Friday, February 17, 2012

मैं तुम्हारा कवि हूँ


‘वे एक उदास गिरगिट से बात कर सकते हैं.’ ऐसा उदय प्रकाश ने केदारनाथ सिह की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है.

केदारनाथ सिंह एक बड़े कवि हैं. उदय प्रकाश भी.

मैं जिनकी बात कर रहा हूँ वह केदारनाथ सिंह के छात्र और उदय प्रकाश के समकालीन एक अलक्षित कवि है. आपने शायद ही रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं को सुना हो यदि आप जेएनयू के बाहर रहते हैं. पर जेएनयू के परिसर में विद्रोही आपको जब तब गोपालन की कैंटिन में, टेफ्ला के बाहर और शाम को गंगा ढाबा पर एक अंधेरे कोने में मिल जाएँगे.

पिछले दस सालों से लगभग हर शाम इस अंधेरे कोने में अपनी मंत्र कविताओं को बुदबुदाते विद्रोही जी मुझे एक उदास गिरगिट से बात करते दिखे हैं.

चेथड़ी लपेटे, रसहीन चाय के प्याले को हाथ में थामे वे कहेंगे ‘ मैं तुम्हारा कवि हूँ’

वे अपनी लय और ताल में कहेंगे-मैं किसान हूँ/ आसमान में धान बो रहा हूँ/ कुछ लोग कह रहे हैं/ कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता/ मैं कहता हूँ पगले!/ अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है/ तो आसमान में धान भी जम सकता है/ और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा/ या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा/ या आसमान में धान जमेगा.

विद्रोही जी केदारनाथ सिंह की कविता 'नूर मियां' से आपको आगे ले जाएँगे और बार बार पूछेंगे- क्यों चले गए नूर मियां पाकिस्तान/ क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के

अडर्नो ने पूछा था कि ' ऑस्वित्ज़ (Auschwitz) के बाद कैसे कोई कविता लिख सकता है.' इस सवाल में ध्वनी यह थी कि कैसे ऑस्वित्ज़ यातना शिविर की भयावहता को हमारे सामने रखा जा सकेगा. इस कविताहीन, बिकाऊ समय में सवाल मौजू है कि कैसे कोई कवि नूर मियां की पीड़ा को शब्द दे सकेगा.

पर विद्रोही जैसे कवियों को सुनते हुए आशा बची रहती है.

युवा फिल्मकार नितिन पमनानी ने हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है- मैं तुम्हारा कवि हूँ’. इस डॉक्यूमेंट्री के केंद्र में विद्रोही हैं. कवि विद्रोही और उनकी कविताओं के ताने-बाने से हमारे समकालीन समाज और व्यवस्था पर यह डॉक्यूमेंट्री एक सार्थक टिप्पणी है.


लगभग तीस सालों से विद्रोही जी ने जेएनयू को अपना बसेरा बना रखा है. अगस्त 2010 में जब उन्हें जेएनयू प्रशासन ने अभद्र भाषा के इस्तेमाल के आरोप में परिसर से निकाल दिया था तब मैं उनसे जेएनयू के नजदीक मुनीरका में मिलने गया था. एक आशियाने की तलाश में वे भटक रहे थे.
जेएनयू के एक पुराने छात्र के अंधेरे बंद कमरे में वे एक कुर्सी पर उकडू बैठे थे. परिचय देते हुए जैसे ही मैंने कहा कि मैं बीबीसी के लिए लिखूंगा...तो छूटते ही उन्होंने कहा, 'तुम्हें देख मुझे प्रसाद की पंक्ति याद हो आई है...कौन हो तुम बसंत के दूत, नीरस पतझड़ में अति सुकुमार....'

मुझे लगा कि यदि एक कवि विक्षिप्त भी हो तो वह गाली नहीं देता...कविता की पंक्ति दुहराता है.

उन्होंने कहा था 'जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं. हर यूनिवर्सिटी में दो-चार पागल और सनकी लोग रहते हैं पर उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती. मुझे इस तरह निकाला गया जैसे मैं जेएनयू का एक छात्र हूँ.'

खैर, कुछ दिनों के बाद जेएनयू ने अपने निर्णय को वापस ले लिया और विद्रोही जी कैंपस वापस लौट आए.

कल शाम गंगा ढाबा पर विद्रोही जी मिले. मैंने उनसे कहा, 'बधाई हो. नितिन की फिल्म को मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री अवार्ड मिला है और पाँच लाख रुपए नकद.'

चाय के प्याले को थामे, जैसे उन्होंने मेरी बात को अनसुना कर दिया और उसी अंधेरे कोने में वे पहले की तरह एक उदास गिरगिट से बात करने लगे....

(चित्र: विद्रोही, और जेएनयू में एक वॉल पोस्टर, जनसत्ता समांतर स्तंभ में 21 फरवरी 2012 को प्रकाशित)

2 comments:

nisha said...

Lovely!

Arvind Das said...

@nisha, Thank you. I saw your blog, it is quite interesting. Best :) Arvind