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Sunday, July 13, 2025

आपातकाल और एक फिल्म की याद

 


पिछले दिनों आपातकाल (1975-77) के पचास वर्ष पूरे हुए. इस दौरान नागरिक अधिकारों के हनन, मीडिया पर सेंसरशिप और सत्ता के अलोकतांत्रिक रवैए को लोगों ने याद किया.

आपातकाल को बहुत सारे फिल्मकारों ने सीधे या अपरोक्ष रूप से अपनी फिल्म का आधार बनाया है और आज भी इससे प्रेरणा लेते हैं. पिछले दिनों चर्चित फिल्मकार सुधीर मिश्रा ‘समर ऑफ 76’ नाम से एक वेब सीरीज के फिल्मांकन में व्यस्त थे. जैसा कि नाम से जाहिर है यह आपातकाल के दौर की राजनीति के इर्द-गिर्द रची-बसी है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी इस सीरीज की शूटिंग हुई .
वे कहते हैं कि यह सीरीज में आपातकाल एक रूपक की तरह आया है. बहरहाल, आपातकाल की पृष्ठभूमि में बनी उनकी फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के बीस साल पूर हुए हैं. एक बार फिर से देखते हुए यह ख्याल बना रहता है कि 70 के दशक की देश की राजनीति, आपातकाल, नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े संभ्रांत और शिक्षित वर्ग के युवाओं के सपने, इच्छा, हताशा को इस फिल्म से बेहतर चित्रित करने वाला हिंदी में शायद कोई अन्य फिल्म नहीं है. प्रेम कहानी के रूप में बुनी गई यह फिल्म एक साथ शहर (दिल्ली) और गाँव (भोजपुर) की यात्रा करती है.
‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ फिल्म है, जिसने 21वीं सदी में समातंर सिनेमा की नई धारा की शुरुआत की जिसे हम ‘नया सिनेमा’ कह सकते हैं. इन‌‌‌ फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र पिछली सदी‌ के समांतर सिनेमा से अलहदा है. यहां गीत-संगीत की भूमिका भी उल्लेखनीय है. शांतनु मोइत्रा का संगीत आज भी कर्णप्रिय है.
यह फिल्म सिद्धार्थ, गीता और विक्रम के सहारे आपातकाल के दौर को राजनीति, आदर्श और युवा मन के उधेड़बुन को खूबसूरती के साथ सामने लाता है. विक्रम (शाहनी अहूजा) एक गांधीवादी का बेटा है पर उसे आदर्शवाद नहीं लुभाता वहीं सिद्धार्थ (के के मेनन) एक रिटायर्ड जज को बेटा है जो क्रांति के गीत गाता है. वहीं गीता (चित्रांगदा सिंह) विलायत से पढ़ कर लौटी एक ऐसी लड़की है जो प्रेम की तलाश में है. तीनों ही अदाकारों का अभिनय फिल्म को एक ऊंचाई पर ले जाता है.
इस फिल्म के सिलसिले में जब मैंने सुधीर मिश्रा ने कुछ महीने पहले बात किया था तब उन्होंने कहा था कि 'इस फिल्म को लिखने में पाँच-छह साल मुझे लगे. पहले कहानी एक नक्सल और एक लड़के की थी, जो कॉलेज में पढ़ता था और पुलिस वाले का... फिर मुझे लगा कि बहुत टिपिकल हो रही है. फिर धीरे से कहाँ से विक्रम मल्होत्रा उभरा.'
फिल्म में विक्रम का किरदार विरोधाभासों से भरा है. वे कहते हैं, "विक्रम एक ऐसा लड़का है जिससे हम कॉलेज मे दूर रहते हैं. उसे दूर रहने के लिए कहते हैं. जो कुछ बनने आया था, फिक्सर है. गीता और सिद्धार्थ हम जैसे लोग हैं. खास कर कोई मुझसे पूछता है कि फिल्म में आप कौन हैं, तो मैं कहता हूँ-गीता. मेरे ख्याल से फिल्म अभी तक जिंदा इसलिए है क्योंकि विक्रम का भी नजरिया है उसमें. जिंदगी आइडियोलॉजी से आगे कहाँ फिसल जाती है, कहाँ एस्केप करती है इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता.”

Sunday, April 21, 2024

पॉप संगीत का चमकीला सितारा

 


हिंदी सिनेमा के इस सदी में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है.  विशाल भारद्वाज,   अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, हंसल मेहता जैसे फिल्मकार इसके अगुआ हैं. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई अली की फिल्म  अमर सिंह चमकीलाविषय, शिल्प और फिल्म निर्माण की दृष्टि से व्यावसायिक और समांतर सिनेमा के बीच एक पुल की तरह है. आश्चर्य नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल इम्तियाज अली की तारीफ करते थे.

बहरहाल, हिंदी सिनेमा में पंजाब का दलित समाज विरले दिखता है, जबकि पंजाब मूल के फिल्मकारों का शुरू से ही दबदबा रहा है. ऐसा क्यों? अमर सिंह चमकीला की पहचान एक ऐसे लोकप्रिय पंजाबी गायक की थी, जो दलित परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बूते पिछली सदी के 80 के दशक में लोगों के दिलों पर राज करते थे. यही दौर था जब पंजाब में चरमपंथियों के आतंक के साये में लोग जी रह रहे थे. इसी दौर में देश में कैसेट कल्चरके मार्फत पॉप संगीत का उभार तेजी से हो रहा था. प्रसंगवश, चर्चित गायक गुरदास मान चमकीला के समकालीन रहे.

जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह फिल्म अमर सिंह चमकीला (1960-1988) का जीवनवृत्त है जिसे अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने अपने अभिनय और गायन से जीवंत कर दिया है. उन्हें परिणीति चोपड़ा (अमरजोत कौर की भूमिका में) का भरपूर सहयोग मिला है. निर्देशक ने संवेदनशीलता के साथ चमकीला के जीवन संघर्ष और दुखद अंत को दर्शकों के सामने लाया है. फिल्म में जिस तेजी से दृश्यों को संयोजित किया गया है वह खटकता है. बार-बार विंडो में चमकीला-अमरजोत की पुरानी तस्वीरों (फुटेज) को दिखाया गया है, जिसे संपादित जा सकता था.

पंजाबी लोक गायन में सुरिंदर कौर, असा सिंह मस्ताना, लाल चंद यमला जाट की गायकी को लोग आज भी याद करते हैं. 80 के दशक में चमकीला की चमक ने सबको पीछे छोड़ दिया. असल में, पॉप संगीत अपने भड़कीले बोल और तेज संगीत की वजह से लोगों से जल्दी जुड़ते हैं. शादी-विवाह के अखाड़े में चमकीला की खूब मांग हो रही थी, उसके कैसेट बाजार में ब्लैकमें बिकते थे. 

सफलता के साथ उसे कई मोर्चों पर लड़ना पड़ा था.  अमरजोत कौर से उसकी दूसरी शादी जहाँ कथित उच्च जाति के लोगों को खटक रही थी, वहीं समकालीन गायकों की ईर्ष्या-द्वेष भी उसे झेलना पड़ रहा था. साथ ही चरमपंथियों, धार्मिक संगठनों के निशाने पर भी वह था. चमकीला और अमरजोत की हत्या कर दी गई.

जीवन में और हत्या के बाद भी जिस वजह से उसकी आलोचना होती रही वह अश्लील, द्विअर्थी गाने थे, जो स्त्री विरोधी थे. इस तरह के गानों के पक्ष में चमकीला की अपनी दलीलें थी. बाजार की मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तहत उसका कहना था कि लोग यही चाहते हैं!

गीत-संगीत या कोई भी कला यदि अपने समय की उपज होती है तो समाज को परिष्कृत भी करती है. वह मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकती. निर्देशक ने फिल्म में अश्लीलताको लेकर एक विमर्श रचा है, जो दर्शकों को उकसाता है, पर कोई जवाब नहीं देता. जवाब दर्शकों को ही देना है.

Sunday, September 10, 2023

सरहद पार की दो फिल्में

 


पिछले दिनों एक पाकिस्तानी फिल्म जिंदगी तमाशा को लेकर सोशल मीडिया पर टीका-टिप्पणी दिखी. यूँ तो चार साल पहले ही फिल्म समारोहों में इसे दिखाई गई थीलेकिन सेंसरशिप के कारण इसका प्रदर्शन अटक गया. आखिरकार निर्देशक सरमद खूसट ने यूट्यूब पर रिलीज कर दिया है. इस फिल्म के केंद्र एक अधेड़ पुरुष (राहत) हैं. एक दोस्त के बेटे की शादी के अवसर पर वे एक पुराने गाने पर डांस करते हैंजो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है. घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्तेसामाजिक संबंध इससे किस तरह प्रभावित होते हैंइसे निर्देशक ने बेहद सधे ढंग से फिल्म में दिखाया है. साथ ही राहत के बहाने पाकिस्तानी खुफिया समाज की झलकियाँ यहाँ दिखाई देती है. यहाँ निजताइच्छा-आकांक्षास्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है.

इसी तरह जॉयलैंड’ को पिछले साल95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. यह फिल्म ऑस्कर जीतने में सफल नहीं हुईपर प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहाँ ज्यूरी पुरस्कार मिला था. विभिन्न फिल्म समारोहों में जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले दिनों अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया. युवा निर्देशक सैम सादिक की यह पहली फिल्म हैजहाँ वे संभावनाओं से भरे नज़र आते हैं.

भले ही यह दोनों फिल्में पाकिस्तान में रची-बसी हैलेकिन कहानी भारतीय दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. जिंदगी तमाशा की तरह ही जॉयलेंड के केंद्र में लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. इस परिवार का मुखिया एक विधुर है जिसके दो बेटे और बहुएँ हैं. परिवार को एक पोते की लालसा है. बड़ी बहु की तीन बेटियाँ हैं. छोटा बेटा (हैदर) जो बेरोजगार है उसकी नौकरी एक ‘इरॉटिक थिएटर कंपनी’ में लग जाती है. वहाँ वह एक ट्रांसजेंडर डांसर (बीबा) का सहयोगी डांसर होता है. धीरे-धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित होता है. घर में छोटे बेटे की बहु (मुमताज) की नौकरी छुड़वा दी जाती है. घुटन और इच्छाओं के दमन से उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है.

यह फिल्म भी घर-परिवार के इर्द-गिर्द हैपर किरदारों की इच्छा-आकांक्षा से लिपट कर लैंगिक राजनीतिस्वतंत्रता और पहचान का सवाल उभर कर  सामने आता है. चाहे वह घर का मुखिया होउसका बेटा होबहु हो या थिएटर कंपनी की डांसर बीबा. फिल्म में एक संवाद है-मोहब्बत का अंजाम मौत है!’. सामंती परिवेश में प्रेम एक दुरूह व्यापार हैबेहद संवेदनशीलता के साथ निर्देशक ने इसे फिल्म में दिखाया है.

ट्रांसजेंडर की पहचान और अधिकार को लेकर मीडिया में बहस होने लगी है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. फिल्म में अलीना खान ने ट्रांसजेंडर डांसरबीबाकी भूमिका विश्वसनीय ढंग से निभाई है. फिल्म में कोई विलेन नहीं है. पितृसत्ता यहाँ प्रतिपक्ष की भूमिका में है. सवाल बहुत सारे हैंजवाब कोई नहीं. यहाँ किसी तरह का उपदेश या प्रवचन नहीं है. कलाकारों का अभिनय बेहद प्रशंसनीय है. ये फिल्में विषय-वस्तु का जितनी कुशलता से निर्वाह करती हैउसी कुशलता से परिवेशभावनाओं और तनाव को भी उकेरती है. 


Tuesday, August 08, 2023

पायरेसी के खिलाफ पहल


 सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में सिनेमैटोग्राफ संशोधन विधेयक के बारे में जोर देकर कहा कि फिल्म उद्योग को इस बिल से आने वाले सौ-दो सौ सालों तक पायरेसी से मुक्ति मिलेगी. संसद के दोनों सदनों से इस विधेयक को मंजूरी मिल गई है.

मनोरंजन और राष्ट्र-निर्माण में सिनेमा जैसे जनसंचार माध्यम की महत्ता को समझते हुए आजादी के तुरंत बाद सरकार ने सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली थी. इसी उद्देश्य से वर्ष 1949 में सिनेमा उद्योग की वस्तुस्थिति की समीक्षा के लिए जवाहरलाल नेहरू ने फिल्म इंक्वायरी कमेटी’ का गठन किया था. इस समिति ने सिनेमा के विकास के लिए कई सुझाव दिए थे. बहरहाल, वर्ष 1952 में देश में सिनेमैटोग्राफ कानून लागू किया गया थाजिसका मूल उद्देश्य फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र जारी करना था. देश में सिनेमा का इतिहास एक सौ दस साल पुराना है. जब सिनेमेटोग्राफ कानून बना था तब सिनेमा को लेकर आज की तरह दीवानगी नहीं थीन ही इसकी पहुँच देश के कोन-कोने तक ही थी. आज करीब पचास भाषाओं में सबसे ज्यादा  फिल्मों का उत्पादन भारत में होता है. पिछले दशकों में जहाँ तकनीकी क्रांति ने सिनेमा के उत्पादन और प्रसारण में सहूलियत दी हैवही तकनीक की सहायता से फिल्में सिनेमाघरों में रिलीज होते ही इंटरनेटसोशल मीडिया के माध्यम से चोरी-छिपे देश-दुनिया में पहुँच जाती है. दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान फिल्मों की चोरी-छिपे कॉपी कर ली जाती है. इससे सिनेमा और मनोरंजन उद्योग से जुडे लाखों लोगों प्रभावित होते हैं. जाहिर है पायरेसी का खामियाजा निर्माता-निर्देशकों भुगतना पड़ता है. इसे रोकने की माँग फिल्म उद्योग से जुड़े लोग वर्षों से कर रहे थे. नए कानून का मुख्य ध्येय इस पायरेसी पर रोक लगाना ही है. 

संशोधित  वधेयक के तहत बिना अनुमति के (अनाधिकृत) फिल्मों का ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग करनेजहाँ पर प्रदर्शन के लिए लाइसेंस नहीं दिया गया हो वहाँ दिखाने कॉपीराइट कानून का उल्लंघन करने पर तीन महीने से लेकर तीन साल तक जेल की सजा हो सकती है. इसके अतिरिक्त दोषी व्यक्ति को तीन लाख रुपए से लेकर कुल उत्पादन लागत का पाँच प्रतिशत हर्जाना देना पड़ेगा. अनुराग ठाकुर ने कहा कि पायरेसी की वजह से हर साल फिल्म उद्योग को 20 हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ता है. इस आंकड़े पर बहस हो सकती है, पर इससे इंकार नहीं कि पायरेसी का मुद्दा महज भारत तक ही सीमित नहीं है. तकनीक क्रांति और भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया एक गाँव में बदल चुकी है. सिनेमाघरों की बात अलग हैपर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जब कोई फिल्म रिलीज होती है वहाँ से कॉपी करना या डाउनलोड करना मुश्किल नहीं है. आज कई ऐसे गैर-कानूनी वेबसाइट हैं जहाँ पर विभिन्न भाषाओं की दुनिया भर की नई-पुरानी फिल्मेंडॉक्यूमेंट्रीफीचर आसानी से उपलब्ध है. ऐसे में सवाल है कि क्या पायरेसी को रोकना आज के दौर में संभव है?  न सिर्फ फिल्म बल्कि महंगी किताबें, शोध ग्रंथ, अकादमिक जर्नल भी एक बार प्रकाशित होने के बाद ऑनलाइन, ‘फ्री एक्सेस’  के लिए उपलब्ध हो जाती है. पिछले कुछ सालों से महंगी वैज्ञानिक जर्नलों की मुफ्त में उपलब्धता को लेकर दुनिया भर में बहस जारी है. नए कानून लागू करने वाले एजेंसियों को ध्यान रखना होगा कि पायरेसी के तहत वेबजह प्रताड़ना न हो. 

सवाल यह भी है कि क्या सरकार के पास देश में हर कोने में चल रहे सिनेमाघरों पर नजर रखने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं पिछले वर्षों मेंखास कर कोविड के बाद सिनेमाघरों को ओटीटी प्लेटफॉर्म से चुनौती मिल रही है. स्मार्ट फोन पर सस्ते डाटा पैक की आसान उपलब्धता से ओटीटी का कारोबार बढ़ा है. इन प्लेटफॉर्म पर कंटेंट में विविधता भी आई है. नई पीढ़ी भी मनोरंजन के लिए नए विषय-वस्तु और पटकथा की तलाश में हमेशा रहती हैजो विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होने वाली वेब सीरीज और फिल्मों की खासियत है. यहाँ प्रयोग करने की गुंजाइश है. कई प्रयोगशील फिल्मकार आज सिनेमाघरों के बदले ओटीटी को तरजीह दे रहे हैं. सवाल यह भी है कि क्या सिनेमा प्रदर्शन के हर प्लेटफॉर्म, मसलन ओटीटी पर नज़र रखना संभव है

इस विधेयक में पायरेसी के अतिरिक्त विभिन्न आयु वर्गों को लेकर जो श्रेणी बनाई गई है उस पर नजर जाती है. जहाँ मूल सिनेमैटोग्राफ कानून के तहत यू (यूनिवर्सल) और ए (एडल्ट) प्रमाणपत्र जारी करने का प्रावधान थासंशोधन विधेयक में अब विभिन्न आयु वर्गों को ध्यान में रखते हुए साततेरह और सोलह वर्ष की आयु से ऊपर के बच्चों के लिए सिनेमा सामग्री देखने-दिखाने की श्रेणी बनाई गई है. इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी लागू किया जाएगा. साथ हीकेन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड इन फिल्मों के टेलीविजन या अन्य माध्यमों पर प्रदर्शन के लिए अलग से प्रमाण पत्र भी जारी कर सकता है. प्रसंगवशसेंसर बोर्ड पहले फिल्मों को दस वर्ष के लिए प्रमाण पत्र जारी करता था. यह समयावधि अब समाप्त कर दी गई है. प्रमाण पत्र अब हमेशा के लिए मान्य होगा.

बहरहालसात साल या तेरह साल के बच्चे के लिए माता-पिता की संरक्षण में ही इस बदलाव को सुचारू ढंग से अमलीजामा पहनाया जा सकता है. जिस तरह से आज बच्चों के हाथों में मोबाइल और लैपटॉप आ गया है ये  प्रावधान बेहद जरूरी हैंलेकिन घर में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे सामूहिक रूप से ऑनलाइन कंटेंट का उपभोग करते पाए जाते हैं. हर समय उन पर नजर रखना कहीं सेंसरशिप का रूप न ले लेसाथ ही मनोवैज्ञानिक रूप से भी नजरबंदी’ बच्चों के लिए क्या सही होगा? 

Sunday, August 06, 2023

पर्दे पर मिलान कुंदेरा का साहित्य


 द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग मिलान कुंदेरा (1923-2023) की बहुचर्चित कृति है. उनकी मृत्यु के बाद साहित्य पर टीका-टिप्पणी हुई लेकिन उपन्यास पर इसी नाम से अमेरिकी फिल्मकार फिलिप कॉफमैन के निर्देशन बनी फिल्म (1988) उपेक्षित रही. मूल चेक में लिखा यह उपन्यास (1984) पहले अंग्रेजी में ही छपा था. फिल्म के बाद ही किताब की धूम दुनिया भर में मची थी.

यह उपन्यास दर्शनइतिहासराजनीतिमानवीय संबंधोंद्वंदो, अधिनायकवादी सत्ता के दुरुपयोग को 1968 में प्राग स्प्रिंग (चेकोस्लोवाकिया) की पृष्ठभूमि में अद्भुत शिल्प में रचता है. इस बहुस्तरीय किताब के कई अंश को निर्देशक ने नहीं छुआ है. मसलन फिल्म में उपन्यासकार नहीं दिखता है. फिर भी उपन्यास के मूल कथ्य और किरदारों को स्क्रीनप्ले में सुरक्षित रखा गया है. उपन्यास से अलग फिल्म एक स्वतंत्र विधा के रूप में हमें प्रभावित करती है. कई दृश्यकिरदारों के प्रभावी अभिनय और संगीत जेहन में टंगे रह जाते हैं.

टॉमास एक कुशल सर्जन है जो प्राग में रहता है. उसके कई स्त्रियों से संबंध है. तेरेजा से मुख्तसर सी मुलाकात के बाद वह शादी कर लेता है. टॉमास के संबंध हालांकि अन्य स्त्रियों से जारी रहते हैं. सबीना एक ऐसी स्वतंत्रचेता पेंटर है जिसके साथ भी टॉमास के अंतरंग रिश्ते हैं. सबीना की सहायता से तेरेजा की नौकरी एक फोटोग्राफर के रूप में लग जाती है. 1968 में जब साम्यवादी सोवियत संघ की सेना टैंकों के साथ प्राग पर धावा बोलती है, तब हम उसी के लेंस से लोमहर्षक दृश्य देखते हैं. फिल्मकार ने दस्तावेजी फुटेज के साथ बेहद खूबसूरती से टैंको के ईद-गिर्द लोगों के विरोध प्रदर्शन को चित्रित किया है. प्राग के निवासी अपने घर-बार छोड़ कर दूसरे देशों में रिफ्यूजी बनने को मजबूर हैं. फिल्म में आए घरमानवीय अस्तित्वस्वतंत्रता का सवाल मौजू है. आज जब रूसी सेना यूक्रेन में हैद अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग फिल्म प्रासंगिक हो उठी है.

उपन्यास की तरह ही फिल्म में टॉमासतेरेजासबीना देश छोड़ कर स्विट्जरलैंड चले जाते हैं. यहाँ सबीना की मुलाकात फ्रांज (प्रोफेसर) से होती है. तेरेजा स्विट्जरलैंड को स्वीकार नहीं कर पाती है और प्राग लौट आती है. सबीना फ्रांज को छोड़ कर अमेरिका चली जाती है. टॉमास को एहसास होता है कि वह तेरेजा के बिना नहीं रह सकता है और फिर पीछे-पीछे प्राग लौट आता है. लेकिन फिर भी उसके संबंध अन्य स्त्रियों के साथ बने रहते हैं. टॉमास (डेनियल डे लेविस), तेरेजा (जूलीएट बिनोचे) और सबीना (लेना ओलेन) के बीच संबंधों के तनाव, अस्तित्व के भारीपन और हल्केपन के द्वंद को बेहद खूबसूरती से फिल्म सामने लाती है.

आम तौर पर साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों से उनके रचनाकार खुश नहीं रहते हैं, कुंदेरा अपवाद नहीं थे. पर यदि हम ग्रैबिएल गार्सिया मार्केज़ या सलमान रुश्दी के उपन्यासों पर बनी फिल्मों से इस फिल्म की तुलना करें तो यह फिल्म उपन्यास की देह और आत्मा को परदे पर साकार करने में सफल रही है. उपन्यास की तरह ही फिल्म का फलसफा है: हम जीवन एक ही बार जीते हैंजिसकी तुलना न हम पिछले जीवन से कर सकते हैं न ही इसे आने वाले जीवन में बेहतर बना सकते हैं

Sunday, July 23, 2023

जीवन रचती फिल्म ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’


द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग मिलान कुंदेरा (1923-2023) की सबसे चर्चित कृति रही है. पिछले हफ्ते पेरिस में हुई उनकी मृत्यु की खबर दुनिया भर में सुर्खियों में रही. उनके साहित्य पर टीका-टिप्पणी हुई लेकिन इस बहुचर्चित उपन्यास पर इसी नाम से बनी फिल्म की चर्चा उपेक्षित रही.

वर्ष 1984 में द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग प्रकाशित होने के दो साल बाद ही फिल्म बननी शुरू हुई और वर्ष 1988 में अमेरिकी फिल्मकार फिलिप कॉफमैन के निर्देशन में रिलीज हुई थी. निस्संदेह कुंदेरा का यह उपन्यास पिछली सदी के विश्व साहित्य का गौरव है. यह उपन्यास दर्शन, इतिहास, राजनीति, मानवीय संबंधों, द्वंदो, कमजोरियों को 1968 में प्राग स्प्रिंग (चेकोस्लोवाकिया) की पृष्ठभूमि में रचता है. अधिनायकवादी सत्ता के दुरुपयोग को जिस शिल्प में सहजता से कुंदेरा इस उपन्यास के पाठकों को परोसते हैं वह अदभुत है. अंग्रेजी अनुवाद में इसे पढ़ने पर मन में हमेशा यह बोध बना रहा कि मूल चेक में पढ़ने पर इसका आस्वाद कैसा होगा?  उल्लेखनीय है कि अपने देश चेक गणराज्य से निर्वासित होकर वे वर्ष 1975 से फ्रांस में रह रहे थे. बाद में उन्होंने फ्रेंच में भी लिखना शुरु कर दिया था.

बहरहाल, उपन्यास के मुख्य चरित्र टॉमास, तेरेजा, सबीना, फ्रांज और एक कुत्ता हैं. खुद उपन्यासकार इस उपन्यास में मौजूद है और बार-बार पाठकों से रू-ब-रू होता रहता है. इस बहुस्तरीय किताब के कई अंश को फिल्म निर्देशक ने नहीं छुआ है. मसलन फिल्म में उपन्यासकार नहीं दिखता है. फिर भी उपन्यास के मूल कथ्य स्क्रीनप्ले में सुरक्षित रखा गया है.

उपन्यास से अलग एक यह फिल्म एक स्वतंत्र विधा के रूप में हमें प्रभावित करती है. कई दृश्य, किरदारों के अभिनय और संगीत जेहन में टंगे रह जाते हैं.

टॉमास जो कि एक कुशल सर्जन है, प्राग में रहता है. उसके कई स्त्रियों से संबंध है. एक मुलाकात के दौरान वह तेरेजा के संपर्क में आता है फिर दोनों शादी कर लेते हैं. हालांकि फिर भी टॉमास के संबंध अन्य स्त्रियों से जारी रहते हैं. सबीना एक ऐसी स्वतंत्रचेता पेंटर है जिसके साथ भी टॉमास के सेक्स संबंध हैं. सबीना की सहायता से तेरेजा की नौकरी एक फोटोग्राफर के रूप में लग जाती है. बाद में वर्ष 1968 में जब साम्यवादी सोवियत संघ की सेना टैंकों के साथ प्राग पर धावा बोलती है तब हम उसी के कैमरे की आँखों से लोमहर्षक दृश्य देखते हैं. फिल्मकार ने दस्तावेजी फुटेज के साथ बेहद खूबसूरती से टैंको के ईद-गिर्द लोगों के विरोध प्रदर्शन को चित्रित किया है. प्राग के निवासी अपने घर-बार छोड़ कर दूसरे देशों में रिफ्यूजी बनने को मजबूर हैं. फिल्म में आए घर, मानवीय अस्तित्व, स्वतंत्रता का सवाल मौजू है.

वर्तमान में जब एक बार फिर से रूसी सेना यूक्रेन में है, द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग फिल्म प्रासंगिक है.

उपन्यास की तरह ही फिल्म में टॉमास, तेरेजा, सबीना देश छोड़ कर स्विट्जरलैंड चले जाते हैं. यहाँ पर सबीना की मुलाकात प्रोफेसर और बुद्धिजीवी फ्रांज से होती है. तेरेजा स्विट्जरलैंड को स्वीकार नहीं कर पाती है और प्राग लौट आती है. टॉमास को एहसास होता है कि वह तेरेजा के बिना नहीं रह सकता है और फिर पीछे-पीछे प्राग लौट आता है. लेकिन उसके संबंध अन्य स्त्रियों के साथ जारी रहते हैं. टॉमास (डेनियल डे लिविस) और तेरेजा (जूलियेट बिनोचे) के बीच संबंधों के तनाव को बेहद खूबसूरती से फिल्म सामने लाती है.

 

सोवियत सेना के वर्चस्व के बाद लेखकों, बुद्धिजीवियों, राजनयिकों, पेशवर डॉक्टरों को नौकरी गंवानी पड़ी थी. टॉमास को भी खिड़कियों के साफ-सफाई का काम करना पड़ता है. तेरेजा और टॉमास शहर छोड़ कर गाँव का रूख करते हैं. उधर सबीना फ्रांज को छोड़ कर अमेरिका चली जाती है. अंत में, सबीना को, उपन्यास के तरह ही, एक पत्र के माध्यम से एक वाहन दुर्घटना में तेरेजा और टॉमास के मौत की खबर मिलती है. फिल्म का आखिरी दृश्य उस वाहन में टॉमास और तेरेजा की हंसी और बारिश के दृश्य के साथ रास्ते पर खत्म होती है.

मिलान कुंदेरा हालांकि इस फिल्म से खुश नहीं थे. वे अपवाद नहीं हैं. आम तौर पर साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों से उसके रचनाकार खुश नहीं रहते हैं. पर यदि हम ग्रैबिएल गार्सिया मार्केज़ या सलमान रुश्दी के उपन्यासों पर बनी फिल्मों से इस फिल्म की तुलना करें तो निस्संदेह यह फिल्म उपन्यास की देह और आत्मा को परदे पर साकार करने में सफल रही है.   फिल्म और उपन्यास का फलसफा एक है: हम जीवन एक ही बार जीते हैं, जिसकी तुलना न हम पिछले जीवन से कर सकते हैं न ही इसे आने वाले जीवन में बेहतर बना सकते हैं’. 

Friday, April 29, 2022

मैथिली की पहली फिल्म ‘कन्यादान’


मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:

रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज

(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)

मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (“रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)

हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे,  जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा थापर मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक द्विरागमन’ समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में फिल्म बनीजो वर्ष 1971 में कन्यादान नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं हैपर बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई.

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी यह फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं हैजैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. उस पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थीपर हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए.  ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.

हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मिथिला का सामाजिक यथार्थ इस फिल्म (उपन्यास) में व्यक्त हुआ है. विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक युवकसी सी मिश्रा की शादी एक ग्रामीण अशिक्षित युवतीबुच्चीदाई से हो जाती है. स्त्री शिक्षा की अनदेखीबेमेल विवाह और दहेज की समस्या इसके मूल में है. फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष और संवाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु ने लिखे थे. फिल्म से जुड़े कलाकार गोपालचाँद उस्मानीलता सिन्हातरुण बोस आदि की मातृभाषा मैथिली नहीं थीपर मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की इस फिल्म में एक प्रमुख भूमिका थी. शूटिंग मुंबई और मिथिला में हुई थी और फिल्म में मैथिली और हिंदी का प्रयोग हैस्त्रियों के हास-परिहाससभागाछीशादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेलागोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म के गीत-संगीत में चर्चित लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था.

जैसा कि आम तौर पर साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्मों के साथ होता रहा हैकिताब के लेखक निर्देशक के फिल्मांकन से कम ही संतुष्ट होते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि साहित्यकार यह समझ नहीं पाते कि फिल्म में बिंब की भूमिका प्रमुख होती है. जिस रूप में साहित्यकार ने कथा को अपने लेखन में चित्रित किया हैउसी रूप में फिल्म में नहीं ढाला जा सकता है. मसलन ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास का देशकाल आजादी के पहले का समाज है (जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी)जबकि फिल्म लगभग तीस साल के बाद बनी है. हरिमोहन झा ने इस फिल्म के बारे में लिखा है- ‘चित्र जेहन हम चाहैत छलहूँ तेहन नहि बनि सकल (फिल्म हम जैसा चाहते थे वैसा नहीं बन सकी)’. बहरहालउन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि इस फिल्म ने मैथिली में सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाया और ‘मधुश्रावणी’, ‘ललका पाग’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्में आगे जाकर बनी. 

जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ भी बन रही थी जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता हैतब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेनएसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एलफिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एलफिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआमें पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है. जाहिर हैबिहार में सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. आजादी के बाद मैथिली-मगही-भोजपुरी में सिनेमा निर्माण भी हुआपर बाद में जहां तक सिनेमा के संरक्षण और पोषण का सवाल हैबिहार का वृहद समाज उदासीन ही रहा है.

जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती हैभोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिनयहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.

ममता गाबय गीत’ के निर्माण से जुड़े रहे केदार नाथ चौधरी इस फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘अबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’.  इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थीकेदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? कन्यादान’ फिल्म में रेणु की छाप फिल्म के संवाद में प्रमुखता से दिखती है. जैसा कि हमने नोट किया फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. जिसे फिल्म का एक पात्र झारखंडी सी सी मिश्रा के साथ बातचीत में ‘कचराही’ (कचहरी में जिस भाषा में गवाही दी जाती हो) बोली कहते हैं. ‘मारे गए गुलफाम में भी रेणु लिखते हैं: ‘कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता हैदिल-खोल गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है किसी से.

प्रसंगवश, नवेंदु घोष और रेणु की जोड़ी एक बार फिर से ‘मैला आँचल’ उपन्यास पर बनने वाली फिल्म ‘डागदर बाबू’ में साथ आई थी. मन में सहज रूप से यह सवाल उठता है कि नवेंदु घोषजिन्होंने ‘कन्यादान’ और ‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा लिखी थीके निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म का क्या स्वरूप होताबिंबो और ध्वनियों के माध्यम से यह फिल्म मैला आँचल कृति को किस तरह नए आयाम में प्रस्तुत करती?70 के दशक के मध्य में यह फिल्म बननी शुरू हुई थीपर निर्माता और वितरक के बीच अनबन के चलते इसे अधबीच ही बंद करना पड़ा. उस दौर के लोग ‘डागदर बाबू’ की शूटिंग और फिल्म के पोस्टर को आज भी याद करते हैं. रेणु के पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय कहते हैं कि फिल्म के 13 रील तैयार हो गए थे. वे बताते हैं कि ‘मायापुरी’ फिल्म पत्रिका में ‘आने वाली फिल्म’ के सेक्शन में इस फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया था. नवेंदु घोष के पुत्र और फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष कहते हैं कि उस वक्त वे फिल्म संस्थानपुणे (एफटीआईआई) में छात्र थे और अपने पिता को असिस्ट करते थे. वे दुखी होकर कहते हैं, “बाम्बे लैब में इस फिल्म के निगेटिव को रखा गया था. 80 के दशक में बंबई में आई बाढ़ में वहाँ रखा निगेटिव खराब हो गया... अब कुछ नहीं बचा है.” शूटिंग के दिनों को याद करते हुए शुभंकर घोष नॉस्टैल्जिक हो जाते हैं. वे कहते हैं “काफी खूबसूरत कास्टिंग थी. धर्मेंद्रजया बच्चनउत्पल दत्तपद्मा खन्नाकाली बनर्जी इससे जुड़े थे. जब रेणु की जन्मभूमि फारबिसगंज में इसकी शूटिंग हो रही थी तब धर्मेंद्र-जया को देखने आने वालों का तांता लगा रहता था. कई लोग पेड़ पर चढ़े होते थे.’ फिल्म के प्रसंग में वे आर डी बर्मन के दिए संगीत का जिक्र खास तौर पर करते हैं. वे कहते हैं कि नंद कुमार मुंशी जो इस फिल्म के निर्माता एस.एच. मुंशी के पुत्र हैंकिसी तरह आरडी बर्मन के गीतों को संरक्षित करने में उनकी सहायता करें. घोष कहते हैं कि फिल्म में पंचम ने असाधारण संगीत दिया थाजो मुंशी परिवार के पास ही रह गया. कन्यादन के निर्माता भी एस.एच. मुंशी ही थे. संभव है कि कन्यादान फिल्म का प्रिंट मुंशी परिवार के पास हो. यदि ‘डागदर बाबू’ फिल्म बन के तैयार हो गई होती तो हिंदी सिनेमा की थाती होती. शुभंकर याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता नवेंदु घोष और रेणु अच्छे दोस्त थे. ‘मैला आंचल’ की पॉकेट बुक की प्रति हमेशा अपने पास रखते थे और वर्षों तक उन्होंने उसकी पटकथा पर काम किया था.

रेणु’ का जन्मशती वर्ष भी है. जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती हैवहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. रेणु के योगदान का उल्लेख नहीं होता. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा

सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- ‘सिनेमा से संवाद’ में नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ साहित्य समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पायाक्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुएउल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनींजिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहालबॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालमतमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं. 

कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदीउर्दूबंगलामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदीउर्दूबांग्लामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी. 

मराठीबांग्लाअसमियाभोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैंएक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (गाँव का घर) की खूब चर्चा हुईपर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि ‘कन्यादान’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्मों के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.

 (हंस पत्रिका, अप्रैल 2022, 68-71, में प्रकाशित)

Wednesday, March 02, 2022

एक निर्देशक की यादों में इरफान


इरफान (1967-2020) हमारे समय के एक बेहतरीन अभिनेता थे. उनके प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. हाल ही में फिल्म निर्देशक अनूप सिंह की लिखी किताब ‘इरफान: डॉयलाग्स विद द विंड’ प्रकाशित हुई है. यह किताब एक शोक गीत है, पर इसमें जीवन का राग है. अनूप सिंह ने ‘किस्सा’ (द टेल ऑफ ए लोनली घोस्ट, 2013) और ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ (2017) फिल्म में इरफान के साथ काम किया था. अनूप सिंह ने किताब की शुरुआत में लिखा है कि फरवरी 16, 2018 को उन्हें इरफान का एक मैसेज मिला: ‘बात हो सकती है? कुछ अजब ही सफर की तैयारी शुरु हो गई है. आपको बताना चाह रहा था.’  इरफान अभी सफर में थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. सिनेमा जगत को उनसे काफी उम्मीदें थी, लेकिन कैंसर की वजह से यह सफर थम गया. उनकी अभिनय यात्रा अचानक रुक गई.

अपने मित्र और अभिनेता को केंद्र में रखते हुए यह किताब स्मृतियों के सहारे लिखी गई है. उन स्मृतियों के सहारे जो इरफान के गुजरने के बाद बवंडर की तरह अनूप सिंह के मन पर छाई रही. इस किताब के माध्यम से अनूप सिंह ने एक अभिनेता की तैयारी, कार्यशैली और क्राफ्ट को हमारे सामने रखा है. इस अर्थ में यह किताब महज संस्मरण नहीं है. इस किताब से इरफान का व्यक्तित्व हमारे सामने आता है. साथ ही एक अभिनेता और निर्देशक के आपसी रिश्ते, एक-दूसरे के प्रति आदर और कला के प्रति दीवानगी से भी हम रू-ब-रू होते हैं.

उल्लेखनीय है कि जहाँ इरफान ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया था, वहीं अनूप सिंह पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान से प्रशिक्षित हैं और स्विट्जरलैंड में रहते हैं. वे मणि कौल और कुमार शहानी की परंपरा के फिल्म निर्देशक हैं. प्रसंगवश, उन्होंने कौल और शहानी के गुरु ऋत्विक घटक के ऊपर ‘एकटि नदीर नाम’ (द नेम ऑफ ए रिवर) फिल्म का निर्माण किया है, जिसे वर्ष 2006 में ओसियान फिल्म समारोह में ‘ऋत्विक घटक रेट्रोस्पेक्टिव’ में दिखाया गया था. यह फिल्म घटक को समर्पित है.

दृश्यात्मक शैली में पूरी किताब लिखी गई है और भाषा काव्यात्मक है. यह ऐसी भाषा है जो विछोह से उपजती है. इस किताब का आधा हिस्सा ‘किस्सा’ फिल्म निर्माण-निर्देशन के इर्द-गिर्द है और कुछ हिस्सों में ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ की चर्चा है. ‘किस्सा ‘काफी चर्चित रही है इसे पुरस्कार भी मिले. देश विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी पीड़ा की पृष्ठभूमि में रची गई यह कहानी एक भूत के माध्यम से कही गई है. यथार्थ और कल्पना के बीच यह फिल्म झूलती रहती है. साथ ही इस फिल्म में एक स्त्री की परवरिश एक पुरुष के रूप में है. इरफान ने अंबर सिंह का किरदार निभाया है. फिल्म के रिहर्सल के दौरान एक वाकया को याद करते हुए अनूप सिंह लिखते हैं कि किस तरह इरफान ने उन्हें वॉन गॉग की एक पेंटिंग ‘ग्रूव ऑफ ऑलिव ट्रीज,’ जो उन्होंने भेजी थी, का जिक्र करते हुए कहा था-‘ मैं इन्हीं ऑलिव वृक्षों में से एक होना चाह रहा था.’  अनूप सिंह लिखते हैं कि इस तस्वीर में प्रकृति (नेचर) और प्रारब्ध (डेस्टिनी) के विरुद्ध विद्रोह है.  इरफान इस फिल्म में  भाव-भंगिमा के सहारे अंबर सिंह की पीड़ा को सामने लाने में सफल हैं. इस किताब की भूमिका लिखते हुए अमिताभ बच्चन ने भी नोट किया है कि किस तरह ‘पीकू’ फिल्म के एक दृश्य में इरफान महज आंखों की अपनी एक भंगिमा से संवादों के पूरे  पैराग्राफ को अभिव्यक्त करने में सफल रहे. इरफान एक अभिनेता के रूप में अपने समय और स्थान के प्रति हमेशा सजग रहते थे.

वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा जैसे मंजे कलाकारों के साथ काम करते हुए ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया है, वह अविस्मरणीय है. आश्चर्य नहीं कि अपने श्रद्धांजलि लेख में नसीरुद्दीन शाह ने लिखा था कि ‘इरफान ऐसे अभिनेता हैं जिनसे मुझे इर्ष्या होती थी’.  इरफान ने अभिनय की ऊंचाई हासिल करने के लिए काफी मेहनत की जिसकी चर्चा नहीं होती. जाहिर है, जयपुर से दिल्ली और फिर बॉलीवुड-हॉलीवुड की उनकी यात्रा संघर्षपूर्ण थी. एक बार वे बोरिया-बिस्तर समेट कर जयपुर लौटने की तैयारी कर चुके थे. फिल्म निर्माण बड़ी पूंजी आधारित है, इसे वे बखूबी जानते थे पर कला के प्रति उनमें दीवानगी थी. ‘किस्सा’ के निर्माण के दौरान उन्होंने अनूप सिंह से कहा था- ‘अनूप साहब, प्रोड्यूसर तो फाइनली फिल्म बेचेगा. लेकिन जो लोग हैं वो तो आपकी फिल्म देखेंगे. आप बस अपनी फिल्म बनाइए.’ उनके जीवन और कला के बीच कोई फांक नहीं था.

किताब के आखिर में जो अस्पताल का दृश्य है, मौत से पहले की बातचीत है, वह बेहद मार्मिक है. एक कलाकार विभिन्न किरदारों को जीते हुए फिल्मों में, नाटकों में कई बार मरता है पर वास्तविक जीवन में मौत को सब झूठलाते हैं. इरफान अनूप सिंह से पूछते हैं:  मैं कहां मरूंगा?  दर्द के अलावे मेरे साथ कौन होगा?’ बिस्तर पर लेटे इरफान के साथ अनूप सिंह की गुफ्तगू है: ‘हम जो साथ मिल कर फिल्म बनाने वाले हैं उनमें एक-दो में मैं मरता हूँ, नहीं? ये पोस्चर अच्छा है, नहीं? आप कैमरा कहां लगाएँगे? साहिर लुधियानवी ने ठीक ही लिखा है: ‘मौत कितनी भी संगदिल हो, मगर जिंदगी से तो मेहरबां होगी’. इस किताब को पढ़ते यह अहसास हमेशा बना रहता है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, February 27, 2022

धुंध में लिपटा वर्तमान और भविष्य


कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन रहता है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालम, मराठी, असमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. इसी कड़ी में 22वें मुंबई फिल्म समारोह में पिछले दिनों दिखाई गई मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ है. इसे अचल मिश्र ने निर्देशित किया है. इसी समारोह में वर्ष 2019 में इनकी बहुचर्चित मैथिली फिल्म ‘गामक घर (गाँव का घर)’ प्रदर्शित की गई थी. इस बार का समारोह ऑनलाइन आयोजित किया जा रहा है.
‘धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज है, जो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना है- पर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैं, पर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने रेलवे में भर्ती को लेकर ही उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.
इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता है, तब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’
जहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर था, वहीं यह पूरी फिल्म दरभंगा में अवस्थित है. यहाँ हराही पोखर है, दरभंगा राज का किला है, हवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता है, पर कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी है, जो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र स्वीकारते भी हैं कि उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय है, जहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं.

(प्रभात खबर, 27 फरवरी 2022)

Thursday, January 27, 2022

मैथिली सिनेमा के धरोहर की अनदेखी

फणि मजूमदार (साभार फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन)


पिछले दिनों अचानक
से यूट्यूब पर मैथिली की पहली फिल्म कन्यादानदिखी. वर्ष 1965 में बनी यह फिल्म अप्राप्य थी. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. उस पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थी, पर हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था.

उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं है, जैसा कि लोग बताते रहे हैं. फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा के उपन्यास-कन्यादानपर आधारित है जिसमें बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में कन्यादानफिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म नैहर भेल मोर सासुरभी बन रही थी जो ममता गाबय गीतके नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं.

कन्यादानफिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ रेणुने लिखा था. तीसरी कसमफिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती है, वहीं कन्यादानफिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. प्रसंगवश यह रेणु की जन्मशती वर्ष भी है.

सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- सिनेमा से संवादमें ठीक ही नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पाया? क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुए? उल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनीं, जिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. नेशनल फिल्म आर्काइवके निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइजकहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहाल, बॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं.

कन्यादानफिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र अमरकी भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथामें उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म कन्यादानका महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.

मराठी, बांग्ला, असमिया, भोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैं, एक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सच तो यह है कि सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता भी क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म गामक घरकी खूब चर्चा हुई, पर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि मैथिली सिनेमा के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)