आज़ादी के बाद संविधान
सभा ने 1950 में हिंदी
भाषा को राजभाषा का दर्जा भले ही दिया, हिंदी पत्रकारिता तकनीक कौशल, विज्ञापन, कुशल प्रबंधन आदि
से वंचित रही. सत्ता की भाषा अंग्रेजी के बने रहने के कारण सरकारी सुविधाएँ, विज्ञापन, प्रौद्योगिकी वगैरह
का लाभ अंग्रेजी अखबारों को ही मिलता रहा. हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार
स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी बना रहा. साथ ही हिंदी क्षेत्रों में शिक्षा की कमी
और प्रति व्यक्ति आय का न्यूनतम स्तर पर होना हिंदी पत्रकारिता को वह स्थान नहीं
दिला पाया, जिसकी वह हकदार थी.
प्रसिद्ध पत्रकार अंबिका प्रसाद
वाजपेयी ने 1953 में लिखा
था, “विज्ञापन
समाचार पत्रों की जान है,
पर
पौष्टिक तत्वों के अभाव में जैसे इस देश के मनुष्यों में तेज नहीं दिखता, वैसे ही हिंदी
समाचार पत्रों में निस्तेज पत्रों की संख्या ही अधिक है.”
पर वर्तमान में यह बात लागू नहीं होती. सबसे
ज्यादा पाठकों की संख्या वाले दस अखबारों में हिंदी के तीन अखबार हैं और अंग्रेजी
का महज एक अखबार. बाकी के अन्य अखबार क्षेत्रीय भाषाओं के हैं. हिंदी के अखबार ‘निस्तेज’ नहीं बल्कि ‘सतेज’ हैं.
आपातकाल, मंडल आयोग और राम
जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद जैसी राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाओं ने हिंदी क्षेत्रों
में खबरों के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ा दी. इसी दौरान हिंदी क्षेत्र में हुए
राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप हिंदी सत्ताधारियों की भाषा के रूप
में भी उभरी. पिछले दशकों में हिंदी भाषी प्रदेशों में शिक्षा का स्तर सुधरा है
तथा प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है. पहली बार 1978-79 में हिंदी के
अखबारों के पाठकों की संख्या अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बढ़ी और यह बढ़त आगामी
सालों में बढ़ती ही गई. पाठकों की संख्या
में वृद्धि ने हिंदी के अखबारों में नए आत्मविश्वास का संचार किया. उदारीकरण (1991) के बाद हिंदी अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों में भी काफी इजाफा हुआ है. हालांकि अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी के अखबारों के मुकाबले विज्ञापन की दर ज्यादा है, पर हाल के वर्षों में यह खाई उतरोत्तर कम होती गई है. उदारीकरण के बाद भारत में फैलते बाजार में हिंदी मीडिया के व्यवसायिक हितों के फलने-फूलने का खूब मौका मिला.
दुनिया भर में प्रकाशन व्यवसाय
पूंजीवाद के आरंभिक उपक्रमों में से एक रहे हैं. अखबारों का प्रकाशन भी पूंजीवाद
के विकास के इतिहास से जुड़ा हुआ है. पूंजीवाद के प्रसार के लिए अखबारों का शुरू
से ही इस्तेमाल होता रहा है और अखबार अपने प्रसार और मुनाफे के लिए पूँजी का सहारा
लेते रहे हैं. भूमंडलीकरण के साथ पनपे नव-पूंजीवाद और हिंदी अखबारों के बीच संबंध काफी रोचक हैं. भारत सरकार की उदारीकरण की नीतियों और
भूमंडलीकरण के साथ आई संचार क्रांति ने हिंदी अखबारों की रूप-रेखा और विषय वस्तु
में आमूलचूल परिवर्तन लेकर आया. यदि हम अखबारों की सुर्खियों पर गौर करें तो यह
परिवर्तन सबसे ज्यादा दिखाई देता है. अखबारों की सुर्खियाँ महज घटनाओं का
लेखा-जोखा भर नहीं होती. किसी समय विशेष में अखबार की सुर्खियाँ राज्य, समाज और सत्ता के
आपसी संबंधों, उसके
स्वरूप और स्वरूप में आ रहे बदलाव को प्रतिबिंबित करती है. दूसरे शब्दों में, आदर्श स्थिति में
सुर्खियाँ समकालीन ‘इतिहास’ को निरूपित करती है.
उदारीकरण के बीस वर्षों बाद अगर वर्तमान में हम
हिंदी के किसी भी अखबार के साल भर की सुर्खियों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है
कि उनका जोर खेल, आर्थिक
खबरों और मनोरंजन पर ज्यादा हैं. इसके साथ ही पिछले दशकों में पत्रकारिता के ‘अराजनीतिक’
होने पर जोर बढ़ा है. राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की बातें
अब पत्रकारिता के लिए अवगुण मानी जाती हैं. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है-
नवउदारीकृत व्यवस्था में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज्य, सत्ता और आवारा
पूंजी का समर्थन. अखबारों में विरले ही हमें भूमंडलीकरण के बाद बहुसंख्यक जनता की
जीवन स्थितियों के बारे में कोई खबर या आवारा पूंजी की आलोचना दिखाई पड़ती है.
भूमंडलीकरण के बाद अखबारों को मिली नई तकनीक की सुलभता, टेलीविजन चैनलों का प्रसार, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों से जुड़े क्रिकेट के खिलाड़ियों की छवि का इस्तेमाल और खिलाड़ियों की एक ब्रांड के रूप में बाजार और जन
सामान्य में बनी पहचान को हिंदी पत्रकारिता ने भी खूब भुनाया है. अब अखबारों के
लिए क्रिकेट का खेल महज ‘खेल की बात’ नहीं रही वह भारतीय
अस्मिता और संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है और इसे बनाने में भूमंडलीकरण के बाद
उभरी टेलीविजन और भाषाई प्रिंट मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है.
1986 के नव भारत टाइम्स में एक विज्ञापन |
इन सवालों के जवाब के लिए भी हमें
आर्थिक उदारीकरण की नीतियों और उसके बाद फैली बाजारवादी, प्रबंधकीय व्यवस्था
के फलस्वरूप राज्य के स्वरूप में आए परिवर्तनों पर गौर करना पड़ेगा. क्योंकि
भारतीय मीडिया ने भी भूमंडलीकरण के बाद इन बदलावों के बरक्स अपने प्रस्तुतीकरण, प्रबंधन, खबरों के चयन आदि
में परिवर्तन किया है.
हाल ही में ‘द न्यूयार्कर’ ने भारतीय अखबार
उद्योग को विश्लेषित करते हुए ‘सिटीजंस जैन’ शीर्षक से एक लंबा लेख छापा. इस लेख के केंद्र में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह था. समूह के
मालिक जैन बंधु कहते हैं “हम अखबारों
का कारोबार नहीं करते. हम विज्ञापन का कारोबार करते हैं.” अखबार के प्रबंधन
की नजर में उनके खरीददार पाठक नहीं बल्कि विज्ञापनदाता हैं जो इसका इस्तेमाल अपने
खरीददारों तक पहुँचने के लिए करते हैं. इस संबंध में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के
अधीन ही प्रकाशित होने वाले हिंदी के अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ (2003) की इस टिप्पणी पर गौर करना रोचक होगा, “यह नये इंटरनेशनल
आकार और साज-सज्जा वाला देश का पहला हिंदी अखबार बना. हमने इस विचार को सबसे पहले
कूड़े में डाल दिया कि भाषाई पत्रकारिता का मतलब सिर्फ राजनीति परोसना होता है.
इसलिए साइंस और टेक्नोलॉजी से मनोरंजन तक नवभारत टाइम्स ने वक्त की नब्ज का साथ
दिया. अध्यात्म, रोजमर्रा
की जिंदगी के जरूरी पहलुओं,
कारोबार, सिनेमा, पर्सनल फाइनेंस और
शौक सभी क्षेत्रों में हमने आपको नयेपन से बावस्ता रखा. और इस तरह एक खुले आधुनिक
संसार से लगातार जुड़े रहने की पहल की.”
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया सिर्फ
आर्थिक कारणों की वजह से ही दुनिया में प्रभावी नहीं हुई है, बल्कि दुनिया भर के
विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की नीतियों ने भी इस प्रक्रिया में सहयोग पहुँचाया है.
यदि हम बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में करें तो वर्ष 1947 में देश की आजाद होने के बाद भारतीय राज्य
की अवधारणा समाजवादी लक्ष्यों से प्रेरित रही. इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए
लोकतांत्रिक राजनीति को आधार बनाया गया. आजादी के बाद के तीन दशकों में योजना आयोग
का गठन, उद्योगीकरण, सामुदायिक विकास
कार्यक्रम और पंचायती राज का कार्यान्वयन जैसे मुद्दे राष्ट्र-राज्य के सामने हावी
थे. उस दौर में राजनीति को आधुनिक भारत की नियति और नियंता के रूप देखा जाता रहा. नतीजतन, उस दौर के हिंदी अखबारों में भी राजनीतिक खबरों को प्रमुखता मिलती रही. लेकिन अस्सी के दशक के आखिरी दौर और नब्बे के दशक के आरंभ में अपनाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण प्रबंधन और अर्थतंत्र की गतिविधियाँ
राष्ट्र-राज्य के क्रिया-कलापों पर हावी होने लगीं. इसका सीधा असर हिंदी मीडिया पर
भी पड़ा.
70 के दशक के बाद भारतीय भाषाई प्रेस में आए बदलाव को
मीडिया विश्लेषक रॉबिन जैफ्री ने ‘क्रांति’ कहा है. पर इस ‘क्रांति’ के पीछे की राजनीति
को वे विश्लेषित नहीं करते, जिसने हिंदी अखबारों को अराजनीतिक बनाया है.
(जनसत्ता, रविवार मीडिया कॉलम के तहत 16 दिसंबर 2012 को संपादित अंश प्रकाशित. 'हिंदी में समाचार' शीर्षक से लेखक की किताब 2013 में प्रकाशित होने वाली है)
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