Sunday, March 06, 2022

दर्शकों से दूर डॉक्यूमेंट्री फिल्में


 ‘जय भीम' और 'मराक्कर' भले ही ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ से बाहर हो गई हो, फिर भी इस महीने होने वाले ऑस्कर समारोह पर सबकी नजरें टिकी रहेंगी. रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायर', जिसे 94वें अकादमी पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फीचर श्रेणी में मनोनीत किया गया है, से काफी उम्मीदें हैं. भारत की यह पहली वृत्तचित्र है जो अंतिम पाँच डॉक्यूमेंट्री फीचर में शामिल हैं. इसे असेंशन, एटिका, फ्ली और समर ऑफ सोल वृत्तचित्रों के साथ टक्कर लेनी होगी. अलहदा विषय-वस्तु की वजह से यह वृत्तचित्र काफी सुर्खियाँ बटोर चुकी है.

इस वृत्तचित्र के केंद्र में ‘खबर लहरिया’ अखबार है, जिसे बुंदेलखंड इलाके में वर्ष 2002 में निकालना शुरु किया गया. इसके उत्पादन, प्रसारण में सिर्फ महिलाएं शामिल हैं. वर्ष 2015 से यह अखबार डिजिटल अवतार में आ गया है. इनकी रिपोर्टिंग टीम में फिलहाल करीब बीस सदस्य हैं जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती हैं. ‘राइटिंग विद फायर’ में अखबार से डिजिटल तक के सफर, उस सफर में आने वाली परेशानियों, सत्ता और समाज के रिश्ते को दिखाया गया है.
ऐसा लगता है कि आनंद पटवर्धन, अमर कंवर, कमल स्वरूप जैसे चर्चित निर्देशकों के बाद डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की दुनिया में युवा फिल्मकारों का समय आ गया है, जिनकी धमक साफ सुनी जा रही है. इसी साल जनवरी में शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री ‘ऑल दैट ब्रिद्स’ को सनडांस फिल्म समारोह में विश्व सिनेमा वृत्तचित्र श्रेणी में ग्रांड ज्यूरी पुरस्कार मिला है. यह वृत्तचित्र दो भाइयों सऊद और नदीम के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बीस साल से घायल पक्षियों की देखभाल करते हैं. साथ ही दिल्ली में प्रदूषण की समस्या भी इसमें शामिल है. पिछले साल पायल कपाड़िया की ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ को भी कान फिल्म समारोह में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का पुरस्कार मिल चुका है.
पिछले दिनों मुंबई फिल्म समारोह में सृष्टि लखेड़ा निर्देशित ‘एक था गाँव’ वृत्तचित्र दिखाई गई, जिसके केंद्र में उत्तराखंड के गाँवों से लोगों का पलायन है. यह वृत्तचित्र ऐसे गाँवों की व्यथा कथा है. इससे पहले पौड़ी-गढ़वाल जिले के एक बुजुर्ग किसान के संघर्ष और गाँवों से पलायन पर बनी निर्मल चंदर की डॉक्यूमेंट्री ‘मोतीबाग’ भी चर्चित रही है. ये सारी वृत्तचित्र समकालीन समय और समाज से जुड़ी हैं, जिसमें राजनीतिक स्वर भी गाहे-बगाहे सुनाई पड़ती हैं.
समस्या यह है कि ज्यादातर वृत्तचित्र फिल्म समारोहों तक ही सीमित रह जाती हैं. इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाता, जैसा फीचर फिल्मों का होता है. फलस्वरूप ये आम दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं. पिछले दो सालों में कोरोना महामारी की वजह से देश में ज्यादातर समारोह भी स्थगित ही रहे और ये डॉक्यूमेंट्री विदेशी फिल्म समारोहों, मुट्ठी भर दर्शकों तक ही सीमित रही. सच यह है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. आनंद पटवर्धन की फिल्में भी समारोहों, कॉलेज-विश्वविद्यालयों में या उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही उपलब्ध होती रही हैं. ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म भी फीचर फिल्मों को लेकर जितने तत्पर रहते हैं उतने वृत्तचित्रों को लेकर नहीं.

(प्रभात खबर, 6 मार्च 2022)

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