Tuesday, June 09, 2020

संघर्ष की छवियाँ


आधुनिक हिंदी साहित्य में शुरुआती दिनों से ही किसानों, कामगारों और मजदूरों की संघर्षमयी छवि दिखाई देती रही है. प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन का साहित्य इसके दृष्टांत हैं. पर कुछ कहानियों के लिए साहित्य पर्याप्त नहीं होते. समकालीन समय में फोटोग्राफी इसके लिए माकूल है. तस्वीरें ना सिर्फ हमारे समय को ‘रिकार्ड’ कर रही होती हैं, बल्कि यह ऐतिहासिक साक्ष्य भी बन कर हमारे सामने आती है.


इसलिए मीडिया में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती है. दक्षिण अफ्रीकी फोटो पत्रकार केविन कार्टर की वर्ष 1993 में सूडान में भूखमरी से जूझते एक बच्चे और गिद्ध की फोटो की चर्चा आज भी होती है. इस फोटो के लिए उन्हें बहुचर्चित पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के मामले में सुनवाई हुई तो उस फोटो का गलत ढंग से जिक्र किया. हालांकि बाद में इसकी तीखी आलोचना भी हुई.

सच यह है कि कोरोना महामारी के दौरान पिछले कुछ महीने में प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें मीडिया के माध्यम से आईं, वे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए है. इन तस्वीरों ने देखने के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया है. ये आम छवियाँ नहीं है, जिसे चौबीस घंटे टीवी चैनल और सर्वव्यापी मोबाइल फोन के दौर में हम देखते रहते हैं. यह पीड़ा के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा, करुणा और संघर्ष की तस्वीरें भी हैं. ये राष्ट्र-राज्य के निर्माण में हाशिए पर रहने वाले मजदूरों की भूमिका और राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी को भी अपने जद में समेटे हुए है.

कुछ दृश्य राष्ट्र की सामूहिक चेतना में लंबे समय के लिए अंकित हो जाते हैं. देश विभाजन, महात्मा गाँधी की हत्या, भोपाल गैस कांड की तस्वीरें आदि इसी श्रेणी में आती हैं. पर हाल में महानगरों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के जिस हृदय विदारक दृश्य को दुनिया ने देखा है, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. रोजी-रोटी औऱ सिर छिपाने के ठौर छिन जाने के बाद माथे पर गठरी और गोद में बच्चों को लिए सड़कों पर भूखे-प्यासे पैदल चलते इन्हें दुनिया ने देखा. दिल्ली, मुंबई, सूरत से बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, तेलंगाना में स्थित अपने गाँव-घरों को पहुँचने को बेसब्र, ट्रकों में लदे, साइकिल-ऑटो से हजारों मीलों की दूरी तय करते कामगारों या मजदूरों की तस्वीरें आने वाले समय में हमें उद्वेलित करती रहेंगी. पर क्या यह सच नहीं है कि शहरी समाज के हाशिए पर रहने वाले ये कामगार, मजदूर हमारे बीच रह कर भी हमारी आँखो से ओझल थे? यदा-कदा किसी हादसे की खबर के साथ ही वे हमसे रू-ब-रू होते थे.

देश के अर्थशास्त्री जहाँ मजदूरों के लिए शहरों में बेहतर सुविधा बहाल करने की बात कर रहे हैं, ताकि फिर से उन्हें वापस बुलाया जा सके, वहीं लोक कल्याणकारी राज्य की दुहाई देने वाले राजनेताओं के पास कोई मुकम्मल जवाब नहीं है. एक बात तय है कि विकास के दावे और जीडीपी के आँकड़ों के बीच बेबसी की ये यथार्थ तस्वीरें हमारी सामूहिक विफलता की इबारत लिख गया है. साथ ही उदारीकरण के बाद नई आर्थिक व्यवस्था पर भी यह सवाल खड़े कर गया है. अर्थशास्त्रियों ने इस बात को लगातार रेखांकित किया है कि उदारीकरण के साथ समाज में आर्थिक विषमता की खाई और भी गहरी हुई है.

किसी भी तरफ हम नज़र दौड़ा लें, यह खाई और ज्यादा साफ दिखने लगी है और सत्ता का व्यवहार भी समर्थ वर्गों के प्रति ज्यादा नरम दिखने लगा है. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है कि सत्ता समर्थ तबकों के हित में बिना किसी संकोच के काम करती है. लेकिन सत्ता के शासन के दायरे में खुद को नागरिक मानने वाले लोगों के भीतर अपनी नजर डालने की उम्मीद हो आती है तो यह भी गलत नहीं है. लेकिन सत्ता का रुख और व्यवहार ही तय करता है कि किसी समाज में शासितों की स्थिति मानवीय होगी या नहीं!

कवि केदारनाथ अग्रवाल ने बंगाल में अकाल के दौरान लाखों लोगों की विवशता और लाचारी को देखते हुए लिखा था: 'बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर/ धर्म, धीरज प्राण खोकर/ हो रही अनरीति बर्बर, राष्ट्र सारा देखता है.' वह औपनिवेशिक भारत के दौर की बात थी, जिसमें भूख से और राजनैतिक अक्षमता की वजह से लाखों लोगों की मौत हुई थी. पर आजाद भारत में कामगारों, मजदूरों की छवियाँ राष्ट्र और दुनिया के सामने हमारी बेबसी और विषमता को दिखाती है. गुरुग्राम से साइकिल पर एक दुर्घटना में घायल अपने पिता को दरभंगा लाने वाली ज्योति की बात हो या सूरत से ट्रक पर अपने घर को लौट रहे बीमार अमृत को सहारा देने वाले याकूब की. उल्लेखनीय है कि अमृत की बीच रास्ते में मौत हो गई. अमृत की तरह ही इस दुस्साहसिक यात्रा को कई मजदूर पूरा नहीं कर पाए.

इन कामगार और मजदूरों की आँखों में व्यवस्था से विद्रोह के भाव नहीं थे, एक विवशता और लाचारी थी. वे वहीं लौट जाना चाहते थे जहाँ की मिट्टी ने उन्हें बनाया है. सोशल मीडिया में वायरल हुई एक तस्वीर में केरल के एर्नाकुलम से राँची स्पेशल ट्रेन से उतरे कुछ कामगार, मजदूरों ने सबसे पहले जमीन को माथे से लगाया. इस मर्मभेदी दृश्य की शब्दों में व्याख्या संभव नहीं है.

(जनसत्ता, 9 मई 2020)

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