायकी के आखिर में विद्यापति के पद ही गाते थे. पंडित मल्लिक के घर से निकलते हुए मुझे बचपन में पढ़ी यह पंक्ति याद आई- यह विशुद्ध साहित्य-संगीतवह गंदी राजनीति!’ 

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 13.07.2016 को प्रकाशित)