Sunday, June 14, 2020

लेखक का सिनेमा 'गुलाबो सिताबो'

फिल्म भले ही निर्देशक का माध्यम हो, पर शूजित सरकार और जूही चतुर्वेदी की जोड़ी में लेखन अलग से उभर कर आता रहा है. ‘विक्की डोनर’, ‘पीकू’ और ‘अक्टूबर’ फिल्म में दर्शकों ने इसे खूब सराहा था. ‘गुलाबो सिताबो’ फिल्म में एक बार फिर से  शूजित सरकार-जूही चतुर्वेदी की जोड़ी दर्शकों से मुखातिब हैं. फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद जूही चतुर्वेदी ने लिखा है.
‘गुलाबो सिताबो’ देखते हुए यह ख्याल मन में आता रहा कि ‘स्लो रीडिंग’ की तरह ‘स्लो व्यूइंग’ की चर्चा समीक्षक क्यों नहीं करते हैं? दो साल पहले रिलीज हुई ‘अक्टूबर’ फिल्म भी बॉलीवुड के मानकों के हिसाब से काफी धीमी फिल्म थी. हालांकि जहाँ ‘अक्टूबर’ सुगम संगीत की तरह लय में सजी थी, वहीं ‘गुलाबो सिताबो’ में लय गायब है. फिल्म के नाम में जो कोमलता और धुन है वह उभर कर नहीं आ पाई है. उल्लेखनीय है कि फिल्म का नाम उत्तर प्रदेश की कठपुतली लोक कला से प्रेरित है. फिल्म के शुरुआत में गुलाबो सिताबो कठपुतली के खेल को दिखाया गया है- ‘गुलाबो खूब लड़े है, सिताबो खूब लड़े है.’
 इस लोक कला को आधार बना कर लखनऊ की एक हवेली के मालिक मिर्जा नवाब (अमिताभ बच्चन), किराएदार बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) और अन्य पात्रों के आपसी संबंधों, नोंक-झोंक के माध्यम से सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को सामने लाने की कोशिश की गई है. ‘घाघ’ और ‘शुतुरमुर्ग’ के बीच लखनवी बोली-बानी में होने वाले नोंक-झोंक का एक द्रष्टा हवेली भी है, जो फिल्म के केंद्र में है. ढहती-ढनमनाती हवेली अपनी चुप्पी में अपनी दास्तान कहती प्रतीत होती है. विसंस्कृतीकरण के इस दौर में क्या यह लखनऊ की संस्कृति का रूपक है? फिल्म की सिनेमैटोग्राफी इसे व्यक्त करने में सफल है. दूसरे स्तर पर यह फिल्म स्त्री-पुरुष के बदलते संबंधों पर भी रोशनी डालती है.
निर्देशक ने इस फिल्म को ‘हास्य-व्यंग्य’ कहा है. दर्शकों के अंदर हास्य का संचार करने के लिए काफी मेहनत भी की गई है, पर निर्देशक पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं. फिल्म में पुरातत्व का प्रसंग और नेहरू की चर्चा वर्तमान राजनीतिक बहस-मुबाहिस पर भी एक टिप्पणी करती प्रतीत होती है. अदाकार विजय राज एक जगह कहते भी हैं: हम सरकार हैं, हमें सब पता है.’
फिल्म लखनऊ शहर में अवस्थित है, जहाँ की जूही चतुर्वेदी हैं. लेकिन फिल्म इस शहर को उस रूप में छायांकित नहीं कर पाई है जिस रूप में कभी फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी बंबई और उसकी रोजमर्रा के मिजाज को अपनी फिल्मों में चित्रित करते रहे. फिल्म अपने संवाद के लिए आने वाले वर्षों में अलग से रेखांकित की जाएगी. बेहद सहज अंदाज में कभी ‘चचा’ तो कभी ‘बुढ़उ’ या ‘बे’ का संबोधन हिंदुस्तानी भाषा की अपनी शब्द शक्ति को सामने लेकर आता है. इसी तरह ‘घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने’ जैसी लोकोक्ति बरबस ध्यान आकर्षित करती है. आयुष्मान खुराना और अमिताभ बच्चन जैसे सितारों के बीच विजय राज, बिजेंद्र काला, फारुख जफर और सृष्टि श्रीवास्तव जैसे कलाकार अपनी अदाकारी में सफल रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि कोरोना महामारी के बीच बड़े बजट और सितारों से सजी यह पहली हिंदी फिल्म है जो बॉक्स ऑफिस पर रिलीज नहीं हुई. इसे अमेजन प्राइम पर रिलीज किया गया है. इस फिल्म को लेकर जहाँ सोशल मीडिया में काफी उत्सुकता थी, वहीं मल्टीप्लेक्स के मालिकों और वितरकों में काफी रोष था. क्या यह फिल्म आने वाले समय में हिंदी फिल्मों के प्रसारण का नया रास्ता दिखाएगी या महामारी के बाद फिर से बड़े परदे पर सितारों की महफिल सजेगी? 

(प्रभात खबर, 14.06.2020)

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