Thursday, January 03, 2013

उदास मौसम के खिलाफ


मुनीरका के बस स्टैंड पर हमने कई दफे बसों का इंतजार किया है, बरसों तक. जेएनयू में पढ़ने-पढ़ानेवालों के लिए यह बस स्टैंड रात-देर रात जैसे एक उम्मीद का प्रतीक  रहा है. वह रात पारा मेडिकल की उस छात्रा के लिए भी उम्मीदों से भरी रही होगी, जब वह अपने मित्र के साथ घर जाने के लिए वहाँ बस का इंतजार कर रही थी... 

वहाँ से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर जेएनयू है. कैंपस के अंदर स्त्रियों की आजादी और उनके संघर्ष के नारे हमेशा से बुलंद रहे हैं. लेकिन एक लंबे अरसे के बाद कैंपस के बाहर सड़कों पर छात्र इस लड़ाई को लेकर उतरे. धीरे-धीरे दिल्ली और फिर मीडिया के मार्फत पूरे देश में यह लड़ाई फैली. भारत में सौ वर्ष से भी ज्यादा पुराने स्त्री संघर्ष का इतिहास देश की राजनीतिक, सामाजिक, मजदूर और दलित आंदोलनों से जुड़ा रहा है और उससे जीवन शक्ति पाता रहा है. शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि एक छात्रा के साथ चलती बस में हुए जघन्य बलात्कार के खिलाफ रोष और आंदोलन में छात्रों ने अग्रणी भूमिका निभाई. बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के उन्होंने अपनी आवाज देश और देश के बाहर पहुँचाई. 

निस्संदेह मेनस्ट्रीम और न्यू मीडिया की इसमें भूमिका रेखांकित करने योग्य हैं. ऐसा नहीं है कि मीडिया में इससे पहले स्त्री विषयक खबरें नहीं होती थी. होती थीं, लेकिन उनमें एक किस्म की उदासीनता रहती थी. ज्यादातर खबरें खानापूर्ति के नाम पर ही अखबारों में या टेलीविजन चैनलों पर दिखाई जाती थी. लेकिन इस बार मीडिया ने कुछ अतिरेक को छोड़ कर संयम का परिचय दिया. इसे लगातार सुर्खियों में बनाए रखा और आलाकमानों से जवाब-तलब किया.

इन दिनों मुझे बार-बार एक वॉल पोस्टर की याद आती रही जो जेएनयू में पढ़ने के दौरान अक्सर देखा करता था: "अंधेरे कमरों और बंद दरवाजों के बाहर सड़क परजुलूस में और युद्ध में तुम्हारे होने के दिन आ गए हैं…"


बहरहाल, जेएनयू के छात्र और शिक्षक संघ ने मिल कर बलात्कारियों को सजा दिलाने और स्त्रियों के खिलाफ हिंसा के विरोध में  जाते साल की आखिरी रात एक जुलूस और विरोध कार्यक्रम का आह्वान किया था.

जेएनयू में मेरे गुरु प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने नव वर्ष की पूर्व संध्या हमें खाने पर बुलाया था. पर दिन में उन्होंने फोन कर कहा कि 'मिठाई  या फल कुछ भी  लेके मत आना. हम बैठ कर बातें करेंगे और घर में जो भी चावल-दाल बना है, खाएँगें.

लेकिन केवल उनका मन दुखी नहीं था. पूरी दिल्ली की सड़कों पर नए साल के स्वागत का रौनक इस बार गायब थी. लोग गमगीन थे.

रात में जब जुलूस के लिए हम निकले तो जेएनयू की सड़कों पर चलते लड़के-लड़कियों की हुजूम को देख तलवार जी ने रीना को सुनाते हुए कहा- आज की रात लड़कियाँ अपने मित्रों, प्रेमियों को लेकर सड़कों पर उतरी है. यह संदेशा देने के लिए कि ये सड़क, दुनिया हमारी है और हम बेखौफ घूमेंगे!

बलात्कार की इस घटना ने समाज और मीडिया को एक साथ उद्वेलित किया है. भूमंडलीकरण के बाद समाज में जहाँ स्त्रियों के प्रति हिंसा बढ़ रही है, वहीं समाज का एक तबका स्त्रियों की दशा के प्रति ज्यादा मुखर और संवेदनशील हो रहा है. इसमें मीडिया, अपने अधिकारों को लेकर सचेत युवा पीढ़ी और नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की खास भूमिका है.

साल के आखिरी उस उदास, सर्द रात में मुनीरका के खुले पार्क में छात्रों, शिक्षकों, नाटयकर्मियों, सांस्कृतिककर्मियों और आस-पड़ोस के लोगों की भीड़ से एक सरगर्मी थी. टेलीविजन चैनलों के ओबी वैन खड़े थे. रिपोर्टर अपने कैमरामैन के साथ इधर-उधर घूम रहे थे. 
 
हम लड़ेंगे साथी इस उदास मौसम के खिलाफ! उस रात यह नारा हवा में तैर रहा था. पाश ने लिखा है: हम लड़ेंगे/ कि लड़ें बगैर कुछ नहीं मिलता/ हम लड़ेंगे/ कि अब तक लड़ें क्यों नहीं/ अपनी सजा कबूलने कि लिए/ लड़ते हुए जो मर गए/ उनकी याद जिंदा रखने के लिए. 

अरावली की पहाड़ियों पर दिवंगत छात्रा की याद में जलती मोमबती अंधेरे में एक रौशनदान की तरह दिख रही थी. यह नई सुबह का आगाज था.

(जनसत्ता में समांतर स्तंके तहत 5 जनवरी 2013 को प्रकाशित)

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