Tuesday, April 24, 2012

सपनों का समंदर: कोलंबो डायरी


शाम हो रही है और थोड़ी बूंदा बांदी भी. समंदर के  किनारे करीब डेढ़ किलोमीटर में फैले, साफ-सुथरे गॉल फेस पर प्रेमी जोड़े दुनिया से बेखबर छाता हाथ में लिए खुद  में मशगूल हैं

ज़मीज़ा कहती है कि समंदर की लहरें आपको अपनी ओर खींचती है. वे कराची की हैं और लहरों से उनका पुराना वास्ता है. मैं उनकी बातों पर यकीन करता हूँ.

मुझे करुत्तम्मा और परीकुट्टी की याद हो आई.

स्कूल के दिनों में जब पहली बार तकषी शिवशंकर पिल्लई का कालजयी उपन्यास चेम्मीन (मछुआरे) पढ़ा था तब मन समंदर देखने को मचल उठा था. करुत्तम्मा और परीकुट्टी का रोमांस हमें अपना लग रहा था. तब पढ़ कर खूब रोया था.

मछुआरे और उनके जीवन को तो हमने देखा था, पर समंदर और उसकी आबो-हवा से हम अपरिचित रहे.

उत्तरी बिहार के हमारे आँगन में नदी बहती थी. कमला-बलान, कोसी, गंडक, गंगा का पानी पीते और संग खेलते हम बड़े हुए पर समंदर हमारे सपनों में पलता रहा.

कोलंबो के जिस गॉल फेस होटल में मैं रुका हूँ वह एक ऐतिहासिक धरोहर है. करीब 150 साल पुराना. कभी चेखव, यूरी गैगरिन, नेहरु जैसे लोग यहाँ रुके थे...आज की रात मैं भी यहीं हूँ, लेकिन इतिहास हमें कहां याद रखेगा!

बहरहाल, इस होटल का बरामदा सीधे लगभग समंदर में जाके खुलता है. बस दस फर्लांग की दूरी पर समंदर का अपार साम्राज्य.

मछलियों की गंध और लहरें मुझे छूती निकल जाती है. यूँ तो मैं मछली नहीं खाता पर बचपन से ही मछली की गंध अच्छी लगती रही है. घर में यात्रा से पहले मछली देखना शुभ माना जाता था. 

सामने ठेले पर तला हुआ झींगा (फ्राइड प्रॉन) बेचने वाला वृद्ध मुंह बिचका कर इस बारिश को कोस रहा है.

अब बारिश तेज हो रही है. मेरे पास छाता नहीं है, इसलिए बारिश से बचने के लिए मैं किसी तरह उस ठेले की आड़ में खड़ा हो गया. बूढ़े व्यक्ति ने ठेले के ऊपर लगे पन्नी को और खोल दिया है. उसकी भाषा मैं नहीं समझ पता,  न वह मेरी. मैंने बस मुस्कुरा दिया.

अभी मानसून नहीं आया है, पर लोग कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का ये असर है. पिछले दो-तीन दिनों से  यहाँ काफी बारिश हो रही है

रात ढल गई है. पर बारिश से समंदर की नींद में कोई खलल नहीं पड़ता. दरअसल उसे नींद आती ही कहां है! कभी खरगोश के शावक की तरह कोई झक सफेद गुच्छा मेरी ओर लंबी छलाँगे लगाता दिखता है, तो कभी बूढ़ी दादी की तरह किसी बच्चे पर कुपित.

बाहर कोलंबों की सड़कों पर कार, बसों, और टुक टुक की हल्की शोर के बीच एक ठहराव  है.  लोगों के मुस्कुराते चेहरे पर विषाद झलकता है. 

उत्तरी श्रीलंका में एलटीटीई के साथ संघर्ष को खत्म हुए तीन वर्ष हो गए पर कोलंबों की फिजा में उदासी अब भी छाई है.  लोग युद्ध के बारे में बात नहीं करना चाहते.

शहर की सड़कों पर शांति भले दिखे पर समंदर की लहरों में शोर है.  मेरी खिड़की से भी समंदर झांक रहा है. लहरों की झंझावात और चीख मुझे सुनाई दे रही है. मैंने एसी बंद कर दिया है, खिड़की खुली छोड़ दी है और सोने की कोशिश कर रहा हूँ.
(जनसत्ता, समांतर स्तंभ में 4 मई 2012 को प्रकाशित)

2 comments:

कुमार राजेश said...

अरविंद भाई, आप इसी तरह झोला उठाकर चलते रहिए और दुनिया को नापते रहिए. हम भी आपकी आंखों से दुनिया को देख-समझ लेंगे. बहुत सुंदर. साधुवाद.

Alka tiwari said...

Your words have the magic of pied piper. Words attract and pull towards their world. I was lifted to this beach and felt like walking with you for a few moments. Arvind yours is an effortless flow of writing! I am fortunate to have a glimpse of your treasure, thanks and keep burning the flame of verses.