Wednesday, June 14, 2017

मृत्यु-गंध में लिपटी बगूगोशे की ख़ूशबू

मृत्यु-गंध कैसी होती है/ वह एक ऐसी खुशबू है/ जो लंबे बालों वाली/ एक औरत के ताजा धुले बालों से आती है/ तब आप उस औरत का नाम याद करने लगते हैं/ लेकिन उसका कोई नाम नहीं (कुमार विकल)
बगूगोशेकी ख़ूशबू में मृत्यु-गंध है. स्वदेश दीपक इस गंध से वर्षों परिचित रहे. इस आत्मकथात्मक कहानी में वे लिखते हैं: सात साल लंबी आग. डॉक्टर तो दूर, पीर-फकीर भी न बुझा पाए. तब सारे दृश्य कट गए थे.यह सात साल 1991-1997 के बीच के वर्ष हैं. कोर्ट मार्शल (1991) नाटक से उनकी ख्याति इस बीच फैलती चली गई पर वे बेख़बर रहे, ‘मायाविनीकी तलाश में भटकते रहे. उस मायाविनी की छाया उनकी मानसिक बीमारी के यथार्थ से जुड़ कर एक ऐसा साहित्य रच गया जो हिंदी साहित्य में अद्वितीय है.
और जब इस मृत्यु गंध की तासीर कुछ कम हुई तब हमने-मैंने मांडू नहीं देखापाया और कुछ कहानियाँ जो अब बगूगोशेसंग्रह में शामिल है. जैसा कि उनके पुत्र और पत्रकार सुकांत दीपक कहते हैं मांडू सचमुच उनके खंडित जीवन का कोलाज है.
स्वदेश दीपक हिंदी साहित्य और समाज के लिए एक किवदंती बन चुके हैं. हिंदी की चर्चित रचनाकार कृष्णा सोबती इस कहानी संग्रह के मुख्य पृष्ठ पर लिखती हैं: स्वदेश तुम कहां गुम हो गए. बगूगोशे के साथ फिर प्रकट हो जाओ.पर क्या अब वे लौटेंगे? कोई उम्मीद? सुकांत कहते हैं-बिलकुल नहीं!
अब तो स्वदेश दीपक को इस मायावी दुनिया को छोड़, घर से निकले 10 वर्ष से ज्यादा हो गए.
दूधनाथ सिंह की एक किताब है, जो उन्होंने निराला के रचनाकर्म और जीवन के इर्द-गिर्द लिखी है-आत्महंता आस्था. रचनाकार के जीवन और रचना के बीच आत्म संघर्ष को यह किताब हिंदी साहित्य के एक और किवदंती पुरुष निरालाके संदर्भ में बख़ूबी पकड़ती है. यह स्वदेश दीपक के बारे में भी सच है. स्वदेश दीपक के अंदर एक आत्महंता आस्था थी जो उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है. बगूगोशे कहानी में माँ अपने प्रोफेसर बेटे से कहती है: काका! कितने अंगारे हैं तेरे मुंह में. मीठे बोल भी बोल लिया कर. कभी-कभी एक चिनगारी से आग लग जाती है.
स्वभाव से बेहद गुस्सैल स्वदेश दीपक मिजाज से नक्सली थे. उनकी राजनीतिक पक्षधरता स्पष्ट थी. वे अन्याय के ख़िलाफ़ थे. जीवन में और रचना में.
मैंने मांडू नहीं देखापढ़ते हुए लगता है कि यह एक रचनाकार की सिद्धावस्था है. वह ट्रांसमें है. उसकी भाषा ऐसी है जैसे कोई hallucination की अवस्था में बोलता, बरतता है. छोटे-छोटे टुकड़ों में (epileptic language). बिना इस बात की परवाह किए कोई उसकी भाषा समझ रहा है या नहीं. बेपरवाह और बेखौफ़. अंतर्मन में ख़ुद से लड़ता
सुकांत ने पिछले साल अपने पिता के ऊपर एक लेख में लिखा: 7 जून 2006 को टहलने के लिए वे निकले और वापस लौट कर नहीं आए. जब हम (मैं, मेरी माँ और बहन) इस बात से आश्वस्त हो गए कि वे अब कभी घर लौट कर नहीं आएँगे तब हमने सुकून से गहरी साँस ली. हमारे लिए लगभग एक उत्सव की तरह यह था.
सुकांत क्या अपने पिता को मिस करते हैं? सुकांत की आवाज़ में एक टूटन सी मुझे सुनाई देती है. वे कहते हैं: वह आदमी मेरा बहुत बड़ा दोस्त था. भले मैं कुछ समझूं या नहीं वह अपनी रचना का पहला ड्राफ्ट मुझे सुनाता था.

मेडिकल साइंस की भाषा में वे बायपोलर डिसआर्डरके मरीज थे और कई बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे. वह उग्रता और अति संवेदनशीलता के बीच, मानवीय संबंधों और अपनी रचनाओँ के बीच एक तालमेल की कोशिश में भी लगे थे. इस संग्रह में शामिल बनी-ठनीकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है: जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से पहली बार मिला, वह गरमियों की शाम थी. जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से नहीं मिला, वह भी गरमियों की शाम थी. अगला दिन.पहली बार पढ़ते हुए एक बेतुकापन इनमें नज़र आता है. ऐसी पंक्तियाँ निर्मल वर्मा की कहानियों में भी ख़ूब दिखाई देती है. प्रसंगवश, सुकांत बताते हैं कि निर्मल वर्मा उनके मित्र थे और स्वदेश ने निर्मल वर्मा के साथ वर्ष 2006 में उनकी मुलाक़ात अरैंज करवाई थी
इस संग्रह में एक अधूरी कहानी है-समय खंड. इसका एक पात्र मधुमक्खियों के दंश से पीड़ित है और मरनासन्न है. वह कहती है: मुझे बिलकुल दिखाई नहीं दे रहा. मैं अंधी हो गई हूँ, क्या मैं मर जाऊँगी. आय डोंट वांट टू डाई प्लीज़!यह ठीक वैसी ही कराह है जैसी मेघे ढाका ताराफ़िल्म के आख़िर में सुनाई पड़ती है- दादा, आमि बचते चाई.
इस संग्रह की कहानियों में आधी-अधूरी ज़िंदगी को रचा गया है. और एक रचनाकार के रूप में यह हमें स्वदेश दीपक से रू-ब-रू होने का मौका देता है. रचना का कालखंड 2000-2005 के बीच है. इसी अवधि में वे मांडूभी रच रहे थे.

इस संग्रह को पढ़ते हुए लगातार यह बोध बना रहता हैजीवन है, जैसा भी है बेहतर है, ना होने से.

नोट: इस संग्रह में स्वदेश दीपक की अंतिम आठ कहानियाँ संकलित है. क़रीब दो वर्ष तक राजकमल प्रकाशन ने इसे अपने पास रखा और अब जाकर वह जगरनॉट बुक्स से प्रकाशित हुई है.
(जानकी पुल और प्रभात खबर (23 जून 2017) में प्रकाशित)

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