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Sunday, September 19, 2021

स्टारडम के तामझाम से परे अभिनेता


कोरोना महामारी के दौरान मलयालम सिनेमा प्रेमियों की संख्या बढ़ी है. हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं में सब-टाइटल के साथ ओटीटी प्लेटफॉर्म इन फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मुफीद साबित हुआ है. ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘मालिक’ आदि फिल्मों को दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया. युवा निर्देशकों-अभिनेताओं के साथ-साथ मलयालम के चर्चित अभिनेता ममूटी की एक फिल्म ‘वन’ भी इन दिनों ओटीटी पर दिखाई जा रही है, जिसमें वे मुख्यमंत्री के किरदार में नजर आते हैं.

पिछले दिनों ममूटी ने जीवन के सत्तर और फिल्मी यात्रा के पचास वर्ष पूरे किए हैं. एक बार फिर से उनकी फिल्मों की चर्चा हो रही है. इन पचास वर्षों में मलयालम सिनेमा ने कई उतार-चढ़ाव देखे पर ममूटी की मकबूलियत बरकरार रही. उन्होंने करीब चार सौ फिल्मों में अभिनय किया है, जिसमें मलयालम के अतिरिक्त तेलगू, कन्नड़ आदि भाषाओं में बनी फिल्में भी शामिल हैं.
वे हिंदी फिल्म ‘धरती पुत्र’ (1993) में नजर आए थे, लेकिन हिंदी सिनेमा उद्योग का यह दुर्भाग्य है कि मुहम्मद कुट्टी उर्फ ममूटी की प्रतिभा का वह समुचित इस्तेमाल नहीं कर सका. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित जब्बार पटेल निर्देशित बायोपिक ‘डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर’ (1998) का निर्माण हालांकि अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषा में हुआ, जिसमें अंबेडकर की भूमिका में ममूटी आज भी लोगों के जेहन में हैं. अंबेडकर की जीवन यात्रा, सिद्धांत और संघर्ष को समझने के लिए इससे बेहतर फिल्म मौजूद नहीं है. अंबेडकर के किरदार को उन्होंने जीवंत बना दिया है. इस फिल्म में सहज अभिनय के लिए ममूटी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. वे राजनीतिक रूप से एक सचेत अभिनेता हैं.
ममूटी के अभिनय की विशेषता यह है कि फिल्मी दुनिया के दो पाटों-देसी और मार्गी, दोनों को उन्होंने एक साथ साधा है. एक तरफ व्यावसायिक सिनेमा में स्टार की हैसियत से उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही, वहीं दूसरी तरफ सधे, भाव-पूर्ण अभिनय से उन्होंने कला फिल्मों में अपनी काबिलियत को साबित किया. ‘ओरु वडक्कन वीरगाथा’, ‘महायानम’ और ‘किंग’ जैसी फिल्मों के साथ ‘मेला’, ‘यवनिका’, ‘अनंतरम’, ‘विधेयन’ और ‘मतिलुकल’ जैसी कलात्मक फिल्में भी उनके खाते में है. यहां नोट करना उचित होगा कि प्रयोग करने, नए निर्देशकों के साथ काम करने में उन्हें गुरेज नहीं है.
विभिन्न किरदारों को जिस तरह से वे आत्मसात करते हैं उसे देख कर उनके अभिनय के फैलाव, क्राफ्ट पर उनकी पकड़ का पता चलता है जबकि उन्होंने अभिनय का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया है. अडूर गोपालकृष्णन की फिल्म ‘विधेयन’ में निरंकुश जमींदार भाष्कर पाटेलर और ‘मथिलकुल’ में लेखक बशीर के किरदार को उनसे बेहतर शायद ही कोई निभा पाता. दोनों ही फिल्मों में अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
बीस वर्ष पहले बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में ममूटी ने स्वीकार किया था कि अस्सी के दशक में एक ऐसा भी दौर आया जब वे खुद की प्रतिभा पर संदेह करने लगे थे और फिल्मी करियर से हट कर कुछ और करने की सोचने लगे थे. एक जुझारू अभिनेता की तरह उन्होंने खुद को पुनर्नवा किया. अडूर गोपालकृष्णन ठीक ही उन्हें एक ऐसा साहसी अभिनेता कहते हैं ‘जिसमें स्टार के ताम-झाम से आगे जाने की इच्छा रही है.’

(प्रभात खबर 19.09.21)

Sunday, July 25, 2021

भारतीय भाषाओं में मलयालम सिनेमा का बुलंद वर्तमान

शायद ही कोई इससे इंकार करे कि हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की हिंदी मीडिया में बहुत कम चर्चा होती हैं. सवाल है कि क्यों हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं जबकि सिनेमा के विकास में विभिन्न भाषा-भाषी समाज की  ऐतिहासिक भूमिका रही है. 

सच तो यह है कि भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. तकनीक के विस्तार के साथ आए ओटीटी प्लेटफॉर्म के मार्फत  क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों को भी देश-विदेश के स्तर पर आज दर्शक देख व सराह रहे हैं. ऐसी फिल्में हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई मलयालम फिल्में हैं.

महामारी के दौरान मलयालम में रिलीज हुई द ग्रेट इंडियन किचनजोजीआरकारियममालिक आदि मलयालम फिल्मों की चर्चा देश-विदेश में हो रही है. लॉकडाउन के बीच मध्यवर्गीय दर्शकों ने इन फिल्मों को हाथों-हाथ लिया. जोजी और आरकारियम फिल्म में तो लॉकडाउन और मास्क’ के रूपक का कथ्य में खूबसूरती से निरूपण भी हुआ है.  पिछले दिनों द ग्रेट इंडियन किचन के निर्देशक जियो बेबी ने एक बातचीत के दौरान मुझे बताया कि इस फिल्म को अमेजन और नेटफ्लिक्स ने पहले अस्वीकार कर दिया था. उन्होंने इसे नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था. जब फिल्म की चर्चा होने लगीअच्छे रिव्यू आने लगे तब इसे अमेजन प्राइम ने रिलीज किया. इसी तरह आरकारियम फिल्म पहले सिनेमा हॉल में रिलीज हुई थी, पर महामारी के दौरान ओटीटी पर फिल्म को व्यापक दर्शक वर्ग मिला. मलयालम सिनेमा की इस नई धारा की चर्चा प्रतिष्ठित विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भी हो रही है.

सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णनके जी जार्ज, जी अरविंदन, शाजी करुण ने संवृद्ध किया था. उनकी फिल्मों ने मलयालम सिनेमा को देश-दुनिया में स्थापित कियापर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. पिछले एक दशक में बनी मलयालम फिल्मों को देखकर हम कह सकते हैं कि मलयालम सिनेमा में यह एक नए युग की शुरुआत है जहाँ पापुलर और समांतर की रेखा मिट रही है. कम लागत से बनने वाली इन फिल्मों में इन विषय-वस्तु  और सहज अभिनय पर जोर है. यही कारण है कि फाहाद फासिल जैसे अभिनेता (कुंबलंगी नाइट्स, जोजी, मालिक) की खूब प्रशंसा हो रही है. महेश नारायणन निर्देशत मालिक इस फिल्म में सुलेमान के एंटी होरी के किरदार को जिस खूबसूरती से फासिल ने निभाया है लोग इसकी तुलना गॉड फादर और नायकन फिल्म से कर रहे हैं. मलयालम में बनने वाली अन्य फिल्मों की तरह यह फिल्म भी केरल के समाज में रची-बसी है. इस फिल्म में राजनीतिक स्वर भी मुखर रूप से व्यक्त हुआ है, जो बॉलीवुड में इन दिनों मुश्किल से सुनाई पड़ता  है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले महेश नारायणन की फाहाद फासिल और पार्वती थिरूवोथु अभिनीत टेक ऑफ’ (2017) फिल्म ने भी खूब सुर्खियाँ बटोरी थी.  

(प्रभात खबर, 25.07.2021)


Saturday, June 05, 2021

सिनेमा को वापस हॉल में आना ही होगा: अडूर गोपालकृष्णन

 


दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठा दुनिया भर में है। प्रख्यात फिल्म डायरेक्टर सत्यजित रे उनका काम बहुत पसंद करते थे। यह सत्यजित रे की जन्मशती का साल है। इस मौके पर अडूर गोपालकृष्णन से उनकी कलायात्रा पर अरविंद दास ने बात की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:

स्वयंवरम (1972) से सुखायंतम (2019) की लंबी सिनेमाई यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?
आम तौर पर मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखता। फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे से पास करने के सात साल बाद मैंने पहली फिल्म बनाई और उसके बाद एक अंतराल रहा। असल में पूरे फिल्मी करियर में मेरी फिल्मों के बीच एक लंबा अंतराल रहा है। 55 साल के दौरान मैंने 12 फिल्में बनाई है। मैं इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं रहा। जब फिल्म बन रही होती थी, तब इनसाइडर रहता था और जब नहीं बन रही होती थी, तब आउटसाइडर। लोग पूछते हैं कि आपने इतनी कम फिल्में क्यों बनाई, जबकि इंडस्ट्री में इसी दौरान लोगों ने पचास-साठ फिल्में बना डालीं। सत्यजीत रे ने भी मुझसे एक बार कहा था कि मुझे कम से कम एक फिल्म हर साल बनानी चाहिए, वह मेरा काम पसंद करते थे। मैंने उनसे कहा था कि मेरा भी यह सपना है। पर मैं जिस तरह के विचार को लेकर आगे बढ़ता हूं, यह हो नहीं पाता। एक विचार पर काम करने और उससे बाहर निकलने दोनों में मुझे काफी वक्त लगता है।

पांच साल लग जाते हैं एक फिल्म को परदे पर लाने में?
हां, कभी-कभी तो सात-आठ साल। पर ऐसा मैं इरादतन नहीं करता। असल में इस इंडस्ट्री में सारी चीजें हमारे खिलाफ काम कर रही होती हैं। यहां वेरायटी एंटरटेनमेंट (गीत-नृत्य) पर जोर रहता है, जबकि मेरे यहां सीधी-सादी और आडंबरहीन चीजें हैं जो दर्शकों के जीवन, मेरे जीवन, समाज से जुड़ी हैं। सौभाग्य से मेरी फिल्मों को हमेशा दर्शक मिले हैं और फिल्में रिलीज हुई हैं। कभी दर्शकों ने इसे रिजेक्ट नहीं किया। बड़े प्रॉडक्शन की फिल्मों की तरह ही इसका प्रचार-प्रसार हुआ। मेरे दर्शक केरल के बाहर देश-विदेश में फैले हैं। मैंने कोई समझौता किसी भी फिल्म में नहीं किया। जो भी मैंने बनाया उस पर मेरा पूरा नियंत्रण रहा। मेरे लिए खुश होना ज्यादा जरूरी है। मुझे किसी प्रकार का खेद नहीं है। हर फिल्म मेरे लिए प्रिय है।



सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन के साथ आपके कैसे संबंध थे? इन तीनों निर्देशकों की कौन सी फिल्म आपको सबसे ज्यादा पसंद आई?
सत्यजीत रे मेरे गुरु समान थे। मेरे काम को लेकर हमेशा उन्होंने अच्छी बातें कहीं। ऋत्विक घटक के साथ मेरे निजी संबंध नहीं थे, हालांकि वे मेरे शिक्षक रहे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उनकी वजह से फिल्म इंस्टिट्यूट में सिनेमा के बारे में काफी कुछ पढ़ा। वे गजब के फिल्मकार थे। मृणाल सेन मेरे लिए बड़े भाई जैसे थे। रे और सेन के साथ मेरे संबंध प्रेम से भरे थे। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि भारतीय सिनेमा की इन तीन विभूतियों को मैंने देखा-जाना। रे की 'अपू त्रयी', 'अपराजितो' मुझे खास तौर पर अच्छी लगी। मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और ऋत्विक घटक की 'मेघे ढाका तारा' मेरी पसंदीदा फिल्में हैं।

आपने एक जगह लिखा है कि 'सिनेमा मेरे लिए महज कहानी को दोहराना नहीं है'। आपके लिए सिनेमा में कौन का तत्व सबसे अहम है?
फिल्म, असल में, मेरे लिए दर्शकों के साथ एक अनुभव साझा करना है। और ये अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए। मेरी फिल्में मेरी संस्कृति को दिखाती है। मैं अपने समाज का हिस्सा हूं, कोई आउडसाइडर नहीं। फिल्मकार को अनूठे रूप से नई चीजें कहनी होती हैं। मैं कभी खुद को नहीं दोहराता। यह बोरिंग है। सिनेमा का विकास एक महान कलात्मक चीज को हासिल करने की इच्छा के फलस्वरूप हुआ है। हम आस-पास घट रही घटना से खुद को अनभिज्ञ नहीं रख सकते हैं।



स्वतंत्रता/मुक्ति का सवाल आपकी फिल्में स्वयंवरम, एलिप्पथाएम, मतिलुकल में है। जबकि फिल्म अनंतरम की रचना प्रक्रिया जटिल है। यहां यथार्थ और कल्पना की रेखा गड्डमड्ड है...
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अनंतरम' रचने की प्रक्रिया के बारे में बताऊं। सवाल है कि हम कैसे रचें? शुरुआत में आप अपने अनुभव के ऊपर काम करते हैं। यदि आप कलात्मक व्यक्ति हैं तो उस अनुभव को आप किसी रूप में व्यवस्थित करते हैं और फिर यहां कल्पना की भूमिका आती है। सो सारा कुछ यहां मिल जाता है। अनुभव जस के तस रूप में नहीं आता। उसमें भी बदलाव होता है। हर इंसान के अंदर इंट्रोवर्ट और एक्सट्रोवर्ट मौजूद रहता है। इस फिल्म में 'अजयन' एक ऐसा ही चरित्र है। यदि आप कहानी देखेंगे तो यहां कोई विभेद नहीं है, यह एक-दूसरे का पूरक है। दर्शक गैप्स को खुद भर लेते हैं और कहानी गढ़ते हैं।

हाल में रिलीज हुई मलायम फिल्म 'द ग्रेट इंडियन किचन' देखते हुए मुझे सामंती व्यवस्था के ऊपर बनी आपकी फिल्म एलिप्पथाएम की याद आई...


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एलिप्पथाएम' की शुरुआत मेरे मन में आए इस विचार से हुई कि हमारे आस-पास जो चीजें हैं उस पर कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त करते हैं। फिर मुझे खुद ही जवाब मिल गया कि यदि हम प्रतिक्रिया देना शुरु करें तो हमारे लिए यह असुविधाजनक होगा। और फिर हम मानने लगते हैं कि कोई दिक्कत नहीं है, ये चीजें मौजूद ही नहीं हैं। 'उन्नी' का चरित्र ऐसा ही है। यह केरल समाज में सामंती संयुक्त परिवार के विघटन के दौर की कहानी है, पचास-साठ के दशक का देश काल है। उन्नी अपने आस-पास की घटना से विमुख है और खुद में सिमटा पड़ा है।

कोविड के दौर में सिनेमा का क्या भविष्य आप देखते हैं?
अभी लोग लैपटॉप, टीवी, मोबाइल पर सिनेमा देख रहे हैं, पर सिनेमा को वापस हॉल में आना ही होगा। यह एक सामूहिक अनुभव है। छोटे परदे पर आप दृश्य, ध्वनि की बारीकियों से वंचित हो जाते हैं। घर में बहुत तरह के व्यवधान भी मौजूद रहते हैं।

(नवभारत टाइम्स, 5.6.21)

Monday, April 19, 2021

द ग्रेट इंडियन किचन: जियो बेबी से बातचीत


मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ (अमेजन प्राइम) की इन दिनों काफी चर्चा हो रही है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा जोड़ा है. धर्मसत्ता, पितृसत्ता और खास कर इसके माध्यम से स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के माध्यम से प्रभावी ढंग से इस फिल्म में निरूपित किया गया है. प्रस्तुत है फिल्म के निर्देशक जियो बेबी के साथ हुई लेखक-पत्रकार अरविंद दास की बातचीत के कुछ अंश:

‘द ग्रेट इंडियन किचन’ बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया?
असल में शादी के बाद मेरे मन में अपनी पत्नी के साथ किचेन में काम करने ख्याल आया. तब मैंने अपनी माँ, बहन और बीवी के बारे में सोचा. मेरे लिए किचेन एक जेल की तरह रहा. फिर मुझे अपनी स्वतंत्रता का अहसास हुआ. साथ ही मेरे मन में सवाल उठे कि हम तो पुरुष हैं, लेकिन स्त्रियों की आजादी का क्या? मैंने निश्चय किया कि किचेन जो स्त्रियों के लिए एक बेड़ी है उसे लेकर मुझे फिल्म बनानी है.
किस तरह की प्रतिक्रिया आपको इस फिल्म को लेकर मिल रही है?

सच तो यह है कि ज्यादातर आलोचना पॉजिटिव ही हैं. लोगों ने इसे सराहा है. कुछ लोगों ने खारिज भी किया है. पर वे ऐसे लोग हैं जिनके अपने एजेंडे हैं. ये वे लोग हैं जो हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं. उन्हें यह फिल्म पसंद नहीं आ रही. ज्यादातर स्त्रियाँ खुद को इस फिल्म से जोड़ पा रही है. जब आप खाना पकाने, बर्तन धोने, साफ-सफाई करने में जो परेशानी होती है उसे महसूस करते हैं तब आपको लगता है कि हर किचेन एक ‘कुंभी पाक नरक’ है.
सत्तर-अस्सी के दशक में अडूर गोपालकृष्णन, शाजी करुण की फिल्मों के बाद मलयालम सिनेमा में एक ठहराव आ गया था. एक बार फिर से जल्लीकट्टू या अंगमाली डायरीज जैसी फिल्मों के माध्यम से एक नयापन दिख रहा है. आप किस रूप में इसे देखते हैं?
‘द ग्रेट इंडियन किचेन’ में आपको अडूर गोपालकृष्णन और के जी जार्ज की फिल्मों की झलक दिखेगी. मुझ पर उनका प्रभाव हैं. अडूर की एलिप्पथाएम मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. एलिप्पथाएम का सीधा असर इस फिल्म पर नहीं है, पर मेरे मन में यह फिल्म हमेशा रही. साथ ही के जी जार्ज की ‘अदामिंते वारियेल्लू’ भी रही. ‘अदामिंते वारियेल्लू’ एक उत्कृष्ट फिल्म है जिसके केंद्र में स्त्री हैं. मैं इन दोनों निर्देशकों का आभारी है, मेरे लिए ये प्रेरणास्रोत हैं.
निमिषा सजयन ने जिस किरदार को निभाया है वह बहुत ही मजबूत और विद्रोही चेतना से लैस हैं. आपने किस रूप में इसे रचा?
निमिषा के किरदार में मैं खुद मौजूद हूँ इस फिल्म में. मैंने किचेन में जो महसूस किया उसे निमिषा के किरदार के रूप में रचा है. किचेन में काम करने का बाद मैं पढ़ नहीं पाता था, कोई सिनेमा नहीं देख पाता था. जब मैं कुछ लिख रहा होता था तब मैं अपने हाथों में मौजूद गंध को सूंघा करता था.
यह फिल्म महज पितृसत्ता को ही सवाल के घेरे में नहीं लाती, बल्कि धर्मसत्ता को भी कटघरे में खड़ा करती है. आप क्या कहेंगे इस बारे में?
हां, फिल्म में फेमिनिज्म है, स्त्री स्वतंत्रता का सवाल है. पर हम पहले मनुष्य है, स्त्री या पुरुष बाद में हैं. स्त्रियों के बाद इस तरह का व्यवहार समाज में क्यों किया जाता है, मेरा सवाल यह है? और स्त्रियों के साथ भेद-भाव न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में मौजूद है. ऐसा क्यों है? पुरुष रसोईघर में भागीदारी क्यों नहीं करते हैं?
फिल्म देखते हुए मुझे लगा कि आखिर में जो ‘डांस स्वीकेंस’ है वह एक तरह से मुक्ति का उत्सव बन कर आता है. फिल्म की शुरुआत और अंत डांस के साथ होता है.
हां, यह सही है. पर डांस स्वीकेंस फिल्म का भाग नहीं है. जब निमिषा घर छोड़ कर चली जाती है. फिल्म वहीं खत्म हो जाती है.
क्या इस फिल्म को रिलीज करने में आपको परेशानी हुई?
हां, पहले इसे अमेजन और नेटफ्लिक्स ने अस्वीकार कर दिया था. इसका क्या कारण रहा, मुझे नहीं पता. जनवरी में मैंने इसे ‘नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था. जब फिल्म के बारे में चर्चा होने लगी, अच्छे रिव्यू आने लगे तब अमेजन ने मुझसे संपर्क साधा और फिर हमने फिल्म को अमेजन प्राइम पर रिलीज किया.
इस फिल्म को बनाने में कितना वक्त आपको लगा और आगे क्या योजना है.
फिल्म के बारे में मैंने वर्ष 2017 में सोचना शुरु कर दिया था. पर शूटिंग, प्रोडक्शन का काम जुलाई 2020 में शुरु किया और करीब एक महीने में पूरा कर लिया था. अगली फिल्म के बारे में अभी कुछ भी निश्चित नहीं है, हम सोच रहे हैं. प्लान कर रहे हैं.

(प्रभात खबर, 18 अप्रैल 2021)

Friday, April 16, 2021

मलयालम सिनेमा का समकालीन स्वर

 


लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म जलीकट्टूको जब पिछले साल भारत की तरफ से आधिकारिक रूप से ऑस्कर के लिए भेजा गया तब सबकी निगाह समकालीन मलयालम फिल्मों की ओर गई. इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या जलीकट्टूफिल्म में ऑस्कर जीतने का माद्दा था, हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में विभिन्न भाषाओं, इसमें हिंदी में बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में भी शामिल हैं, में बनने वाली फिल्मों में मलयालम फिल्मों का आस्वाद सबसे अलग है. प्रसंगवश, वर्ष 2011 में सलीम अहमद निर्देशित मलयालम फिल्म एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी ऑस्कर के लिए भेजा गया था.

पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई जियो बेबी की द ग्रेट इंडियन किचनऔर दिलेश पोथान की जोजीफिल्म ने एक बार फिर से मलयालम फिल्मों की केंद्रीयता को साबित किया है. सोशल मीडिया पर इन फिल्मों को लेकर काफी चर्चा है. द ग्रेट इंडियन किचनकी शुरुआत द ग्रेट इंडियन ड्रामायानी शादी से होती है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा जोड़ा है. घर-परिवार के सदस्यों के रिश्ते, धर्मसत्ता, पितृसत्ता और खास कर स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के माध्यम से खूबसूरती से निरुपित किया गया है. फिल्म में अपनी इच्छाओं, डांस के प्रति अपने लगाव को दबा कर अदाकार निमिषा सजयन सुबह-दोपहर-शाम घर के पुरुषों की क्षुधाशांत करने की फिक्र में रहती है, पर उसकी फिक्र किसे है! पुरुष भोजनभट्ट हैं. अखबार पढ़ने में, योग करने में मशगूल हैं, वहीं स्त्री नमक-तेल-हल्दी की चिंता में आकंठ डूबी हुई है.

इस फिल्म को देखते हुए मुझे हिंदी के कवि रघुवीर सहाय की कविता पढ़िए गीताकी याद आती रही: पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए/ होंय कँटीली/आँखें गीली/लकड़ी सीली, तबियत ढीली/घर की सबसे बड़ी पतीली/ भरकर भात पसाइए. हालांकि फिल्म में निमिषा सजयन ने जिस किरदार को निभाया है वह न गीता पढ़ती है, न सीता ही बनती है. एक विद्रोही चेतना से वह लैस है. यह चेतना फिल्म के आखिर में दिखाई पड़ती है जिसे एक डांस स्वीकेंसके माध्यम से निर्देशक ने फिल्माया है. एक तरह से यह फिल्म भारतीय समाज में व्याप्त सामंती प्रवृत्तियों का नकार है. यह फिल्म भले ही मलायली समाज में रची-बसी हो पर अपनी व्याप्ति में अखिल भारतीय है और यही वजह है कि निर्देशक ने पात्रों को कोई नाम नहीं दिया है.

जहाँ द ग्रेट इंडियन किचनको सुविधा के लिए हम विचार प्रधान फिल्म कह सकते हैं, वहीं 'जोजी' का कथानक शेक्सपियर के चर्चित नाटक मैकबेथपर आधारित है. इस फिल्म का परिवेश केरल के एक संवृद्ध परिवार के इर्द-गिर्द बुना गया है. इस फिल्म में भी सामंती पितृसत्ता की वजह से घुटन का चित्रण है. घर का मुखिया इस सत्ता का प्रतीक है. इस सत्ता का दंश पुरुष और स्त्री दोनों भोगते हैं, लेकिन प्रतिकार के लिए संवाद की गुंजाइश नहीं है और जिसकी परिणति हिंसा में होती है. फिल्म की पटकथा, चरित्र-चित्रण और सिनेमाटोग्राफी के माध्यम से निर्देशक ने मैकबेथ की कथा को भारतीय परिवेश में कुशलता से समाहित किया है. जोजी का किरदार मलयालम फिल्मों के चर्चित अभिनेता फहद फासिल ने जिस सहजता से निभाया है वह अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. साथ ही अन्य कलाकारों की भूमिका भी उल्लेखनीय है.

इस फिल्म में निर्देशक ने जिस तरह चरित्रों को बुना है कि उसे हम सफेद-स्याह से खाने में रख कर नहीं देख सकते. क्या जोजी परिस्थितियों की वजह से अपराध में संलग्न होता है या यह उसके चरित्र के अनुकूल है? क्या यही सवाल स्त्री पात्र बिन्सीके बारे में नहीं पूछा जा सकता है? फिल्म में अंतर्मन के भावों और अपराध के बाद बाह्य जगत की टीका-टिप्पणियों को हास्य के माध्यम से व्यक्त किया गया है. प्रसंगवश, विशाल भारद्वाज ने मैकबेथ को आधार बना कर मुंबई के माफिया संसार का चित्रण मकबूल’ (2003) फिल्म में किया था, पर पोथान कम बजट में बिना किसी तामझाम के एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव हमारे सामने परोसते हैं. यह क्षेत्रीय सिनेमा, खास कर मलायलम फिल्मों की, एक विशेषता है, जो पिछले दशक में देखने को मिली है. बात कुंबलंगी नाइट्सकी हो या अंगमाली डायरीजकी.

सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन, शाजी करुण की फिल्मों ने संवृद्ध किया था. उनकी फिल्मों ने मलयालम फिल्मों को देश-दुनिया में स्थापित किया, पर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. हालांकि अस्सीवें वर्ष में भी दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन आज भी सक्रिय हैं. पिछले कुछ वर्षों में मलयालम सिनेमा में कथ्य और तकनीकी के स्तर पर युवा फिल्मकार काफी प्रयोग कर रहे हैं और उन्हें सफलता भी मिल रही है. जल्लीकट्टूभले ही ऑस्कर लाने में सफल नहीं हुई, पर समकालीन मलयालम फिल्मों को देखने से काफी उम्मीदें बंधती हैं. क्या इस दशक में भारतीय फिल्मों के लिए ऑस्कर का रास्ता मलयालम फिल्मों से होकर जाएगा? क्या इसमें उसे सफलता मिलेगी? यह सवाल भविष्य के गर्भ में है.

(नेटवर्क न्यूज18 हिंदी के लिए)

Wednesday, July 08, 2020

अदूर का सिनेमा, सिनेमा के अदूर

फ्रेंच सिने समीक्षा में फिल्म निर्देशक के लिए ओतरयानी लेखक शब्द का इस्तेमाल किया जाता रहा है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अदूर गोपालकृष्णन विश्व के ऐसे प्रमुख ओतरहैं, जो पिछले पचास वर्षों से फिल्म निर्माण-निर्देशन में सक्रिय हैं. इस महीने उन्होंने अस्सीवें वर्ष में प्रवेश किया है और एक बार फिर से उनकी फिल्मों की चर्चा हो रही है. सिनेमा के जानकार सत्यजीत रे के बाद अदूर गोपालकृष्णन को भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार कहते रहे हैं, जिनकी प्रतिष्ठा दुनियाभर में है. खुद रे उनकी फिल्मों को खूब पसंद करते थे.

सिनेमा के प्रति अदूर में आज भी वैसा ही सम्मोहन है, जैसा पचास वर्ष पहले था. अब भी उनके अंदर प्रयोग करने की ललक है. पिछले वर्ष मैंने अदूर गोपालकृष्णन की एक नयी फिल्म सुखयांतमदेखी थी. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में आत्महत्याहै, पर हर कहानी का अंत सुखद है. हास्य का इस्तेमाल कर निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों से जूझती है.

खास बात यह है कि सुखयांतमडिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज तीस मिनट है. दिल्ली के छोटे सिनेमा-प्रेमी समूह के सामने फिल्म के प्रदर्शन के बाद अदूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म को लेकर करते हैं. अपने पचास वर्ष के करियर में पहली बार अदूर ने डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.

गौतमन भास्करन की लिखी जीवनी ए लाइफ इन सिनेमामें अदूर एक जगह कहते है, ‘सिनेमा असल में फिल्ममेकर का अपना अनुभव होता है. उसकी जीवन के प्रति दृष्टि उसमें अभिव्यक्त होती है.अदूर की फिल्मों को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म को निर्देशक का माध्यम क्यों कहा गया है. फिल्म के हर पहलू पर उनकी छाप स्पष्ट दिखती है. हालांकि, सिनेमा अदूर का पहला प्रेम नहीं था. शुरुआत में उनका रुझान थिएटर की तरफ ज्यादा था.

करीब पंद्रह वर्ष पहले दिल्ली में एक फिल्म समारोह के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने कहा था, ‘काॅलेज के दिनों में मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने 1962 में पुणे फिल्म संस्थान में प्रवेश लिया, तो वहां देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है, जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.

वर्ष 1964 में फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक एफटीआइआइ, पुणे में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए थे. वे शीघ्र ही छात्रों के चेहते बन गये. व्यावसायिक सिनेमा के बरक्स 70 और 80 के दशक में भारतीय सिनेमा में समांतर फिल्मों की जो धारा विकसित हुई, अदूर मलयालम फिल्मों में इसके प्रणेता रहे. उनकी पहली फिल्म स्वयंवरम’ (1972) को चार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुए. अदूर घटक और सत्यजीत रे दोनों के प्रशंसक रहे हैं, पर उनकी फिल्में घटक के मेलोड्रामा और एपिक शैली से प्रभावित नहीं दिखती हैं.

यथार्थ चित्रण पर जोर व मानवीय दृष्टि के कारण समीक्षक उनकी फिल्मों को रे के नजदीक पाते हैं. हालांकि, उनकी फिल्म बनाने की शैली काफी अलहदा है. उनकी फिल्में जीवन के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे अनुभवों को फंतासी के माध्यम से संपूर्णता में व्यक्त करती रही हैं. केरल का समाज, संस्कृति और देशकाल इसमें प्रमुखता से उभर कर आया है, पर भाव व्यंजना में वैश्विक है. यह विशेषता एलिप्पथाएम’, ‘अनंतरम’, ‘मुखामुखम’, ‘कथापुरुषनआदि फिल्मों में स्पष्ट दिखायी देती है. एलिप्पथाएमउनकी सबसे चर्चित फिल्म है.

सामंतवादी व्यवस्था के मकड़जाल में उलझे जीवन को चूहेदानी में कैद चूहेके रूपक के माध्यम से एलिप्पथाएम’ (1981) में व्यक्त किया गया है. फिल्म में संवाद बेहद कम है और भाषा आड़े नहीं आती. बिंबों, प्रकाश और ध्वनि के माध्यम से निर्देशक ने एक ऐसा सिने संसार रचा है, जो चालीस वर्ष बाद भी दर्शकों को एक नये अनुभव से भर देता है और नयी व्याख्या को उकसाता है. एक कुशल निर्देशक के हाथ में आकर सिनेमा कैसे मनोरंजन से आगे बढ़ कर उत्कृष्ट कला का रूप धारण कर लेती है, ‘एलिप्पथाएमइसका अन्यतम उदाहरण है. प्रसंगवश, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेषों को रे ने भी जलसाघर’ (1958) में संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है, पर दोनों फिल्मों के विषय के निरूपण में कोई समानता नहीं दिखती.

कहानी कहने का ढंग अदूर का नितांत मौलिक है, पर उतना सहज नहीं है, जैसा कि पहली नजर में दिखता है. कहानी के निरूपण की शैली के दृष्टिकोण से अनंतरमसिने प्रेमियों के बीच विख्यात रही है. उनकी फिल्मों में स्त्री स्वतंत्रता का सवाल सहज रूप से जुड़ा हुआ आता है. साथ ही, राजनीतिक रूप से सचेत एक फिल्मकार के रूप में वे हमारे सामने आते हैं. इनमें आत्मकथात्मक स्वर भी सुनायी पड़ते हैं. हिंदी सिनेमा-प्रेमियों के लिए अभी भी अदूर की फिल्में पहुंच से दूर है. बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंच के लिए अदूर की फिल्मों को ऑनलाइन सबटाइटल के साथ रिलीज की कोशिश होनी चाहिए.

(प्रभात खबर, 8 जुलाई 2020)