Sunday, September 13, 2020

एक एक्टिविस्ट एक्टर के सत्तर साल: शबाना आजमी


शबाना आजमी के 'अपरूप रूप' हैं. इस हफ्ते वे जीवन के 70 वर्ष पूरे कर रही हैं. पिछले चार दशकों में सिनेमा के परदे पर, रंगमंच पर, सड़कों पर या संसद में कहाँ उनका रूप सबसे ज्यादा उज्जवल रहा है, कहना बेहद मुश्किल है. एक किस्सा है कि वर्ष 1986 में मृणाल सेन की फिल्म 'जेनेसिस' को प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में दिखाया जा रहा था. इस समारोह में शबाना को भाग लेना था, पर वे कान नहीं जाकर बंबई में झुग्गी-झोपड़ी तोड़े जाने के विरोध में बीच सड़क पर भूख हड़ताल के लिए बैठ गईं. पाँच दिन बाद जमीन झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों को वापस दे दिया गया. 

असल में, शबाना आजमी फिल्मों को सामाजिक बदलाव का औजार मानती है. यह सीख उन्हें विरासत में मिली. जहाँ पिता कैफी आजमी एक प्रगतिशील शायर थे, वहीं माता शौकत आजमी खुद थिएटर की मशहूर अदाकार रही थीं. दोनों ही 'इप्टा' से जुड़े थे.

वर्ष 1974 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ से जो फिल्मी यात्रा शबाना की शुरु हुई, वह आज भी जारी है. यूं तो सत्यजीत रे (शतरंज के खिलाड़ी), मृणाल सेन (खंडहर, एक दिन अचानक), गौतम घोष (पार) जैसे निर्देशकों के साथ शबाना ने फिल्में की पर सबसे ज्यादा मकबूलियत उन्हें फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के साथ काम करके मिली. 70 के दशक में हिंदी फिल्मों में समांतर सिनेमा की जो धारा विकसित हुई उसमें बेनेगल और शबाना की जोड़ी अगल से रेखांकित करने योग्य है. सामाजिक-राजनीतिक सवालों को उठाती उनकी फिल्में- अंकुर, निशांत, जुनून, मंडी आदि, हिंदी सिनेमा की थाती हैं. ये फिल्में मध्यमार्गी थी जिसे मनोरंजन से परहेज नहीं था. उन्हें आम दर्शकों की सराहाना भी मिली और बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी भी. 

पहली ही फिल्म 'अंकुर' में शबाना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया. बाद में 'अर्थ', 'खंडहर', 'पार' और 'गॉडमदर' फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के चार और पुरस्कार उनके हिस्से आए. मुख्यधारा और समांतर दोनों तरह की फिल्मों के विभिन्न किरदारों को उन्होंने अपने सहज अभिनय से जीवंत बना दिया है. 

समलैंगिक संबंधों को उघेरती दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' (1996) को कुछ राजनीतिक विरोध झेलना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी. बाद में इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय मंच पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया. श्याम बेनेगल कहते हैं कि ‘शबाना किरदार को अंगीकार कर अपना बना लेती है. आत्मसात कर लेती है. यह उनकी विशिष्टता है.’ वे शबाना के ‘ट्रेंड एक्टर’ होने पर जोर देते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वे सांप्रदायिकता के खिलाफ और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में मुखर रही है.

बहरहाल, शबाना आजमी का जो रूप मेरे मन में वर्षों से बैठा है वह उनका रंगमंचीय अवतार है. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृता' नाटक के माध्यम से बीस वर्षों से भी अधिक समय तक दर्शकों से वे रू-ब-रू रही हैं. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. 

कम लोग जानते हैं कि पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान में अभिनय का कोर्स करने से पहले उन्होंने फारुख शेख के साथ सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई में हिंदी नाट्य मंच की स्थापना की थी. शबाना आजमी 'एक्टिविस्ट एक्टर' हैं. उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन अभी होना बाकी है.

(प्रभात खबर, 13.09.2020)