खेत-मेड़, पगडंडिया- सब कीचड़ से सने हैं. धान की बुवाई लगभग पूरी हो गई है. सावन की हल्की बयार में नन्हें शावकों की तरह धान के पौधे हवा में लहराते रहते हैं.
आम के बगीचों में इक्का-दुक्का आम दिखता है जिसे शायद कौवों और गिलहरियों के खाने के लिए छोड़ दिया गया है. घर में सबको खाना खिलाने के बाद गृहिणी के चेहरे पर जो तृप्ति दिखती है, कुछ-कुछ ऐसी ही रंगत आम के पेड़ों पर है.
आम और लीचियों का मौसम खत्म होने के बाद बगीचों में अमरूद और कटहल के पेड़ों की डाल फलों से लकदक है. फल अभी पके नहीं है, ये अपनी उम्र की वयसंधि पर खड़े हैं.
गाँव में डबरा और चहबच्चा पानी से ऊब-डूब है. घर के सामने डबरे में मखाना के पत्ते धीरे-धीरे गल के बिखर रहे हैं, कुछ दिनों में मछुआरे कीचड़ और पानी से छान कर इसे निकालेंगे.
गाँव में हाल ही में बने ‘उत्क्रमित (अपग्रेडेड) मध्य विद्यालय’ के बच्चे मास्टर साहब की गैर मौजूदगी में कांटों की परवाह किए बिना मखाना के पौधे से कच्चे मखाना निकालने में मग्न हैं. बिहार के स्कूलों में ‘मिड डे मिल’ और लड़कियों के लिए साइकिल की चर्चा सब करते हैं, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता पर किसी का ध्यान नहीं है. दादी अपने लोक अनुभव का आश्रय लेकर कहती है ‘आसमान में ही जब छेद हैं तब दर्जी के बाप का दिन है कि उसे सिलेगा...’
बाहर फिर झकझोर के बारिश हो रही है. खिड़की को जान बूझ कर मैंने बंद नहीं किया है. बारिश की कुछ छीटें मेरे बिस्तर पर पर रही है.
माँ को शायद इस बात का पता नहीं है कि बिस्तर भींग रहा है, नहीं तो पहले झिड़केगी. फिर हँसेगी और पापा की ओर मुखातिब होते हुए कहेगी कि ‘कैसे तुम रहते हो दिल्ली में पता नहीं! जाओ, नहीं सुधरोगे तुम!’
बचपन में जब बारिश के मौसम में स्कूल से लौटना पड़ता था, तब अपने बस्ते को पन्नी में लपेट कर, पेट से सटाए हम बुशर्ट के अंदर कर लेते थे. माँ घर के ओसारे में बैठी हमारा इंतजार कर रही होती और बारिश की बूंदें फूस के घर से हरहरा कर ओलती में गिरती जातीं.
बाद में जायसी को पढ़ते हुए ‘बरसै मेघा झकोरी, झकोरी मोरे दुइ नैन चुवै जस ओरि’ का मतलब समझा. प्रोफेसर मैनेजर पांडेय साहित्य का समाजशास्त्र पढ़ाते हुए बताते थे कि किस तरह राजस्थान में कुछ कक्षाओं में उन्हें ‘नागमती का विरह वर्णन’ और इन पंक्तियों का अर्थ समझाने में दिक्कत आती थी. महानगरों में रहने वाले जिन्होंने केवल फिल्मों गीतों में सावन-भादो में नायिकाओं को भींगते देखा है उन्हें कभी-कभी मिथिला और अवध के गाँवों को भी अपनी यात्रा में शामिल करना चाहिए. किस तरह से किसानों का जीवन स्याह मेघ और उमड़ते-घुमड़ते बादल की मौजों पर टिका रहता है. कैसे फूस के घर की छावन की चिंता उन्हें सताती रहती है, जिनके घर के पुरुष दिल्ली और पंजाब में मजदूरी कर रहे हैं.
वर्ष 1987 में मधुबनी जिले में आई भीषण बाढ़ में फूस का घर बह गया तब उसकी जगह ईंट और सीमेंट का घर बना. हर मानसून में दिल्ली में मुझे अपने फूस के घर की याद आती रही है. ओलती में बारिश की पीली बूंदों को टप -टप गिरते बरसों से मैंने नहीं सुना है.
स्मृतियों के एलबम में हम अक्सर चित्रों को सहेजते हैं पर ध्वनियाँ भी अनकहे संग हो लेती हैं. जब-तब आश्रय पा कर ये ध्वनियाँ हमें उद्वेलित कर जाती हैं. इस बार जब सावन में घर गया तो मेरी आँखें पुराने घर को ढूंढ़ रही थी. गाँव से सटे रेलवे हॉल्ट पर डीजल से चलने वाली ट्रेन में कोयले से चलने वाली ट्रेनों की छुक-छुक और घुम-घुम ढूंढ़ रही थी.
बहरहाल, बिस्तर पर अधलेटे, हाथ में किताब लिए मैं हवा के झोंकों के संग बाहर बांस, जामुन, आम, अमरूद के पेड़ों के झूलने और झिर झिर बारिश की बूंदों से उपज रही संगीत को सुन रहा हूँ.
क्या खाना है, कहां जाना है, किस-किस से मिलना है कि सूची में यह भी लिखके आया था कि पापा से बहस नहीं करनी है, माँ से वो सब पूछना है जो बातें फोन पर नहीं कर पाता, दादी से आजादी के दिनों और निपट गरीबी की बात करनी है.
साल भर बाद घर आया मैं अपने ही घर में चार दिन का मेहमान भर हूँ. कल फिर दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़नी है...
कहते हैं कि जब भी फणीश्वर नाथ रेणु अपने गाँव औराही हिंगना जाते, वहाँ से अनेक किस्से- कहानियों के संग लौटते थे. मुझमें वह प्रतिभा कहाँ!
बहरहाल, इन वर्षों में गाँव में भी डीटीएच की तारें और इनवर्टर दिखने लगे हैं, एफएम रेडियो के स्वर सुनाई देने लगे हैं. पर सावन-भादो की वही पुरानी संगीत की धुनें है जिसे गाँव में छोड़ हम शहर आ गए थे. दिल्ली का मानसून कितना भी सुंदर क्यों नहीं हो, पर उसमें वो ताजगी कहाँ, जिसमें सोंधी मिट्टी की गंध और अधपके फलों और फूलों की खुशबू लिपटी रहती है.
(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 13 अगस्त 2011 को प्रकाशित)
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