Thursday, August 05, 2021

लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा है: मैनेजर पांडेय


प्रोफेसर मैनेजर पांडेय हिंदी के वरिष्ठ आलोचक हैं. सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना दोनों क्षेत्र में इन्होंने लेखन किया है. आलोचना की विचारधारा, सामाजिकता और साहित्य के समाजशास्त्र पर इनका विशेष जोर रहा है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय भाषा केंद्र से ये लंबे समय तक जुड़े रहे. प्रोफेसर पांडेय जीवन के अस्सीवें साल में हैं और आलोचना कर्म में अभी भी सक्रिय हैं. दिल्ली स्थित आवास पर उनसे अरविंद दास ने बातचीत की, एक अंश प्रस्तुत है:

देश 75 वां स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहा है. पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी राजनीतिक दल का वर्चस्व बढ़ा है, विपक्ष की भूमिका कम हुई है. ऐसे में समाज में साहित्यकार की क्या भूमिका आप देख रहे हैं?
किसी भी लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा है. विरोध स्वीकार्य नहीं भी हो तो भी सत्ता को उसका सम्मान करना चाहिए. साहित्यकार वर्तमान और भविष्य की चिंता के बारे में बताता है. जब विरोध की राजनीति परिदृश्य से गायब हो रही हो तब साहित्यकारों की भूमिका बनती है. वे जनता की समस्याओं के बारे में सहीं ढंग से सोचे, लिखें और बोलें ताकि लोग सजग हों. असल में दिक्कत यह है कि सत्ताधारी वर्ग साहित्य पढ़ते ही नहीं. वे नहीं जानते कि साहित्य क्या कह रहा है, क्या कहना चाह रहा है. समस्या यह है कि अबकी सरकार विरोध को बर्दाश्त नहीं करती है. अनेक पत्रकार सत्ता विरोधी लेखन की वजह से पकडें गए उन पर ब्रिटिश कालीन राजद्रोह (सिडिशन) का कानून लगा है.
आप आलोचना में सामाजिकता पर जोर देते रहे हैं. कोरोना महामारी के समय में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एक दूरी दिखाई दी है...
साहित्य के माध्यम से ही आलोचकों की भूमिका तय होती है. यदि कविता सत्ता विरोधी है तो आलोचक का काम है कि उसका विवेचन कर लोगों के सामने ले आए. साथ ही भाषा का खेल को खोलना आलोचना का दायित्व है. कोरोना काल में बिहार, उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मजदूरों का विभिन्न शहरों- दिल्ली, बैंगलौर, हैदराबाद, से पलायन हुआ है. दर्दनाक स्थितियों में यातना सहते हुए वे भागे. बैचेन करने वाले ये दृश्य हमने टीवी पर देखे. इन्हें प्रवासी मजदूर कहा गया. बिहार का मजदूर जो दिल्ली आया वह प्रवासी कैसे हो गया? दूसरे देश में जाने वाले, गिरमिटिया, को प्रवासी मजदूर कहा जाता था. अगर एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना ही प्रवासी होना है तो फिर सारा केंद्र सरकार प्रवासियों की सरकार हो जाएगी. ऐसे ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जैसे नारे कोराना से बचाव के लिए बने हैं. सोशल डिस्टेंसिंग इस देश में पाँच हजार वर्षों से है. दलितों को दूर रखने का काम सवर्ण करते रहे हैं. आप इसे फिजिकल डिस्टेंसिंग (शारीरिक दूरी) कहिए. एक आलोचक इन्हीं सब चीजों पर विचार कर सकता है, लोगों का ध्यान आकृष्ट कर सकता है. पिछले दिनों मैंने वेबिनारों में इन पर बातचीत की है.
किसान आंदोलन, एनआरसी, सीएए के खिलाफ आंदोलनों में साहित्यकारों का जुड़ाव किस रूप में आप देख रहे हैं?
कुछ लोग इन आंदोलनों से जुड़े. दिल्ली के अगल-बगल में वे धरना-प्रदर्शन में भी गए. लेकिन जेपी मूवमेंट के दौरान जिस तरह साहित्यकार जुडें, जैसे रेणु या नागार्जुन, उस तरह से बड़े लेखक इन आंदोलनों से नहीं जुड़े है. कारण चाहे जो भी हो. यह भी भय हो कि सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करे. जितने बड़े पैमाने पर साहित्यकारों को इनमें शामिल होना चाहिए था, वे नहीं हुए.
सूरदास पर आपने पीएचडी की थी, अनेक समकालीन रचनाकारों पर भी लिखा है. आपके प्रिय रचनाकार कौन रहे हैं?
मैंने अपने समय के ही रचनाकारों का नाम लूँगा. सूर-तुलसी-कबीर सबके प्रिय हैं. एक हैं बाबा नागार्जुन. उनसे मेरा व्यक्तिगत संबंध था. वे जब दिल्ली आते थे तब मेरे घर पर रुकते थे. बाबा नागार्जुन मुख्यत: किसान-मजदूरों के कवि थे. वे जन आंदोलनों के कवि थे. दलित, आदिवासी पर उन्होंने कविता लिखी है. इन सब कारणों से वे मुझे पसंद हैं. वे जटिलता को कला नहीं मानते थे. एक उनकी कविता है-जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं, जनकवि हूँ मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं. बहुत लोग हकलाहट को ही कविता समझते हैं, नागार्जुन उनमें से नहीं हैं. दूसरे मेरे प्रिय कवि हैं आलोकधन्वा जिन्होंने लिखना बंद कर दिया है. तीसरे मेरे प्रिय कवि हैं, जिन पर मैंने लिखा भी है, कुमार विकल. पंकज चतुर्वेदी, बोधिसत्व की कविता भी मुझे पसंद हैं.
आपको नामवर सिंह ‘आलोचकों का आलोचक’ कहते थे...
नामवर सिंह मुझे किनारे करने के लिए इस तरह के फतवे देते थे. उनके कहने का अर्थ ये था कि मैं व्यावहारिक आलोचनाएँ नहीं लिखता. जो आदमी सूरदास पर पूरी किताब लिखा हो उसे व्यावहारिक आलोचना नहीं लिखने वाला कहना कैसी ईमानदारी है! मैंने उपन्यास और लोकतंत्र किताब में अनेक उपन्यासों की आलोचना की है. अभी मेरी किताब आई है-हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान. उसमें कई लेख हैं व्यावहारिक आलोचना के. और तो और देश के विभाजन को लेकर अज्ञेय ने जो कविता-कहानी ‘शरणार्थी’ में लिखी उसका विवेचन-विश्लेषण भी मैंने किया. विभाजन त्रासदी पर छायावादी कवियों, प्रगतिशीलों ने भी नहीं लिखा. फुटकर कविता की अलग बात है. हम रचना का मूल्यांकन करते हैं, रचनाकार का नहीं. इसलिए आलोचकों का आलोचक कहना झूठ है.
जेएनयू से आप लंबे समय तक जुड़े रहे हैं. जिस तरह का आरोप-प्रत्यारोप इन दिनों सुनाई दे रहा है वह विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता/स्वायत्तता पर सवाल खड़े करता है?
जेएनयू की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को नष्ट करने के लिए कुछ लोग लगे हुए हैं. फिर भी अगर जेएनयू के छात्र और अध्यापक, जो इसकी प्रतिष्ठा करना चाहते हैं, जीवित, जागृत और सजग रहें तो नष्ट नहीं होगा. मेरी जितनी समझ बनी है, देश की उच्च शिक्षा ही संकट में है उसी में जेएनयू भी है.
आप 'दारा शिकोह' पर लंबे समय से काम करते रहे हैं. कब तक किताब प्रकाशित होने की उम्मीद है.
ऐसा है, ये आप जो आप देख रहे हैं (सोफे पर फैली किताबों की तरफ इशारा करते हुए), दारा शिकोह पर मैं काम कर रहा हूँ. एक-दो महीने में पूरा कर लूँगा, फिर किताब प्रेस में जाएगी.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

No comments: