Saturday, November 22, 2014

मार खा रोई नहीं

पत्रकार को पिटती पुलिस
हरियाणा के सतलोक आश्रम में रामपाल की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस की कार्रवाई का खबरिया चैनलों पर शोर था, तभी अचानक स्क्रीन पर पत्रकारों की पिटाई के दृश्य आने लगे. लेकिन भाजपा की नई मनोहर लाल खट्टर सरकार की देखरेख में पुलिस की इस अप्रत्याशित और निंदनीय कार्रवाई के खिलाफ एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार के कार्यक्रम जैसे एक-दो अपवाद को छोड़ मुख्यधारा के मीडिया में कोई बहस-मुबाहिसा नहीं है. हां, सोशल मीडिया में जरुर लोग इस घटना की चर्चा कर रहे हैं पर चटखारे लेकर. इस भाव से की अच्छा ही हुआ! ये चैनल वाले इसी काबिल हैं!  

भारत में सोशल मीडिया पर जो चर्चा देखी जाती है वह आम तौर पर माई वे या हाइ वे के बीच  बहस के लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ती. पर मुख्यधारा के मीडिया में पुलिस की इस कार्रवाई को लेकर, बहस, प्रतिक्रिया, आलोचना क्यों गायब है? ऐसा क्यों लग रहा है कि सबकी खबर देने वाला मीडिया अपनी खबर देना भूल गया. कुछ ही दिन पहले जब सोनिया गाँधी के दामाद और कारोबारी रॉबर्ट वॉडरा ने एक एजेंसी के पत्रकार को जब झिड़का और रिकॉर्ड किया गया फुटेज डिलीट करने को विवश किया तो टेलीविजन चैनलों, अखबारों और सरकार ने मिल कर ठीक ही इस कृत्य की चौतरफा निंदा की थी. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. ना किसी को लोकतंत्र पर हमला दिखा ना हीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा. पुलिस से पत्रकारों की पिटाई के बाद जिस तरह की शांति  छाई रही उससे यह पंक्ति याद आई-- मार खा रोई नहीं’! 

जनसत्ता, 24 नवंबर 2014
लोकतांत्रिक समाज के बने रहने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक जरुरी शर्त है. आजाद भारत में मीडिया को वैधता सरकार, समाज और आम लोगों से मिलती रही है. नेहरू के दौर में मीडिया राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे रहा था. आधुनिक लोकतंत्र के निर्माण में मीडिया की विचारधारा राष्ट्र-राज्य से मेल खाती रही. गाहे-बगाहे मीडिया पहरुए की भूमिका में रहा पर मीडिया की स्वतंत्र आवाज कहीं दब गई थी. इंदिरा गाँधी के शासन काल में, खास तौर पर आपातकाल के दौरान मुख्यधारा का मीडिया झुक गया, या लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में कहें तो रेंगने लगा था. पर उसके बाद भाषाई पत्रकारिता के उभार से पहली बार मीडिया अपनी पहचान के साथ सत्ता के बरक्स खड़ा होता दिखा. पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के बाद पत्रकारिता पर सरकार का दबदबा कम जरुर हुआ है, पर वह पूंजी की गिरफ्त में आ गया. बाजार के इशारों पर खबरों का उत्पादन होने लगा. अखबारों और चैनलों में खबर और विचार की संस्कृति समकालीन समाज की जरुरतों से कम ब्रांड की जरुरतों से ज्यादा परिचालित होने लगी.   

इस बार आम चुनाव में जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों, खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने मीडिया मैनेज किया,  वह अलग अध्ययन का विषय है. इस चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रुप में उभरे जिसे मीडिया ने खूब भुनाया. इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि इस चुनाव में मीडिया के अधिकांश घराने एक सहयोगी राजनीतिक पार्टी की भूमिका में थे! विशेष रूप से खबरिया चैनलों की भूमिका संदिग्ध रही.

हालांकि पिछले छह महीने की मोदी सरकार का मुख्यधारा के मीडिया को लेकर जो रवैया रहा है उससे ऐसा लगता है कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार मीडिया के साथ एक निश्चित दूरी बरत रही है और सरकार सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय है.

ऐसे में मुख्यधारा का मीडिया अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा है कि वह किसके साथ है-- सरकार के या समाज के. आम जन से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी वैधता पर ही सवाल खड़े करता है. पिछले छह महीनों में यदि मीडिया की विषय वस्तु का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि सरकार की नीतियों और काम काज के तरीकों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया के भीतर एक भय और बिन माँगे सरकार के समर्थन का रुख है.

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