Thursday, November 21, 2019

संघर्ष का परिसर: जेएनयू

किसी भी व्यक्ति या संस्थान के जीवन में पचास साल का ख़ास महत्व होता है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का यह पचासवां वर्ष है. होना तो यह चाहिए कि विश्वविद्यालय के लिए यह उत्सव का वर्ष होता, जहां उसकी उपलब्धियों और खामियों की समीक्षा होती. लेकिन छात्रावास की फीस में अप्रत्याशित बढ़ोतरी और जेएनयू की लोकतांत्रिक जीवन शैली पर प्रशासन के दबिश देने की मंशा के खिलाफ जेएनयू के विद्यार्थियों को सड़कों पर उतरना पड़ा.

जेएनयू उच्च शिक्षा के लिए देश और विदेश मे एक जाना-पहचाना नाम है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) की ओर से जारी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग में जेएनयू उच्च पायदानों पर रहा है. हालांकि वर्ष 2016 से जेएनयू की चर्चा शिक्षा के एक उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से ज्यादा देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को लेकर विचारधारात्मक संघर्ष के परिसर के रूप में होती रही है. अब लोगों को समझ में आने लगा है कि इसके पीछे किस तरह की राजनीति और कारोबारी प्रचार और संचार तंत्र का हाथ रहा है.

शुरुआती दौर से जेएनयू की छवि एक प्रगतिशील विचारधारा और राजनीतिक रुझान वाले संस्थान की रही है, लेकिन किसी भी उत्कृष्ट विश्वविद्यालय की तरह यह एक लोकतांत्रिक परिसर है जहाँ बहस-मुबाहिसा और प्रतिरोध के स्वर हमेशा बुलंद रहे हैं. खासतौर पर आपातकाल के दौरान जेएनयू सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का एक केंद्र बन कर उभरा था. सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ छात्र-छात्राओं ने एक बड़ा संघर्ष किया था. राजनीतिक सक्रियता जेएनयू के छात्रों को विरासत में मिली है. एक बार फिर से खबरिया चैनलों में जेएनयू को लेकर पूर्वाग्रह है और सोशल मीडिया में कई लोगों ने शट डाउन जेएनयू’ जैसे हैशटैग के साथ जेएनयू बंद करोका अभियान चलाया.

मुझे याद है कि पिछले दशक में जब मैं जेएनयू का छात्र था तो समाजशास्त्र में राजस्थान के भील समुदाय से एक छात्र ने एमए में नामांकन लिया था. हम एक ही हॉस्टल में रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि  मेरे मन में अपनी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का ख्याल हर वक्त रहता हैपर सहपाठीमित्रोंऔर शिक्षकों ने किसी भी तरह की हीनमन्यता को मेरे अंदर घर नहीं करने दिया.” बहरहाल, एक आंकड़ा के मुताबिक 2017-18 के दौरान जेएनयू में पढ़ने वाले करीब 40 प्रतिशत छात्रों के परिवार की मासिक आय 12 हजार रुपए से कम  आंकी गई थी. जेएनयू की नामांकन पद्धति में सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रछात्राओं को नामाकंन के लिए ‘डेप्रिवेशन पाइंट्स’ दी जाती है.

जेएनयू में सबसिडी की वजह से पढ़ाई लिखाई के खर्चे, छात्रावास की फीस वगैरह बेहद कम हैं और इस लिहाज से शुरुआती दौर से देश के कोने-कोने से प्रतिभावान छात्र पढ़ने और शोध करने आते रहे हैं. इनमें से कई विद्यार्थी अपने परिवार और रिश्तेदारों में पहली पीढ़ी के होते हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय का रूख किया होता है.  पिछले दिनों1981-83 के दौरान जेएनयू के छात्र रहेअर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेताअभिजीत बनर्जी ने भी बातचीत में इस बात का जिक्र किया था कि उनके दौर में भी जेएनयू में देश के विभिन्न हिस्सों से छात्र मौजूद थे, जो इसकी खूबी थी. इस तरह जेएनयू अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता रहा.

पूरी दुनिया में शिक्षा को ‘पब्लिक गुड’ मानने और शिक्षा के निजीकरण को लेकर राजनीतिक बहस चल रही है. अमेरिका और ब्रिटेन में विद्यार्थियों को कर्ज लेकर महंगी उच्च शिक्षा पूरी करनी होती है. नतीजतन, एक खास वर्ग तक ही उच्च शिक्षा की पहुँच है. इसके उलट जर्मनी और फ्रांस में उच्च शिक्षा में कई तरह का वित्तीय अनुदान यानी सबसिडी देकर सस्ता बनाया गया है. इस दशक में इंग्लैंड में उच्च शिक्षा में महंगी ट्यूशन फीस को लेकर कई बार छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया है.

मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में देश में उच्च शिक्षा को विभिन्न तरह के अनुदान देकर सुलभ बनाया गया था. उदारीकरण के बाद कई निजी विश्विद्यालय उभरे हैं, जिनका जोर गुणवत्ता पर कम अपने कारोबार को बढ़ाने पर ज्यादा है. महंगी फीस होने के कारण एक खास वर्ग के बच्चे ही इन विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं. उच्च शिक्षा में निवेश को हम तात्कालिक नफे-नुकसान के आधार पर नहीं तौल सकते हैं.

राजनेताओं-शिक्षाविदों ने देश निर्माण में शिक्षा के महत्व को हमेशा महत्वपूर्ण माना है. उच्च शिक्षा कई तरह की जातीय-वर्गीय-लैंगिक बाधाओं को तोड़ता है और समाज के हाशिए पर रहने वाले कमजोर तबकों को आगे बढ़ने के अवसर देता है. पिछले पचास वर्षों में जेएनयू ने देश को बेहतरीन शिक्षक, अध्येता, राजनेता, नौकरशाह, समाजसेवी और पत्रकार दिए हैं. कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देश में जेएनयू सामाजिक न्याय और समानता का एक सफल मॉडल है. जेएनयू की स्थापना के पचासवें वर्ष में उच्च शिक्षा को लोक हित में मानते हुए एक सार्थक विमर्श होना चाहिए, ताकि हम राष्ट्र निर्माण की सही दिशा में आगे बढ़ सके. यही जेएनयू की परंपरा रही है. 

(जनसत्ता, 21 नंवबर 2019)

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