Friday, November 06, 2009

ठाठ कबीरा

बात आधे घंटे की तय हुई थी, लेकिन जब बात चली तो दो घंटे से भी ज्यादा. मुझे ही कहना पड़ा- 'सर दो बजे आपकी मुंबई की ट्रेन है, मैं फिर कभी आऊँगा...ज़रूर आऊँगा.' लेकिन मुझे क्या पता था कि प्रभाष जोशी अचानक, इतनी जल्दी हमें छोड़ जाएँगे.



बात 15 जून 2008 की है. उस दिन मूसलाधार बारिश में जैसे-तैसे भटकते हुए दिल्ली स्थित निर्माण विहार में उनके घर गया था. अपने पीएचडी शोध के सिलसिले में संपादक की सत्ता और भूमंडलीकरण के दौर में मालिक के साथ संपादकों के रिश्ते को लेकर बातचीत करनी थी. प्रभाष जोशी समकालीन हिंदी पत्रकारिता के आख़िरी महान संपादक थे.उस दिन बातचीत में उन्होंने कहा था, "अख़बार मिल्कियत वाली कंपनी है, लेकिन उससे ज्यादा वह पब्लिक ट्र्स्ट भी है. मिल्कित के नाते मालिक का और पब्लिक ट्रस्ट के नाते संपादक का अख़बार होता है."

"कोई भी संपादक अख़बार नहीं बनाता, बल्कि महान अख़बार महान संपादक बनाते हैं और ऐसे संपादकों को संभव महान मालिक ही बनाते हैं."

जो भी हो, जनसत्ता को हम आज भी प्रभाष जोशी के नाम से जानते हैं. जोशी जी में जैसी सहजता थी वह विरले लोगों में ही मिलती है. हाथ पकड़ कर, कंधे पर हाथ रख कर बात करने की उनकी शैली और अपनापा मेरी आँखों के सामने है. बातचीत में उन्होंने एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा कि मेरी आत्मा में 'थॉमस बेकेट' रहता है.' फिर मेरे चेहरे पर आए भाव को पढ़ कर पूछा, "आपने पढ़ा है कि नहीं?", मैंने कहा, नहीं. "अरे यार, क्या करते हो यार! इलिएट का प्रसिद्ध नाटक है, मर्डर इन द कैथिडरल... पढ़ो उसे."
हाथ पकड़ कर पढ़ाने-सिखाने वाला पत्रकार हमारे बीच अब नहीं रहा.

वर्ष 2001-02 के दौरान मैं भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता सीख रहा था. जब इंटर्नशिप की बात चली तो मैंने जनसत्ता जाने का निश्चय किया, यह जानते हुए भी कि वहाँ नौकरी मिलने की संभावना क्षीण थी. 

मैं उनके कॉलम 'कागद कारे' का मुरीद था. आलोचक नामवर सिंह के 75 वर्ष पूरे होने पर उन्होंने 'नामवर के निमित्त' का आयोजन पूरे देश में करवाया. इसी प्रसंग में जब जनसत्ता में उनके लेखन और भाषा से हमें आपत्ति हुई तो हमने उस दौरान आईआईएमसी में गेस्ट लेक्चरर के रूप में आए जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से अपना विरोध दर्ज करवाया था.

कुछ महीने पहले जब पंडित कुमार गंधर्व के गायन को लेकर उन्होंने 'कागद कारे' में लिखा तो मैं उसी शाम कुमार गंधर्व के गायन की कुछ सीडी ख़रीद लाया था और मित्रों को सुनाता रहा.
जब जय प्रकाश फ़ाउण्डेशन ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नायर को वर्ष 2009 का 'जेपी सम्मान' देने की घोषणा की तो आठ अक्टूबर को यह सम्मान जेएनयू में एक समारोह में कुलदीप नायर को उन्होंने ही दिया. 

मैं भी उस आयोजन में शामिल था. 'घेरेबंदियों से ऊपर जेपी' विषय पर जोशी जी ने व्याख्यान दिया था. व्याख्यान देते हुए एक जगह उन्होंने कहा था, "सच की तलाश में जो जीवन जिया जाता है वह जीवन सबसे ज्यादा विरोधाभास लिए हुए होता है." 

यह बात उन्होंने महात्मा गाँधी और जय प्रकाश नारायण के बारे में कही थी. एक हद तक उनके जीवन के बारे में भी सच है.

लेकिन जिस समाज में अंतर्विरोधों की कोई कमी न हो उसमें कोई व्यक्ति कैसे विरोधाभासों से अछूता रह सकता है. 

मुझे बाबा नागार्जुन की एक कविता की पंक्ति याद आ रही है- 'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ, जनकवि हूँ साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊं.'

हकलाते कौन है? जिनमें खुद का विश्वास नहीं होता. प्रभाष जोशी के लेखन में जनता का विश्वास बोलता था. राजनीति हो, कला हो या क्रिकेट हर विषय पर उन्होंने उसी शिद्दत से लिखा.

अपने इसी विश्वास के साथ वे वर्ष 2009 में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भारतीय अखबारों ने बाज़ार के सुर में सुर मिलाकर जो व्यावसायिक हित साधा है उसके विरोध में पिछले कुछ महीनों से अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे थे, मंच, टेलीविज़न पर भाषण दे रहे थे, लोगों को लामबंद कर रहे थे.

प्रभाष जोशी का ठाठ कबीरा था. उन्होंने अपनी पत्रकारिता से जो अलख जगाया वह कालजीवी है और कालजयी भी. उनका जाना हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक युग का अंत है.

(चित्र में, 8 अक्टूबर 2009 को जेएनयू में भाषण देते प्रभाष जोशी, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नायर को जेपी सम्मान देते हुए प्रभाष जोशी. जनसत्ता में 10 नवंबर 2009 को प्रकाशित)

4 comments:

Mohit said...

saadaa rahega kaagad kaara...

Belief said...

There are very few moments when a Journalist is at a loss of word, this is one such moment for me. The loss of Prabhas Joshi is like a loss of a father to a discipline called 'Journalism'. There are few shafts of light in the gloom that it's pleasant to salute one golden ray- Prabhas Joshi was one of those ray. His unwavering dedication for 'Development Journalism' and a pain he empathized for common man will never be easy to forget. The traits of simplicity, warmth of his humble touch and deep rooted base in the grassroot are few of his traits that make him first among his class. The lifeblood of his dream was common man should 'Truly live- a life of dignity and honor'. A 'Gandivya' of ‘Hindi Journalism’- who did not spare anyone who played with the concerns of the poor and afflicted. We have a responsibility to carry forward his dream so that he lives in each one of us. A great great loss! May his soul rest in peace.

Anand Saurabh said...

देर रात जब खबर लगी तो एक पल को विश्वास न हुआ,
वो साफगोई वो लठ्ठमार सच कहने की ताकत, वो निर्भीकता, वो पारंपरिक आधुनिकतावाद, वो पिता तुल्य स्नेह...............
भारतीय मीडिया में एक युग का अंत हो गया............

Jai Kaushal said...

उस 'कबीरा' का ठाठ हमेशा याद आएगा..