Sunday, October 15, 2023

संकट की अधूरी तस्वीर

 


देश में करीब चार सौ समाचार चैनल हैं. बावजूद इसके जब खबरों की विश्वसनीयता और सटीकता की बात आती है लोग अखबारों पर अधिक भरोसा करते हैं. ऐसा क्यों हैक्यों टीवी समाचार उद्योग पिछले दो दशकों मे दर्शकों के बीच अपनी साख नहीं बना पाया हैसवाल यह भी है कि लोकहित से जुड़े गंभीर-मुद्दों को देखने में दर्शकों की कितनी रूचि है?

ऑनलाइन समाचार वेबसाइट आने के बाद टीवी समाचार चैनलों पर संकट और बढ़ा है. अपवाद छोड़ दिए जाए तो आर्थिक रूप से इनकी स्थिति बेहद कमजोर है. संसाधनों के लिए इन्हें विज्ञापन पर निर्भर रहना पड़ता है. बाजार और राजनीतिक सत्ता के दबाव के बीच इन्हें काम करना पड़ता है. कर्ज से डूबे एनडीटीवी के कर्ता-धर्ता प्रणय रॉय को अपना चैनल पिछले साल अडानी समूह को बेचना पड़ा था. रवीश कुमार सहित कई नामी-गिरामी पत्रकारों ने अपना त्यागपत्र दे दिया.

पिछले दिनों विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री नमस्कार, मैं रवीश कुमार देखी. औपचारिक रूप से देश में इसका प्रदर्शन अभी नहीं हुआ है.  हाल में भारत में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की चर्चा भले देश-विदेश के फिल्म समारोहों में हुई हो, दर्शक वर्ग और वितरकों की तलाश में डॉक्यूमेंट्री निर्माताओं-निर्देशकों को हमेशा रहना पड़ता है.

बहरहाल, जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस वृत्तचित्र के केंद्र में एनडीटीवी इंडिया से लगभग 25 साल जुड़े रहे टेलीविजन के पत्रकार और स्टार-एंकर रवीश कुमार हैं. राजनीतिक विचारधारा, राष्ट्रवाद की अनुगूँज के बीच उनकी पत्रकारिता और जीवन-संघर्ष को यह वृत्तचित्र अपना विषय बनाती है.

टीवी समाचार उद्योग की कार्यशैली पर भी यह डॉक्यूमेंट्री एक तीखी टिप्पणी है. सत्ता चाहे राजनीतिक हो या धर्म की कभी सवालों को पसंद नहीं करती. लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडियाकर्मी जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता से सवाल करते हैं. रवीश कुमार की पत्रकारिता में भी सत्ता से सवाल करना शामिल रहा है, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है. 

देश-विदेश के मंच से भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहा जाने लगा है. विश्व के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र में यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं है, यह लोकतंत्र पर संकट की तरफ इशारा करता है. आज पत्रकारिता के पेशे को निभाना आसान नहीं है. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत का स्थान 161 नंबर पर है. फिर भी संकट के बावजूद हमारे बीच कई ऐसे पेशेवर पत्रकार हैं जो ग्लैमर से दूर रह कर, जान पर खेल कर सत्य को समाज के सामने लाने की कोशिश में रहते हैं. वर्ष 2019 में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने पुरस्कार देते हुए रवीश कुमार की पत्रकारिता को सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाज’ बताया था. हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर हैवहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गयी लगती है.

यह वृत्तचित्र अपने प्रभाव में अधूरी और बिखरी हुई लगती है. बहुत सारे सवाल, मसलन एनडीटीवी कैसे कर्ज के बोझ से घिरता चला गया इस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं मिलती. एक मुकम्मल तस्वीर के लिए पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों को भी सवालों के घेरे में लिया जाना आवश्यक है. 


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