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Saturday, July 01, 2023

आलोकधन्वा से बातचीत: कवि नहीं होते तो नेता तो हम कभी नहीं होते

 


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा दो जुलाई को जीवन के 75 साल पूरे कर रहे हैं. हिंदी में कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच उनके जैसी मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैं, पर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. इस किताब को छपे भी पच्चीस साल हो गए. उनकी छिटपुट कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. उम्मीद है कि इस साल उनका दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होगा.

 

वर्ष 1972 में फिलहालऔर वामपत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टरऔर जनता का आदमीप्रकाशित हुई थी. उस दौर में देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज थी. लोगों ने एक अलग भाषा-शैली, प्रतिरोध की चेतना उनकी कविताओं में पाया. बाद में उनकी भागी हुई लड़कियाँ’,’ ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते’, ‘सफेद रातजैसी कविताएँ काफी चर्चित रही. कॉलेज के दिनों से ही मैं आलोकधन्वा की कविता का पाठक रहा हूँ. इन वर्षों में गाहे-बगाहे उनसे बात-मुलाकात होती रही है. उनसे हुई बातचीत का एक संपादित अंश प्रस्तुत है:

 

# आपकी शुरुआती कविताएं जब छपी उस समय देश में वाम आंदोलनों का जोर था. क्या आपकी कविता इन आंदोलनों की उपज है?

 

हां, हम लोग उस समय वाम आंदोलन में थे. जब फिलहाल में मेरी कविता छपी उस वक्त जय प्रकाश नारायण पटना आए थे. उनकी पहली मीटिंग जो पटना यूनिवर्सिटी में हुई उसमें मैं वहाँ मौजूद था. जय प्रकाश नारायण बड़े देशभक्त थे. जेपी, लोहिया, नेहरू सब बहुत विद्वान लोग थे. आजादी की लड़ाई के दौरान जो मूल्य थे, उन्हीं से हम नैतिक रूप से संपन्न हुए. हमारे लिए पार्टी से ज्यादा वैल्यू महत्वपूर्ण था. मैंने वर्ष 1973 में पटना छोड़ दिया था. 1974 में जेपी का आंदोलन शुरु हो गया.

 

# आपने मीर के ऊपर कविता लिखी है (मीर पर बातें करो/तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं/ जितने मीर). मीर के अलावे कौन आपके प्रिय कवि रहे हैं?

 

कवि के व्यक्तित्व के अनुरूप ही अन्य कवि उसके प्रिय होते हैं. मीर हमारे प्रिय कवि हैं. कबीर भक्तिकालीन कवियों में बहुत उच्च कवि हैं. यदि आप पूछेंगे कि सूरदास कैसे थे, तो मैं कहूंगा कि अद्भुत थे. इसी तरह संत तुकाराम, चंडीदास बड़े कवि थे. यह कहना बड़ा मुश्किल है, कौन बड़े और प्रिय कवि हैं. आजकल तुलसी की दो पंक्तियों को लेकर उनकी आलोचना होती है, जिससे मैं सहमत नहीं हूँ. जो यह लिखता है- परहित सरिस धरम नहीं कोऊ’, उसकी अच्छाई को हम साथ क्यों नहीं लें? आजकल लोग प्रेमचंद की कहानी कफनपर भी सवाल उठाते हैं. उन पर हमला करते हैं. जो लोग हमला करते हैं असल में वे पढ़ते नहीं हैं. लोग नेहरू, जेपी पर भी हमला बोलते हैं.

# आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. देश में सांस्कृतिक-राजनीतिक माहौल के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

 

आज के वातावरण के ऊपर मुझे कुछ नहीं कहना, आप बेहतर जानते हैं. मेरा सिर्फ यह कहना है कि भारत ने अपने अस्तित्व के लिए जो संघर्ष किया उसमें जो सबसे अच्छा रास्ता है उसे चुने. उस रास्ते में बहुत बड़े नेता हुए हैं, उन्हें छोड़ कर अमृत महोत्सव मनाने का क्या मतलब? आप गाँधी, नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाष चंद्र बोस, पटेल को छोड़ नहीं सकते. भारत में लोकतंत्र की ऊंचाई किसी के चाहने से नष्ट नहीं होगी.

 

# आपने हाल ही में एक कविता में लिखा है कि अगर भारत का विभाजन नहीं होता तो हम बेहतर कवि होते’...

 

हां, मैं विभाजन से सहमत नहीं हूँ. मैं मानता हूँ कि वह एक जख्म है. मैंने बलराज साहनी पर एक कविता लिखी है. वह रेखाचित्र है. इसमें रे हैं, ऋत्विक घटक हैं. ये सब विभाजन से प्रभावित थे.

 

# आपकी बाद की कविताओं में स्मृति, नॉस्टेलजिया की एक बड़ी भूमिका है. जैसे एक जमाने की कवितामें आपने अपनी माँ को याद किया है. इसे पढ़कर मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थे?

 

स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थी, जिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. माँ तो सिर्फ एक मेरी नहीं है. जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा है, अपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है.

 

# एक और कविता का जिक्र करना चाहूँगा. आपने लिखा है-हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर की ओर जाती है/ सीटी बजाती हुई/ धुआं उड़ाती हुई...

 

रेल मेरे बचपन की स्मृतियों में है और मेरी संवेदनाओं का हिस्सा है. मैं बिहार से गहरे जुड़ा हूँ. मुंगेर से जमालपुर को जो ट्रेन जाती थी- कुली गाड़ी, तो उसमें हम सफर करते थे. वह सीटी बजाती और धुआं उड़ाती जाती थी. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ पाया जाता है. चाहे वह विद्यापति हो, रिल्के हो या नेरुदा.

 

# आपकी कविताओं में सिनेमा के बिंब अक्सर आते हैं, इसका स्रोत क्या है?

 

नाटक और सिनेमा हमारे जीवन का एक बड़ा हिस्सा है. सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. फणीश्वरनाथ रेणुहमारे गुरु थे. सिनेमा हमारे जीवन का अभिन्न अंग है. सिनेमा ने कथा-कहानी सबको समाहित किया है. आधुनिक काल में बड़ी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी. सिनेमा एक डायनेमिक मीडियम है. सत्यजीत रे ने विभूति भूषण के साहित्य पर फिल्म बनाई.

 

# यदि आप कवि नहीं होते तो क्या होते?

 

(हँसते हुए) यदि कवि नहीं होते तो नेता तो हम कभी नहीं होते. नेता का गुण नहीं है मुझमें. कवि का गुण है मुझमें थोड़ा. हिंदी में कविता के पाठकों का विशाल वर्ग है. जिन पाठकों ने निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय को पढ़ा वे मुझे भी पढ़ते हैं.

(मधुमती पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित, 68-69 पेज)

Saturday, March 18, 2023

पुस्तक समीक्षा: नवजागरण के अंतर्विरोध

 


वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार भारतीय नवजागरण के गंभीर अध्येता हैं। नवजागरण को लेकर हिंदी में राम विलास शर्मा सहित अनेक आलोचकों की किताब उपलब्ध है। लेकिन वर्ष 2002 में आई तलवार की किताब रस्साकशी: 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांतसंदर्भ ग्रंथ के रूप में शोधार्थियों के बीच प्रतिष्ठित है। ऐसा नहीं कि तलवार किताब लिख कर चुप बैठ गए। उन्होंने भारतीय नवजागरण पर अपना शोध और लेखन जारी रखा। रस्साकशीमें उन्होंने हिंदी नवजागरण पर सवाल खड़ा करते हुए लिखा, “भारतीय नवजागरण मुख्यत: धर्म और समाज के सुधार का आंदोलन था जबकि हिंदी नवजागरण का मुख्य लक्ष्य यह कभी नहीं रहा।उनकी स्थापना है कि हिंदी नवजागरण के बजाय इसे हिंदी आंदोलनकहा जाए।

बगावत और वफादारी: नवजागरण के इर्द-गिर्दकिताब इसी की कड़ी है, जिसमें विभिन्न समय पर लिखे लेखों का संकलन है। यह किताब नवजागरण के नायकों के विचारों और उनकी रचनाओं का शोधपरक विश्लेषण करती है। तलवार लिखते हैं कि अपने धर्म की रक्षा और सुधार का उद्देश्य गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा करते हुए हम किन विचारों का सहारा लेते हैं, किन उपायों से अपना उद्देश्य हासिल करते हैं?’ इस पर ध्यान देना जरूरी है। इस किताब में वे हिंदू-मुस्लिम नवजागरण की भद्रवर्गीय धाराओं में मौजूद अंतर्विरोधों को रेखांकित करते है।

किताब का शीर्षक सर सैयद अहमद खां के ऊपर लिखे पचास पेज के लंबे लेख से लिया गया है। उन्होंने विभिन्न कोणों से सैयद अहमद के ऊपर इस निबंध में विचार किया है। सन 1857 में हुए आंदोलन (सैयद इसे बगावत कहते हैं) के संदर्भ में तलवार ने नोट किया है कि इसमें सैयद अहमद न सिर्फ एक सरकारी मुलाजिम की हैसियत से शरीक थे, बल्कि वे सबसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने उसके बारे में लिखा, उसका विवेचन किया।वे लिखते हैं कि सैयद अंग्रेजी शासन के प्रति वफादार थे और इस विद्रोह के समर्थक नहीं थे, हालांकि उनका एक और पक्ष हिंदुस्तानियों, खास कर मुस्लिम कौम के प्रति उनकी वफादारी का भी है। विद्रोह के बाद अंग्रेजों के मन में मुसलमानों के प्रति जो द्वेष था वे इसे बदलना चाहते थे। उन्होने ईसाई धर्म और इस्लाम का तुलनात्मक अध्ययन किया। अलीगढ़ मोहम्मडन ओरिएंटल कॉलेज (अलीगढ़ विश्वविद्यालय) की स्थापना के संदर्भ में तलवार ने लिखा है कि सैयद के आधुनिक शिक्षा संबंधी प्रयासों में मुसलमानों ने उतना सहयोग नहीं किया, जितना हिंदुओं ने किया।

इस किताब में हिंदू धर्म प्रकाशिका सभाके संस्थापक श्रद्धाराम फिल्लौरी के ऊपर एक महत्वपूर्ण निबंध है। हिंदी में उनके ऊपर बहुत कम लिखा गया है। इसी तरह हिंदी नवजागरण के प्रसंग में खड़ी बोली आंदोलन के अगुआ अयोध्याप्रसाद खत्री और शिवप्रसाद सितारेहिंदपर भी मूल्यांकन है। बिना किसी वाग्जाल में उलझे, सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा में तलवार इस किताब में ऐसे सवाल खड़े करते हैं जो नवजागरण संबंधी प्रचलित विचारों को घेरे में लेती है। रामविलास शर्मा की स्थापनाओं के परिप्रेक्ष्य में हिंदी क्षेत्र में सन 1857 के बाद आए बदलावों का एक सम्यक लेखा-जोखा भी इस किताब में है।

 बगावत और वफादारी: नवजागरण के इर्द-गिर्द

वीर भारत तलवार

प्रकाशक | वाणी प्रकाशन

मूल्य: 399 | पृष्ठ: 152

 (आउटलुक हिंदी, 4 अप्रैल 2023)

Sunday, September 25, 2022

नब्बे साल के शेखर जोशी


नई कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार शेखर जोशी ने पिछले दिनों जीवन के नब्बे वर्ष पूरे किए. पिछली सदी के पचास-साठ के दशक में अमरकांत-मार्कण्डेय-शेखर जोशी (इलाहाबाद की त्रयी) उसी तरह चर्चा में रही, जिस तरह राजेंद्र यादव-कमलेश्वर-मोहन राकेश की तिकड़ी. नई कहानी के अधिकांश रचनाकार अब हमारी स्मृतियों में हैं. शेखर जोशी उम्र के इस पड़ाव पर भी रचनाकर्म में लिप्त हैं.

कुछ महीने पहले उनका कविता संग्रह ‘पार्वती’ प्रकाशित हुआ था. पचास के दशक के मध्य के इलाहाबाद प्रवास को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘यह समय इलाहाबाद का साहित्यिक दृष्टि से स्वर्णिम कालखंड था.’ इस कविता संग्रह के अलावे ‘न रोको उन्हें, शुभा’ भी प्रकाशित है. ‘पार्वती’ संग्रह में धानरोपाई, विश्वकर्मा पूजा से लेकर निराला, नागार्जुन जैसे कवियों की यादें हैं. साथ ही संग्रह में कवि के बचपन की स्मृतियाँ भी हैं.
पिछले साल उन्होंने अपने बचपन, आस-पड़ोस के समाज को ‘मेरा ओलियागांव’ किताब में दर्ज किया. इस किताब में कुमाऊँ पहाड़ियों के गाँव में बीता लेखक का बचपन है, विछोह है. बचपन से लिपटा हुआ औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है. स्मृतियों में अकेला खड़ा सुंदर देवदारु, कांफल का पेड़ है, बुरुंश के फूल हैं. पूजा-पाठ और तीज-त्यौहार हैं. लोक मन में व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक विभेद भी.
शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार’ 'परिंदे' (निर्मल वर्मा) और 'रसप्रिया' (फणीश्वर नाथ रेणु) के साथ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती हैं. लछमा और गुंसाई हिंदी साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र हैं.
‘मेरा ओलियागांव’ में वे अपनी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ और ‘कोसी के घटवार’ के उत्स की चर्चा करते हैं. वे लिखते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने फौजी वर्दियों में रणबांकुरों को जाते देखा था और उन्हें विदा करने आए लोगों का रुदन सुना था. ‘राजे खत्म हो गए’ एक फौजी की बूढ़ी मां पर लिखी कहानी है. साथ ही वे लिखते हैं कि ‘कोसी का घटवार’ के नायक ‘गुंसाई’ का चरित्र इन्हीं फौजियों से प्रेरित रहा हो.
पचास-साठ साल पहले लिखी ‘दाज्यू’, ‘बदबू’, ‘नौरंगी बीमार है’ आदि कहानियां आज भी अपनी संवेदना, जन-जीवन से जुड़ाव, प्रगतिशील मूल्यों और भाषा-शिल्प की वजह से चर्चा में रहती हैं और मर्म को छूती है. उनकी कहानियों में कारखाना मजदूरों, निम्न वर्ग के जीवन और संघर्ष का जो चित्रण है वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है. शेखर जोशी ने कारखानों के मजदूरों के जीवन को बहुत नजदीक से देखा, जो उनकी रचनात्मकता का सहारा पा कर जीवंत हो उठा.
‘बदबू’ कहानी में एक प्रसंग है, जिसमें वे लिखते हैं: 'साथी कामगरों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बातचीत या हँसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी.’ इस कहानी में कारखाने के मजदूर अपने हाथों में लगे कालिख को मिट्टी के तेल और साबुन से छुड़ाते हैं, पर गंध नहीं जाती. धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत पड़ जाती है. पर इस कहानी का अंत बहुत सारे सवाल और संभावनाएँ पाठकों के मन में छोड़ जाता है. उनकी कई कहानियों का मंचन भी हुआ, साथ ही ‘कोसी का घटवार’ और ‘दाज्यू’ पर फिल्में भी बनी है.

Wednesday, September 14, 2022

प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' के सौ साल

पिछले दिनों किसान आंदोलन के प्रसंग में प्रेमचंद के उपन्यासों को याद किया गया. खास कर प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि को केंद्र में रख कर किसानों के संघर्ष की चर्चा हुई.

प्रेमाश्रम प्रेमचंद का पहला उपन्यास है जिसमें वे किसानों की समस्या, शोषण और संघर्ष को हिंदी पाठकों के सामने लेकर आते हैं. इस लिहाज से प्रेमचंद के सभी उपन्यासों में इसकी अहमियत बढ़ जाती है. वर्ष 1922 में छपा यह उपन्यास सौ साल पूरे कर रहा है.

प्रेमाश्रम के ऊपर शोध करने वाले हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है: “ 1917 से 1920 के बीच लिखे गए किसान साहित्य में प्रेमाश्रम’ अकेली कृति थी जिसमें किसानों के वर्ग संघर्ष को चित्रित किया गया था. जमींदारी प्रथा के खिलाफ किसानों के संघर्ष को चित्रित करने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले लेखक और 1917-20 के जमाने के एकमात्र लेखक थे.” कोई भी रचनाकार अपने समय की हलचलों से अछूता नहीं रहता. साथ ही वह अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायित्व होता है. 

प्रेमचंद के इस उपन्यास में समकालीन औपनिवेशिक-सामंती समाज, अवध के क्षेत्र में बाद में फैले किसान आंदोलन और असहयोग आंदोलन की अनुगूंज है. हालांकि इस उपन्यास में यथार्थवाद पर उनका आदर्शवाद हावी है, पर जमींदारी के खत्म होने को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है.

इस उपन्यास की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है:

संध्या हो गयी है. दिन-भर के थके-माँदे बैल खेतों से आ गये हैं. घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे. लखनपुर में आज परगने के हाकिम की पड़ताल थी. गाँव के नेतागण दिन-भर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे. इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं. लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गाँव है. यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं.

इस उपन्यास में पात्रों की भरमार है. मनोहर, बलराज जैसे किसानों के साथ प्रेमशंकर, ज्ञानशंकर जैसे जमींदार मौजूद हैं. इसके अलावे गायत्री, गौंस खां, कादिर जैसे पात्र भी हैं. लखनपुर गाँव के किसान प्रेमाश्रम के नायक हैं और खलनायक जमींदार वर्ग है. इस गाँव के किसान बेगार, लगान,बेदखली के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं.

औपनिवेशिक भारत में जमींदार और किसान के बीच एक तीसरे वर्ग महाजन वर्ग का तेजी से विकास हुआ. किसान इस कुचक्र में पिस रहा था. इसका निरूपण प्रेमचंद ने अपने बाद के उपन्यास गोदान में कुशलता से किया है.

प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन के दौरान किसानों के सवाल, उनके संगठन की ताकत को अपने उपन्यास के केंद्र में रख रहे थे, जो आजादी के बाद भी हिंदी के रचनाकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा. हिंदी के कई रचनाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़े रहे.

प्रसंगवश, कवि नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार कहा जाता है. गोदान के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास की धारा ग्राम-जीवन से विमुख होकर शहर और अंतर्मन के गुह्य गह्वर में चक्कर काटने लगी थी. नागार्जुन अपने पहले उपन्यास रतिनाथ की चाची (1948) के द्वारा भारतीय ग्रामीण-जीवन के सच को फिर से पकड़ते हैं. नागार्जुन के उपन्यास 'बलचनमा', 'बाबा बटेसरनाथ' और फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' जैसे उपन्यास के प्रकाशन से प्रेमचंद की परंपरा पुष्ट हुई. यह परंपरा समाज और राजनीति को किसानों की दृष्टि से देखने की है.

जाहिर है प्रेमचंद और उनके बाद के रचनाकारों की चेतना में फर्क नजर आता है, जो समय और स्थान के अंतर के कारण स्पष्ट है. पर उनकी चिंता किसानों की स्वाधीनता की ही है. स्वाधीनता के लिए संघर्ष की चेतना नागार्जुन, रेणु जैसे रचनाकारों के यहाँ सबसे तीव्र है. हालांकि यहाँ प्रेमचंद की तुलना में अधिक स्थानीयता है. जहाँ प्रेमचंद उत्तर-प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा के माध्यम से किसानों के संघर्ष की चेतना को अभिव्यक्त किया है वहीं नागार्जुन और रेणु के यहाँ मिथिलांचल के किसानों, खेतिहर मजदूरों की कथा है. यहाँ लोक जीवन और लोक चेतना ज्यादा मुखर है.

आज भी देश की जनसंख्या का करीब साठ प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं. किसानों की समस्या भूमंडलीकरण के बाद उदारीकरण और बाजारवादी व्यवस्था से बिगड़ी है. ऐसे में हमारे समय में प्रेमाश्रम एक नया अर्थ लेकर प्रस्तुत होता है. सौ साल के बाद भी इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी हुई है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, August 07, 2022

अमृत महोत्सव में आलोचक की याद


हिंदी के आलोचक और झारखंड के चर्चित बुद्धिजीवी वीर भारत तलवार अपने पचहत्तरवें वर्ष में हैं. लोकतंत्र में आलोचना को केंद्रीयता हासिल है, ऐसे में आजादी के अमृत महोत्सव में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को याद करना जरूरी है. तलवार जैसा जीवन बहुत कम बौद्धिकों को नसीब होता है. जमशेदपुर में जन्मे, सत्तर के दशक में उन्होंने धनबाद के कोयला-खदान के मजदूरों और राँची-सिंहभूम के आदिवासियों के बीच काम किया. झारखंड राज्य आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में रहे. फिर अस्सी के दशक में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नामवर सिंह के निर्देशन में प्रेमचंद के साहित्य पर शोध किया और वहीं भारतीय भाषा केंद्र में छात्रों के चहेते शिक्षक भी बने. उन्होंने हिंदी नवजागरण को आधार बना कर ‘रस्साकशी’ जैसी मौलिक शोध पुस्तक की रचना की और हिंदी नवजागरण को प्रश्नांकित किया है. वे इसे ‘हिंदी आंदोलन’ कहने के हिमायती हैं क्योंकि इसका ‘यही लक्ष्य था’.
देश में 19वीं सदी का नवजागरण उनकी चिंता के केंद्र में रहा है. उन्होंने ‘हिंदू नवजागरण की विचारधारा’ में लिखा है: ‘अपनी परंपरा, धर्म, रीति-रिवाजों और सामाजिक संस्थाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना, उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर जांच कर ठुकराना या अपने समय के मुताबिक सुधारना हर नवजागरण -चाहे वह यूरोपीय हो या भारतीय- की सबसे केंद्रीय विशेषता रही है.’ उनके शोध को पढ़ कर हम समकालीन सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखने लगते हैं. तलवार की रचनाओं में शोध और आलोचना का दुर्लभ संयोग मिलता है. इस लिहाज से उनकी किताब ‘सामना’ खास तौर पर उल्लेखनीय है. इस किताब में शामिल ‘निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र’ अपनी पठनीयता और आलोचनात्मक दृष्टि की वजह से काफी चर्चित रहा है. उनकी आलोचना भाषा सहजता और संप्रेषणीयता की वजह से अलग से पहचान में आ जाती है. यहाँ बौद्धिकता का आतंक या दर्शन की बघार नहीं दिखती. अकारण नहीं कि उनके लिखे राजनीतिक पैम्फलेट भी काफी चर्चित रहे हैं.
वाम आंदोलन के दिनों में तलवार ने फिलहाल (1972-74) नाम से जो राजनीतिक पत्र का संपादन किया उसका ऐतिहासिक महत्व है. इसके चुने हुए लेख ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’ किताब में संग्रहित हैं. इसी तरह उन्होंने ‘झारखंड वार्ता’ और ‘शालपत्र’ का भी संपादन किया. ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच एक एक्टिविस्ट के नोट्स’ में उनके अनुभव संकलित हैं. इस किताब को उनके ‘झारखंड में मेरे समकालीन किताब’ के साथ रख कर पढ़ना चाहिए. खास तौर पर इस किताब में संकलित रामदयाल मुंडा पर लिखा उनका विश्लेषणात्मक निबंध उल्लेखनीय है.
जेएनयू में उनके जैसा शिक्षक और गाइड बहुत कम थे. शोध के प्रसंग में अक्सर मंत्र की तरह कहा करते थे- ‘ढूंढ़ो, खोजो, पता लगाओ’. जब भी उनसे बातचीत होती है वे सबसे पहले पूछते हैं: अच्छा, आज कल क्या लिख-पढ़ रहे हो.’ सिनेमा से तलवार जी का काफी लगाव है. उनका ‘सेवासदन पर फिल्म: राष्ट्रीय आंदोलन का एक और पक्ष’ लेख (राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य) एक साथ कई विषयों को समेटे है. ‘सेवासदन’ फिल्म (1934) के बहाने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उठे सांस्कृतिक आंदोलन और उसकी असफलता को वे रेखांकित करते हैं. वे सवाल उठाते हैं कि इन वर्षों में हिंदी फिल्में क्यों हिंदी जगत की संस्कृति और परंपराओं से दूर रही?

Wednesday, August 03, 2022

अमृतकाल में जनता के कवि आलोकधन्वा


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा जीवन के 75वें वर्ष में हैं. कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच इस कदर मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैंपर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. सच तो यह है कि इस किताब को छपे भी करीब पच्चीस साल हो गए.

वर्ष 1972 में फिलहाल और वाम पत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टर’ और जनता का आदमी प्रकाशित हुई थी. राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर आधारित फिलहाल पत्रिका खुद वर्ष 1972 में ही प्रकाश में आई थी. इस पत्रिका के संपादक वीर भारत तलवार थेजो उन दिनों पटना में रह कर वाम आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट थे. उनकी कविता की भाषा-शैलीआक्रामकता और तेवर को लोगों ने तुरंत नोटिस कर लिया था. 70 का दशक देश और दुनिया में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था.

आजादी के बीस साल बाद देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की गूंज उठी थी. युवाओं में सत्ता और व्यवस्था के प्रति जबरदस्त आक्रोश था. साथ ही सत्ता का दमन भी चरम पर था. सिनेमा में इसकी अभिव्यक्ति मृणाल सेन अपनी कलकत्ता त्रयी फिल्मों में कर रहे थे. भारतीय भाषाओं के साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज पहुँच रही थी. आलोकधन्वापाश (पंजाबी), वरवर राव (तेलुगू) जैसे कवि अपनी धारदार लेखनी से युवाओं का स्वर बन रहे थे. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब नक्सलबाड़ी के दौर में लिखा है: ‘आलोक की कविता में बेचैनी भरी संवेदनशीलता के साथ प्रतिरोध भाव और आक्रामक मुद्रा होती थी. वाणी में ओजस्वितारूप विधान में कुछ भव्यता और शैली में कुछ नाटकीयता होती थी.’ गोली दागो पोस्टर में वे लिखते हैं:

यह कविता नहीं है

यह गोली दागने की समझ है

जो तमाम क़लम चलानेवालों को

तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है.

इसी कम्र में भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते जैसी उनकी कविताएँ काफी चर्चित हुई थी. भागी हुई लड़कियाँ कविता सामंती समाज में प्रेम जैसे कोमल भाव को अपनी पूरी विद्रूपता के साथ उजागर करती है.

आलोकधन्वा की कविताओं में एक तरफ स्पष्ट राजनीतिक स्वर हैजो काफी मुखर है, वहीं प्रेमकरुणास्मृति जैसे भाव हैं जो उनकी कविताओं को जड़ों से जोड़ती हैं. महज चार पंक्तियों की रेल शीर्षक कविता में हर प्रवासी मन की पीड़ा है. एक नॉस्टेलजिया हैजड़ों की ओर लौटने की चाह है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है

जो माँ के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई

धुआँ उड़ाती हुई.

इसी तरह एक और उनकी रचना हैएक जमाने की कविता. आलोकधन्वा ने लिखा है:

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती

गुनगुनाती रहती

हम माँ को तंग करते

उसे दुल्हन कहते

माँ तंग नहीं होती

बल्कि नया गुड़ देती

गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते.

एक ज़माने की कविता’ पढ़ते हुए मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. एक बार मैंने उनसे पूछा था क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थेउन्होंने कहा- "स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थीजिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. अब माँ तो सिर्फ एक मेरी ही नहीं है. भावुकता स्वाभाविक है.

फिर मैंने पूछा कि क्या यह नॉस्टेलजिया नहीं हैतब उन्होंने जवाब दिया कि नहींयह महज नॉस्टेलजिया नहीं है. आलोकधन्वा ने कहा कि जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा हैअपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ मिलता है. चाहे वह विद्यापति होरिल्के हो या नेरुदा.

आलोकधन्वा की कविता में जीवन का राग हैलेकिन यह राग उनके जीवन के अमृत काल में भी विडंबना बोध के साथ उजागर होता है. हाल ही में साहित्य वार्षिकी (इंडिया टुडे) पत्रिका में छपी उनकी ये पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती है:

अगर भारत का विभाजन नहीं होता

तो हम बेहतर कवि होते

बार-बार बारुद से झुलसते कत्लगाहों को पार करते हुए

हम विडंबनाओं के कवि बनकर रह गए.

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. आजादी के साथ देश विभाजन की विभीषिका लिपटी हुई चली आई थीउस त्रासदी का दंश आज भी कवि भोग रहा है.

आलोकधन्वा कविता पाठ करते हुए अक्सर इसरार करते हैं कि ताली मत बजाइएगा’. उनकी कविताएँ मेहनतकश जनता की कविताएँ हैं, यहाँ जीवनसंघर्ष और प्रतिरोध समानार्थक हैं.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)