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Sunday, August 03, 2025

संघर्ष से उपजी कला

 



मिथिला चित्र शैली अपने अनोखेपन और बारीकी के लिए देश-दुनिया में प्रतिष्ठित है और कला जगत में खास महत्व रखती है. पिछले दशक में एक बार फिर से देश-दुनिया इस कला की काफी चर्चा हो रही है और कई कलाकार पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हुए हैं. विषयों की विविधता, जीवन-जगत और लोक के संघर्ष का चित्रण इस पारंपरिक कला को समकालीन बनाता रहा है.

वर्ष 1934 में मिथिला क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के दौरान ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने वर्ष 1949 में ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नजर इस लोक कला पर पड़ी थी.

इस कला को लेकर नौ लोगों को अब तक पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, लेकिन इन ग्रामीण महिलाओं के जीवन-वृत्त, संघर्षों के बारे में हिंदी में अभी भी स्तरीय पुस्तकों का अभाव रहा है. कलाप्रेमी और लेखक अशोक कुमार सिन्हा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक-‘आंसुओं के साथ रंगों का सफर’ इस कमी को पूरा करती है. वे इस किताब के बारे में लिखते हैं: “मिथिला पेंटिंग के कुल 25 महिला कलाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के अभिलेखीकरण का प्रयास किया है. पुस्तक में उनके दुख और संघर्ष साथ-साथ उनके सपनों की उड़ान भी है.” जैसा कि स्पष्ट है किताब में जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी, गोदवरी दत्ता, दुलारी देवी, शांति देवी जैसे सिद्ध कलाकारो के अलावे कई जैसे कलाकारों के जीवनवृत्त और उनकी कला का ब्यौरा दिया गया है जिससे कला जगत अपरिचित है. इस लिहाज से इस किताब का महत्व बढ़ जाता है.

वर्ष 2011 में जब महासुंदरी देवी को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई तब मैं उनसे मिलने उनके गांव रांटी गया था. उन्होंने मुझे कहा था: “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” समय के साथ मिथिला कला में पुरुषों और दलित कलाकराों का दखल बढ़ा है. नए-नए समकालीन विषय इसमें जुड़ते गए हैं. शिक्षा के प्रसार से युवा कलाकारों की दृष्टि संवृद्ध हुई है. मिथिला पेंटिंग को 'कोहबर' की चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित करने में इनका काफी योगदान है.

समीक्षक: अरविंद दास

किताब: आंसुओं के साथ रंगों का सफर

प्रकाशक: क्राफ्ट चौपाल

कीमत: 500 रुपए

Saturday, August 24, 2024

Godawari Dutta: The Model Woman of Mithila painting


Godawari Dutta (1930-2024), the renowned Mithila artist, was among the galaxy of fine artists that Mithila has produced in the past sixty years. With her death, an important chapter of this traditional art form comes to a close, but her legacy lives on.

In 2019, when she was awarded Padma Shri, the Rashtrapati Bhavan’s Twitter handle aptly noted: “A Mithila artist, she has contributed to promoting the traditional art form and has been imparting training and guidance to budding artists.” Besides being an ace painter, she was also an accomplished Shilpa Guru.

 Her granddaughter, Preeti Karn, herself an artist and state awardee, said to me that she was her guru too. “Till her last days, she was very eager to take this traditional art form forward. Since childhood, I have learnt painting under her guidance and participated in many programmes along with her.”

 In 2015, I went to meet Dutta in her village, Ranti, near Madhubani. It is true that since time immemorial, across the Darbhanga-Madhubani region of Bihar, paintings adorned the walls (kohbar) and floors (aripan). However, in the last five decades, the Ranti and Jitwarpur villages of the Madhubani district have emerged as prominent hubs of Mithila painting, which is why the art form got the name ‘Madhubani painting’.

 So far, six artists from these two villages have been awarded Padma Shri. I saw a big Kohbar on the walls of Dutta’s drawing room. She explained to me in detail about the intricacies of Kohbar where newlywed couples spend the first four days after marriage. She had shown me her various paintings, including the one on Buddha and the depiction of a Japanese folk festival which she had recently finished.

 Dutta was born in Bahadurpur village in Darbhanga district. Her mother Subhadra Devi, herself a well-known artist, was her guru. She told me: “My mother’s paintings, and those of Padma Shri awardee Jagdamba Devi of Jitwarpur, had a 'folk touch’ in them. With the advent of modern education, there has been a change in both the subject matter and style.” She said: “No wedding ceremony can be completed in Mithila without painting.”

 In the 1960s, Madhubani paintings transitioned from wall paintings to paper, making them easier to buy and sell. Thanks to pioneer artists such as Jagdamba Devi, Sita Devi, Ganga Devi, Mahasundari Devi, Godawari Dutta and Baua Devi, very soon, it caught the attention of art connoisseurs across the world.

 Like the legendary Mithila artists Ganga Devi and Sita Devi, Dutta’s life was full of hardships. Her father died when she was 10, and after she got married in 1947, her husband left her to marry another woman in Nepal. She raised her son on her own in the village.

Born in a Kayastha family, her painting followed the famous Kachni (line drawing) style. The specialty of Godawari Dutta’s art lies in the clarity of the lines. The use of colours is minimal here.

 When she was awarded Padma Shri, I had interviewed her at length in Maithili. When I asked her what her specialty was, she laughingly replied: ‘How can I say that? You should find it yourself. It’s mother Sita’s blessing.” She travelled to Japan, Germany and various parts of India with her paintings. The Mithila Museum in Japan has many of her paintings. She told me: “I have travelled to Japan seven times. I made a painting of Ardhanarishwar there in which Lord Shankar has a trishul and damru in his hands. Tokio Hasegawa, the director of the Mithila Museum, liked that painting very much. I also liked it.”

 The trishul is 18 feet long. She told me: “After making it, my mind became light and after that I said that the power of Brahma, Vishnu and Mahesh is contained in this trident.”

Even though the subjects of her paintings are related to traditional narratives from Ramayana and Mahabharata, her paintings are close to modern sensibilities. A film named Kalakar Namaskar has also been made on her life. The bitter reality of Dutta’s life in the feudal society of Mithila, combined with her imagination, made her art truly extraordinary.

 

Sunday, July 10, 2022

विविध समुदायों के बीच मेल-जोल


पिछले दिनों दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के एक कार्यक्रम में चर्चित गायिका शुभा मुद्गल ने जब ‘गजब ढा गयो तोरे नैना मुरारी/ मैं खो अपनी सुध-बुध दिल-ओ-जान हारी’ गजल गाया, तब वह यह जोड़ना नहीं भूली थी कि इसके लेखक अब्दुल हादी ‘काविश’ हैं. यह कार्यक्रम आजादी के पचहत्तरवें वर्षगांठ के तहत आयोजित किया गया जिसमें करीब दो सौ कलाकारों, कवियों, फोटोग्राफरों की एक प्रदर्शनी ‘हम सब सहमत’ नाम से जवाहर भवन में लगी है.

आज देश में जैसा माहौल है लोग सामाजिक सद्भाव, साहित्य या हिंदुस्तानी संगीत की उस परंपरा को याद नहीं करते, जहाँ पर हिंदू-मुस्लिम का राजनीतिक विभाजन मिट जाता है. विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का ऐसा पहलू है जिस पर बहुत कम बातचीत होती है. सहिष्णुता की भावना इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है.
याद आया कि मिथिला के कर्ण कायस्थों में आषाढ़ के महीने में कुल देवता धर्मराज की पूजा की परंपरा रही है, जिसमें बच्चों का मुंडन संस्कार भी करवाया जाता है. इस पूजा में अनेक देवी-देवताओं का आह्वान होता है. ध्यान देने की बात है कि यहाँ पैगंबर हजरत मोहम्मद और मूसा की भी पूजा होती है. यह बात आज भले लोगों को आश्चर्य लगे पर परंपरा के रूप में यह सैकड़ों वर्षों से जारी है. जैसा कि सब जानते हैं कायस्थ कोर्ट-कचहरी में मुस्लिम शासकों के साथ रहते आए हैं, फारसी-उर्दू भी सीखते रहे. खान-पान, पहनावे के साथ-साथ धर्म और संस्कृति का इससे मेल-जोल हुआ. पूजा के अंत में यह विनती पढ़ी जाती है: हजरत छी हजार छी, पहुमीपुर पाटल छी. ओतय दीअ पीठ, अतय दीअ दृष्टि. बार-बार गुनाह माफ करब.”
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में बिहार में कायस्थों का काफी योगदान रहा है. कहा जाता है कि कर्ण कायस्थों के पूर्वज सैकड़ों वर्ष पहले दक्षिण राज्यों से आए थे. मिथिला के इतिहासकार कर्णाट वंश (1097-1325) के शासन के प्रसंग में कायस्थों का उल्लेख करते हैं. सैकड़ों वर्ष पुरानी ‘पंजी प्रथा’ का मुकम्मल अध्ययन अभी बाकी है. मिथिला पर गियासुद्दीन तुगलक के आक्रमण के साथ कर्णाट शासन का अंत हो गया पर बाद के शताब्दी में भी उनका दबदबा बना रहा.
एक यही दृष्टांत नहीं है जिससे विविध संस्कृतियों के आपसी मेल-जोल की झलक मिलती हो. इस लिहाज से चर्चित लेखक-प्रशासक कुमार सुरेश सिंह का 43 खंडों में प्रकाशित ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ काफी महत्व रखता है. इसमें भारत के कुल 4694 समुदायों का अध्ययन किया गया है.
इस अध्ययन की महत्ता को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है कि ‘भारत देश के विभिन्न समुदायों की विविधता, उनकी एकता और उनकी विशिष्टताओं को दर्शाने वाला ऐसा विराट दूसरा कोई शोध-कार्य नहीं हुआ.’ सिंह ने अपने अध्ययन में विभिन्न समुदायों के बीच साझी प्रवृत्तियों का विस्तार से उल्लेख किया है. आजादी के अमृत महोत्सव में विभिन्न समुदायों के बीच संकीर्णता के बदले आपसी सद्भाव के उन पहलूओं पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे कि संघर्ष मिटे और शांति बहाल हो सके.

Sunday, November 28, 2021

मिथिला के इतिहासकार की याद: राधाकृष्ण चौधरी

 


इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी (1921-1985) का यह जन्मशती वर्ष है, लेकिन उनकी बहुमुखी प्रतिभा और रचनात्मकता के अनुकूल चर्चा नहीं हो रही. वे इतिहास के प्रोफेसर और बहुभाषी विद्वान थे. उनकी लेखनी अंग्रेजी, हिंदी और मैथिली में एक साथ मिलती है. वे मिथिला के इतिहासकार के रूप में चर्चित रहे, पर उल्लेखनीय है कि वे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के अध्ययन में बिहार के प्रथम प्रतिनिधि भी थे. उनके पुरातत्त्ववेत्ता रूप की चर्चा भी अपेक्षित है. मिथिलाक राजनीतिक इतिहास (1960)मिथिलाक सांस्कृतिक इतिहास (1963) के बाद उन्होंने अपनी बहुचर्चित कृति मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति लिखी जो साहित्य और इतिहास के शोधार्थियों के बीच आज भी समादृत है.

वर्ष 2002 में जब मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के लिए दाखिला लिया और नागार्जुन के उपन्यासों को एमफिल लघु शोध-प्रबंध के लिए चुना था तब हिंदी के आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति पढ़ने की मुझे सलाह दी थी. इस पुस्तक से राधाकृष्ण चौधरी की मिथिला समाज  की गहरी ऐतिहासिक समझ और इतिहास बोध सामने आता है. साथ ही उनके विस्तृत अध्ययन और शोध का भी पता चलता है. वर्ष 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक के आमुख में उन्होंने लिखा है- इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य मिथिला के आम जन के जीवन प्रसंग से संबंधित जितनी जानकारी संभव हो सामने लाना है. राधाकृष्ण चौधरी वामपंथी विचारधारा से प्रेरित थे. बाद के दशक में इतिहास अध्ययन में जो सबालटर्न स्टडीज का स्वर सुनाई पड़ा उसका पूर्व-पक्ष यहाँ देखा जा सकता है.

मिथिला का समाज अपनी संकीर्णता और रूढ़ियों के लिए भी कुख्यात है. जातिवाद, स्त्रियों की दारुण दशा सामंती व्यवस्था से उपजी मानसिकता से परिचालित होती रही है. चौधरी ने लिखा है: “जब से हरसिंह देव ने कुलीनवाद’ लागू की तब से इन छह सौ वर्षों में मिथिला की पुरानी सामाजिक सरंचना में बमुश्किल कोई बदलाव आया है.”  कुलीनवाद ने पहले से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को और कठोर बना दिया था. विद्यापति (1350-1450) ने अपनी नचारी और महेशवाणी जैसे पदों में जिस सामाजिक असमानता, निपट गरीबी औऱ स्त्रियों की पराधीनता और दुख का बार-बार वर्णन किया है वह आज भी आम जन के लिए उतना ही सच है जितना विद्यापति के समय और समाज के लिए के लिए था. विद्यापति देशी भाषा के पहले कवि थे जिनके यहाँ सेकुलर ध्वनि सुनाई देती है. चौधरी ने लिखा है: ‘विदयापति की रचना का उत्स मिथिला के लोगों की सामाजिक जरूरतें थीं. नचारी और महेशवाणी में विद्यापति ने आम जनों के दर्द को ही अभिव्यक्त किया है, पर उन्होंने समाजिक शोषण के प्रति विद्रोह की भावना को भगवान की तरफ मोड़ दिया.

सामंतवाद की जगह लोकतंत्र आ गया, तंत्र के बदलने से लोक’ की स्थिति कितनी बदली? आजादी के 75वें वर्ष में मिथिला के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के संदर्भ में इस प्रश्न की पड़ताल जरूरी है. मिथिला के समाज और संस्कृति से जीवनपर्यंत जुड़े रहे राधाकृष्ण चौधरी के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 


(प्रभात खबर, 28 नवंबर 2021)

Sunday, November 21, 2021

लोक कला में समकालीन विषयों का चित्रण हो: अविनाश कर्ण

 


पिछले हफ्ते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला पेंटिंग में योगदान के लिए रांटी गांव (मधुबनी) की दुलारी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया. यह गाँव मधुबनी पेंटिंग का गढ़ रहा है. इससे पहले इस गाँव की महासुदंरी देवी और गोदावरी दत्त को भी मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी खुद अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से ताल्लुक रखती हैं. बीएचयू से फाइन आर्टस में प्रशिक्षित, रांटी के ही युवा चित्रकार अविनाश कर्ण इन दिनों आर्टरीच इंडिया के सहयोग से एक कम्यूनिटी प्रोजेक्ट के तहत मुस्लिम लड़कियों को मिथिला पेंटिंग सीखा रहे हैं. इससे पहले मुस्लिम समुदाय मधुबनी पेंटिंग से नहीं जुड़ा. इस प्रोजेक्ट और मिथिला कला में आ रहे बदलाव को लेकर अरविंद दास ने उनसे रांटी स्थित स्टूडियो में बातचीत की, एक अंश:

अपने स्टूडियो और कम्यूनिटी आर्ट परियोजना के बारे में आप हमें बताइए?

आर्ट बोले स्टूडियो शुरु करने की योजना मेरे मन में बहुत पहले से थी. हमारे समुदाय में जो लोग पेंटिंग नहीं सीख पाते हैं, वजह चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, मेरी यह इच्छा है कि वे इसे सीखे. मिथिला पेंटिंग में समकालीन कला विषयों को लेकर मैं पेंटिंग करता रहा हूँ. मुझे कुछ ऐसे लोग चाहिए थे जो इन विषयों को लेकर काम करें. मैंने बीएचयू से फाइन आर्ट्स में ट्रेंनिंग ली है, मेरी इच्छा है कि मिथिला कला में अपनी ट्रेनिंग का इस्तेमाल करुँ. यहाँ कलाकारों के बीच में समन्वय नहीं है. आर्ट बोले के माध्यम से मैं इसे बढ़ावा देना चाहता हूँ.

कुछ मुस्लिम लड़कियों की पेंटिंग मुझे स्टूडियो में दिखी है. पहले मुस्लिम समुदाय इससे कभी नहीं जुड़ा, ऐसा क्यों?

इनके अंदर ख्वाहिशें थी, पर इन्हें मौका नहीं मिल रहा था. मधुबनी के नजदीक के गाँव-शेख टोली, गोशाला चौक की लड़कियां इससे जुड़ी है. इन्हें अपने परिवार से भी प्रोत्साहन मिल रहा है. ये नए विषय लेकर आ रही हैं. जैसे मुस्लिम समुदाय में जो दहेज की समस्या है, सामाजिक सौहार्द, स्त्री सशक्तिकरण, सामाजिक मुद्दें इनकी पेंटिंग में दिखता है. हम आपस में बातचीत करके विषय तय करते हैं. कोहबरराम-सीता से अलग ये नया प्रयोग कर रही हैं.

हाल के दिनों में युवा कलाकारों का जोर समकालीन विषयों की ओर बढ़ा है. पहले पारंपरिक विषयों के चित्रण पर जोर था. आप इसके बारे में क्या कहेंगे?

समकालीन विषयों, सामाजिक मुद्दों को पहले भी मिथिला पेंटिंग में चित्रित किया जाता रहा है. गंगा देवी (1928-1991) ने इसकी शुरुआत की थी. उनकी शैली बहुत ही खूबसूरत थी और भी कुछ कलाकारों ने मिथकों, पारंपरिक विषयों से अलग विषय को उठाया था. बाद में बाजार में मिथिला पेंटिंग की विशिष्टता खोने लगी थी. कला तो यह पहले से ही थी, अब फिर से क्राफ्ट से इसे कला की ओर मोड़ा जा रहा है.

आप बनारस शहर से रांटी गाँव आए. क्या अनुभव रहा है आपका?

कोरोना लॉकडाउन के दौरान मैं गाँव लौट आया. यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने. यहाँ कई लोग सवाल उठाते हैं कि मधुबनी कला में फाइन आर्टस के तत्वों की क्या जरूरत हैलेकिन मेरा कहना है कि मधुबनी कला को समकालीन कला से जोड़ने, इसमें बदलाव की जरूरत है.

दुलारी देवी की पेंटिंग की शैली के बारे में आप क्या कहेंगें?

दुलारी देवी पारंपरिक शैली में पेंटिंग करती रही हैं. सीता स्वयंवर में जो शैली उनकी रही है, वह कायम है. आपने देखा होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्होंने जो पेंटिंग भेंट की और जिसे उन्होंने ट्विट किया वह पारंपरिक शैली में समकालीन विषय के चित्रण का बढ़िया उदाहरण है. मछली और हवाई जहाज का इसमें चित्रण है. उनकी शैली कचनी-भरनी ही है.

मधुबनी पेंटिंग का क्या भविष्य आप देखते हैं?

समकालीन कला के बाजार पर जो संकट है उसका फायदा लोक कला को मिल रहा है. न सिर्फ मधुबनी बल्कि अन्य पारंपरिक, लोक कला के लिए भी यह सच है. लेकिन लोक कला का भविष्य बहुत बढ़िया तब तक हम नहीं देख रहे जब तक इसमें समकालीन विषय-वस्तु नहीं जुड़े. मधुबनी पेंटिंग को मुख्यधारा में लाने के लिए नए विषय वस्तु तलाशने होंगे.

 

Tuesday, November 16, 2021

मिथिला पेंटिंग से जुड़ रहा मुस्लिम स्वर

 

ईद मुबारक, सरवरी बेगम

पिछले हफ्ते मिथिला पेंटिंग (मधुबनी पेंटिंग) के क्षेत्र में योगदान के लिए दुलारी देवी को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया तब मैं उनके गाँव रांटी में था. रांटी मधुबनी जिले से बिल्कुल सटा हुआ है. इस गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त को इससे पहले मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. विशेषकरदुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी है. ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को अपनाया है. हाल ही में रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण ने मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को इस कला से जोड़ा है, जिसे रेखांकित किए जाने की जरूरत है.

दुलारी देवी अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से आती हैं. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कुछ समय के बाद उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवीकर्पूरी देवी को चित्र बनाती हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.”  फिर धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्ति चित्र बनाया है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नईकोलकाताबैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.

दुलारी देवी के चित्रांकन की शैली कचनी से मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँआत्म संघर्ष अंकित है. जहां दुलारी देवी पारंपरिक विषयों, रीति-रिवाजोंअनुष्ठान आदि को अपनी पेंटिंग का विषय बनाती हैं, वहीं रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण, शांतनु दास समकालीन विषयों को चित्रित करते हैं. उस दिन रांटी में स्थित अविनाश कर्ण के स्टूडियो- आर्ट बोले, में बिखरी पेंटिंग को देख कर मिथिला पेंटिंग में आ रहे बदलावों की झलक मिली जिससे इस कला के भविष्य के प्रति एक उम्मीद बंधती हैं. मिथिला में महिलाओं को कोहबर, राम-सीता, मछली, नाग आदि विषय परंपरा के रूप में मिली हैं. अविनाश ने जहाँ बचपन से अपने गाँव में मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को देखा है, वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से फाइन आर्टस में विधिवत प्रशिक्षण भी लिया है. इसी तरह शांतनु दास की शिक्षा-दीक्षा का असर उनकी कला पर दिखता है. इससे पहले रांटी के ही चर्चित वरिष्ठ कलाकार, संतोष कुमार दास बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से फाइन आर्टसमें प्रशिक्षण ले चुके थे.

अविनाश इन दिनों एक गैर सरकारी संस्थान आर्टरीच इंडिया और कलाकार सीमा कोहली के सहयोग से एक सामुदायिक परियोजना, अक्स, पर काम कर रहे हैं. आस-पास के गाँव की मुस्लिम लड़कियों को इस प्रोजेक्ट से जोड़ कर उन्होंने मिथिला पेंटिंग को एक नया आयाम दिया है. धर्म और जाति से बंटे समाज में इस तरह की पहल स्वागतयोग्य है. वे कहते हैं कि मुस्लिम लड़कियों के अंदर मिथिला कला को सीखने की ख्वाहिश वर्षों से थी पर उन्हें कोई एवेन्यू नहीं मिल रहा था.’ मधुबनी के नजदीक शेख टोली, गौशाला चौक की मुस्लिम लड़कियाँ मिथिला पेंटिंग में नए-नए विषय लेकर आ रही हैं जिसमें सांप्रदायिक सौहार्द, मुस्लिम समाज में दहेज, स्त्रियों पर होने वाली हिंसा और अन्य सामाजिक मुद्दे प्रमुख हैं.  

यहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मिथिला पेंटिंग में पारंपरिक विषयों से इतर समकालीन मुद्दों को लाने का श्रेय प्रसिद्ध कलाकार, पद्मश्री से सम्मानित, गंगा देवी (1928-1991) को जाता है जिन्होंने पिछली सदी के अस्सी के दशक में अमेरिका की अपनी यात्रा को मधुबनी शैली में चित्रित किया. सीता देवी, गंगा देवी की पीढ़ी के बाद के दशक में, बाजार के फैलने से मिथिला पेंटिंग में क्राफ्ट पर जोर बढ़ा और कलाकार की विशिष्ट छाप गायब होने लगी. इक्कीसवीं सदी में मिथिला पेंटिंग के कला रूप में उत्तरोत्तर विकास दिखा है. मिथिला चित्र शैली में भ्रूण हत्यादहेजअंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे समसामयिक विषय पारंपरिक विषयों के साथ साथ चित्रित किए जाने लगेवर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद संतोष कुमार दास ने सांप्रदायिकता को लेकर गुजरात सीरीज बनाई थी जो काफी चर्चित रही. लोक कला में इस तरह के राजनीतिक-सामाजिक विषय पहले नजर नहीं आते थे. इन दिनों पेंटिंग की अच्छी कीमत भी कलाकारों को मिलने लगी है. पहले औने-पौने दामों पर बिचौलिये मधुबनी के कलाकारों की पेंटिंग बेचते थे.

कुछ साल पहले रांटी के ही शांतनु दास ने हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता अकाल और उसके बाद को अपनी कूची का आधार बनाया. साहित्य को मिथिला पेंटिंग का विषय बनाना एक नया प्रयोग था जिसे काफी सराहना मिली. अविनाश कहते हैं कि यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने.’ ‘आर्ट बोले स्टूडियो में सरवरी बेगम, सलेहा शेख, सजिया बुशरारहमती खातून, शमीमा परवीन की जो पेंटिंग दिखी वह कलात्मक रूप से अभी भले ही परिपक्व न हो, लेकिन विषय-वस्तु का फैलाव, मुस्लिम समुदाय का जुड़ाव इस पेंटिंग के विकसनशील होने का प्रमाण है. किसी भी कला की तरह मिथिला पेंटिंग में नवतुरिया स्वर और नए प्रयोग की जरूरत है, जो सदियों पुराने इस कला को एक नई पहचान दे सकें.

 (न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Thursday, September 23, 2021

किसान आंदोलन और नागार्जुन की लोक चेतना


बेरि-बेरि अरे सिब हमे तोहि कहलहुँ किरिषि करिए मन लाए/रहिए निसंक भीख मँगइते सब गुन गौरव दुर जाए (विद्यापति)

एक साक्षात्कार में नागार्जुन से यह पूछने पर कि कभी आत्मकथा लिखने की इच्छा नहीं हुई? उनका जवाब था- सारी कविताएँ मिला दो, आत्मकथा हो जाएगी.[i] यह बात अंशत: ही सच है. नागार्जुन मूलत: कवि हैं, लेकिन उनका उपन्यासकार रूप उतना ही ठोस है जितना कवि रूप. नागार्जुन का कृतित्व और व्यक्तित्व तब मुकम्मल तौर पर हमारे सामने आता है जब दुखरन मास्टर’ ‘बलचनमासे मिले. सिंदूर तिलकित भाल रतिनाथ की चाचीके बिना अधूरी लगती है. हरिजन गाथा’ ‘वरुण के बेटेके बिना अपूर्ण है. अकाल और उसके बादकी महत्ता बाबा बटेसरनाथ के बिना हम नहीं समझ सकते.

नागार्जुन के सारे उपन्यास बहुजन समाज की प्रगति के निमित्त लिखे गए हैं. हमारा बहुजन समाज आजादी के 73 साल बाद भी शोषित, पीड़ित और उपेक्षित है. नागार्जुन इस समाज में ऐसी चेतना चाहते हैं जिससे आर्थिक-सामाजिक शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद हो. समाज को नई गति मिले. इसलिए वे बलचनमाजैसे प्रतिबद्ध चरित्र की रचना करते हैं. बाबा बटेसरनाथजैसे जड़ में चेतना का संचार करते हैं.

नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? नागार्जुन के शब्दों में- बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्तउनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति- लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं. नागार्जुन के साहित्य के ऊपर मधुरेश की यह टिप्पणी सटीक है, उनका संपूर्ण साहित्य उन अत्यंत साधारण लोगों का साहित्य है, जो अपनी सारी मेहनत, निष्ठा और ईमानदारी के बावजूद एक घृणित  और नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं. लेकिन इस बात का उन्हें अहसास है कि उनका वास्तविक शत्रु कौन है, लड़ाई किस मोर्च पर लड़नी है...[ii] जैकिसुन, जीवनाथ, दुखमोचन, बलचनमा और मधुरी को यह पता चल चुका है कि हमें अपनी लड़ाई खुड़ लड़नी होगी. बलचनमा कहता है, सच जानो भैया, उस बखत मेरे मन में यह बात बैठ गई कि जैसे अंग्रेज बहादुर से सोराज लेने के लिए बाबू-भैया लोग एक हो रहे हैं, उसी तरह जन-बनिहार, कुली मजदूर और बहिया-खबास लोगों को अपने हक के लिए बाबू भैया से लड़ना पड़ेगा.[iii] नागार्जुन अपने इस सबॉल्टर्न स्वर की वजह से अलग दिखते हैं, अपने पूर्ववर्तियों से, समकालीनों और परवर्ती उपन्यासकारों से. किसानों के मौजूदा संघर्ष और आंदोलनों की बीच उनके उपन्यासों में व्यक्त लोक और लोक-चेतना का महत्व बढ़ गया है. इस निबंध में हम नागार्जुन के उपन्यास बाबा बटेसरनाथ (1954) के माध्यम से उनके उपन्यासों में व्यक्त लोक-चेतना की पड़ताल करेंगे. पर यहाँ हम लोक की अर्थच्छवियों को पहले परखते हैं.

लोक का स्वरूप

हिंदी साहित्य जन्म से ही लोकधर्मी रहा है. लोक की गंध, लोक-चेतना का स्वर इस साहित्य में सदैव बसता-बजता रहा है. इस साहित्य के इतिहास की बनावट और बुनावट दोनों पर लोक की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है. यह परंपरा सरहपाद-विद्यापति-कबीर-तुलसी से होते हुए प्रेमचंद-फणीश्वर नाथ रेणु-नागार्जुन से आगे समकालीन रचनाकारों तक जाती है. पर ऐसा नहीं है कि लोक का स्वर हमेशा एक सा रहा है. समाज के अनुरूप और समय के दबाव के फलस्वरूप लोक के स्वरूप में अंतर स्पष्ट है.

हिंदी साहित्य कोश के अनुसार, लोक के दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं. एक तो वह जिससे इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक का ज्ञान होता है. वर्तमान प्रसंग मे यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है. दूसरा अर्थ लोक का होता है जनसामान्य- इसी का हिंदी रूप लोग है. इसी अर्थ का वाचक लोकशब्द साहित्य का विशेषण है.[iv] पर लोक की शाब्दिक व्याख्या से इतर समाजशास्त्र और मानवशास्त्र में लोक की अवधारणा को लेकर असहमति और विवाद की स्थिति है. इस संबंध में समाजशास्त्री पूरनचंद्र जोशी कहते हैं, लोक अध्ययन अवधारणाओं के संबंध में एक तरफ ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं जिसने लोक-समुदायों को आधुनित सभ्यता के दायरे के बाहर मानकर वास्तव में सभ्यताके ही बाहर माना है.[v] असल में लोक की अवधारणा अंग्रेजी के फोक (folk) की अवधारणा से काफी दूर तक प्रभावित है. एडवर्ड सईद ने ओरियंटलिज्म के प्रसंग में नोट किया है, “’पूरबीअवधारणा पश्चिम की निर्मिति है. ऐसी निर्मिति जो पूरब के शोषण, दमन और शासन के लिए बनाई गई है.[vi] यही बात अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं के प्रसंग में भी कही जा सकती है. औपनिवेशिक शासन प्रणाली और शिक्षा प्रणाली ने अपने अनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं को जाँचा-परखा और परिभाषित किया. प्राच्य विद्वानों ने जिस तरह विभिन्न अवधारणाओं को परिभाषित किया उसने जाने-अनजाने भारतीय मनीषियों के सोचने-समझने के क्रम को निर्धारित किया. जार्ज ए ग्रियर्सन ने लोक गीत/लोकोक्ति/लोक गाथा इत्यादि के संदर्भ में काम किया तो उन्होंने लोक की जगह फोक शब्द का प्रयोग किया. भारतीय विद्वानों ने जब इन्हीं विषयों पर काम शुरु किया तो उन्होंने भी फोक शब्द का प्रयोग किया. एक तरह से लोक के प्रसंग में फोक शब्द रुढ़ हो गया. प्राय: यह मान लिया गया कि फोक की अवधारणा और लोक की अवधारणा में कोई अंतर नहीं.

यहाँ पर फोक की चर्चा प्रासंगिक होगी. इनसाक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार: “आम तौर पर फोक समाज सविधि शिक्षा से वंचित या आदिम समाज का प्रारूप माना जाता है जिसका मानवशास्त्रियों ने परंपरागत अध्ययन किया.स्पष्टत: फोक आदिम जनसमूह को लक्षित है. आदिम समाज इसका प्रस्थान बिंदु है. फोक शब्द का प्रयोग समाज विज्ञानों में 19वीं सदी में शुरु हो गया था. एम लेजरस, एच स्टाईनथल, वुंट, सम्नर आदि  समाजशास्त्रियों ने इसे अपने ढंग से परिभाषित किया. आम तौर पर इन समाज वैज्ञानिकों ने फोक शब्द को व्यापक परिप्रेक्ष्य में अपनाया. वे प्राय: इस शब्द का प्रयोग किसी देश या समाज में रहने वाले पूरे जनसमूह के लिए करते हैं. अमेरिका के प्रसिद्ध समाजशास्त्री राबर्ट रेडफिल्ड ने फोक के संबंध में एक आदर्श प्रारूप (Ideal Type), एक अमूर्त मॉडल प्रस्तुत किया. इस मॉडल में एक आदर्श फोक समाज के लक्षणों को प्रस्तुत किया. उनके अनुसार आदर्श फोक समाज के निम्नलिखित लक्षण हैं-छोटा आकार, पृथक, विलगित, दूसरे समाज से कोई संपर्क नहीं; अपने समाज के भीतर बहुत आत्मीय संपर्क; सिर्फ मौखिक संप्रेषण पर आधारित, लिखाई-पढ़ाई की कोई स्थिति नहीं; जन-समूह में कोई आर्थिक, समाजिक विभिन्नता नहीं; एकत्व की प्रचुर भावना; सारे व्यवहार परंपरा पर आश्रित, पूरा समाज एक धार्मिक समाज; जादू-टोना का प्रचुर मात्रा में प्रभाव; सारे लोग पारिवारिक, आनुवांशिक या धार्मिक बंधनों से जुड़े हुए, इत्यादि.”[vii] इस तरह रेडफिल्ड के लिए एक खास तरह के समाज ही फोक समाज हैं जिनका विकास नहीं हुआ है, जहाँ सभ्यता विकसित नहीं हुई है. यानि आदिवासी या कबीले! फोक समाज के परिप्रेक्ष्य में रेडफिल्ड की अवधारणा समाजशास्त्रियों के बीच काफी लोकप्रिय रही. पर वर्तमान में यह सर्वमान्य नहीं है.

फोक की इस परिभाषा के बरक्स लोक की समाजशास्त्रीय व्याख्या हम देखते हैं. भारतीय समाज के केंद्र में लोक की अवस्थिति रही है. लोक से विछिन्न भारतीय समाज का अध्ययन और विवेचन संभव नहीं है. इस बात की पुष्टि समाजशास्त्री हेतुकर झा लोक को लोकायत परंपरा से जोड़ कर करते हैं. भारत में लोकायत की पंरपरा दर्शनशास्त्री डॉ राधाकृष्णन के अनुसार प्राचीन काल से रही है. संभवत: यह 600 ईसा पूर्व से सन 200 के बीच विकसित हुआ. वेदों पर आधारित दर्शनशास्त्रों के समांतर लोकायत परंपरा चलती रही. अन्य विद्वान हरप्रसाद शास्त्री के मुताबिक विभिन्न तांत्रिक मार्ग, जैसे कापालिक, सहजिया इत्यादि लोकायत ही हैं. डॉ हेतुकर झा लिखते हैं- इस तरह प्रतीत होता है कि तंत्र के विभिन्न मार्ग, दक्षिणाचार को छोड़कर, लोकायत की परंपरा से जुड़े हैं और इस परंपरा का ताल्लुक वैदिक कर्मकांडों के भागीदार वर्गों के अतिरिक्त सारे जन-समूह से रहा, जिसे लोककी संज्ञा दी गई.[viii] मिथिला के समाज का जीवन दर्शन लोकायात या तंत्र शास्त्र से प्रभावित रहा है, जिसका चित्रण नागार्जुन के उपन्यासों में मिलता है.

भारतीय साहित्य में लोक वेदसे भिन्न अर्थ का वाचक है. वैदिक कर्मकांडों से वंचित जनसमूहों, जो उच्च जातियों से संबंद्ध नहीं थे, दूसरे शब्दों में शूद्रों तथा सभी वर्णों/जातियों के लोगों का एक वर्ग वैदिक परंपरा से विमुख होकर या वंचित होकर लोकायत या तांत्रिक मार्गों से जुड़ते गए. हिंदी साहित्य का नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य इसी का बोध करता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि लोक वेद से बिलकुल ही अलहदा रहा है. इनके बीच आवाजाही का संबंध बना रहा है. समाजाशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने एक अध्ययन में रेडफिल्ड और मिल्टन सेंगर के महान और लघु परंपराओं (great/little tradition) और उनके अंतरावलंबन की बात को स्वीकार है. साथ ही उन्होंने इसे शास्त्रीय और लौकिक परंपराएँ कहने की बात की है. उनका मानना है कि, शास्त्रीय और लौकिक परंपराओं में समझौते हुए और आदान-प्रदान भी होता रहा.[ix] इस संबंध में लोक के अध्येता बद्री नारायण की यह टिप्पणी भी गौरतलब है: भारतीय परंपरा में लोक को श्रुति और स्मृति से युक्त एक ऐसा सांस्कृतिक प्रवाह माना गया है जिससे वेद जनित हुआ है. कुछ विचारकों का तो मानना है कि लोक का गेय पक्ष ही वेद बन गया. इस प्रकार लोक एवँ शास्त्र, देशी एवँ मार्गी अवधारणाओं में विरुद्ध नहीं बल्कि अंत:संवादी और आवाजाही का संबंध रहा है. बाद में शास्त्र ने अपना मानकीकरण कर अपने को लोक से अलग कर लिया. तब भी लोक एवँ शास्त्र के बीच आपस में आवाजाही एवँ लेन-देन का संबंध बना रहा.[x] आधुनिक समय में लोक की अवधारणा पर गौर करें तो हम पाते हैं लोक मूल शाब्दिक अर्थ की ओर लौट रहा है. जैसा कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक शब्द जनता का वाचक है, जो भारत में स्वीकार्य हो चला है. अंग्रेजी का शब्द people का अनुवाद लोग है, जो लोक से दूर नहीं. भारतीय संविधान में व्यवहृत हम भारत के लोग- we, the people of India, इस ओर इंगित करता है. पीपुल शब्द में सबॉल्टर्न या निम्नवर्गीय स्वर भी शामिल है. जैसा कि इतिहासकार रणजीत गुहा इतिहास लेखन के प्रसंग मं निम्नवर्ग की भूमिका को रेखांकित करते हुए पीपुल की चर्चा करते हैं, जिसमें निम्नवर्ग-जिसका फैलाव श्रमिक जनसंख्या और समाज के मध्यवर्ती तबके (जो शहर और गाँव दोनों जगहों पर रहता है) तक है.[xi]

बाबा बटेसरनाथ में लोक चेतना

नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिला का सामंती समाज अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त हुआ है. उनके उपन्यासों में मिथिला के लोक जीवन, लोक मन का चित्रण है. यहाँ आशा है, निराशा है, सुख है, दुख है और संघर्ष है. लेकिन उपन्यासों की कथा-भूमि मिथिलांचल होते हुए भी इसमें व्यापकता है जो पूरे भारतीय समाज को निरूपित करता है.

बाबा बटेसरनाथ की कथावस्तु और शिल्प विशिष्ट है. बाबा बटेसरनाथ का नायक एक बूढ़ा बरगद का पेड़ है जो रूपउली गाँव के सौ वर्षों के इतिहास को खुद में समेटे हुए है. वह गाँव में हाशिए पर जी रहे लोगों के शोषण और उनके संघर्ष का साक्षी है. नागार्जुन शोषण की इस पृष्ठभूमि में गाँव के लोगों की विकसित हो रही चेतना (लोक चेतना) को रेखांकित करते हैं. असल में, बाबा बटेसरनाथ इस चेतना का प्रतीक है.

नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार कहा जाता है. गोदान (1936) के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास की धारा ग्राम-जीवन से विमुख होकर शहर और अंतर्मन के गुह्य गह्वर में चक्कर काटने लगी थी. नागार्जुन अपने पहले उपन्यास रतिनाथ की चाची (1948) के माध्यम से भारतीय ग्रामीण समाज के सच को फिर से पकड़ते हैं. बलचनमा, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ आदि उपन्यासों के माध्यम से प्रेमचंद की परंपरा और पुष्ट होती है. इस अर्थ में नागार्जुन स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में किसान जीवन की वास्तविकताओं और आकांक्षाओं के कथाकार हैं.  असल में, समाज और राजनीति को किसानों के जीवन और उनकी आकांक्षाओं से जोड़ कर देखने की दृष्टि उनकी विशेषता है. काल में अंतर के कारण प्रेमचंद और नागार्जुन की चेतना में फर्क नजर आता है, जो कि स्वाभाविक है. हालांकि चिंता एक ही है- स्वाधीनता की. प्रेमचंद के उपन्यासों में स्वाधीनता की चिंता अपनी संपूर्णता में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी है. नागार्जुन स्वाधीनता की चिंता आजादी के बाद और उसके बावजूदकी है. हालांकि वे सामंती-औपनिवेशिक पराधीनता को भी नहीं भूलते. हिंदी उपन्यासों में स्वाधीनता के लिए संघर्ष की चेतना प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा नागार्जुन के यहाँ मिलती है. प्रेमचंद ने उत्तर प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा कह कर इस चेतना को अभिव्यक्त किया है, वहीं नागार्जुन ने मिथिलांचल के किसानों, खेतिहर मजदूरों की कथा कह कर. नागार्जुन के उपन्यासों में प्रेमचंद की तुलना में अधिक स्थानीयता है. इसलिए वे फणीश्वर नाथ रेणुके नजदीक दिखाई पड़ते हैं. इस वजह से उनके उपन्यासों को आंचलिकता के संदर्भ में परखने की कोशिश होती है. लेकिन नागार्जुन के उपन्यास आंचलिक होकर भी आंचलिकता का अतिक्रमण करते हैं. आंचलिकता के प्रसंग में मधुरेश लिखते हैं, आंचलिकता की अपेक्षा लोक चेतनापद अपनी व्यंजना और अर्थ विस्तार में निश्चय ही अधिक सार्थक है...लोक चेतना का सीधा-सादा  अर्थ है लोक जीवन में गहरी और आत्मीय संपृक्ति अर्थात उपन्यास में अंकित जनजीवन की समस्याओं, संघर्षों, जीवन पद्धति और आंकाक्षाओं की सहज एवँ कलात्मक अभिव्यक्ति.[xii]

हिंदी उपन्यासों में लोक चेतना किसी न किसी रूप में 20वीं सदी के आरंभिक दशकों से ही दिखाई देने लगती है. कहीं क्षेत्रीयता के आवरण में तो कहीं स्थानीयता का खोल पहन कर. गोपालराम गहमरी, अयोध्या सिंह उपाध्य हरिऔध’, प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, निराला से होकर नागार्जुन, शिव प्रसाद मिश्र रुद्र, रेणु सहित वर्तमान में संजीव, भगवानदास मोरवाल जैसे उपन्यासकारों के यहाँ इसे  देखा जा सकता है. यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दशकों में लोक चेतना की जो तीव्रता थी, जो पैनापन था उसकी धारा कुंद हुई है, पर एक प्रवृत्ति के रूप में लोक चेतना की धारा अब भी प्रवहमान है.

बाबा बटेसरनाथ लोक चेतना का प्रतिनिधि उपन्यास है. इतने विस्तृत फलक पर नागार्जुन ने किसी अन्य उपन्यास की रचना नहीं की. एक सदी के लंबे कालखंड (1850-1953-4) को खुद में समेटे यह उपन्यास सामंती-औपनिवेशिक और लोकतांत्रिक भारत की यात्रा करता है.  नागार्जुन के उपन्यासों का लोक मुख्यत: मिथिलांचल का गाँव-देहात है. पर नागार्जुन के उपन्यासों की लोक चेतना का संबंध महज गाँव-देहात की संरचना से ही नहीं है. लोक चेतना एक ओर मेहनतकश गरीब, किसान-मजदूर, दलित-उत्पीड़ित जनता से जुड़ती है तो दूसरी ओर नागार्जुन की इतिहास चेतना, वर्ग चेतना और राष्ट्रीय नव जागरण की चेतना भी अभिव्यक्ति पाती है. त्योहारों और उत्सवों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. दूसरे शब्दों में यह लोक संस्कृति और लोकधर्म से विलग नहीं है. अंतोनिया ग्राम्शी ने लिखा है कि लोक संस्कृति में रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के साथ-साथ प्रगतिशील प्रवृत्तियाँ भी होती है. बाबा बटेसरनाथ इसका साक्ष्य है.

बाबा बटेसरनाथ का कथा-शिल्प हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में एक अभिनव प्रयोग है. जैसा कि हमने कहा इस उपन्यास का नायक कोई मानव नहीं बल्कि एक बूढ़ा बरगद का पेड़ है. इस पेड़ के प्रति लोगों की आत्मीयता वैसी ही है जैसी घर के किसी बड़े-बूढ़े के प्रति होती है. इसलिए यह पेड़ बाबा बटेसरनाथहै. यह रूपउली गाँव के इतिहास, सुख-दुख, संघर्ष और विकास का साक्षी रहा है.

भूमंडलीकरण के इस दौर में भी देश की कामकाजी जनसंख्या का 70 प्रतिशत कृषि कर्म में लगा हुआ है. किसानों का शोषण पहले सामंतवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के तहत होता था, अब किसान उदारीकरण और बाजारवाद की व्यवस्था से शोषित हो रहा है. पिछले दशकों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल के किसानों की आत्महत्याएँ इसका सबूत है. औपनिवेशिक भारत में किसानों के लिए कृषि कर्म पाँव की बेड़ी बन चुकी थी. इस व्यवस्था के रहते इस शोषण से निस्तार असंभव था. प्रेमचंद ने जिसे गोदानमें बखूबी दिखाया है. पूस की रात में हल्कू नील गाय के द्वारा खेत चर जाने के बाद भी प्रसन्न है!

भारतीय समाज में किसानों का शोषण और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. सदियों से सामंती रूढ़ियों में जकड़ी, जर्जर सामाजिक व्यवस्था शोषण-उत्पीड़न के लिए दाना-पानी जुटाती रही है. कट्टर जातिवाद, स्त्रियों की दारूण दशा सामंती व्यवस्था से उपजी मानसिकता से परिचालित होती रही है. मिथिला का समाज अपनी संकीर्णता और रूढ़ियों के लिए कुख्यात है. इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने लिखा है, जब से हरसिंह देव ने कुलीनवाद[xiii] लागू की तब से इन 600 सौ वर्षों में मिथिला की पुरानी सामाजिक संरचना में बमुश्किल कोई बदलाव आया है. कुलीनवाद ने पहले से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को और भी कठोर बना दिया था. विद्यापति ने अपनी नचारीऔर महेशवाणीमें जिस सामाजिक असमानता, निपट गरीबी, स्त्रियों की पराधीनता और दुख का बार बार वर्णन किया है वह आज के समय और मिथिला के समाज के लिए उतना ही सच है जितना विद्यापति के समय था. विद्यापति की ये पंक्तियां: दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल/ सुख सपेनहुं नहिं भेल हे भोलानाथ जैसे अभाव के भाव का टेक है जिसकी आवृत्ति बार बार होती रहती है. सुख आज भी स्वप्न है. सामंतवाद की जगह भले ही लोकतंत्र आ गया, तंत्र के बदलने से लोक की स्थिति नहीं बदली.

बाबा बटेसरनाथमें किसानों के शोषण, उससे उपजी गरीबी का यर्थाथ वर्णन है. मिथिला में अतिवृष्टि और अनावृष्टि की घटना सामान्य है. बाबा बटेसरनाथ में अकाल और बाढ़ का नागार्जुन ने हृदयविदारक चित्रण किया है- दूसरे के खेतों में मजदूरी करके जीविका चलानेवालों का तो और भी बुरा हाल था. यह बाढ़ उनके लिए तो भुखमरी का बिगुल बजाती आई थी. रास्ते बंद थे, भागना भी आसान नहीं था.[xiv]

ये प्रसंग बाढ़ और अकाल के हैं, लेकिन आम दिनों में भी खेतिहर किसानों, मजदूरों की स्थिति इससे अच्छी नहीं थी. दरंभगा जिले के निम्नवर्गीय रैयत और खेत-मजदूरों की स्थिति पर 1888 इस्वी की एक रिपोर्ट में लिखा है-इसमें कोई शक नहीं कि बिहार के इस भाग में उच्च और मध्यवर्ग के लोग समृद्धशाली हैं; साधारण मजदूर और छोटे खेतिहर किसानों की स्थिति उनके ही जैसे बंगाल के खेतिहर किसानों, मजदूरों से बहुत बुरी है. इनकी जनसंख्या कुल का चालीस प्रतिशत है...दैनिक मजदूरी कहीं भी दो आना से ज्यादा नहीं देखी गई और कई मामलों में यह प्रतिदिन पाँच-छह पैसों से ज्यादा नहीं थी.[xv]

जाति व्यवस्था ग्रामीण समाज में व्याप्त गरीबी, शोषण के कोढ़ में खाज का काम करती है. दलित लेखकों की आत्मकथाएँ पहली बार हिंदी साहित्य में इस सच को पुरअसर ढंग से व्यक्त करती है. नागार्जुन जाति व्यवस्था का यर्थाथपरक चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं, छोटी जातवालों की पाठकों के उस खानदानी बरहममें उतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि उनके देवताओं- भुइयाँ महाराज, सलहेस राजा और दीना भद्री वगैरह में.[xvi] देवताओं के भी जाति-क्रम हैं. यही नहीं, गाँवों में भूतों का भी जाति-क्रम है. नागार्जुन गाँवों में जाति-भेद को आसानी से पहचान लेते हैं. ब्राह्मणों के मरने पर बरहम बाबाऔर निम्न या दलित जाति के लोगों के मरने पर मलेच्छकी अवधारणा! शोषण महज आर्थिक पहलूओं तक ही सीमित नहीं होता, सामाजिक शोषण धार्मिक और सांस्कृतिक रूप में ज्यादा प्रभावकारी होता है. आर्थिक प्रक्रियाएं धीरे-धीरे बदलती हैं पर धार्मिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ परंपरा के नाम पर जटिल और कठोर बनी रहती है. अवसर पाते ही वह पुऩ: क्रियाशील हो उठती है. रतिनाथ की चाचीमें बाल-विधवा सुशीला काशी में जयनाथ से कहती है, तुम जिस जाति में, जिस समाज में पैदा हुए हो, वह जिंदा नहीं, मुर्दाघर है...[xvii] इस मुर्दाघर में बमुश्किल ही कहीं कोई रोशनदान दिखता है. बाबा बटेसरनाथ में नागार्जुन ने मिथिला की लोक संस्कृति और लोक धर्म को बिना किसी लाग लपेट के उत्कृष्ट रूप में इन पंक्तियों में चित्रित किया है: “ लेकिन पाठक बाबा की ध्वजा जब से यहाँ खड़ी हुई, तब से मेरे प्रति सभी की भावना बदल गई. श्रद्धा, भक्ति, भय और आतंक...मनोरथ पूरा होने पर लोग आकर धूमधाम से मनौतियाँ चढ़ाते..बारह महीनों में बीस-पच्चीस बकरे भी बलि चढ़ते थे- मचलते मुण्डों और तड़पते धड़ों की खूनी पिचकारियों से मेरा सीना सुर्ख हो उठता था, रगों में बिजली दौड़ जाती थी...दिन के समय कुत्ते और रात के वक्त गीदड़ मेरे बदन पर जमी बलिदानी लहू की मलाई चाटा करते...[xviii] इस उद्धरण पर कृष्णा सोबती ने सटीक टिप्पणी की है, इसे पढ़ते-पढ़ते नथुनों में खून की बू चढ़ने लगती है और समूची जाति कि निरामिष अहिंसा, मूढ़ता, धर्मोन्माद और अंधविश्वास की गाँठों में बँटी रस्सी और उसमें कराहती वह जीवन परंपरा भी, जिसकी पुण्यमयी गौरवशाली बपौती को सराहते हम अघाते नहीं.[xix] लेकिन नागार्जुन की लोक चेतना अंधविश्वासों, परंपराओं के नाम पर रूढ़ियों का समर्थन नहीं करती है- राजाओं, पुरोहितों, सामंतों, सेठों और तीर्थंकरों की बातों को बढ़ा-चढ़ा कर बखान करनेवाले बहुत सारे विद्वान सुदूर अतीत की उन क्रूर घटनाओं पर अब भी पर्दा डाले हुए हैं; वह उन लोगों के लिए सत्ययुग है, स्वर्णयुग है! साधारण जनता का स्वर्णयुग तो अभी आगे आनेवाला है बेटा!”[xx]

स्वर्णयुग की अवतारणा तब ही संभव है जब गरीबी, शोषण, जाति व्यवस्था का दंश मिटे. गाँवों में सामाजिक आर्थिक बदलाव आए. एक वैज्ञानिक चेतना आकार ले. बाबा बटेसरनाथ में नागार्जुन ने स्वतंत्रता संघर्ष में किसानों-मजदूरों की भागीदारी के माध्यम से अपनी इतिहास चेतना और वर्ग चेतना को व्यक्त किया है. स्वतंत्रता संघर्ष की अनुगूंज किस तरह मिथिलांचल के गाँव-देहातों तक थी इसे बाबा बटेसरनाथ में नमक कानून तोड़ने की घटना के रूप में नागार्जुन ने इस रूप में चित्रित किया है: “गड्ढा खोदकर तीन चूल्हे बना लिए गए थे. उनमें आँच जलाई गई. तीन नई हँडियों में नोनी मिट्टी और पानी घोलकर उन्हें चूल्हों पर चढ़ा दिया दयानाथ ने. ..नमक कानून तोड़ने का यज्ञ जिले में कहीं न कहीं आए दिन होता ही रहता था.[xxi] लेकिन वर्ष 1947 में जब देश को आजादी मिली, गाँव के जमींदार लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए सामूहिक जमीन पर कब्जा करने की राजनीति करने लगे. बाबा बटेसरनाथ के माध्यम से रूपउली गाँव में एक नवचेतना विकसित होती है कि कोई व्यवस्था निष्क्रियता से नहीं सक्रियता से ही परिवर्तित हो सकती है. शोषण का अंत कोई दैवी शक्ति नहीं केगी. कोई कानून या सरकार भी नहीं! जीवनाथ और जैकिसुन समझ चुके हैं, जनबल को अच्छी तरह संगठित कर लेना चाहिए. अपनी रूपउली के इस जनआंदोलन को जनसंघर्ष की जिला और प्रदेशव्यापी धारा से मिला देना होगा.[xxii] बाबा बटेसरनाथ किसानों, मजदूरों की जागृति, संगठन और संघर्ष की चेतना का साक्षी है. नागार्जुन की वर्ग चेतन दृष्टि शोषितों में शक्ति देखती है. शोषण, गरीबी, जहालत की जिंदगी से मुक्ति संगठन के द्वारा ही संभव है. बेदखली के विरुद्ध जीवनाथ के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग का संयुक्त मोर्चा बनता है. नागार्जुन ने अदभुत कला कौशल से बटेसरनाथ की कथा को सामूहिक प्रचेष्टा से एकमेक कर दिया है. नागार्जुन की लोक चेतना प्रतिरोध की चेतना से संपृक्त है. बाबा बटेसरनाथ सामूहिक संघर्ष की चेतना का प्रतीक है.

नागार्जुन के उपन्यास प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि की सृष्टि है. नागार्जुन कहते हैं, हम सर्वहारा के साथ हैं अपनी राजनीति में, अपने साहित्य में....[xxiii] सर्वहारा वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते नागार्जुन के पात्र वर्ग चेतन दृष्टि से संपन्न है. उनके पात्र अपार जिजीविषा के मूर्त रूप हैं. लोक की प्रतिरोधी शक्ति उनके पात्रों में अंतिम समय तक लड़ने का हौसला बनाए रखती है. लोक संस्कृति अपने मूल रूप में सामासिक होती है. सामूहिकता इसका विशिष्ट गुण है. बाबा बटेसरनाथ में सामूहिक प्रचेष्टास्वार्थ की व्यक्तिगत भावना से चेतना को धुंधला नहीं बनने देती है. बाबा बटेसरनाथ इस उपन्यास में कहता है, तुम लोगों ने तो बस्ती की हवा ही बदल दी. अब तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते पाठक और जैनारायन. पाठक और जैनारायन ही क्यों, कोई हिम्मत नहीं करेगा तुम लोगों से टकराने की...सुखमय जीवन के लिए तुम्हारी यह सामूहिक प्रचेष्टा कभी मंद न हो, स्वार्थ की व्यक्तिगत भावना कभी तुम्हारी चेतना को धुंधला न बनाए.[xxiv] इस उपन्यास में नागार्जुन ने सामूहिकता की जो मांग उठाई है, वह लोक चेतना का ही रूप है. लोक चेतना अपने रूप में स्थिर नहीं बल्कि परिवर्तनशील होती है. इस उपन्यास के वर्ग चेतन पात्र आजादी के बाद जमींदारों और कांग्रेसी नेताओं की सांठ गांठ द्वारा गाँव की सामूहिक जमीन को हथियाने की रणनीति को विफल कर देते हैं. उपन्यास के अंत में पुराने बरगद की जगह बरगद का नया पौधा एक नई चेतना का द्योतक है. यह नई चेतना स्वातंत्र्योत्तर भारत में आस्था और विश्वास की चेतना है. नागार्जुन की इतिहास दृष्टि वर्तमान की चिंता से संपृक्त भविष्योन्मुखी दृष्टि है जो, अरुण कमलके प्रति आस्थावान है. बाबा बटेसरनाथ कहता है, घबराने की जरूरत नहीं. अंत में जीत तुम्हारी ही होगी. आज न सहीं, कल. कल न सहीं परसों.[xxv] चंद्रशेखर कर्ण ने ठीक ही नोट किया है, प्रेमचंद के पात्र क्रांति के आकांक्षित स्वप्न को पालते हुए भी टूटे हुए हैं. वे अपने इच्छित फल की प्राप्ति के लिए सर्वहारा हैं. पर नागार्जुन का बलचनमा निरीह होकर भी जीना सीख लेता है. और अंत में अपनी परंपरागत चेष्टाओं के बीच दीपशिखा-सा भभककर जल उठता है.[xxvi]  बाबा बटेसरनाथ में नागार्जुन ने जड़ को कथा नायक बना कर एक अनूठा प्रयोग किया है. बरगद के पेड़ के साथ लोक मानस में अनेक किंवदंतियाँ, मान्यताएँ और विश्वास जुड़ी होती है.

नागार्जुन ने बाबा बटेसरनाथ के माध्यम से किसानों के शोषण और प्रतिरोध को बखूबी पेश किया है. नामवर सिंह ने लिखा है, नागार्जुन की वर्ग चेतना का आधार कोई अमूर्त विचार प्रणाली या राजनीति का फौरी कार्यक्रम नहीं, बल्कि ठेठ जन-जीवन है-जीवंत लोकधर्म.[xxvii] बाबा बटेसरनाथ एक ऐसा शांति निकेतनहै जहाँ सामूहिकता आकार लेती है. यह निजी जगह नहीं है. नागार्जुन इस सार्वजनिक स्थल का इस्तेमाल एक राजनीतिक स्थल के रूप में करते हैं जहाँ संघर्ष की भूमि पर चेतना जन्म लेती है-बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुम्पाय. दक्षिणी अमेरिकी अपन्यासों के प्रसंग में जिस जादुई यथार्थवादकी बात की जाती है और जिसका उत्कृष्ट रूप कारपेंटियरऔर गैब्रियल गार्सिया मार्खेजजैसे उपन्यासकारों के यहाँ मिलती है, उसकी झलक हम बाबा बटेसरनाथ में पाते हैं. इस उपन्यास में इतिहास के तथ्य और फैंटेसी का कलात्मक संयोजन है. नागार्जुन ने लोक में व्याप्त विश्वास, लोक जीवन से जुड़े मिथक, लोक मानस में बैठी किंवदंतियों का इस्तेमाल कर मिथिला के सौ सालों का इतिहास प्रस्तुत किया है. पर यह महज इतिहास नहीं है. मार्खेज ने एकांत के सौ वर्षके बारे में एक इंटरव्यू में कहा था-एकांत के सौ वर्ष लातिन अमेरिका का इतिहास नहीं है. वह लातिन अमेरिका का एक रूपक है.[xxviii] कहा जा सकता है कि बाबा बटेसरनाथ मिथिलांचल का एक रूपक है, प्रतीक है- लोक चेतना का. कृषि कानूनों के खिलाफ मौजूदा किसान आंदोलन में यह उपन्यास एक नई अर्थवत्ता के साथ हमारे प्रस्तुत होता है.

 

 



[i] नागार्जुन के साथ बातचीत, सुभाष चंद्र यादव, समकालीन भारतीय साहित्य, अक्टूबर-दिसंबर, नई दिल्ली, 1995, पेज 21

[ii] नागार्जुन: रचना प्रसंग और दृष्टि, राम निहाल गुंजन (संपादक), नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 2002, पेज 71

[iii] बलचनमा, नागार्जुन, किताब महल, नई दिल्ली, 2002, पेज 71

[iv] हिंदी साहित्य कोश, भाग-1, धीरेंद्र वर्मा (संपादक), पेज 591

[v] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002, पेज 367

[vi] ओरियंटलिज्म, पेंग्विन बुक्स, 2001, पेज 3

[vii] इंटरनेशनल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ द सोशल साइंसेज, वाल्यूम 3, 4 पेज 177

[viii] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002, पेज-378

[ix] समय और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेज 38-39

[x] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002 पेज-346

[xi] सबॉल्टर्न स्टडीज 1, राइटिंग आन साउथ एशियन हिस्ट्री एंड सोसाइटी, रंजीत गुहा, (संपादक)  ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1982, पेज 4

[xii] हिंदी उपन्यास सार्थक पहचान, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पेज 142

[xiii]  मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति, चौखंभा औरिएंटेलिया, वाराणसी, 1976, पेज 401

[xiv]  बाबा बटेसरनाथ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1985, पेज 59

[xv]  पी नोलन, सेक्रेटरी टू गवर्नमेंट ऑफ बंगाल, टू द सेक्रेटरी टू द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, रेवेन्यू एंड एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट, रेवेन्यू डिपार्टमेंट, एग्रीकल्चर, नं-87 टी आर दार्जिलिंग, डेटेड द 30 जून 1881, पेज 5-6, हेतुकर झा, उद्धृत, उपनिवेशकालीन मिथिलाक गाम ओ शासक निम्नवर्ग, मैथिली अकादमी पटना, 1988, पेज 31

[xvi] बाबा बटेसरनाथ, पेज-55

[xvii] नागार्जुन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1996, पेज 70

[xviii] बाबा बटेसरनाथ, पेज-50

[xix]  आलोचना, जनवरी-मार्च-अप्रैल-जून 81, पेज 80

[xx] बाबा बटेसरनाथ, पेज18

[xxi] वही, पेज 75

[xxii] वही, पेज 95

[xxiii]  मेरे साक्षात्कार: नागार्जुन; किताबघर, दिल्ली, 2000, पेज 181

[xxiv] बाबा बटेसरनाथ, पेज 115

[xxv]  वही, पेज 81

[xxvi]  चंद्रशेखर कर्ण, प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि की शक्ति और सीमाएँ, आलोचना (संपादक नामवर सिंह), अप्रैल-जून, वर्ष 80, पेज -37

[xxvii] आलोचना, जनवरी-मार्च-अप्रैल-जून’ 81, पेज4

[xxviii] मार्खेज से क्लॉडिया ड्राइफुस की बातचीत; प्लेबॉय, अमेरिका, अनुवाद: मंगलेश डबराल; कथादेश (संपादक हरिनारायण), सितंबर, 2002, पेज-6

(आजकल , अक्टूबर 2021, पेज 17-20)