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Monday, June 12, 2023

सुनहरा अतीत और वर्तमान प्रासंगिकता: इप्टा के अस्सी साल

 


चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने भारतीय जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा थावह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. 25 मई 1943 को बंबई के मारवाड़ी विद्यालय हॉल में इप्टा की शुरुआत हुई. गीत-संगीतनृत्यनाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया थाजिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी.  इस जन संस्कृति  में  देशज कला रूपों और लोक संस्कृति को तरजीह दी गई. जाहिर हैइप्टा के नाटकों में गीत-संगीत हमेशा से रहा. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े साहित्यकारों और वामपंथी बुद्धिजीवियों की इसमें बड़ी भूमिका थी.  फ्रांस के चर्चित लेखकनाटककार रोम्यां रोलां की द पीपुल्स थिएटर' (1903) किताब से इप्टा ने अपना नाम लिया और नामकरण का श्रेय प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा को जाता है. जनवादी थिएटर की दिशा में इप्टा ने क्रांतिकारी पहल की. बंगाल के अकाल (1942) की पृष्ठभूमि में लिखा नाटक नबान्न’ (निर्देशक शंभु मित्रा)जुबैदा’ (निर्देशक बलराज साहनी) की चर्चा आज भी होती है.

 

पिछले दिनों इप्टा के अस्सी साल पूरे होने पर मैंने चर्चित फिल्मकारनाट्यकर्मी और इप्टा के संरक्षक 92 वर्षीय एम एस सथ्यू ने जब बात किया तब उन्होंने कहा कि इप्टा देश में एमेच्योर थिएटर का एकमात्र ऐसा समूह है जिसने अस्सी साल पूरे किए हैं. एक आंदोलन और थिएटर समूह के रूप में किसी संगठन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है.’  एक दौर में देश के विभिन्न राज्यों में हजारों सदस्य इप्टा से जुड़े थे. आजादी के बाद 60 के दशक में यह आंदोलन कमजोर पड़ गया. राष्ट्रीय स्तर पर एक बिखराव दिखा हालांकि राज्य स्तर पर विभिन्न इकाई काम करती रही. इसी दशक में वाम राजनीतिक दलों में हुए विभाजन का असर इप्टा पर भी पड़ा.

 

कई नाट्य संगठन हालांकि इससे प्रेरित रहे हैं. इप्टा जैसे राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन की यह ऐतिहासिक भूमिका है. जुहू थिएटर आर्ट (बलराज साहनीबंबई)नटमंडल (दीना पाठकअहमदाबाद)शीला भट्ट (दिल्ली आर्ट थिएटर) कुछ ऐसे ही नाम हैं. साथ ही इप्टा के सदस्य रहे सफदर हाशमी की संस्था जन नाट्य मंच (1973) इप्टा से ही निकलीजिसने पचास साल पूरे किए हैं. आज नुक्कड़ नाटकों के लिए जनम पर्याय बन चुका है. इसकी पहल इप्टा ने की थी, जैसा कि एक बातचीत में ख्यात रंगकर्मी और जनम की अध्यक्ष मलयश्री हाश्मी ने पिछले साल मुझे कहा था: “इप्टा के शुरुआती दिनों (1943-44) में खास तौर पर बंबई में कामगारों के संघर्ष और सांप्रदायिक दंगे हुए थे. उस दौरान छोटे-छोटे नाटकबिना विधिवत स्क्रिप्ट केगली-चौराहे पर इप्टा से जुड़े कलाकार करते थे. इसकी अवधि दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं होती थी. इसे मैं नुक्कड़ नाटक का प्रारूप समझती हूँ.” आम लोगों के बीच इप्टा अपने नाटकों को लेकर गया. जनता में राजनीतिक-सांस्कृतिक क्रांतिकारी चेतना का संचार, सामाजिक न्याय और मानव कल्याण घोषित उद्देश्य था.

 

प्रसंगवशसथ्यू ने वर्ष 1973 में देश विभाजन को लेकर गर्म हवा फिल्म बनाई जो आज भी अपनी संवेदनशीलता और कलाकारों की अदाकारी को लेकर याद की जाती है. उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में इप्टा से जुड़े रहे बलराज साहनीकैफी आज़मीइस्मत चुगताईशौकत आजमी आदि की प्रमुख भूमिका थी. बलराज साहनी ने इप्टा के दिनों को याद करते हुए मेरी फिल्मी आत्मकथा (1974) में लिखा हैऔर इस तरह अचानक ही जिंदगी का एक ऐसा दौर शुरू हुआजिसकी छाप मेरे जीवन पर अमिट है. आज भी मैं अपने आपको इप्टा का कलाकार कहने में गौरव महसूस करता हूँ.” नया थिएटर (1959) के संस्थापक हबीब तनवीर का यह जन्मशती वर्ष है, इप्टा से शुरुआती दौर में वे भी जुड़े हुए थे.

 

नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में धरती के लाल (के ए अब्बास) और नीचा नगर (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. साहनी ने विस्तार से अपनी आत्मकथा में इन फिल्मों के निर्माण की चर्चा की है. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गईदोनों ही फिल्मों में संगीत सितार वादक रविशंकर ने दिया थाजो खुद इप्टा से जुड़े थे. इसी तरह ऋत्विक घटक और मृणाल सेन भी इप्टा से संबद्ध थे.

 

सथ्यू कहते हैं कि आज के दौर में थिएटर ग्रुप को चलाना आसान काम नहीं है. टेलीविजनसिनेमा में दस तरह के प्रलोभन और पैसा है. हालांकि कुछ लोग अभी भी नाटक को लेकर समर्पित हैं.  इस तरह के काम को लेकर युवाओं में जुनून है. ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि इप्टा सौ वर्ष पूरा करेगा. 

 

आज देश में सांप्रदायिकता और अधिनायकवादी सत्ता अपने उरूज पर हैऐसे में इप्टा और ऐसे संगठनों की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है.  इप्टा की इकाई विभिन्न राज्यों-- बिहारअसममहाराष्ट्रकेरल आदि में सक्रिय है. पर जैसा कि सथ्यू कहते हैंसवाल है कि नए सदस्यों को संगठन से कैसे जोड़ा जाए!


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Monday, June 13, 2022

जन नाट्य मंच: जनता के थिएटर के पचास साल

 


पारंपरिक रंगमंच और सभागारों से इतर चौक-चौराहे, गली-मोहल्ले, झुग्गी-झोपड़ी, हड़ताल-आंदोलन में, फैक्ट्रियों के आस-पास या कॉलेज-विश्वविद्यालय में जनता से आओ आओ, नाटक देखो, नाटक देखो...की गुहार से शुरु हो कर समकालीन समय और सामाजिक-राजनीतिक सवालों से मुठभेड़ की शैली अब नुक्कड़ नाटकों की विशिष्ट पहचान बन चुकी है. आजाद हिंदुस्तान में जनता तक नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से नाट्य कला और संस्कृति को ले जाने की पहल जन नाट्य मंच (जनम) ने किया और इसे लोकप्रिय बनाया है.

पिछले पचास वर्षों में जनम ने करीब सवा सौ नुक्कड़ नाटकों का देश-विदेश के दर्शकों के बीच हजारों बार मंचन किया है. एक तरह से देश में जनम नुक्कड़ नाटक का पर्याय रहा है. वर्ष 1973 में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से निकले कुछ रंगकर्मियों ने जनम की स्थापना की थी, जिसमें मशहूर रंगकर्मी सफदर हाशमी (1954-1989) प्रमुख थे. शुरुआत में जनम मंचीय थिएटर करता था, हालांकि तब भी इसे मैदानों में, चौपालों में लोगों के बीच किया जाता था. उल्लेखनीय है कि इप्टा में छोटे-छोटे, दस-पंद्रह मिनट के नुक्कड़ नाटकों की एक क्षीण परंपरा मिलती है.

जनम का असली सफर आपातकाल (1975-77) के बाद वर्ष 1978 से शुरू होता है. जैसा कि जनम की अध्यक्ष और रंगकर्मी मलयश्री हाश्मी कहती हैं: मुझे याद है कि वर्ष 1978 के सितंबर में हम बात कर रहे थे कि क्या करें यार, कहां नाटक करें. तब सफदर ने बहुत सादगी से कहा था कि यदि हम बड़े नाटक नहीं ले जा सकते हैं तो छोटे नाटक लेकर जाएंगे जनता के बीच’. यह बहुत प्रैक्टिल सुझाव था.  असल में जनम को ट्रेड यूनियनों से सहायता मिलती थी, पर आपातकाल के बाद इन यूनियनों से सहयोग बंद हो गया. वे लोग खुद उलझे हुए थे.

हालांकि छोटे नाटकों का उस वक्त अभाव था, जिसे सफदर ने अपने एक सहयोगी राकेश सक्सेना के साथ मिल कर पूरा किया. सफदर की तरह ही राकेश सक्सेना भी जनम के संस्थापक सदस्यों में शामिल थे. जनम के शुरुआती नाटक मशीन’ (1978) और औरत’ (1979) इन्हीं दोनों ने मिल कर  लिखा था. मलयश्री याद करती हुई कहती हैं कि राकेश ने सफदर के साथ मिल कर एक रात में मशीननाटक लिखा. इस नाटक में एक फैक्टरी के अंदर कैंटीन और साइकिल स्टैंड का सवाल है, पर यह नाटक मशीनी रिश्तों के बारे में था, मूलत: पूंजीवाद के बारे में था.

वे कहती हैं कि जिस तरह से नाटक लिखा गया उसे मैं कभी नहीं भूल सकती. ऐसा लग रहा था कि उनके अंदर से बना-बनाया नाटक निकल रहा है, उंगली बस लिख रही है. हाथ एक का था, शब्द दोनों का था. प्रसंगवश औरत (इसमें मलयश्री की प्रमुख भूमिका रही है)नाटक का देश के कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इस नाटक की पर्याप्त समीक्षा भी हुई है.

शुरुआत में जनम के नुक्कड़ नाटकों को पारंपरिक नाटककारों और रंग समीक्षकों से उपेक्षा झेलनी पड़ी. वे इसे रंग कर्म मानने से इंकार करते थे. इसी के मद्देनजर सफदर हाशमी ने अपने एक लेख में नोट किया था: ‘…वर्तमान नुक्कड़ नाटक रंगमंच की पूंजीवादी अवधारणा के विरुद्ध, पूंजीवाद द्वारा मंच नाटक को हथिया लिए जाने के विरुद्ध, प्रतिरोध की एक अभिव्यक्ति है. हम समझते हैं कि मंच नाटक और नुक्कड़ नाटक में अंतर्विरोध की बात करना बकवास है. जनता से दोनों का एक बराबर संबंध है.बहुमुखी प्रतिभा के धनी सफदर अपने नाटकों को मेहनतकश कामकाजी जनता के बीच लेकर गए.

प्रतिरोध का स्वर जनम के नाटकों में हमेशा मुखर रहा है. वर्ष 1989 में एक जनवरी को सफदर हाश्मी पर हल्ला बोलनाटक के मंचन के दौरान झंडापुर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) में कांग्रेस पार्टी के कुछ गुंडों ने हमला किया और एक दिन के बाद उनकी मौत हो गई, लेकिन दो दिन बाद सफदर की साथी और पत्नी मलयश्री ने उसी जगह पर जाकर उस अधूरे नाटक को पूरा किया. भारतीय नाट्य इतिहास में ऐसा दृष्टांत मिलना मुश्किल है. एक विशाल हुजूम वहाँ मौजूद था. पूरे देश में इस नाटक की खूब चर्चा हुई. मलयश्री हाश्मी कहती हैं कि वहाँ पर जाने का एक मूल कारण यह था कि मैं इप्टा के जमाने से जनता के बीच में नाटक कर रही थी. यह तो संभव ही नहीं है कि कहीं पर हम नाटक अधूरा छोड़ कर आएं? यह जन कलाकार और काम-काजी ऑडिएंश का आपसी रिश्ता था.कलाकारों और काम-काजी दर्शकों के इस रिश्ते को हमने भी कॉलेज-विश्वविद्यालय के दिनों में देखा है. 21वीं सदी में वो बोल उठी (2001)और यह दिल मांगे मोर गुरुजी’ (2002) जैसी प्रस्तुतियाँ काफी चर्चित रही. वो बोल उठीजहाँ औरतनुक्कड़ नाटक की तरह समाज में स्त्री की स्थिति के सवालों से रू-ब-रू है वहीं यह दिल मांगे मोर गुरुजीसांप्रदायिकता, उदारीकरण को घेरे में लेती है. पिछले साल से जनम ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के चर्चित नाटक अंधेर नगरीका सैकड़ों बार मंचन किया है.

बिना किसी सहयोग और ग्रांट के जनम की यह यात्रा किसी आश्चर्य से कम नहीं. इन पचास सालों में सभी आयु वर्ग के कलाकार संगठन से जुड़ते रहे हैं. इन्हीं जुनूनी लोगों ने इस छोटी मंडली को सफल बनाया है और नए नाटक करने को प्रेरित किया है, बेशक जनता का इन्हें समर्थन हासिल रहा है. जनम सही मायनों में जनता का थिएटर है.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Saturday, June 11, 2022

सफदर ने छोटे नुक्कड़ नाटकों की राह दिखाई

 



हिंदुस्तान में जन नाट्य मंच (जनम) एक तरह से नुक्कड़ नाटक का पर्याय है, जिसके केंद्र में रंगकर्मी सफदर हाश्मी (1954-1989) रहे हैं. दिल्ली स्थित रंगकर्मियों के इस समूह ने पिछले पचास वर्षों में सौ से अधिक नाटकों का देश-विदेश के दर्शकों के बीच मंचन किया है. हबीब तनवीर, अनुराधा कपूर, एम के रैना आदि भी इससे जुड़े रहे हैं. पिछले दिनों ख्यात रंगकर्मी और जनम की अध्यक्ष मलयश्री हाश्मी से अरविंद दास ने इस समूह की यात्रा, सफदर हाश्मीप्रतिरोध की संस्कृति और युवा कलाकारों के बारे में बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश:

जन नाट्य मंच अपनी यात्रा के पचासवें साल में हैइस सफर को किस रूप में देखती हैं?

मैं लगातार यह सोचती रही हूँ कि यह पचास साल का सफर कैसे मुमकिन हुआ, क्योंकि हम तो एक बहुत छोटी सी मंडली हैं, हमारे आगे-पीछे कोई नहीं है. हमारे पास कोई फंड नहीं है, किसी का सहयोग नहीं है. मैं मानती हूं कि इस यात्रा के पीछे दो कारण हैं. एक तो निरंतरता है. हम बिना रुके मेहनतकश, कामकाजी दर्शकों के बीच नए-नए कलात्मक नाटक लेकर गए. हम हमेशा नए दर्शक तक जाते हैं. साथ ही हमारे ग्रुप में नए साथी हमेशा जुड़ते रहे हैं. ये सौ-पचास नहीं होते, बहुत कम होते हैं. सात-आठ लोग नाटक के लिए काफी होते हैं. इसमें सभी आयु वर्ग के लोग रहते हैं. कोई जिंदगी भर नहीं रुकते हैं.दूसरी बात यह है कि नाटक के लिए और भी चीजें जरूरी है, जैसे कि नए विचार हों, खुद की, लोगों की ट्रेनिंग. विविधता और रचनात्मक रेंज भी जरूरी है. ऐसा नहीं कि हमारे सारे, 125 के करीब नुकक्ड़ नाटक, धांसू रहे हैं, पर एक बेसिक कंपिटेंट लेवल हमेशा हमने रखा है. बेहतरीन से बेहतरीन कलाकारों से अभिनय निकालने पर हमेशा हम जोर देते हैं.

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से निकले लोगों ने ही वर्ष 1973 में जनम को जन्म दिया. क्या इप्टा में नुक्कड़ नाटक की परंपरा थी?

इप्टा के शुरुआती दिनों (1943-44) में खास तौर पर बंबई में कामगारों के संघर्ष और सांप्रदायिक दंगे हुए थे. उस दौरान छोटे-छोटे नाटक, बिना विधिवत स्क्रिप्ट के, गली-चौराहे पर इप्टा से जुड़े कलाकार करते थे. इसकी अवधि दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं होती थी. इसे मैं नुक्कड़ नाटक का प्रारूप समझती हूँ. पूरी दुनिया में इस तरह का काम हमेशा होता रहा है. इसके अलावे स्किट-छोटे छोटे नाटक (Skit)  भी होता रहा है. वर्ष 1951 में पानु पाल ने बांग्ला में श्रम के सवाल पर एक नाटक लिखा था, जिसे इप्टा ने किया था. बीच-बीच में उत्पल दत्त ने भी इस तरह का काम किया था, लेकिन 1970 के दशक के आखिर में बहुत ग्रुप नुक्कड़ नाटक से जुड़े. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे जो थिएटर से नहीं जुड़े थे.

शुरुआत से जनम के केंद्र में सफदर हाश्मी थे. नुक्कड़ नाटक में उनकी भूमिका को आप किस रूप में देखती हैं?

सफदर की भूमिका जनम के लिए एक इंटरनल सवाल के रूप में रही है. हम मंच नाटक पहले करते थे. तब भी हम खुले में, गाँव-चौपाल, मैदानों के चबूतरे पर नाटक करते थे, क्योंकि सभागार महंगे होते थे. आपातकाल (1975-77) के बाद हमें जो सहयोग करते थे, जो हमें बुलाते थे, वे उलझे हुए थे. उनके पास हमें बुलाने के साधन नहीं थे. उस समय हम महज छह लोग संगठन में थे. मुझे याद है कि वर्ष 1978 के सितंबर में हम बात कर रहे थे कि क्या करें यार, कहां नाटक करें. तब सफदर ने बहुत सादगी से कहा था कि यदि हम बड़े नाटक नहीं ले जा सकते हैं तो छोटे नाटक लेकर जाएंगे जनता के बीच. यह बहुत प्रैक्टिकल सुझाव था. लेकिन छोटे नाटक मिलेंगे कहां, यह सवाल भी था. जनम ने उस वक्त लिखने का सोचा. राकेश सक्सेना ने सफदर के साथ मिल कर एक रात में मशीन नामक नाटक लिखा वह मशीनी रिश्तों के बारे में था. जो मूलतपूंजीवाद के बारे में था. जिस तरह से वह लिखा गया वह कभी नहीं भूल सकती. ऐसा लग रहा था कि उनके अंदर से बना-बनाया नाटक निकल रहा है, उंगली बस लिख रही है. हाथ एक का था, शब्द दोनों के थे.

प्रतिरोध का स्वर जनम के नाटकों में हमेशा मुखर रहा है. वर्ष 1989 में एक जनवरी को सफदर हाश्मी पर ‘ हल्ला बोल नाटक के मंचन के दौरान हमले होते हैं और एक दिन के बाद उनकी मौत हो जाती है. आप दो दिन बाद फिर से उसी जगह पर जाकर हल्ला बोल नाटक करती हैं. आपके लिए यह आसान तो नहीं रहा होगा?

मैं नहीं जानती कि वह आसान था या मुश्किल. लेकिन वहाँ पर जाने का एक मूल कारण यह था कि मैं इप्टा के जमाने से जनता के बीच में नाटक कर रही थी. यह तो संभव ही नहीं है कि कहीं पर हम नाटक अधूरा छोड़ कर आएंयह जन कलाकार और काम-काजी ऑडियंस का आपसी रिश्ता था.

युवा कलाकारों में नुक्कड़ नाटकों को लेकर किस तरह का पैशन दिख रहा है?

मुझे लगता है कि पैशन तो उनमें है, नहीं तो वो हमारे साथ क्यों जुड़ते. वे सोच-समझ कर ही आ रहे हैं, उन्हें मालूम है कि जन नाट्य मंच क्या है. वे शौक से आते हैं. नौजवान पीढ़ी यदि अपने इरादों से खत्म हो गई है तो बात करने का क्या मतलब. युवा कलाकार अपने-अपने हलकों में अलग-अलग काम कर रहे हैं.

पचास साल पूरे होने पर आप कौन से नए प्रॉडक्शन लेकर आ रही हैं?

हमें भी अभी नहीं पता कि ये प्रोडक्शन क्या होंगे. पर मैं इतना बता सकती हूँ कि सुनील शानबाग एक नाटक जुलाई में करेंगे. दिसंबर में शैली सथ्यू एक नाटक करेंगी और एक और नाटक मल्लिका तनेजा अगले साल अप्रैल महीने में करेंगी. तीनों का नाटकीय काम बिलकुल अलग है. हमें उम्मीद है हमारी रचनात्मकता भी इससे उभरेगी. पिछले साल से हमने अंधेर नगरी के बहुत सारे शो का मंचन किया है.

(नवभारत टाइम्स, 11 जून 2022)