Sunday, March 07, 2021

मैला आँचल के ‘डागदर बाबू’ की अधूरी कहानी

प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921- 11 अप्रैल 1977) की जन्मशती मनाई जा रही है. इस बहाने उनके साहित्य पर खूब चर्चा हो रही है. 20वीं सदी के दो प्रमुख साहित्यकार नागार्जुन और रेणु दोनों ही मिथिला से थे. दोनों के साहित्य की कथा भूमि मिथिला का ग्रामीण समाज है. जहाँ नागार्जुन ने मैथिली में थोड़ा-बहुत लिखा, वहीं रेणु का मैथिली में लिखा नहीं मिलता.

केदारनाथ चौधरी ने 'अबारा नहितन' में लिखा है कि जब वे 'ममता गाबय गीत' (मैथिली फिल्म) के मुहूर्त के प्रसंग में रेणु से मिले (1964) तब उन्होंने कहा था- 'नेना मे हम जखन नेपालक विराटनगर मे रही तखन मैथिली मे कइएक टा कथा लिखने छलहूँ. मुदा मैथिली भाषाक क्षेत्र सकुचल, समटल आ एक विशेष जातिक एकाधिकार मे. अपने लिखू अपने पढ़ू.' (बचपन में जब मैं नेपाल के विराटनगर में रहता था तब मैंने मैथिली में कई कथाएँ लिखी. लेकिन मैथिली भाषा का क्षेत्र सीमित और एक विशेष जाति के एकाधिकार में है. खुद लिखिए और खुद पढ़िए). उसी दौर में रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म बन रही थी, जिसे बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और शैलेंद्र प्रोड्यूसर थे.
बहरहाल, रेणु ने मैथिली की पहली फिल्म 'कन्यादान' (1965) का संवाद लिखा था और आगे भी मैथिली सिनेमा के लिए कुछ करने की उनमें लालसा थी. यह अलग बात है कि मैथिली सिनेमा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया. पर उनका जुड़ाव हिंदी सिनेमा से रहा. रेणु के इस रूप का जिक्र नहीं होता.
इसी प्रसंग में, जहाँ 'तीसरी कसम' फिल्म सबको याद है, वहीं मैला आँचल पर बनने वाली फिल्म- डागदर बाबू (डॉक्टर बाबू), जो अधूरी रह गई, उसकी चर्चा नहीं होती. मैला आँचल का कथानक पूर्णिया में स्थित है और कथानायक प्रशांत एक युवा डॉक्टर है. मेरीगंज गाँव के हवाले से जो सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ का चित्रण हुआ है वह इस उपन्यास को कालजयी बनाता है. इस उपन्यास का हर पाठ पाठक के समक्ष एक नए अर्थ के साथ उद्धाटित होता है.
रेणु की लेखनी दृश्यात्मक है. इस वजह से उनके कथा साहित्य को सिनेमा के परदे पर चित्रित करने की पूरी संभावना है. बात ‘तीसरी कसम’ की हो या ‘पंचलाइट’ की. बशर्ते फिल्मकार शैलेंद्र या नवेंदु घोष जैसा पारखी हो. हिंदी के चर्चित आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार ‘रेणु’ की प्रेम कहानी ‘रसप्रिया’ का जिक्र फिल्म निर्माण के प्रसंग में हमेशा करते हैं. वे बताते हैं कि उन्होंने प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक चिदानंद दास गुप्ता से इस कहानी पर फिल्म बनाने का इसरार भी किया था.
मन में सहज रूप से यह सवाल उठता है कि नवेंदु घोष, जिन्होंने ‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा लिखी थी, के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म का क्या स्वरूप होता? बिंबो और ध्वनियों के माध्यम से यह फिल्म मैला आँचल कृति को किस तरह नए आयाम में प्रस्तुत करती?
70 के दशक के मध्य में यह फिल्म बननी शुरू हुई थी, पर निर्माता और वितरक के बीच अनबन के चलते इसे अधबीच ही बंद करना पड़ा. उस दौर के लोग डागदर बाबू की शूटिंग और फिल्म के पोस्टर को आज भी याद करते हैं. रेणु के पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय कहते हैं कि फिल्म के 13 रील तैयार हो गए थे. वे बताते हैं कि ‘मायापुरी’ फिल्म पत्रिका में ‘आने वाली फिल्म’ के सेक्शन में इस फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया था. पिछले साल अमिताभ बच्चन ने विवेकानंद के गेट-अप में जया बच्चन की इस फिल्म से एक तस्वीर अपने इंस्टाग्राम पर शेयर की थी, तब लोगों में इसे लेकर उत्सुकता जगी थी. हालांकि उन्होंने गलती से इसे बांग्ला में बनने वाली फिल्म –डागदर बाबू (डॉक्टर बाबू) कह दिया था.
नवेंदु घोष के पुत्र और फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष कहते हैं कि उस वक्त मैं एफटीआईआई में छात्र था और अपने पिता को असिस्ट करता था. वे दुखी होकर कहते हैं, “बाम्बे लैब में इस फिल्म के निगेटिव को रखा गया था. 80 के दशक में बंबई में आई बाढ़ में वहाँ रखा निगेटिव खराब हो गया... अब कुछ नहीं बचा है.”
शूटिंग के दिनों को याद करते हुए शुभंकर घोष नॉस्टेलजिक हो जाते हैं. वे कहते हैं “काफी खूबसूरत कास्टिंग थी. धर्मेंद्र, जया बच्चन, उत्पल दत्त, पद्मा खन्ना, काली बनर्जी इससे जुड़े थे. जब रेणु की जन्मभूमि फारबिसगंज में इसकी शूटिंग हो रही थी तब धर्मेंद्र-जया को देखने आने वालों का तांता लगा रहता था. कई लोग पेड़ पर चढ़े होते थे.’ फिल्म के प्रसंग में वे आर डी बर्मन के दिए संगीत का जिक्र खास तौर पर करते हैं. वे कहते हैं कि नंद कुमार मुंशी जो इस फिल्म के निर्माता एस.एच. मुंशी के पुत्र हैं, किसी तरह आरडी बर्मन के संगीत को संरक्षित करने में उनकी सहायता करें. घोष कहते हैं कि फिल्म में पंचम ने असाधारण संगीत दिया था, जो मुंशी परिवार के पास ही रह गया.
यदि यह फिल्म बन के तैयार हो गई होती तो हिंदी सिनेमा की थाती होती. शुभंकर याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता नवेंदु घोष और रेणु अच्छे दोस्त थे. ‘मैला आंचल’ की पॉकेट बुक की प्रति हमेशा अपने पास रखते थे और वर्षों तक उन्होंने उसकी पटकथा पर काम किया था. यहां पर यह जोड़ना उचित होगा कि देवदास, सुजाता, बंदिनी, अभिमान जैसी फिल्मों की पटकथा लिखने का श्रेय नवेंदु घोष को ही है. साथ ‘त्रिशांगी’ फिल्म उन्हीं के निर्देशन में बनी थी, जिसे बेस्ट डायरेक्टर का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.
हालांकि बॉलीवुड में साहित्यिक कृतियो के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता रहा है उसे लेकर रेणु नाखुश रहते थे. तीसरी कसम फिल्म का अंत बदलने का उन पर काफी दबाव बनाया गया था, पर वे राजी नहीं हुए. इसी सिलसिले में रॉबिन शॉ पुष्प ने अपने एक संस्मरण (1992) में नोट किया है कि किस तरह रेणु ने उनसे कहा था कि ‘हो सकता है कि मैं डॉक्टर बाबू न देखूं…’. यह पूछने पर कि क्यों? उन्होंने कहा था- “ पहले समीक्षा पढूंगा...देखने वालों से उनकी राय पूछूंगा.. यदि सब ठीक रहा, तभी देखूंगा. वरना जिस मैला आँचल ने मुझे यश दिया. मान दिया. साहित्य में स्थापित किया...उस कृति के विकृत रूप को देखने का शायद मैं साहस नहीं जुटा पाऊंगा...”
काश रेणु यह फिल्म देख पाते! दुर्भाग्यवश न हमने, न रेणु ने ही यह फिल्म देखी. क्या ही अच्छा होता कि नवेंदु घोष की लिखी पटकथा ही हम देख-पढ़ पाते, पंचम का दिया संगीत ही सुन पाते?

(https://hindi.news18.com पर प्रकाशित)

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