Monday, June 13, 2022

जन नाट्य मंच: जनता के थिएटर के पचास साल

 


पारंपरिक रंगमंच और सभागारों से इतर चौक-चौराहे, गली-मोहल्ले, झुग्गी-झोपड़ी, हड़ताल-आंदोलन में, फैक्ट्रियों के आस-पास या कॉलेज-विश्वविद्यालय में जनता से आओ आओ, नाटक देखो, नाटक देखो...की गुहार से शुरु हो कर समकालीन समय और सामाजिक-राजनीतिक सवालों से मुठभेड़ की शैली अब नुक्कड़ नाटकों की विशिष्ट पहचान बन चुकी है. आजाद हिंदुस्तान में जनता तक नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से नाट्य कला और संस्कृति को ले जाने की पहल जन नाट्य मंच (जनम) ने किया और इसे लोकप्रिय बनाया है.

पिछले पचास वर्षों में जनम ने करीब सवा सौ नुक्कड़ नाटकों का देश-विदेश के दर्शकों के बीच हजारों बार मंचन किया है. एक तरह से देश में जनम नुक्कड़ नाटक का पर्याय रहा है. वर्ष 1973 में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से निकले कुछ रंगकर्मियों ने जनम की स्थापना की थी, जिसमें मशहूर रंगकर्मी सफदर हाशमी (1954-1989) प्रमुख थे. शुरुआत में जनम मंचीय थिएटर करता था, हालांकि तब भी इसे मैदानों में, चौपालों में लोगों के बीच किया जाता था. उल्लेखनीय है कि इप्टा में छोटे-छोटे, दस-पंद्रह मिनट के नुक्कड़ नाटकों की एक क्षीण परंपरा मिलती है.

जनम का असली सफर आपातकाल (1975-77) के बाद वर्ष 1978 से शुरू होता है. जैसा कि जनम की अध्यक्ष और रंगकर्मी मलयश्री हाश्मी कहती हैं: मुझे याद है कि वर्ष 1978 के सितंबर में हम बात कर रहे थे कि क्या करें यार, कहां नाटक करें. तब सफदर ने बहुत सादगी से कहा था कि यदि हम बड़े नाटक नहीं ले जा सकते हैं तो छोटे नाटक लेकर जाएंगे जनता के बीच’. यह बहुत प्रैक्टिल सुझाव था.  असल में जनम को ट्रेड यूनियनों से सहायता मिलती थी, पर आपातकाल के बाद इन यूनियनों से सहयोग बंद हो गया. वे लोग खुद उलझे हुए थे.

हालांकि छोटे नाटकों का उस वक्त अभाव था, जिसे सफदर ने अपने एक सहयोगी राकेश सक्सेना के साथ मिल कर पूरा किया. सफदर की तरह ही राकेश सक्सेना भी जनम के संस्थापक सदस्यों में शामिल थे. जनम के शुरुआती नाटक मशीन’ (1978) और औरत’ (1979) इन्हीं दोनों ने मिल कर  लिखा था. मलयश्री याद करती हुई कहती हैं कि राकेश ने सफदर के साथ मिल कर एक रात में मशीननाटक लिखा. इस नाटक में एक फैक्टरी के अंदर कैंटीन और साइकिल स्टैंड का सवाल है, पर यह नाटक मशीनी रिश्तों के बारे में था, मूलत: पूंजीवाद के बारे में था.

वे कहती हैं कि जिस तरह से नाटक लिखा गया उसे मैं कभी नहीं भूल सकती. ऐसा लग रहा था कि उनके अंदर से बना-बनाया नाटक निकल रहा है, उंगली बस लिख रही है. हाथ एक का था, शब्द दोनों का था. प्रसंगवश औरत (इसमें मलयश्री की प्रमुख भूमिका रही है)नाटक का देश के कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इस नाटक की पर्याप्त समीक्षा भी हुई है.

शुरुआत में जनम के नुक्कड़ नाटकों को पारंपरिक नाटककारों और रंग समीक्षकों से उपेक्षा झेलनी पड़ी. वे इसे रंग कर्म मानने से इंकार करते थे. इसी के मद्देनजर सफदर हाशमी ने अपने एक लेख में नोट किया था: ‘…वर्तमान नुक्कड़ नाटक रंगमंच की पूंजीवादी अवधारणा के विरुद्ध, पूंजीवाद द्वारा मंच नाटक को हथिया लिए जाने के विरुद्ध, प्रतिरोध की एक अभिव्यक्ति है. हम समझते हैं कि मंच नाटक और नुक्कड़ नाटक में अंतर्विरोध की बात करना बकवास है. जनता से दोनों का एक बराबर संबंध है.बहुमुखी प्रतिभा के धनी सफदर अपने नाटकों को मेहनतकश कामकाजी जनता के बीच लेकर गए.

प्रतिरोध का स्वर जनम के नाटकों में हमेशा मुखर रहा है. वर्ष 1989 में एक जनवरी को सफदर हाश्मी पर हल्ला बोलनाटक के मंचन के दौरान झंडापुर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) में कांग्रेस पार्टी के कुछ गुंडों ने हमला किया और एक दिन के बाद उनकी मौत हो गई, लेकिन दो दिन बाद सफदर की साथी और पत्नी मलयश्री ने उसी जगह पर जाकर उस अधूरे नाटक को पूरा किया. भारतीय नाट्य इतिहास में ऐसा दृष्टांत मिलना मुश्किल है. एक विशाल हुजूम वहाँ मौजूद था. पूरे देश में इस नाटक की खूब चर्चा हुई. मलयश्री हाश्मी कहती हैं कि वहाँ पर जाने का एक मूल कारण यह था कि मैं इप्टा के जमाने से जनता के बीच में नाटक कर रही थी. यह तो संभव ही नहीं है कि कहीं पर हम नाटक अधूरा छोड़ कर आएं? यह जन कलाकार और काम-काजी ऑडिएंश का आपसी रिश्ता था.कलाकारों और काम-काजी दर्शकों के इस रिश्ते को हमने भी कॉलेज-विश्वविद्यालय के दिनों में देखा है. 21वीं सदी में वो बोल उठी (2001)और यह दिल मांगे मोर गुरुजी’ (2002) जैसी प्रस्तुतियाँ काफी चर्चित रही. वो बोल उठीजहाँ औरतनुक्कड़ नाटक की तरह समाज में स्त्री की स्थिति के सवालों से रू-ब-रू है वहीं यह दिल मांगे मोर गुरुजीसांप्रदायिकता, उदारीकरण को घेरे में लेती है. पिछले साल से जनम ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के चर्चित नाटक अंधेर नगरीका सैकड़ों बार मंचन किया है.

बिना किसी सहयोग और ग्रांट के जनम की यह यात्रा किसी आश्चर्य से कम नहीं. इन पचास सालों में सभी आयु वर्ग के कलाकार संगठन से जुड़ते रहे हैं. इन्हीं जुनूनी लोगों ने इस छोटी मंडली को सफल बनाया है और नए नाटक करने को प्रेरित किया है, बेशक जनता का इन्हें समर्थन हासिल रहा है. जनम सही मायनों में जनता का थिएटर है.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

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