Wednesday, February 09, 2011

बीबीसी रेडियो का आखिरी प्रसारण

अगले महीने की इकतीस मार्च को शॉर्ट वेब पर बीबीसी की हिंदी रेडियो सेवा का आखिरी प्रसारण होगा!

पत्रकारिता की भाषा हमने बीबीसी हिंदी से सीखी. समंदर पार से लहराती हुई आती बीबीसी के रेडियो प्रजेंटर की खनकती आवाज़ में जादू था. उस जादू के सम्मोहन में हम छुटपन में ही बंध गए थे.

बड़े भाई साहब जो उम्र में मुझसे दस साल बड़े हैं, रोज़ बीबीसी सुना करते थे. घर में एक बड़ा रेडियो था. फिलिप्स का. सुना है कि पापा ने पहली कमाई से माँ के लिए वह रेडियो खरीदा था. वैसे जब कभी माँ को हम फिल्मी गाना गाते सुनते तो आश्चर्य करते...
बहरहाल, बात 80 के दशक के आखिरी वर्षों की है. बड़े भाई तन्मय होकर 'आजकल', 'खेल और खिलाड़ी' या 'हम से पूछिए' सुनते तो हम भी रेडियो को घेर कर बैठ जाते थे. बीबीसी की सहज भाषा हमें अपनी लगती थी.
खबर तब भले ही नहीं समझते थे, लेकिन साहित्यिक छौंक लिए हुए बीबीसी की भाषा के हम मुरीद बन गए थे. बड़े भाई ने समझाया था कि सहज होने का मतलब सपाट होना नहीं होता.
वर्ष 1991 में राजीव गाँधी की हत्या की खबर हमने सुबह-सवेरे बीबीसी से ही सुनी थी. बिहार के एक छोटे से गाँव में सूचना का हमारे पास वही एक स्रोत था. गोकि टेलीविजन घर आ गया था, लेकिन बिजली रहती कहाँ थी तब. आज भी नहीं रहती है!
आज भी बिहार के गाँवों में, नुक्कड़ों और चौक पर, खेत और खलिहानों में, प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब, भैस चराते हुए चरवाहे, आईएएस बनने का सपना संजोए छात्र-छात्राएँ बीबीसी के माध्यम से दुनिया जहान से रू ब रू होते हैं.
बिहार से बाहर निकलने पर बीबीसी सुनना छूट गया, पर बीबीसी की सीख साथ रह गई. खबरों की विश्वसनीयता, भाषा की संप्रेषणीयता की सीख जो हमें मिली थी वह बाद में काम आई.
कुछ वर्ष पहले मैं दिल्ली के 'इंडिया हैबिटैट सेंटर' में मिथिला पेंटिंग की एक प्रदर्शनी देखने गया था. चित्रों में कोहबर, मछली और अन्य पारंपरिक चित्रों के अलावे भ्रूण हत्या, अमरीका में हुए 9/11 के हमले का भी निरूपण था.
जब मैंने चित्रों में देखने को मिली इस विविधता के बारे में महिला कलाकारों से पूछा तो उनका जवाब था, 'हम पढ़-लिख नहीं पाते लेकिन बीबीसी सुनते हैं. उसी से हमें इन सबकी जानकारी मिलती है, जिसे हम अपनी चित्रों में उतारते हैं.'
'हमने बीबीसी पर सुनी है', यह जुमला आज भी उत्तर भारत में सुनने को मिलता है. जैसे बीबीसी का कहा अकाट्य हो!
बीबीसी के दक्षिण एशिया ब्यूरो के प्रमुख रहे मार्क टुली ने कहीं लिखा था कि 'बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद लोग बीबीसी का नाम लेकर अफवाह फैला रहे थे कि बीबीसी ने खबर दी है कि वहाँ दंगा फैल गया है...उस इलाके में लोगों को मार दिया गया...वगैरह वगैरह.'
इस बीच कहन के और भी साधन हमारे बीच आए. उदारीकरण के बाद सेटेलाइट चैनलों, खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई. बिहार के गाँवों में भी इन चैनलों की आवाज पहुँचती है, पर उनमें वो बात कहां!
दिल्ली जैसे महानगरों में हम बीबीसी रेडियो को भले ही मिस नहीं करते हो, लेकिन बिहार के गाँवों में बीबीसी रेडियो के बंद होने की खबर घर-परिवार के किसी आत्मीय के मौत से कम नहीं.
(जनसत्ता में समांतर कॉलम के तहत 11 फरवरी 2011 को प्रकाशित. बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने 7 मार्च 2011 को हिंदी शॉर्टवेव और मीडियम वेव पर अपने चारों प्रसारणों में से एक, 'दिन भर' को अभी एक साल और (मार्च 2012 तक) जारी रखने का फ़ैसला किया है)

2 comments:

Rajiv Ranjan said...

सचमुच बीबीसी हिंदी का जाना बड़ा दुखद हैं. सरल, विस्वसनीय तथा अपनापन बीबीसी हिंदी की पहचान थी. बीबीसी हिंदी से एक आत्मीय रिश्ता सा बन गया था....क्या बीबीसी अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार नहीं कर सकती..जब चीन, अमेरिका, रूस , इत्यादि देश भारत में अपनी रेडियो सेवा के इच्छुक है तब क्यों ब्रिटेन जमी जमाई सेवा को बंद कर रहा हैं.. क्या यह ब्रिटेन के पतन की एक और निशानी हैं या कुटनीतिक असफलता....

Jayendu Krishna said...

Difficult to articuate my thoughts in Hindi for very many reasons.
It is really sad that BBC Hindi Service is bidding farewell. I am in complete agreement with you Arvind that the voice of BBC seemed as if it were coming from thousand miles afar crossing seven seas. I also remember that one would desperately wait for 07.30pm (if I remember correctly)for BBC news after getting back home. I used to be truly inspiring.
Truly appreciate your language an articulation skills. The simplicity of your langauge, the flow, the beauty and what not. Love all that.