Sunday, May 11, 2025
करुणा के चितेरे शाजी करुण
Saturday, November 09, 2024
इंटरव्यू: ‘मुझे ऐसा सिनेमा पसंद है जो सोचने पर मजबूर कर दे’
मूर्धन्य कलाकार मोहन अगाशे की शख्सियत के कई पहलू हैं। एक अभिनेता के बतौर उन्होंने समानांतर सिनेमा के कई प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। घासीराम कोतवाल (1972) नाटक में अपनी भूमिका के लिए वे खास तौर से जाने जाते हैं। वे मनोचिकित्सक भी हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं। वे भारतीय फिल्म और टेलिविजन संस्थान (एफटीआइआइ) के निदेशक भी रह चुके हैं। उनके जीवन और काम के बारे में हाल ही में अरविंद दास ने उनसे बातचीत की। संपादित अंशः
आपकी रंगमंचीय यात्रा से बात शुरू करते हैं। रंगमंच पर अभिनय का अपना पहला अनुभव आपको याद है?
मेरे लिए अभिनय बच्चों के खेल जैसा था। जैसे हम सभी तीन, चार या पांच साल की उम्र में कुछ हरकतें करते हैं। जैसे, हम सब नकल मारते हैं, चाहे शिक्षकों की नकल हो, पिता की हो या किसी और की। यह सम्प्रेेषण का एक माध्यम होता है। बेशक यह पेशेवर नहीं होता। अभिनय मेरे स्वभाव में है। खुद के और दुनिया के बारे में जानने का यह एक कुदरती तरीका है। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहां कुछ शिक्षक नाटक करने में अच्छे थे। मैं भी खुशकिस्मत रहा क्योंकि उसी दौरान सई परांजपे और अरुण जोगलेकर ने पुणे में बाल रंगमंच की शुरुआत की थी। वे पुणे आकाशवाणी पर हर रविवार प्रसारित होने वाले बालोद्यान नाम के एक कार्यक्रम के लिए बच्चे तलाश रहे थे। यह पचास के दशक के अंत और साठ के दशक के आरंभ की बात है। उससे पहले मैंने रवींद्रनाथ ठाकुर की जन्मशती पर डाकघर नाम के एक नाटक में एक बीमार बच्चे अमल का किरदार निभाया था। दुनिया से उसका संवाद का माध्यम केवल एक खिड़की थी, जहां खड़ा होकर वह दोस्त बनाता था।
डाकघर आकाशवाणी के लिए था?
नहीं, वह तो पुणे में सार्वजनिक मंचन के लिए था। मैं ‘महाराष्ट्र कालोपासक’ नाम की एक रंगमंडली से जुड़ा हुआ था। यह उसका नाटक था। महाराष्ट्र में छोटे-छोटे रंगमंडलों की मजबूत परंपरा रही है। जैसे, विजय मेहता ने ‘रंगायन’ नाम की मंडली से शुरुआत की थी। सत्यदेव दुबे का भी एक थिएटर यूनिट था। भालबा केलकर का ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ था। उस समय मैं अपनी रंगमंडली के अलावा रविवार को बालोद्यान में भी जाता था। उसमें गोपीनाथ तलवार, सई परांजपे और नेमिनाथ नाम के एक और सज्जन थे। मैंने सई के नाटक निरुपमा आणि परिरानी में अभिनय किया था। बाद में उस पर एक फिल्म भी बनी थी। विनय काले ने सई की स्क्रिप्ट पर 1961 में फिल्म बनाई, जिसमें मैंने पिनोकियो का रोल किया। वह मेरी पहली फिल्म थी।
मतलब आप पहले अभिनेता बने, फिर डॉक्टर और फिर एफटीआइआइ निदेशक?
अभिनेता बनने वाला कोई भी व्यक्ति शुरुआत बचपन से ही करता है। हो सकता है कि वह रंगमंच पर न हो और अपने घर में ही अभिनय कर रहा हो।
आप जुलाई 1947 में जन्मे थे, यानी आजाद भारत। अपनी जिंदगी और भारत के जीवन की यात्रा को आप कैसे देखते हैं?
आजकल हर चीज को बौद्धिकता में लपेटने का चलन बन चुका है। मेडिकल कॉलेज पहुंचने तक मैं विश्लेषण नहीं करता था, बस काम करता था। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो बहुत बौद्धिक होते हैं। मुझे लगता है जिंदगी को जब आप पीछे मुड़कर देखने लग जाते हैं तो वह बूढ़े होने का पहला लक्षण होता है।
मेडिकल की पढ़ाई के साथ रंगमंच को आपने कैसे साधे रखा?
स्कूल की पढ़ाई के बाद प्री-मेडिकल तक मैंने अभिनय जारी रखा। मेडिकल कॉलेज के पहले साल में मेरी मुलाकात रंगमंच की प्रसिद्ध हस्ती जब्बार पटेल से हुई। फिर पढ़ाई की तरह रंगमंच भी मेरे लिए एक गंभीर काम बन गया। अपने पूरे मेडिकल करियर के दौरान मैंने अभिनय किया, यहां तक कि छोटे से रंगमंडल ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ में जुड़ गया। मनोचिकित्सा और रंगमंच/सिनेमा मेरी जिंदगी की दो समांतर धाराएं रही हैं।
श्याम बेनेगल की निशांत (1975) के साथ समानांतर सिनेमा में आपकी शुरुआत कैसे हुई?
उन्होंने घासीराम कोतवाल में मेरा काम देखा था। मैंने नाना का किरदार निभाया था। मैंने 1972 से 1992 तक बीस साल यह किरदार निभाया। घासीराम मेरे लिए अभिनय का स्कूल जैसा था। इसी के सहारे मैं देश भर में और विदेश गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ। 1975 तक तो यह नाटक भारतीय रंगमंच में मील का पत्थर बन चुका था। इसे 20 से ज्यादा रंग महोत्सवों में आमंत्रित किया जा चुका था और हमने 12 रंग महोत्सवों में कुल 61 प्रदर्शन किए। फिल्म या रंगमंच के क्षेत्र में शायद कोई नहीं होगा जिसने घासीराम न देखा हो।
हाल ही में मैंने सिनेमाघर में मंथन (1976) देखी, जब उसका रिस्टोर्ड संस्करण रिलीज हुआ था। इस फिल्म में आपको डॉक्टर के किरदार में देखकर मैं चौंक गया था।
बेनेगल के साथ समानांतर सिनेमा में मेरी शुरुआत हुई। फिर मैं उसका हिस्सा बन गया। मनोचिकित्सा से प्रेम के चलते मैं मुंबई नहीं गया। मैं साल में एकाध फिल्म ही करता था। मैंने गोविंद निहलानी, जब्बार पटेल, गौतम घोष की फिल्मों और सत्यजित रे की सद्गति (1981) में काम किया। यह इत्तेफाक ही था कि प्रेमचंद की कहानी सद्गति में ब्राह्मण का नाम घासीराम था। हो सकता है कहानी पढ़ते वक्त उनके दिमाग में घासीराम का मेरा किरदार रहा हो।
सत्यजित रे के साथ संबंध कैसा था?
वे महान थे, इस पर मैं किसी से बहस नहीं करना चाहूंगा। सद्गति केवल 52 मिनट की फिल्म है, लेकिन उसमें काम करते हुए मुझे समझ आया कि सत्यजित रे क्या हैं और वे जो हैं, तो क्यों हैं। वे दूसरों से मीलों आगे क्यों हैं। फिल्म संस्थान में कई लोग होंगे जो रे को महान नहीं मानते थे। वे मणि कौल को महान मानते हैं। यह उनकी सीमित सोच है। मैंने मणि की फिल्म घासीराम कोतवाल (1976) में भी काम किया है। वह फिल्म तीन दिन भी नहीं चली थी। ऐसे फिल्मकार इस बात की चिंता नहीं करते थे कि लोग उनकी फिल्मों को पसंद करेंगे या नहीं। मणि या कुमार शाहनी की फिल्मों के किरदार मनुष्यों की तरह बात नहीं करते, किसी सामान की तरह बात करते हैं।
लेकिन मणि कौल की आषाढ़ का एक दिन (1971) और दुविधा (1973) की तो बहुत सराहना हुई थी?
आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश के नाटक पर आधारित है। मणि ने तो बस उनके लिखे को दृश्य-श्रव्य माध्यम में रूपांतरित कर दिया था। इसलिए लेखक को भी उसका काफी श्रेय जाता है। दुविधा मुझे अच्छी लगी थी। मणि जैसी फिल्में बनाना चाहते थे, वैसी बनाते थे। उन्हें किसी और चीज से कोई मतलब नहीं था। घासीराम कोतवाल में उन्होंने नाटक के आधार पर विजय तेंडुलकर से पटकथा लिखवाई थी। वह नाटक से एकदम अलहदा थी। उसमें बस नाटक के अंश इस्तेमाल किए गए थे। उसका आपको कोई अर्थ समझ आए, तो मुझे ईमानदारी से बताइएगा। डॉ. (श्रीराम) लागू ने उसके बारे में एक बार कहा था, ‘‘मैंने जीवन में नहीं सोचा था कि कभी कोई मराठी फिल्म मुझे समझ नहीं आएगी। घासीराम ऐसी फिल्म है, जो मुझे समझ ही नहीं आई।’’
आपने प्रकाश झा की फिल्मों में भी काम किया है। उसका अनुभव कैसा था?
उन्होंने सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाई हैं। बिहार की पृष्ठभूमि पर उन्होंने तीन फिल्में बनाईं, मृत्युदंड (1997), गंगाजल (2003) और अपहरण (2005)। ये सब फिल्में वर्तमान हालात से जुड़ती हैं। इसलिए मुझे काम करने में मजा आया। आपको पता है कि उनकी राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म दामुल (1985) को किसी ने पूछा तक नहीं था। उस फिल्म को दर्शक तक नसीब नहीं हुए थे। उसे किसी ने देखा भी नहीं था। तब प्रकाश झा हताश होकर बिहार लौट गए थे, लेकिन जब वे वापस आए तब उन्होंने संकल्प लिया कि मैं अब अपनी कहानी बॉलीवुड की भाषा में कहूंगा। पिछली गलती से उन्होंने सबक सीखा, फिर दोबारा लौट कर मृत्युदंड बनाई।
आपने मुख्यधारा की बॉलीवुड फिल्मों में भी काम किया, जैसे त्रिमूर्ति (1995), रंग दे बसंती (2005)?
मैं फिल्मों में फर्क नहीं बरतता। मैं बस इतना जानता हूं कि एक समानांतर सिनेमा होता है और दूसरा लोकप्रिय सिनेमा। मैं ऐसे सिनेमा का आदमी हूं जो मनोरंजन के पार जाता हो। हाल ही में मैंने लापता लेडीज (2024) देखी। इसके बाद बधाई हो (2019) देखी। दोनों ही बेहतरीन फिल्में हैं। अब तो बाहुबली (2015) जैसी फिल्मों का बॉलीवुड में जलवा हो रहा है।
ओटीटी के उभार को आप कैसे देख रहे हैं, जहां फिल्मकारों की नई फसल आ रही है?
एक मायने में ओटीटी अच्छा है, लेकिन शुरू में जब वह आया था, तो केवल प्रतिभाशाली फिल्मकारों की फिल्में ही खरीदता था। या उनसे ही फिल्में बनवाता था। अब उसने अपना कंटेंट बनाना बंद कर दिया है। इसलिए फिल्मकार यहां अब अपने मन के हिसाब से फिल्में नहीं बना पा रहे हैं।
मराठी सिनेमा में आपने देवराय (2004), अस्तु (2013), कासव (2017) में काम किया है। ये सब फिल्में मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित हैं। इनके बारे में कुछ बता सकते हैं?
इन फिल्मों में मैंने केवल काम ही नहीं किया था बल्कि इन फिल्मों का निर्माण भी किया था। मैं निजी तौर पर ऐसा सिनेमा पसंद करता हूं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दे। मैं ऐसे ही सिनेमा का मुरीद हूं। यदि फिल्में सोचने पर मजबूर न कर पाएं, तो फिर उनके होने का फायदा ही क्या। ये फिल्में सुमित्रा भावे बनाई थीं। वे फिल्मकार नहीं थीं, वे समाज वैज्ञानिक थीं। उन्हें जब समझ आया कि किताबों से ज्यादा ताकवर माध्यम सिनेमा है, तो उन्होंने फिल्म बनाना सीखा। वे ऐसी फिल्में बनाती थीं, जो किसी भी दर्शक को सोचने पर मजबूर कर दे। सुमित्रा भावे, डेविड धवन या सुभाष घई जैसी फिल्में नहीं बनाती थीं। यही वजह थी कि मैंने सोचा इन फिल्मों के माध्यम से मैं आम आबादी और स्वास्थ्य विज्ञानियों तक मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता फैला सकूंगा। मानसिक बीमारी, मनोचिकित्सा जैसी बातों को कोई गंभीरता से नहीं लेता है। ऐसे विषयों का लोकप्रिय फिल्मों में मजाक बनाया जाता है। इस विषय पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि एक फिल्म आई थी तारे जमीं पर (2007), यह हर मायने में बहुत अलग फिल्म थी।
पुणे शहर ने आपकी रचनात्मक यात्रा को कैसे प्रभावित किया है?
मैं पुणे में रहता हूं और मेरे लिए आज का पुणे वही पुणे है, जो मेरे बचपन में होता था। बाकी किसी भी तरह के पुणे को मैं न मानता हूं न जानता हूं। विस्तार ले रहा, मॉडर्न हो रहा पुणे मेरे पुणे का सांस्कृतिक हिस्सा नहीं है। यहां मैं 74 साल से ज्यादा समय से रह रहा हूं। अब यह महानगर बन चुका है। आप यहां अब मराठी बोलेंगे तो लोग आपको हैरत से देखेंगे। पुणे की पहचान जा चुकी है। एक बार मैं पुणे का मृत्यु प्रमाण पत्र मांगने के लिए नगर निगम के दफ्तर चला गया था।
(अरविंद दास डीवाय पाटील इंटरनेशनल युनिवर्सिटी, पुणे में स्कूल ऑफ मीडिया ऐंड जर्नलिज्म के निदेशक और प्रोफेसर हैं) (आउटलुक 11 नवंबर 2024 अंक में प्रकाशित)
Monday, October 21, 2024
Sunday, July 07, 2024
मुंबई जाने वाले लौट कर नहीं आते
हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में रंगकर्म से जुड़े कलाकारों, निर्देशकों और सहायकों की फिल्मों में आवाजाही शुरु से ही रही है. शुरुआती दौर में सिनेमा पर पारसी रंगमंच का काफी प्रभाव दिखता है. असल में, सिनेमा के ‘स्टार’ तत्व की केंद्रीयता इतनी हावी रही है कि रंगकर्म से जुड़े रहे कुशल अभिनेता अपनी सारी प्रतिभा के बावजूद हाशिए पर रहे. कुछ अपवाद हो सकते हैं. हाल के दशक में ओटीटी प्लेटफॉर्म के उभार, दर्शकों की मसाला फिल्मों से इतर रुचि और सामग्री की विविधता से एक उम्मीद जरूर बंधी है.
जहाँ नाट्य आंदोलनों में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को रेखांकित किया जाता रहा है, वही हिंदी सिनेमा में इप्टा या अन्य नाट्य संगठनों से जुड़े रहे रंगकर्मियों के योगदान की चर्चा कम होती है. बहरहाल, नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में ‘धरती के लाल’ (के ए अब्बास) और ‘नीचा नगर’ (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गई. पिछली सदी के 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा, मसलन श्याम बेनेगल की फिल्में, इस बात की पुष्टि करते हैं, जिसमें रंगमंच के कलाकारों का काफी योगदान रहा. प्रसंगवश, महान फिल्मकार ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की पृष्ठभूमि भी थिएटर (इप्टा) की ही थी.
आधुनिक हिंदी थिएटर से जुड़े लोगों की उम्मीदें सिनेमा (बॉलीवुड) से ज्यादा रही है, थिएटर से कम. सिनेमा एक ऐसा जनमाध्यम है जिसकी पहुँच एक विशाल दर्शक वर्ग तक है. आधुनिक समय में यह मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम भी है, जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी शिल्पों को खुद में समेटे हुए है. है. सूजन सोंटेग ने अपने चर्चित निबंध ‘फिल्म एंड थिएटर’ में लिखा है, ‘सिनेमा एक वस्तु है (यहाँ तक कि एक उत्पाद) वहीं थिएटर एक प्रस्तुति है.’ हालांकि दोनों ही हमारी चेतना और अनुभव से संबद्ध हैं. जाहिर है भिन्नता के बावजूद दोनों कला माध्यमों की अपनी विशिष्टता है. बेशक सिनेमा तकनीक आधारित कला है, जिसमें कैमरा और संपादन की बड़ी भूमिका रहती है, लेकिन अभिनेता-निर्देशक एक ऐसी कड़ी हैं जो दोनों विधाओं को आपस में जोड़ के रखता आया है.
अस्सी के दशक में जब समांतर सिनेमा का आंदोलन थम गया और नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण की बयार बही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली जैसे सिनेमा निर्देशकों की फिल्मों में इसकी झलक मिलती है. साथ ही प्रशिक्षित अभिनेताओं की नई खेप भी मुंबई पहुँची. इन सबकी पृष्ठभूमि थिएटर जगत की रही है. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो रंगकर्म से फिल्मी दुनिया की ओर बढ़े लोगों के मन में ‘दिल्ली या उज्जैन’ की दुविधा नहीं रहती. वे मुंबई के ही होकर रह जाते हैं. रंगकर्म से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि मुंबई पहुँच कर रंगमंच पर वापस कौन लौटता है!
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Tuesday, June 11, 2024
मुंबई जाने वाले लौट कर नहीं आते
पिछले साल इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अस्सी साल पूरे होने पर मैंने चर्चित फिल्मकार, नाट्यकर्मी और इप्टा के संरक्षक एम एस सथ्यू से बातचीत की थी. बातचीत के दौरान जब इप्टा की उपलब्धि के बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने कहा था, ‘इप्टा देश में एमेच्योर थिएटर का एकमात्र ऐसा समूह है जिसने अस्सी साल पूरे किए हैं. एक आंदोलन और थिएटर समूह के रूप में किसी संगठन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है.’ निस्संदेह 20वीं सदी में देश में हुए नाट्य आंदोलनों में इप्टा की ऐतिहासिक भूमिका रही है. कई नाट्य संगठन इससे प्रेरित और प्रभावित रहे हैं. जुहू थिएटर आर्ट (बलराज साहनी, बंबई), नटमंडल (दीना पाठक, अहमदाबाद), शीला भट्ट (दिल्ली आर्ट थिएटर) जैसे नाट्य संगठन इसके उदाहरण हैं. साथ ही इप्टा के सदस्य रहे सफदर हाश्मी की संस्था जन नाट्य मंच (1973) भी इप्टा से ही निकली और आज भी सक्रिय है.
जहाँ नाट्य आंदोलनों में इप्टा की भूमिका को रेखांकित किया जाता रहा है, वही हिंदी सिनेमा में इप्टा या अन्य नाट्य संगठनों से जुड़े रहे रंगकर्मियों के योगदान की चर्चा कम होती है. जबकि सच ये है कि भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में रंगकर्म से जुड़े कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों में आवाजाही शुरु से ही रही है. 21वीं सदी में भी यह बदस्तूर जारी है. रंगमंच और सिनेमा दोनों ही इससे लाभान्वित हुआ है. असल में, सिनेमा के ‘स्टार’ तत्व की केंद्रीयता इतनी हावी रही है कि रंगकर्म से जुड़े रहे कुशल अभिनेता अपनी सारी प्रतिभा के बावजूद हाशिए पर रहे. कुछ अपवाद हो सकते हैं. हाल के दशक में ओटीटी प्लेटफॉर्म के उभार, दर्शकों की मसाला फिल्मों से इतर रुचि और सामग्री की विविधता से एक उम्मीद जरूर बंधी है.
बहरहाल, नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में ‘धरती के लाल’ (के ए अब्बास) और ‘नीचा नगर’ (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. इन फिल्मों की पटकथा भी मूल रूप से लिखे नाटकों (बिजोन भट्टाचार्य और मैक्सिम गोर्की) पर ही आधारित थी. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गई. पिछली सदी के 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा की फिल्में इस बात की पुष्टि करते हैं. प्रसंगवश, महान फिल्मकार ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की पृष्ठभूमि भी थिएटर (इप्टा) की ही थी.
सथ्यू ने वर्ष 1973 में देश विभाजन की त्रासदी को लेकर ‘गर्म हवा’ फिल्म बनाई जो पचास साल बाद भी अपनी संवेदनशीलता और अदाकारी को लेकर याद की जाती है. उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में इप्टा से जुड़े रहे बलराज साहनी, कैफी आज़मी, इस्मत चुगताई, शौकत आजमी आदि की भूमिका विभिन्न रूपों में थी. बलराज साहनी ने विस्तार से इप्टा के दौर में फिल्मों के निर्माण की चर्चा की है. उन दिनों को याद करते हुए उन्होंने ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा (1974)’ में लिखा है: “और इस तरह अचानक ही जिंदगी का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जिसकी छाप मेरे जीवन पर अमिट है. आज भी मैं अपने आपको इप्टा का कलाकार कहने में गौरव महसूस करता हूँ.” पर आज साहनी के रंगकर्मी रूप को कौन याद करता है? आधुनिक समय में सिनेमा सभी कला रूपों पर हावी है. मनोरंजन के लिए लोग सिनेमाघरों की ओर ही रुख करते हैं. पर इसका मतलब ये नहीं कि आधुनिक समय में देश में विभिन्न नाट्य परम्परा फल-फूल नहीं रही है.
संस्कृत नाटकों की परंपरा (भास, कालिदास, भवभूति) के बाद देश में करीब हजार सालों तक नाटक की परंपरा गायब रही. संस्कृत नाटक जन से नहीं बल्कि अभिजन से जुड़े थे. उन्नीसवीं सदी में जब देश में पारसी थिएटर का उद्भव और विकास होता है तब सही मायनों में इसे एक व्यापक जनाधार मिला. देश में तीन तरह के थिएटर- व्यावसायिक, शौकिया और पेशेवर सक्रिय रहे हैं, लेकिन जैसा कि ‘पारसी थिएटर’ किताब में रणवीर सिंह ने लिखा है कि ‘व्यावसायिक थिएटर न हिंदुस्तान में था, न है और आइंदा आने की उम्मीद भी कम है.’ ऐसे में कुछ पेशेवर कलाकारों को छोड़ दिया जाए तो हिंदी थिएटर से जुड़े लोगों की उम्मीदें सिनेमा (बॉलीवुड) से ज्यादा रही है, थिएटर से कम. आश्चर्य नहीं कि पिछले पचास-साठ सालों में विभिन्न नाट्य विद्यालयों से प्रशिक्षित अभिनेता, निर्देशक मुंबई की ओर रुख करते रहे हैं.
सिनेमा एक ऐसा जनमाध्यम है जिसकी पहुँच एक विशाल दर्शक वर्ग तक है. आधुनिक समय में यह मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम भी है, जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी शिल्पों को खुद में समेटे हुए है. भरत मुनि ने नाटक को ‘सर्वशिल्प-प्रवर्तकम’ कहा था, पर यह बात शिल्प-तकनीक और दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता के कारण सिनेमा के बारे में भी कही जा सकती है. इस बात का उल्लेख कई बार किया जाता रहा है कि शुरुआती दौर में हिंदी सिनेमा पर पारसी रंगमंच का काफी प्रभाव रहा है. सूजन सोंटेग ने अपने चर्चित निबंध ‘फिल्म एंड थिएटर’ में लिखा है, ‘सिनेमा एक वस्तु है (यहाँ तक कि एक उत्पाद) वहीं थिएटर एक प्रस्तुति है.’ हालांकि दोनों ही हमारी चेतना और अनुभव से संबद्ध हैं. जाहिर है भिन्नता के बावजूद दोनों कला माध्यमों की अपनी विशिष्टता है. बेशक सिनेमा तकनीक आधारित कला है, जिसमें कैमरा और संपादन की बड़ी भूमिका रहती है, लेकिन अभिनेता-निर्देशक एक ऐसी कड़ी हैं जो दोनों विधाओं को आपस में जोड़ के रखता आया है. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो एक बार रंगकर्म से फिल्मी दुनिया की ओर बढ़े लोगों के मन में ‘दिल्ली या उज्जैन’ की दुविधा नहीं रहती. वे मुंबई के ही होकर रह जाते हैं.
पिछली सदी के सत्तर और अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा के दौर में मणि कौल, कुमार शहानी जैसे प्रयोगशील फिल्मकारों ने सिनेमा के लिए हिंदी साहित्य (नयी कहानी) की ओर रुख किया था. इसी क्रम में आषाढ़ का एक दिन (मणि कौल), चरण दास चोर (श्याम बेनेगल), पार्टी (गोविंद निहलानी) जैसी फिल्में नाटकों को आधार बना कर रची गई. यहाँ पर मणि कौल निर्देशित आषाढ़ का एक दिन की चर्चा प्रासंगिक है.
जहाँ हिंदी में आधुनिक नाटक के प्रणेता मोहन राकेश के चर्चित नाट्य कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ की चर्चा होती रहती है, मणि कौल निर्देशित इस फिल्म की चर्चा छूट जाती है. उन्होंने वर्ष 1971 में इस फिल्म को निर्देशित किया था. ‘उसकी रोटी’, ‘दुविधा’, ‘सिद्धेश्वरी’ की तरह ही सिनेमाई दृष्टि और भाषा के लिहाज से ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इस फिल्म में मल्लिका (रेखा सबनीस) कालिदास (अरुण खोपकर) और विलोम (ओम शिवपुरी) की प्रमुख भूमिका है. मल्लिका कालिदास की प्रेयसी है. हिमालय की वादियों में बसे एक ग्राम प्रांतर में दोनों के बीच साहचर्य से विकसित प्रेम है. कालिदास को उज्जयिनी के राजकवि बनाए जाने की खबर मिलती है. मल्लिका और राजसत्ता को लेकर उनके मन में दुचित्तापन है. वहीं मल्लिका कालिदास को सफल होते देखना चाहती है और उन्हें स्नेह डोर से मुक्त करती है. उज्जयिनी और कश्मीर जाकर कालिदास सत्ता और प्रभुता के बीच रम जाते हैं. वे मल्लिका के पास लौट कर नहीं आते और राजकन्या से शादी कर लेते हैं. और जब वापस लौटते हैं तब तक समय अपना एक चक्र पूरा कर चुका होता है. सत्ता का मोह और रचनाकार का आत्म संघर्ष ऐतिहासिकता के आवरण में इस फिल्म के कथानक को समकालीन बनाता है. मणि कौल ने ‘स्क्रीनप्ले’ और संवाद के लिए नाटक को ही पूरी तरह आधार बनाया है. लेकिन परदे पर बिंब (इमेज) और ध्वनि के संयोजन के माध्यम से यह सब साकार हुआ है. इस फिल्म में परिवेश (मेघ, बारिश, बिजली) जिस तरह रचा गया है उसे स्टेज पर बंद स्पेस में रचना मुश्किल है. यहाँ पर यह जोड़ना उचित होगा कि हाल के वर्षों में नाटक में भी तकनीक, मल्टी-मीडिया के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है.
बहरहाल, कोलाहल के बीच एक रागात्मक शांति पूरी फिल्म पर छाई हुई है. मोहन राकेश के नाटक से इतर एक अलग अनुभव लेकर यह फिल्म हमारे सामने आती है. फिल्म में भावों की घनीभूत व्यंजना के लिए ‘क्लोज अप’ का इस्तेमाल किया गया है, जो नाटक में संभव नहीं है. रेखा सबनीस और ओम शिवपुरी थिएटर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनके अभिनय की छाप इस फिल्म में भी है. मणि कौल ने दोनों ही अभिनेता का बेहतर इस्तेमाल इस फिल्म में किया है. साथ ही इस फिल्म में जिस तरह से आउटडोर सेट बनाया गया है उसमें प्रकृति (बाहरी) और अंदरुनी हिस्सा दोनों आ गया है. यह सवाल उठाना उचित होगा कि मुंबई पहुँच कर क्या नाटक के कालिदास की तरह एक कुशल रंगकर्मी के मन में रचनात्मकता और प्रभुता (यश) के बीच संघर्ष चलता रहता है?
इसी प्रसंग में फिल्मकार श्याम बेनेगल की चर्चा जरूरी है, जिन्होंने 70-80 के दशक में अपनी फिल्मों में नाटक की पृष्ठभूमि से आए कलाकारों का भरपूर इस्तेमाल किया. उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिला. उदाहऱण के लिए हाल ही में संरक्षित और फिर से रिलीज हुई ‘मंथन’ (1976) फिल्म का जिक्र किया जा सकता है. इस फिल्म में गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे, कुलभूषण खरबंदा, अनंत नाग जैसे कलाकारों को एक साथ परदे पर देखना सुखद है. इन कलाकारों की अदाकारी का ही कमाल है कि करीब पचास साल बाद भी यह फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है. फिल्म समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता ने श्याम बेनेगल की फिल्मों पर लिखे अपने लेख में ‘मंथन’ में एक अशिक्षित, गरीब, पारंपरिक ग्रामीण स्त्री की भूमिका में स्मिता पाटिल के भाव, भंगिमा और अभिनय को अलग से रेखांकित किया है.
अस्सी के दशक में जब समांतर सिनेमा का आंदोलन थम गया और नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण की बयार बही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली जैसे सिनेमा निर्देशकों की फिल्मों में इसकी झलक मिलती है. साथ ही प्रशिक्षित अभिनेताओं की नई खेप भी मुंबई पहुँची. इन सबकी पृष्ठभूमि थिएटर जगत की रही है. 21वीं सदी में बॉलीवुड में दिल्ली से गए इन कलाकारों के योगदान पर अलग से अध्ययन की जरूरत है. बहरहाल, यहाँ पर विशाल भारद्वाज की उन फिल्मों का जिक्र जरूरी है जो शेक्सपियर के नाटकों को आधार बना कर तैयार किया है. उनका ‘मैकबेथ’ कभी बंबई के माफिया संसार में ‘मकबूल’ बन कर, तो कभी ‘ओथेलो’ मेरठ के जाति से बंटे समाज में ‘ओंकारा’ के रूप में, तो कभी ‘हैमलेट’ ‘हैदर’ के रूप में रक्त रंजित कश्मीर की वादियों में भटकता है. मणि कौल की फिल्म से अलग ये नाटक भारद्वाज की सिनेमा में आकर पुनर्रचित होते हैं. मनोरंजन के साथ ही हमारे भाव-बोध में नया आयाम जोड़ते हैं. इन निर्देशकों और अभिनेताओं की वजह से रंगकर्म और सिनेमा के बीच संबंध पुख्ता हुए हैं. पर मुक्तिबोध की एक काव्य पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो हिंदी सिनेमा ने थिएटर से ‘लिया बहुत ही ज्यादा, दिया बहुत ही कम’ है.
अंत में, दो साल पहले रिलीज हुई युवा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘धुइन’ का मुख्य पात्र, पंकज, एक रंगकर्मी है जो दरभंगा में रह कर नुक्कड़ नाटक आदि करता है, पर उसके सपने मुंबई में बसते हैं. इस फिल्म की शुरुआत भी एक नुक्कड़ नाटक से ही होती है. फिल्म में चर्चित अभिनेता पंकज त्रिपाठी पंकज के आदर्श हैं, जिन्होंने छोटे कस्बे से निकल कर मुंबई की दुनिया में खूब यश कमाया है. पर वास्तविक जीवन में मुंबई में मिले पैसे और शोहरत के बाद त्रिपाठी, जिनका प्रशिक्षण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), दिल्ली में हुआ, रंगमंच से दूर ही रहे हैं. याद आता है कि आठ साल पहले जब चर्चित अभिनेता मनोज बाजपेयी अपनी एक फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए जेएनयू, दिल्ली आए थे तब मैंने उनसे पूछा था कि नेटुआ (90 के दशक में मनोज बाजपेयी का प्रसिद्ध नाटक) की मंच पर वापसी कब होगी? उन्होंने जवाब दिया था, जल्दी. पर इन वर्षों में उनके मंच पर आने का हम इंतज़ार ही कर रहे हैं. रंगकर्म से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि मुंबई पहुँच कर रंगमंच पर वापस कौन लौटता है!
(समालोचन वेबसाइट के लिए)
Sunday, May 26, 2024
मैथिली सिनेमा: एक दुनिया समानांतर
पिछले साल नीरज कुमार मिश्र निर्देशित मैथिली फिल्म ‘समानांतर’ को मैथिली में ‘बेस्ट फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. उल्लेखनीय है कि मैथिली सिनेमा के पचास वर्षों के इतिहास में महज दो फिल्मों को ही यह सम्मान मिला है. इससे पहले वर्ष 2016 में ‘मिथिला मखान’ को मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
पिछले दिनों दिल्ली के हैबिटेट फिल्म समारोह में ‘समानांतर’ फिल्म का प्रदर्शन किया गया. भले ही इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हो, यह फिल्म अभी तक आम लोगों के लिए प्रदर्शित नहीं हुई है. ‘मिथिला मखान’ को भी चार साल के बाद निर्देशक नितिन चंद्रा ने अपने निजी वेबसाइट पर रिलीज किया था.
इस बीच मैथिली में बनी ‘गामक घर’, ‘धुइन’ जैसी फिल्मों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहा गया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इसे रिलीज भी किया गया. यही बात हिंदी में बनी लेकिन मैथिली समाज को घेरे में लेती पार्थ सौरभ की फिल्म ‘पोखर के दुनू पार’ के बारे में भी कही जा सकती है. बहरहाल, ये फिल्में जहां बेरोजगारी, पलायन, जाति से बंटे समाज में प्रेम जैसे मुद्दों को चित्रित करती हैं, वहीं ‘समानांतर’ की दुनिया में हिंसा और पारलौकिक तत्व हैं. प्रसंगवश, पिछले साल रिलीज हुई नितिन चंद्रा की फिल्म ‘जैक्सन हॉल्ट’ में भी हिंसा कहानी के मूल में था. यह देखना सुखद है कि हाल के वर्षों में मैथिली सिनेमा के विषय-वस्तु में विस्तार आया है.
इस फिल्म में चार कहानियों को एक सूत्र में पिरोया गया है. ये चारों कहानियाँ सहरसा के इर्द-गिर्द बसी है. हर कहानी में हिंसा का तत्व है, पर सामाजिक विसंगतियों के समाधान के लिए लेखक-निर्देशक ने एक समानांतर दुनिया रची है. इस दुनिया में राज्य सत्ता, मसलन पुलिस और न्यायालय नहीं दिखते हैं. ऐसे में फिल्म महज एक फंतासी बन कर रह जाती है. एक कहानी में बकायदा ‘भूत’ के रहस्य पर चर्चा है. ऐसा लगता है कि सामाजिक विचलन के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को सजा भी यही भूत देता है!
इस फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद जब मैंने निर्देशक से इस बाबत सवाल किया तो उनका कहना था कि ‘कर्म फल के लिए उन्होंने ‘सुपरनेचुरल’ तत्वों का इस्तेमाल किया है.’ यूँ तो फिल्में किसी भी विषय-वस्तु को परदे पर चित्रित कर सकती है, पर जब कहानियाँ मिथिला जैसे इलाके में अवस्थित हो तब आप ‘कर्म फल’ के नाम पर सामाजिक यथार्थ से मुंह नहीं चुरा सकते. यदि आधुनिक समाज में हिंसा है जो उसकी परिणति और सजा भी आधुनिक मानदंडों के अनुरूप ही होगी. जैसा कि ‘जैक्सन हॉल्ट’ फिल्म में हमने देखा था. इस फिल्म में जहाँ एनएसडी से प्रशिक्षित कलाकार थे ,वहीं ‘समानांतर’ फिल्म में अधिकांश कलाकार ‘एमेच्योर’ है.
मिथिला के भू-भाग को सुंदरता और सादगी से दिखाने में निर्देशक कामयाब रहे हैं. साथ ही इस फिल्म में गाँव-देहात में मौजूद विभिन्न ध्वनियों की बारीकियों को भी खूबसूरती से पकड़ा गया है. आश्चर्य नहीं कि ध्वनि संयोजन के लिए ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित रेसुल पोकुट्टी का नाम भी फिल्म के पोस्टर पर दिखता है. उन्होंने ही इस फिल्म को प्रस्तुत किया है.
Tuesday, August 15, 2023
पीढ़ियों के साथ सिनेमा का सफर
सिनेमा के बिना आधुनिक भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है. सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का यह अभिन्न हिस्सा है. हाल में रिलीज हुई करण जौहर की फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ में किरदार फिल्मी गानों के सहारे ही स्मृतियों और सपनों को जीते हैं. जीवन भी तो स्मृतियों, इच्छाओं और सपनों का ही पुंज है.
याद कीजिए हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘पंचलाइट’ में भी गोधन मुनरी को देखकर ‘सलीमा’ का गाना गाता है- ‘हम तुमसे मोहब्बत करके सलम..’. सिनेमा विभिन्न कलाओं-साहित्य, संगीत, अभिनय, नृत्य, पेंटिग, स्थापत्य को खुद में समाहित किए हुए है. जनसंचार का माध्यम होने के नाते और पॉपुलर संस्कृति का अंग होने से सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. जाहिर है, आजाद भारत में बॉलीवुड ने देश को एक सूत्र में बांधे रखने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है.
आजादी के तुरंत बाद सरकार ने भी देश में सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली. आज देश में हिंदी, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम, असमिया, भोजपुरी, मैथिली, मणिपुरी समेत लगभग पचास भाषाओं में फिल्म का निर्माण होता है. आश्चर्य नहीं कि आज दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्म का उत्पादन भारत में ही होता है, लेकिन जहाँ बॉलीवुड की फिल्मों की चर्चा होती है, अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में समीक्षकों की नजर से ओझल ही रहती हैं.
भले बॉलीवुड के केंद्र में कारोबार, मनोरंजन और ‘स्टार’ का तत्व हो, लेकिन ऐसा नहीं कि पिछले सत्तर सालों में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से इसने नजरें चुराई हैं. इन दशकों में सामाजिक प्रवृत्तियों को सिनेमा ने परदे पर चित्रित किया. खासकर, पिछले दशकों में भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद तकनीक और बदलते बाजार ने इसे नए विषय-वस्तुओं को टटोलने, संवेदनशीलता से प्रस्तुत करने और प्रयोग करने को प्रेरित किया है.
पिछली सदी के पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. पचास-साठ के दशक की फिल्मों मसलन आवारा, दो बीघा जमीन, नया दौर, मदर इंडिया, प्यासा, मुगले आजम, साहब बीवी और गुलाम, गाइड आदि ने हिंदी सिनेमा को एक मजबूत आधार दिया. इस दशक की फिल्मों पर नेहरू के विचारों की स्पष्ट छाप है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. हालांकि राज कपूर, देवानंद, गुरुदत्त जैसे अभिनेताओं की एक विशिष्ट पहचान थी.
पचास के दशक में ‘पाथेर पांचाली’ के साथ सत्यजीत रे का आविर्भाव होता है, जिनकी फिल्मों के बारे में चर्चित जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने कहा था- 'सत्यजीत रे की फिल्मों को जिसने नहीं देखा, मानो वह दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहा है'. आजादी के बाद करवट बदलते देश, परंपरा और आधुनिकता के बीच की कश्मकश इन फिल्मों में मिलती है. रे के समकालीन रहे ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों का मुहावरा और सौंदर्यबोध रे से साफ अलग था. जहाँ घटक की फिल्में मेलोड्रामा से लिपटी थी वहीं सेन की फिल्मों के राजनीतिक तेवर, प्रयोगशीलता ने आने वाली पीढ़ी के फिल्मकारों को खूब प्रभावित किया. सेन का सौंदर्य बोध रे से अलहदा था. वे कलात्मकता के पीछे कभी नहीं भागे. रे की ‘गीतात्मक मानवता’ भी उन्हें बहुत रास नहीं आती थी. साथ ही ऋत्विक घटक के मेलोड्रामा से भी उनकी दूरी थी
साठ के दशक में पुणे में फिल्म संस्थान की स्थापना हुई जहाँ से अडूर गोपालकृष्णन, मणि कौल, कुमार शहानी, केतन मेहता, सईद मिर्जा, जानू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली, जॉन अब्राहम जैसे फिल्मकार निकले जिन्होंने विभिन्न भाषाओं में सिनेमा को मनोरंजन से अलग एक कला माध्यम के रूप में स्थापित किया.
सत्तर के दशक में सिनेमा ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन’ की पृष्ठभूमि से होते हुए युवाओं के मोहभंग, आक्रोश और भ्रष्टाचार को अभिव्यक्त करता है. जंजीर, दीवार जैसे फिल्मों के साथ अमिताभ बच्चन इस दशक के प्रतिनिधि बन कर उभरे. हालांकि सत्तर-अस्सी के दशक में देश-दुनिया में भारतीय समांतर सिनेमा की भी धूम रही. आक्रोश, अर्धसत्य, जाने भी दो यारो, मंडी जैसी फिल्मों की चर्चा हुई. असल में, भारतीय सिनेमा में शुरुआत से ही ‘पॉपुलर’ के साथ-साथ ‘पैरेलल’ की धारा बह रही थी, पर इन दशकों में पुणे फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) से प्रशिक्षित युवा निर्देशकों, तकनीशियनों के साथ-साथ नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उभरे. सिनेमा सामाजिक यथार्थ को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने लगा. सिनेमा साहित्य के करीब हुआ. मणि कौल, कुमार शहानी, अडूर गोपालकृष्णन की फिल्में इसका उदाहरण हैं, जहाँ निर्देशक की एक विशेष दृष्टि दिखाई देती है. हम कह सकते हैं कि समांतर सिनेमा का सफर 21वीं सदी में भी जारी है, भले स्वरूप में अंतर हो. अनूप सिंह, गुरविंदर सिंह, अमित दत्ता जैसे अवांगार्द फिल्मकार इसी श्रेणी में आते हैं.
नब्बे के दशक में उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद देश में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए उसे शाहरुख, सलमान, आमिर खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन की फिल्मों ने पिछले तीन दशकों में प्रमुखता से स्वर दिया हैं. यकीनन, बॉलीवुड मनोरंजन के साथ-साथ समाज को देखने की एक दृष्टि भी देता है.
कोई भी कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में भी आज राष्ट्रवादी भावनाएं खूब सुनाई दे रही है. आजादी के तुरंत बाद बनी फिल्मों में भी राष्ट्रवाद का स्वर था, हालांकि तब के दौर का राष्ट्रवाद और आज के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. यह एक अलग विमर्श का विषय है.
तकनीक क्रांति के इस दौर में मनोरंजन की दुनिया में सामग्री के उत्पादन और उपभोग के तरीकों में काफी बदलाव आया है. एक आंकड़ा के मुताबिक भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म का बाजार सब्सक्रिप्शन सहित करीब दस हजार करोड़ रुपए का है, जो इस दशक के खत्म होते-होते तीस हजार करोड़ तक पहुँच जाएगा. बॉलीवुड और सिनेमाघरों को ओटीटी प्लेटफॉर्म से चुनौती मिल रही है. साथ ही संभावनाओं के द्वार भी खुले हैं. यहाँ नए विषयों के चित्रण के साथ प्रयोग की संभावनाएँ भी बढ़ी हैं. न सिर्फ दर्शक बल्कि बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक और कलाकारों की नज़र भी इस बढ़ते हुए बाजार पर टिकी है.
पिछले दशक में भारत आर्थिक रूप से दुनिया में शक्ति का एक केंद्र बन कर उभरा है, लेकिन जब हम सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पॉवर) की बात करते हैं सिनेमा ही नज़र आता है. यह भारतीय सिनेमा की सफलता है.
Sunday, August 06, 2023
पर्दे पर मिलान कुंदेरा का साहित्य
‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’ मिलान कुंदेरा (1923-2023) की बहुचर्चित कृति है. उनकी मृत्यु के बाद साहित्य पर टीका-टिप्पणी हुई लेकिन उपन्यास पर इसी नाम से अमेरिकी फिल्मकार फिलिप कॉफमैन के निर्देशन बनी फिल्म (1988) उपेक्षित रही. मूल चेक में लिखा यह उपन्यास (1984) पहले अंग्रेजी में ही छपा था. फिल्म के बाद ही किताब की धूम दुनिया भर में मची थी.
यह उपन्यास दर्शन, इतिहास, राजनीति, मानवीय संबंधों, द्वंदो, अधिनायकवादी सत्ता के दुरुपयोग को 1968 में प्राग स्प्रिंग (चेकोस्लोवाकिया) की पृष्ठभूमि में अद्भुत शिल्प में रचता है. इस बहुस्तरीय किताब के कई अंश को निर्देशक ने नहीं छुआ है. मसलन फिल्म में उपन्यासकार नहीं दिखता है. फिर भी उपन्यास के मूल कथ्य और किरदारों को ‘स्क्रीनप्ले’ में सुरक्षित रखा गया है. उपन्यास से अलग फिल्म एक स्वतंत्र विधा के रूप में हमें प्रभावित करती है. कई दृश्य, किरदारों के प्रभावी अभिनय और संगीत जेहन में टंगे रह जाते हैं.
टॉमास एक कुशल सर्जन है जो प्राग में रहता है. उसके कई स्त्रियों से संबंध है. तेरेजा से मुख्तसर सी मुलाकात के बाद वह शादी कर लेता है. टॉमास के संबंध हालांकि अन्य स्त्रियों से जारी रहते हैं. सबीना एक ऐसी स्वतंत्रचेता पेंटर है जिसके साथ भी टॉमास के अंतरंग रिश्ते हैं. सबीना की सहायता से तेरेजा की नौकरी एक फोटोग्राफर के रूप में लग जाती है. 1968 में जब साम्यवादी सोवियत संघ की सेना टैंकों के साथ प्राग पर धावा बोलती है, तब हम उसी के लेंस से लोमहर्षक दृश्य देखते हैं. फिल्मकार ने दस्तावेजी फुटेज के साथ बेहद खूबसूरती से टैंको के ईद-गिर्द लोगों के विरोध प्रदर्शन को चित्रित किया है. प्राग के निवासी अपने घर-बार छोड़ कर दूसरे देशों में रिफ्यूजी बनने को मजबूर हैं. फिल्म में आए घर, मानवीय अस्तित्व, स्वतंत्रता का सवाल मौजू है. आज जब रूसी सेना यूक्रेन में है, ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’ फिल्म प्रासंगिक हो उठी है.
उपन्यास की तरह ही फिल्म में टॉमास, तेरेजा, सबीना देश छोड़ कर स्विट्जरलैंड चले जाते हैं. यहाँ सबीना की मुलाकात फ्रांज (प्रोफेसर) से होती है. तेरेजा स्विट्जरलैंड को स्वीकार नहीं कर पाती है और प्राग लौट आती है. सबीना फ्रांज को छोड़ कर अमेरिका चली जाती है. टॉमास को एहसास होता है कि वह तेरेजा के बिना नहीं रह सकता है और फिर पीछे-पीछे प्राग लौट आता है. लेकिन फिर भी उसके संबंध अन्य स्त्रियों के साथ बने रहते हैं. टॉमास (डेनियल डे लेविस), तेरेजा (जूलीएट बिनोचे) और सबीना (लेना ओलेन) के बीच संबंधों के तनाव, अस्तित्व के भारीपन और हल्केपन के द्वंद को बेहद खूबसूरती से फिल्म सामने लाती है.
आम तौर पर साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों से उनके रचनाकार खुश नहीं रहते हैं, कुंदेरा अपवाद नहीं थे. पर यदि हम ग्रैबिएल गार्सिया मार्केज़ या सलमान रुश्दी के उपन्यासों पर बनी फिल्मों से इस फिल्म की तुलना करें तो यह फिल्म उपन्यास की ‘देह और आत्मा’ को परदे पर साकार करने में सफल रही है. उपन्यास की तरह ही फिल्म का फलसफा है: ‘हम जीवन एक ही बार जीते हैं, जिसकी तुलना न हम पिछले जीवन से कर सकते हैं न ही इसे आने वाले जीवन में बेहतर बना सकते हैं’,