Wednesday, February 24, 2010

'मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका है'

यहाँ बर्फ़ की चादर धीरे-धीरे सिमट रही है. कहीं-कहीं घास पर बर्फ़ का चकत्ता ऐसे दिखता है मानो धुनिया ने रूई धुन कर इधर-उधर फैला रखी हो.

सबेरे टिपटिप बारिश हो रही थी. भीगते-भागते, पहाड़ियों को पार करते, विश्वविद्यालय की कैफ़ेटेरिया पहुँचे मुश्किल से एक-दो मिनट हुए होंगे कि मेरे कानों में आवाज़ आई, आर यू मिस्टर कुमार? आँखे उठाई, सामने वे खड़े थे. मैंने देखा, घड़ी की सुई आठ बज कर 30 मिनट पर ठहरी हुई है.

मैंने जैसे ही आहिस्ते से अपने बैग से कैमरा निकाल कर मेज पर रखा उन्होंने पूछा, क्या आप मेरी तस्वीर लेंगे, इसे छापेंगे! कोई बात नहीं..

अपनी कमीज़ के कॉलर को ठीक करते हुए उन्होंने कहा... अब शायद ठीक रहेगा और मुस्कुरा दिया.
फिर अचानक जैसे कुछ याद करते हुए उन्होंने पूछा आर यू ए सांइटिस्ट ऑर जर्नलिस्ट?
 
असल में मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो घुमना पसंद करते हैं और शायद इस वजह से ज्यादा गोरा हूँ. 35 वर्ष पहले मैं भारत गया था फिर नहीं जा पाया.”, कुछ सफाई देते हुए उन्होंने कहा.

जिगन विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर युरगेन बेल्लर्स के साथ हमारी बातचीत का यह अवांतर प्रसंग था:

यहाँ तो अब मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका हैं. हां, छात्र संघों में अब भी मार्क्स की धमक सुनाई पड़ेगी आपको. विश्वविद्यालयों में ज्यादातर प्रोफ़ेसर परंपरागत रूप से मार्क्सवादी नहीं है, वे लेफ्ट-लिबरल हैं. अब उनका सारा ज़ोर पर्यावरण मुद्दों और सेक्स के मामले में होने वाले भेदभाव के मार्क्सवादी विवेचन पर है.

जब मैं विश्वविद्यालय का छात्र था तब ऐसा नहीं था. 60 के दशक का दौर अलग था...सब तरफ छात्रों के अंदर असंतोष और विद्रोह था. मैं भी कट्टर मार्क्सवादी था लेकिन अब पूरी तरह से बदल चुका हूँ... मैं अब एक कंजरवेटिव हूँ. लेकिन मेरा मामला टिपिकल नहीं है. 

मैंने समाजवादी जर्मनी में कट्टरता को झेली है. मैं पश्चिमी जर्मनी का हूँ और मेरी बीवी पूर्वी जर्मनी से ताल्लुक रखती है. वह वहाँ से भाग कर पश्चिमी जर्मनी आना चाहती थी. उसे जेल में क़ैद कर दिया गया. वहाँ उसे दो-तीन साल बंदी बना कर रखा गया, फिर उन्होंने उसे नौकरी और अन्य सुविधाएँ देकर वहाँ के समाज में सामंजस्य के साथ रखने की कोशिश की. लेकिन जब उन्हें लगा कि ऐसा संभव नहीं है तो फिर उसे छोड़ दिया गया.
इन बातों की चर्चा आज कोई नहीं करता. 

मेरी बीवी पागल हो चुकी है. मैं उससे नहीं मिलता. वह कहती है कि मैं उसका हत्यारा हूँ...क़ैद में बंद रहने का खामियाजा उसे अब भुगतना पड़ा है (लेट कांसिक्वेंसेज ऑफ़ प्रिज़न)...

फिर जैसे कहीं कोई ख्याल आया और वे कह उठे, इट्स फ़ेट...यू मस्ट लिव इट.... मैं भी उनकी बातचीत में कहीं खो गया था, जैसे सोते से जाग कर कहा, यस, यस...

(चित्र में जिगन विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर युरगेन बेल्लर्स) (अमृत वर्षा, दिल्ली, में मार्च 5 मार्च 2010 को प्रकाशित)

2 comments:

निर्मला कपिला said...

इस रचना के लिये धन्यवाद । पहली बार ब्लाग पर आयी हूँ बहुत अच्छा लगा आपका ये प्रयास । धन्यवाद्

Sharda said...

I guess somewhere I can relate to wht he is talking about..I mean here at LSE I often find myself very disillusioned as everyone seems to be happy and living in denial about anything and everything. I often hear my professors telling me as to how LSE was this institution which was know for its protests and where every issue was taken up..it started as a subaltern institution known for its activism, however I dont really see this anymore..I guess its a global thing where the structure and politics of every University is undergoing a rapid change..wht is happening in JNU? Its a very disturbing trend..thanx for sharing your experiences as it makes us think and reminds us about things tht we often take for granted.