हाल ही में दो खबरों ने
खूब सुर्खियाँ बटोरी हैं. पहली, चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पृष्ठ पर
गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर और दूसरी दुनिया भर में
सौ प्रभावशाली व्यक्तियों के चुनाव के लिए टाइम पत्रिका के ही करवाए ऑन लाइन पोल
में नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा मिले नकारात्मक वोट रहे.
इन्हीं दिनों इंडिया टुडे,
कारवां और आउटलुक पत्रिकाओं के कवर पर भी नरेंद्र मोदी छाए हुए रहे. इंडिया टुडे में जहाँ एक ओपिनियन पोल के हवाले
से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बताया गया. वहीं
कारवां और आउटलुक पत्रिका ने गुजरात नरसंहार और मोदी की छवि को लेकर कुछ तल्ख सवाल
किए.
जाहिर है कि गुजरात नरसंहार
की दसवीं बरसी पर नरेंद्र मोदी एक बार फिर से खबरों में हैं और मीडिया के अंदर राय
बंटी हुई है. पर इन खबरों की अंत: प्रवाहित धारा में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री
के रुप में खुद को ‘ब्रांडिंग’ करने पर जोर और उसमें मीडिया की सहभागिता चकित
करती है. इससे पहले उन्होंने
इसी पहल के तहत सद्भावना यात्रा और सम्मेलनों का आयोजन किया जिसे मीडिया ने हाथो
हाथ लिया.
वर्ष 2001-02 के दौरान
भारतीय जनसंचार संस्थान में एक छात्र के रुप में हम पत्रकारिता के सिद्धांतों,
तथ्य और सत्य के बीच संबंधों और इस पेशे से जुड़े नीतिगत मसलों से उलझ रहे थे. देश
में अन्य लोगों की तरह हमने टेलीविजन पर गुजरात में लोगों को लूट पाट में शामिल
होते, दंगा भड़काते, और प्रशासन की विफलता को देखा. एक छात्र के नाते हम अपनी
कक्षा में रिपोर्टिंग के सिद्धांतों और पत्रकार की भूमिका वगैरह पर शिक्षकों-पत्रकारों
से बहस किया करते थे. उसी दौरान देश के सबसे ज्यादा बिकने वाले एक अखबार के समाचार
संपादक हमें पढ़ाने आए थे. हमने उनसे सवाल किया था कि ‘अखबार के संपादक
दंगों को लेकर मुख्यमंत्री की भाषा और उनकी टोन में क्यों लिख रहे हैं.” इसका जवाब उन्होंने
नहीं दिया पर तब हमें पता था कि उस अखबार के संपादक भारतीय जनता पार्टी के राजसभा
में सांसद थे!
बहरहाल, दंगों के दौरान
भाषाई पत्रकारिता की संदिग्ध भूमिका हमें अचंभित नहीं करती पर दस साल बाद टाइम जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का
नरेंद्र मोदी के एक प्रधानमंत्री के रुप में प्रोजेक्ट करना आश्चर्यचकित करता है. ऐसा
लगता है कि लोकतंत्र, सहिष्णुता और सद्भाव का पाठ पढ़ाने वाला मीडिया एक चक्र पूरा
कर अब मोदी की विरुदावली गाने में लगा हुआ है. इससे भूमंडलीकरण के रथ पर सवार
मीडिया के चरित्रगत विशेषता का भी पता चलता है.
कोई भी पाठक यदि सरसरी तौर
पर भी टाइम के लेख को पढ़े तो उसे समझने में यह देर नहीं लगेगी कि यह एक महज पीआर
(जन संपर्क) का काम है जिसे नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजरों ने बखूबी अंजाम दिया
है. गौरतलब है कि इस साल के आखिर में
गुजरात में चुनाव होने वाले हैं और अगले साल भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन
गडकरी का कार्यकाल खत्म होने वाला है. स्व घोषित ‘विकास पुरुष’ नरेंद्र मोदी जहाँ
गुजरात की सत्ता ऐन-केन-प्रकारेण फिर से अपने पास रखने की कोशिश में हैं वहीं
भाजपा के अध्यक्ष के रुप में अपनी दावेदारी भी पेश करने में वे लगे हैं. ऐसे में मीडिया से दूर रहने वाले मोदी मीडिया के
इस्तेमाल को लेकर तत्पर हैं, वहीं ऐसा लगता है कि मुख्यधारा की मीडिया उन्हें
नाराज और निराश नहीं करना चाहती.
टाइम पत्रिका ने मोदी के
शान में कसीदे काढ़ते हुए लिखा है, “ हालांकि, ज्यादातर भारतीय
नेताओं से अलग मोदी अपनी आस्था को सबके सामने दिखाते नहीं फिरते. उनके कार्यालय
में कोई धार्मिक मूर्ति नहीं है, बस उनके हीरो दार्शनिक स्वामी विवेकानंद की दो
प्रतिमा कार्यालय की शोभा बढ़ाती है.”
इसी लेख में रिपोर्टर लिखता
है, ‘यह पूछने पर कि वर्ष 2002 में गुजरात में जो हुआ इसका उन्हें किसी भी तरह का पश्चाताप
है.’ उनका कहना था, ‘ मैं इस विषय पर बात नहीं करना चाहता, लोगों को
जो कहना है वह कहे, मेरा काम बोलता है.”
पाँच साल पहले एक निजी चैनल के इंटरव्यू में एक चर्चित पत्रकार ने पूछा था कि, “लोग आपके मुँह पे आपको मास
मर्डरर कहते हैं और आप पर मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रही होने का आरोप लगाते हैं.
क्या आपकी छवि के साथ कोई परेशानी है?’ और आधे घंटे का यह
इंटरव्यू महज तीन मिनट चल पाया था!
जानकार बताते हैं कि मोदी
अपने मन के मुताबिक पत्रकारों से बात करते हैं और जिनसे वे वही सुनना चाहते हैं जो
उनके मन में हैं. ऐसे में मीडिया के साथ अचानक उनकी निकटता कई सवाल खड़े करती है.
जाहिर है, नरेंद्र मोदी
अपनी ‘इमेज’ बदलने की कोशिश में है. उन्हें पता है कि दिल्ली की तख्त पर पहुँचने से पहले
उनके सफेद कमीज पर लगे दाग धोने होंगे. जिन लोगों ने मीडिया के माध्यम से दंगों से
दौरान पुलिस, प्रशासन की असफलता और दंगाइयों को मिली छूट को देखा, बिलकिस बानो की
चीख सुनी और वली दकनी के मजार को उजड़ते देखा वे इन्हीं मीडिया के झूठ को नहीं
पहचानेंगे, यह मानना भूल होगी.
इससे पहले पिछले साल
अमेरीकी कांग्रेस की रिसर्च सर्विस (सीआरएस) ने आर्थिक सुधारों के लिए नरेंद्र
मोदी की काफी तारीफ की और 2014 के आम सभा चुनावों में उन्हें प्रधानमंत्री पद के
दावेदार के रुप में देखा.
एक समय अमेरिका जाने के लिए
वीसा देने की मनाही झेल चुके मोदी के प्रति अचानक उमड़ा यह प्रेम एक ‘ब्रांड’ के रुप में मोदी की
पहचान पुख्ता करने के लिए लगे एक अमरीकी पीआर और लॉबिंग फर्म एपीसीओ वर्ल्डवाइड की
मेहनत का नतीजा है. खबरों के मुताबिक गुजरात सरकार ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के तहत अपनी छवि
सुधारने के लिए हर महीने लाखों रुपए खर्च करती है. ‘महानायक’ अमिताभ बच्चन का
आग्रहपूर्वक गुजरात आने का न्यौता इसी की अगली कड़ी है!
आश्चर्य है मोदी ‘कारवां’ के पत्रकार से नहीं
मिलते पर वे ‘टाइम’ के पत्रकार से मिलने के लिए सहर्ष राजी हो जाते हैं!
यहाँ पर उल्लेख करना
प्रासंगिक होगा कि एक समय ‘टाइम’ ने बिहार कैडर के आईएएस डॉक्टर गौतम गोस्वामी
को 2004 में ‘पसर्न ऑफ द इयर’ पुरस्कार से नवाजा
था. बिहार में आई बाढ़ के दौरान उनके काम की काफी सराहना हुई थी, लेकिन बाद में
बाढ़ पीड़ितों के फंड में बड़े पैमाने पर हुए घोटाले में उनका नाम उजागर हुआ था.
बहरहाल, जब अंबानी और टाटा
घराने के उद्योगपति मंच से मोदी के कुशल नेतृत्व क्षमता का बखान करते नहीं अघाते
तब भारतीय और अमरीकी मीडिया के मोदी के पक्ष में मत बनाने की कार्रवाई अचंभित नहीं
करती. उदारीकरण के बाद भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदला है. अब सारा जोर प्रबंधन
पर है. कारपोरेट जगत की नीतियों से राज्य अपने क्रिया-कलापों को दुरुस्त करती है.
मीडिया में जहाँ ब्रांड मैनजरों की अहमियत संपादकों से ज्यादा है वहीं, राज्य और सत्ता
में मीडिया मैनेजरों की घुसपैठ किसी भी सक्षम नौकरशाहों से कम नहीं.
ऐसे में,
मीडिया राजनीतिक पार्टियों की सूचनाओँ को बिना जाँचे-परखे, आलोचनात्मक कसौटी पर
कसे परोस रही है. कारपोरेट मीडिया एक तरफ मनमोहन सिंह सरकार के ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ से पीड़ित होने की
वजह से कोस रही हैं वहीं विकास पुरुष मोदी से उम्मीद पाले बैठी है. ऐसे में दस साल
बाद वह गुजरात दंगा पीड़ितों को न्याय, दोषियों को सजा और समाज के ध्रुवीकरण
जैसे मौजू सवालों से मुँह चुराने में ही अपना भला समझ रही है.
पता नहीं विधानसभा और आने
वाले लोक सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की ‘इमेज’ को कितना फायदा
होगा पर मीडिया की इमेज खतरे में है. वर्तमान में भारतीय राजनेताओं पर 'वैधता का
संकट' मंडरा रहा है, कहीं ये संकट मीडिया को भी अपनी गिरफ्त में ना ले लें.
(समयांतर, मई, 2012 में प्रकाशित)
2 comments:
आजकल भारतीय और विदेशी मीडिया में मोदी को लेकर इस अत्यंत खंतरनाक और शर्मनाक प्रशंसा की नयी प्रवृत्ति पर रोशनी डालने के लिये शुक्रिया -- इस के पीछे क्या राजनीति है, क्या शाजिश, इसको समझने की बड़ी ज़रुरत है।
धन्यवाद टाईलर! आज ही पढ़ रहा था कि 'मोदी की राष्ट्रीय भूमिका की प्रतीक्षा कर रहा है देश: संघ'(जनसत्ता, 16 अप्रैल) और इसके लिए संघ टाइम और इंडिया टुडे की दुहाई दे रहा है.
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