Monday, April 27, 2020

सिनेमाघर में बसे यादों के जुगनू


दुनिया भर में कोरोना वायरस की वजह से सिनेमाघरों पर ताले लगे हैं. सोशल डिस्टेनसिंगजैसे शब्द सिनमाघरों के भविष्य पर सवाल बन कर खड़े हैं. हालांकि चीन में करीब दो महीने बाद पाँच सौ सिनेमाघरों को फिर से खोला गया, पर दर्शकों के उत्साह नहीं दिखाने के बाद इन्हें फिर से बंद कर दिया गया.

लॉकडाउनके बीच सिनेमाप्रेमियों में सिनेमाघरों को लेकर एक तरह का नॉस्टेलजिया देखने को मिल रहा है. मुंबई भले ही बॉलीवुड का आंगन हो, सिनेमा की संस्कृति आजाद भारत में दिल्ली में फली-फूली. साल 1995 में जब मैं दिल्ली आया, वह हॉलीवुड का सौंवा साल था. यह साल भारतीय सिनेमा के प्रदर्शन, सिनेमा देखने-दिखाने की संस्कृति को बदल कर रख देने वाला साल भी है. इसी साल पीवीआर लिमिटेड (प्रिया विलेज रोड शो) अस्तित्व में आया. संयोगवश, दिल्ली में पहली फिल्म बेसिक इंस्टिंक्ट (माइकल डगल्स और शेरोन स्टोन अभिनीत)मैंने दक्षिण दिल्ली में स्थित प्रिया सिनेमामें ही देखी थी. 

उन दिनों के अखबारों में इस फिल्म की खूब चर्चा थी. इस फिल्म को सर्टिफिकेट दिया गया था और मैं तब अठारह साल का नहीं हुआ था. किसी तरह मान-मनुहार कर मैं सिनेमा हॉल में घुस गया था. बालकनी के बाहर हॉलीवुड के विभिन्न दशकों के फिल्मों के पोस्टर लगे थे, जो सिनेमा के सौ वर्षों की यात्रा को दिखाते थे.

आज किसी शहर की संस्कृति को हम सिनेमाघरों के रास्ते भी परख सकते हैं. सिनेमा के इतिहास को पत्रकार और समीक्षक जिया उस सलाम ने अपनी किताब देल्ही 4 शोज: टाकिज ऑफ यस्टरइयरमें सिनेमाघरों के माध्यम से बखूबी समेटा है. उन्होंने लिखा है कि प्रिया और उसके साथ चाणक्य और अर्चना 80 के दशक के मध्य तक अंग्रेजी फिल्में दिखाने के लिए मशहूर थे, जबकि शीला, ओडियन और रिवोली हिंदी सिनेमा दिखाने की ओर पूरी तरह कदम बढ़ा चुके थे. कभी-कभार हॉलीवुड की फिल्मों के लिए एक खिड़की इन्होंने खुली छोड़ रखी थी.’ 

हालांकि 90 के दशक में यहाँ भी हिंदी फिल्में दिखाने का चलन जोर पकड़ा, पर हॉलीवुड की फिल्में भी नियमित रूप से दिखाई जाती रही. सही मायनों में मेरे जैसे सिनेमाप्रेमी के लिए सिनेमाघर फिल्म एप्रिशिएशनका एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है. मल्टीप्लेक्स के दौर में जवान हो रही पीढ़ी और लॉकडाउन के बीच ओवर द टॉपस्ट्रीमिंग वेबसाइट (नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉट स्टार आदि)पर सिनेमा का लुत्फ लेने वाले सिनेमाप्रेमियों को बालकनी, रियर और स्टॉल जैसे शब्दों के अर्थ ढूंढ़ने के लिए शब्दकोश का शायद सहारा लेना पड़े.

प्रसंगवश, 1918-20 में जब स्पेनिश फ्लूवायरस दुनिया में फैली थी, तब भी सिनेमाघरों को बंद किया गया था, पर उस वक्त ऐसे एकमुश्त ताले नहीं लगे थे. उस वक्त भारत जैसे देश में सिनेमा की संस्कृति ठीक से विकसित भी नहीं हुई थी. बाद में टेलीविजन के आने से फिल्म संस्कृति पर ग्रहण लगता दिखा था, पर सिनेमाघर टिके रहे. ज्यादातर सिनेमाघर सिंग्ल स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स में तब्दील हुए. मॉल की संस्कृति, सिनेमा की संस्कृति से जुड़ती गई. उम्मीद करें कि जब कोरोना का कोहरा छटेगा अंधेरे बंद कमरों में चमकते जुगनूओॆ का जादू लोगों को फिर से सिनेमाघर खींच लाने में कामयाब होंगे. सिनेमा से बड़ा मनोरंजन का कोई जरिया भी तो नहीं!

(प्रभात खबर, 26 अप्रैल 2020)

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