कोरोना महामारी के दौरान मलयालम सिनेमा प्रेमियों की संख्या बढ़ी है. हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं में सब-टाइटल के साथ ओटीटी प्लेटफॉर्म इन फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मुफीद साबित हुआ है. ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘मालिक’ आदि फिल्मों को दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया. युवा निर्देशकों-अभिनेताओं के साथ-साथ मलयालम के चर्चित अभिनेता ममूटी की एक फिल्म ‘वन’ भी इन दिनों ओटीटी पर दिखाई जा रही है, जिसमें वे मुख्यमंत्री के किरदार में नजर आते हैं.
Sunday, September 19, 2021
स्टारडम के तामझाम से परे अभिनेता
कोरोना महामारी के दौरान मलयालम सिनेमा प्रेमियों की संख्या बढ़ी है. हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं में सब-टाइटल के साथ ओटीटी प्लेटफॉर्म इन फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मुफीद साबित हुआ है. ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘मालिक’ आदि फिल्मों को दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया. युवा निर्देशकों-अभिनेताओं के साथ-साथ मलयालम के चर्चित अभिनेता ममूटी की एक फिल्म ‘वन’ भी इन दिनों ओटीटी पर दिखाई जा रही है, जिसमें वे मुख्यमंत्री के किरदार में नजर आते हैं.
Sunday, July 25, 2021
भारतीय भाषाओं में मलयालम सिनेमा का बुलंद वर्तमान
शायद ही कोई इससे इंकार करे कि हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की हिंदी मीडिया में बहुत कम चर्चा होती हैं. सवाल है कि क्यों हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं, जबकि सिनेमा के विकास में विभिन्न भाषा-भाषी समाज की ऐतिहासिक भूमिका रही है.
सच तो यह है कि भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. तकनीक के विस्तार के साथ आए ओटीटी प्लेटफॉर्म के मार्फत क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों को भी देश-विदेश के स्तर पर आज दर्शक देख व सराह रहे हैं. ऐसी फिल्में हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई मलयालम फिल्में हैं.
महामारी के दौरान मलयालम में रिलीज हुई ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘मालिक’ आदि मलयालम फिल्मों की चर्चा देश-विदेश में हो रही है. लॉकडाउन के बीच मध्यवर्गीय दर्शकों ने इन फिल्मों को हाथों-हाथ लिया. ‘जोजी’ और ‘आरकारियम’ फिल्म में तो ‘लॉकडाउन’ और ‘मास्क’ के रूपक का कथ्य में खूबसूरती से निरूपण भी हुआ है. पिछले दिनों ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ के निर्देशक जियो बेबी ने एक बातचीत के दौरान मुझे बताया कि इस फिल्म को अमेजन और नेटफ्लिक्स ने पहले अस्वीकार कर दिया था. उन्होंने इसे ‘नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था. जब फिल्म की चर्चा होने लगी, अच्छे रिव्यू आने लगे तब इसे अमेजन प्राइम ने रिलीज किया. इसी तरह ‘आरकारियम’ फिल्म पहले सिनेमा हॉल में रिलीज हुई थी, पर महामारी के दौरान ओटीटी पर फिल्म को व्यापक दर्शक वर्ग मिला. मलयालम सिनेमा की इस नई धारा की चर्चा प्रतिष्ठित विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भी हो रही है.
सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन, के जी जार्ज, जी अरविंदन, शाजी करुण ने संवृद्ध किया था. उनकी फिल्मों ने मलयालम सिनेमा को देश-दुनिया में स्थापित किया, पर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. पिछले एक दशक में बनी मलयालम फिल्मों को देखकर हम कह सकते हैं कि मलयालम सिनेमा में यह एक नए युग की शुरुआत है जहाँ पापुलर और समांतर की रेखा मिट रही है. कम लागत से बनने वाली इन फिल्मों में इन विषय-वस्तु और सहज अभिनय पर जोर है. यही कारण है कि फाहाद फासिल जैसे अभिनेता (कुंबलंगी नाइट्स, जोजी, मालिक) की खूब प्रशंसा हो रही है. महेश नारायणन निर्देशत मालिक इस फिल्म में सुलेमान के ‘एंटी होरी’ के किरदार को जिस खूबसूरती से फासिल ने निभाया है लोग इसकी तुलना ‘गॉड फादर’ और ‘नायकन’ फिल्म से कर रहे हैं. मलयालम में बनने वाली अन्य फिल्मों की तरह यह फिल्म भी केरल के समाज में रची-बसी है. इस फिल्म में राजनीतिक स्वर भी मुखर रूप से व्यक्त हुआ है, जो बॉलीवुड में इन दिनों मुश्किल से सुनाई पड़ता है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले महेश नारायणन की फाहाद फासिल और पार्वती थिरूवोथु अभिनीत ‘टेक ऑफ’ (2017) फिल्म ने भी खूब सुर्खियाँ बटोरी थी.
(प्रभात खबर, 25.07.2021)
Saturday, June 05, 2021
सिनेमा को वापस हॉल में आना ही होगा: अडूर गोपालकृष्णन
दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठा दुनिया भर में है। प्रख्यात फिल्म डायरेक्टर सत्यजित रे उनका काम बहुत पसंद करते थे। यह सत्यजित रे की जन्मशती का साल है। इस मौके पर अडूर गोपालकृष्णन से उनकी कलायात्रा पर अरविंद दास ने बात की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:
स्वयंवरम (1972) से सुखायंतम (2019) की लंबी सिनेमाई
यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?
आम तौर पर मैं पीछे
मुड़ कर नहीं देखता। फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे से पास करने के सात साल बाद मैंने पहली फिल्म बनाई और उसके बाद एक अंतराल
रहा। असल में पूरे फिल्मी करियर में मेरी फिल्मों के बीच एक लंबा अंतराल रहा है। 55 साल के दौरान मैंने
12 फिल्में बनाई है।
मैं इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं रहा। जब फिल्म बन रही होती थी, तब इनसाइडर रहता था
और जब नहीं बन रही होती थी, तब आउटसाइडर। लोग पूछते हैं कि आपने इतनी कम फिल्में क्यों बनाई, जबकि इंडस्ट्री में
इसी दौरान लोगों ने पचास-साठ फिल्में बना डालीं। सत्यजीत रे ने भी मुझसे एक बार
कहा था कि मुझे कम से कम एक फिल्म हर साल बनानी चाहिए, वह मेरा काम पसंद
करते थे। मैंने उनसे कहा था कि मेरा भी यह सपना है। पर मैं जिस तरह के विचार को
लेकर आगे बढ़ता हूं, यह हो नहीं पाता। एक विचार पर काम करने और उससे बाहर निकलने दोनों में मुझे
काफी वक्त लगता है।
पांच साल लग जाते
हैं एक फिल्म को परदे पर लाने में?
हां, कभी-कभी तो सात-आठ
साल। पर ऐसा मैं इरादतन नहीं करता। असल में इस इंडस्ट्री में सारी चीजें हमारे
खिलाफ काम कर रही होती हैं। यहां वेरायटी एंटरटेनमेंट (गीत-नृत्य) पर जोर रहता है, जबकि मेरे यहां
सीधी-सादी और आडंबरहीन चीजें हैं जो दर्शकों के जीवन, मेरे जीवन, समाज से जुड़ी हैं।
सौभाग्य से मेरी फिल्मों को हमेशा दर्शक मिले हैं और फिल्में रिलीज हुई हैं। कभी
दर्शकों ने इसे रिजेक्ट नहीं किया। बड़े प्रॉडक्शन की फिल्मों की तरह ही इसका
प्रचार-प्रसार हुआ। मेरे दर्शक केरल के बाहर देश-विदेश में फैले हैं। मैंने कोई
समझौता किसी भी फिल्म में नहीं किया। जो भी मैंने बनाया उस पर मेरा पूरा नियंत्रण
रहा। मेरे लिए खुश होना ज्यादा जरूरी है। मुझे किसी प्रकार का खेद नहीं है। हर
फिल्म मेरे लिए प्रिय है।
सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और
मृणाल सेन के साथ आपके कैसे संबंध थे? इन तीनों निर्देशकों की कौन सी फिल्म आपको सबसे ज्यादा पसंद
आई?
सत्यजीत रे मेरे
गुरु समान थे। मेरे काम को लेकर हमेशा उन्होंने अच्छी बातें कहीं। ऋत्विक घटक के
साथ मेरे निजी संबंध नहीं थे, हालांकि वे मेरे शिक्षक रहे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उनकी वजह से फिल्म
इंस्टिट्यूट में सिनेमा के बारे में काफी कुछ पढ़ा। वे गजब के फिल्मकार थे। मृणाल
सेन मेरे लिए बड़े भाई जैसे थे। रे और सेन के साथ मेरे संबंध प्रेम से भरे थे। मैं
खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि भारतीय सिनेमा की इन तीन विभूतियों को मैंने
देखा-जाना। रे की 'अपू त्रयी', 'अपराजितो' मुझे खास तौर पर
अच्छी लगी। मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और ऋत्विक घटक की 'मेघे ढाका तारा' मेरी पसंदीदा फिल्में हैं।
आपने एक जगह लिखा
है कि 'सिनेमा मेरे लिए
महज कहानी को दोहराना नहीं है'। आपके लिए सिनेमा में कौन का तत्व सबसे अहम है?
फिल्म, असल में, मेरे लिए दर्शकों
के साथ एक अनुभव साझा करना है। और ये अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए। मेरी
फिल्में मेरी संस्कृति को दिखाती है। मैं अपने समाज का हिस्सा हूं, कोई आउडसाइडर नहीं।
फिल्मकार को अनूठे रूप से नई चीजें कहनी होती हैं। मैं कभी खुद को नहीं दोहराता।
यह बोरिंग है। सिनेमा का विकास एक महान कलात्मक चीज को हासिल करने की इच्छा के
फलस्वरूप हुआ है। हम आस-पास घट रही घटना से खुद को अनभिज्ञ नहीं रख सकते हैं।
स्वतंत्रता/मुक्ति
का सवाल आपकी फिल्में स्वयंवरम, एलिप्पथाएम, मतिलुकल में है। जबकि फिल्म अनंतरम की रचना प्रक्रिया जटिल
है। यहां यथार्थ और कल्पना की रेखा गड्डमड्ड है...
'अनंतरम' रचने की प्रक्रिया
के बारे में बताऊं। सवाल है कि हम कैसे रचें? शुरुआत में आप अपने अनुभव के ऊपर काम करते हैं। यदि आप कलात्मक व्यक्ति हैं तो
उस अनुभव को आप किसी रूप में व्यवस्थित करते हैं और फिर यहां कल्पना की भूमिका आती
है। सो सारा कुछ यहां मिल जाता है। अनुभव जस के तस रूप में नहीं आता। उसमें भी
बदलाव होता है। हर इंसान के अंदर इंट्रोवर्ट और एक्सट्रोवर्ट मौजूद रहता है। इस
फिल्म में 'अजयन' एक ऐसा ही चरित्र
है। यदि आप कहानी देखेंगे तो यहां कोई विभेद नहीं है, यह एक-दूसरे का
पूरक है। दर्शक गैप्स को खुद भर लेते हैं और कहानी गढ़ते हैं।
हाल में रिलीज हुई
मलायम फिल्म 'द ग्रेट इंडियन किचन' देखते हुए मुझे सामंती व्यवस्था के ऊपर बनी आपकी फिल्म
एलिप्पथाएम की याद आई...
'एलिप्पथाएम' की शुरुआत मेरे मन
में आए इस विचार से हुई कि हमारे आस-पास जो चीजें हैं उस पर कोई प्रतिक्रिया क्यों
नहीं व्यक्त करते हैं। फिर मुझे खुद ही जवाब मिल गया कि यदि हम प्रतिक्रिया देना
शुरु करें तो हमारे लिए यह असुविधाजनक होगा। और फिर हम मानने लगते हैं कि कोई
दिक्कत नहीं है, ये चीजें मौजूद ही
नहीं हैं। 'उन्नी' का चरित्र ऐसा ही
है। यह केरल समाज में सामंती संयुक्त परिवार के विघटन के दौर की कहानी है, पचास-साठ के दशक का
देश काल है। उन्नी अपने आस-पास की घटना से विमुख है और खुद में सिमटा पड़ा है।
कोविड के दौर में
सिनेमा का क्या भविष्य आप देखते हैं?
अभी लोग लैपटॉप, टीवी, मोबाइल पर सिनेमा
देख रहे हैं, पर सिनेमा को वापस
हॉल में आना ही होगा। यह एक सामूहिक अनुभव है। छोटे परदे पर आप दृश्य, ध्वनि की बारीकियों
से वंचित हो जाते हैं। घर में बहुत तरह के व्यवधान भी मौजूद रहते हैं।
(नवभारत टाइम्स, 5.6.21)
Monday, April 19, 2021
द ग्रेट इंडियन किचन: जियो बेबी से बातचीत
मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ (अमेजन प्राइम) की इन दिनों काफी चर्चा हो रही है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा जोड़ा है. धर्मसत्ता, पितृसत्ता और खास कर इसके माध्यम से स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के माध्यम से प्रभावी ढंग से इस फिल्म में निरूपित किया गया है. प्रस्तुत है फिल्म के निर्देशक जियो बेबी के साथ हुई लेखक-पत्रकार अरविंद दास की बातचीत के कुछ अंश:
Friday, April 16, 2021
मलयालम सिनेमा का समकालीन स्वर
लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म ‘जलीकट्टू’ को जब पिछले साल भारत की तरफ से आधिकारिक रूप से ऑस्कर के लिए भेजा गया तब सबकी निगाह समकालीन मलयालम फिल्मों की ओर गई. इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या ‘जलीकट्टू’ फिल्म में ऑस्कर जीतने का माद्दा था, हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में विभिन्न भाषाओं, इसमें हिंदी में बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में भी शामिल हैं, में बनने वाली फिल्मों में मलयालम फिल्मों का आस्वाद सबसे अलग है. प्रसंगवश, वर्ष 2011 में सलीम अहमद निर्देशित मलयालम फिल्म ‘एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी ऑस्कर के लिए भेजा गया था.
पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज
हुई जियो बेबी की ‘द ग्रेट
इंडियन किचन’ और दिलेश
पोथान की ‘जोजी’ फिल्म ने एक बार फिर से मलयालम फिल्मों की
केंद्रीयता को साबित किया है. सोशल मीडिया पर इन फिल्मों को लेकर काफी चर्चा है. ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ की शुरुआत ‘द ग्रेट इंडियन ड्रामा’ यानी शादी से होती है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा
जोड़ा है. घर-परिवार के सदस्यों के रिश्ते,
धर्मसत्ता, पितृसत्ता और
खास कर स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के
माध्यम से खूबसूरती से निरुपित किया गया है. फिल्म में अपनी इच्छाओं, डांस के प्रति अपने लगाव को दबा कर अदाकार
निमिषा सजयन सुबह-दोपहर-शाम घर के पुरुषों की ‘क्षुधा’
शांत करने की फिक्र में रहती है,
पर उसकी फिक्र किसे है! पुरुष भोजनभट्ट हैं. अखबार पढ़ने में, योग करने में मशगूल हैं, वहीं स्त्री नमक-तेल-हल्दी की चिंता में
आकंठ डूबी हुई है.
इस फिल्म को देखते हुए मुझे हिंदी के कवि
रघुवीर सहाय की कविता ‘पढ़िए गीता’ की याद आती रही: पढ़िए गीता/ बनिए सीता/
फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए/ होंय
कँटीली/आँखें गीली/लकड़ी सीली,
तबियत ढीली/घर की सबसे बड़ी पतीली/ भरकर भात पसाइए. हालांकि फिल्म में निमिषा
सजयन ने जिस किरदार को निभाया है वह न गीता पढ़ती है, न सीता ही बनती है. एक विद्रोही चेतना से
वह लैस है. यह चेतना फिल्म के आखिर में दिखाई पड़ती है जिसे एक ‘डांस स्वीकेंस’ के माध्यम से निर्देशक ने फिल्माया है. एक
तरह से यह फिल्म भारतीय समाज में व्याप्त सामंती प्रवृत्तियों का नकार है. यह
फिल्म भले ही मलायली समाज में रची-बसी हो पर अपनी व्याप्ति में अखिल भारतीय है और
यही वजह है कि निर्देशक ने पात्रों को कोई नाम नहीं दिया है.
जहाँ ‘द ग्रेट इंडियन किचन’
को सुविधा के लिए हम विचार प्रधान फिल्म कह सकते हैं, वहीं 'जोजी' का कथानक
शेक्सपियर के चर्चित नाटक ‘मैकबेथ’ पर आधारित है. इस फिल्म का परिवेश केरल के
एक संवृद्ध परिवार के इर्द-गिर्द बुना गया है. इस फिल्म में भी सामंती पितृसत्ता
की वजह से घुटन का चित्रण है. घर का मुखिया इस सत्ता का प्रतीक है. इस सत्ता का
दंश पुरुष और स्त्री दोनों भोगते हैं,
लेकिन प्रतिकार के लिए संवाद की गुंजाइश नहीं है और जिसकी परिणति हिंसा में
होती है. फिल्म की पटकथा, चरित्र-चित्रण
और सिनेमाटोग्राफी के माध्यम से निर्देशक ने मैकबेथ की कथा को भारतीय परिवेश में
कुशलता से समाहित किया है. जोजी का किरदार मलयालम फिल्मों के चर्चित अभिनेता फहद
फासिल ने जिस सहजता से निभाया है वह अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. साथ ही अन्य
कलाकारों की भूमिका भी उल्लेखनीय है.
इस फिल्म में निर्देशक ने जिस तरह
चरित्रों को बुना है कि उसे हम सफेद-स्याह से खाने में रख कर नहीं देख सकते. क्या
जोजी परिस्थितियों की वजह से अपराध में संलग्न होता है या यह उसके चरित्र के
अनुकूल है? क्या यही सवाल
स्त्री पात्र ‘बिन्सी’ के बारे में नहीं पूछा जा सकता है? फिल्म में अंतर्मन के भावों और अपराध के
बाद बाह्य जगत की टीका-टिप्पणियों को हास्य के माध्यम से व्यक्त किया गया है.
प्रसंगवश, विशाल
भारद्वाज ने मैकबेथ को आधार बना कर मुंबई के माफिया संसार का चित्रण ‘मकबूल’ (2003) फिल्म में किया था,
पर पोथान कम बजट में बिना किसी तामझाम के एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव हमारे
सामने परोसते हैं. यह क्षेत्रीय सिनेमा,
खास कर मलायलम फिल्मों की,
एक विशेषता है, जो पिछले दशक
में देखने को मिली है. बात ‘कुंबलंगी
नाइट्स’ की हो या ‘अंगमाली डायरीज’ की.
सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की
धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन, शाजी करुण की फिल्मों ने संवृद्ध किया था.
उनकी फिल्मों ने मलयालम फिल्मों को देश-दुनिया में स्थापित किया, पर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में
मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. हालांकि अस्सीवें वर्ष में भी दादा साहब फाल्के पुरस्कार
से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन आज भी सक्रिय हैं. पिछले कुछ वर्षों में मलयालम
सिनेमा में कथ्य और तकनीकी के स्तर पर युवा फिल्मकार काफी प्रयोग कर रहे हैं और
उन्हें सफलता भी मिल रही है. ‘जल्लीकट्टू’ भले ही ऑस्कर लाने में सफल नहीं हुई, पर समकालीन मलयालम फिल्मों को देखने से
काफी उम्मीदें बंधती हैं. क्या इस दशक में भारतीय फिल्मों के लिए ऑस्कर का रास्ता
मलयालम फिल्मों से होकर जाएगा?
क्या इसमें उसे सफलता मिलेगी?
यह सवाल भविष्य के गर्भ में है.
(नेटवर्क न्यूज18 हिंदी के लिए)