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Tuesday, June 20, 2023

दो पाटों के बीच में: अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा



हिंदी सिनेमा का इतिहास आधुनिक भारत के इतिहास के साथ-साथ चला है. एक सौ दस साल के इस इतिहास का अभी काल विभाजन नहीं हुआ है, न ही युगों और प्रमुख प्रवृत्तियों की अभी ढंग से शिनाख्त हुई है.  हालांकि अध्येता-पत्रकार सुविधानुसार आजादी के पहले मूक सिनेमा, आजादी के बाद पचास-साठ के दशक को स्वर्ण काल (नेहरूयुगीन आधुनिकताराष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति यहाँ मिलती है), सत्तर के दशक को समांतर सिनेमा (कला सिनेमा) और फिर 90 के दशक के बाद सामाजिक-आर्थिक बदलावों के बरक्स 21वीं सदी में हिंदी सिनेमा को परखते रहे हैं. ऐसे में पिछली सदी के 80 के दशक का सिनेमा अध्येताओं की नजर के ओझल रह जाता है, जबकि यह दशक काफी उथल-पुथल से भरा रहा. आगामी दशक में उदारीकरण-भूमंडलीकरण की जो बयार बही, तकनीक क्रांति आई उसने समाज के सभी संस्थानों को प्रभावित किया. सिनेमा इसका अपवाद नहीं है. सच यह है कि इन बदलावों शुरुआत भी 80 के दशक में ही हुई.  

असल में80 का दशक बॉलीवुड के लिए विरोधाभासों से भरा रहा है. एक तरफ मुख्यधारा के फिल्मकारों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट रही थीवहीं समांतर सिनेमा के फिल्मकारोंअदाकारोंफिल्मों की चर्चा हो रही थी. उन्हें देश-दुनिया में विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा जा रहा था.

अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना जैसे सितारे पार्श्व में चले गए, दर्शकों के चहेते जितेंद्र, मिथुन बन कर उभरे. इसी दशक में श्रीदेवी जैसी अभिनेत्री का उभार हुआ. मुख्यधारा (पॉपुलर) और समांतर (पैरेलल) के बीच सिनेमा की एक अन्य धारा-पल्प सिनेमा (सेक्स, हॉरर कहानियाँ) का बीज इसी दशक में पड़ा, जिसका बोलबाला 90 के दशक में रहा. मध्यमवर्ग के दर्शक सिनेमाघरों से दूर होते गए. वीडियो कैसेट रिकॉर्डर (वीसीआर) और पायरेसी का बाजार एक साथ उभरा. मैंने स्कूल के दिनों में अमिताभ बच्चन की फिल्म तूफानजादूगर और सलमान खान की मैंने प्यार किया बिहार के एक कस्बे में वीसीआर पर ही देखी थी.

पत्रकार और फिल्म अध्येता अभिजीत घोष की हाल में प्रकाशित हुई किताब-व्हेन अर्धसत्य मेट हिम्मतवाला’ हिंदी सिनेमा के इस दशक की रोचक ढंग से पड़ताल करती है. उन्होंने ठीक ही नोट किया है कि 80 का दशक भूत और भविष्य के बीच हाइफन की तरह काम किया. इस दशक ने भविष्य की आहट भी सुनी.’

आम तौर पर जब 80 के दशक के सिनेमा की बात होती है तब हिम्मतवालातोहफाडिस्को डांसरमैं आजाद हूँ’, ‘मैंने प्यार किया जैसी फिल्में जेहन में आती है. साथ ही कई मसाला फिल्में बनी जिनका कोई नामलेवा नहीं है. जबकि सच यह है कि इसी दशक में गोविंद निहलानी, कुंदन शाह, सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, सईद मिर्जा, श्याम बेनगल जैसे निर्देशकों की फिल्मों ने पिछले दशक की समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट किया. घोष इसे न्यू वेव 2.0 की संज्ञा देते हैं.

यहां उल्लेखनीय है कि अर्धसत्य जैसी यथार्थपरक सिनेमा के साथ ही हिंदी की कल्ट क्लासिक’ फिल्म जाने भी दो यारो  का यह चालीसवां साल है. हिंदी सिनेमा के इतिहास में हास्य को लेकर अनेक फिल्में बनीलेकिन जाने भी दो यारो’  जैसी कोई नहीं. घोष अपनी किताब में नोट करते हैं कि 80 के दशक का कला सिनेमा बॉक्स ऑफिस पर सफल साबित हुआ था. वे लिखते हैं कि रवींद्र धर्मराज की चक्र (1981) महज 9.5 लाख रुपए में बनी थी, जो उस वर्ष की दस सबसे हिट फिल्मों में शामिल थी. यही बात निहलानी की फिल्म आक्रोश,  अर्धसत्य और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे (1989) आदि के बारे में भी कही जाती है. दामूल, कथा, पार्टीमंडीमिर्च मसाला, पार जैसी फिल्में इसी दशक में हिंदी सिनेमा के इतिहास का हिस्सा बनी, जिसकी चर्चा आज भी होती है.

कुमार शहानी की फिल्म तरंग (1984) भी इसी दशक में रिलीज हुई. माया दर्पण (1972) के बाद यह उनकी दूसरी फिल्म थी, जिसमें फॉर्म के प्रति उनकी एकनिष्ठता दिखाई देती है. शहानी की तरह ही फिल्म संस्थान पुणे से प्रशिक्षित कमल स्वरूप की फिल्म ओम-दर-बदर (1988) भी इसी दशक में बनी थी, जिसे वर्ष 2014 में सिनेमाघरों में हमने देखा था. हिंदी सिनेमा के अवांगार्द फिल्म मेकर इसे एक उत्तर आधुनिक फिल्म मानते हैं. इस कल्ट फिल्म का एक सिरा एबसर्ड’ से जुड़ता है तो दूसरी ओर एमबिग्यूटी’ के सिद्धांतों से. एक साथ मिथकविज्ञानअध्यात्मज्योतिषलोक और शास्त्र के बीच जिस सहजता से यह फिल्म आवाजाही करती है वह भारतीय फिल्मों के इतिहास में मिलना दुर्लभ है. भूमंडलीकरण के इस दौर में जिसे हम ग्लोकल’ कहते हैं उसकी छाया इस फिल्म में दिखती है. सामाजिक यथार्थ को कलात्मक ढंग से परदे पर चित्रित करने वाली समांतर सिनेमा की फिल्मों को एनएफडीसी’ (नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन) के माध्यम से सरकारी सहयोग प्राप्त थाआज यह सोच कर आश्चर्य होता है!

 (नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Friday, September 23, 2022

समांतर सिनेमा के दौर में व्यावसायिक रूप से सफल फिल्में

पंद्रह साल पहले मैं हिंदी में समांतर सिनेमा के प्रेणता, फिल्म निर्देशक, मणि कौल से उनकी फिल्मों के बारे में बात कर रहा था.  उन्होंने बातचीत के बीच बेतकल्लुफी से मुझसे कहा था- मुझसे ज्यादा एक्सट्रीम में बहुत कम लोग गए. जितनी फिल्में बनाई, सारी फ्लॉप!यह बात मेरे मन में अटक गई. मणि कौल की फिल्मों की चर्चा देश-विदेश के सिनेमा प्रेमियों के बीच आज भी होती है, पर पिछली सदी के 70-80 के दशक में जब वे फिल्में बना रहे थे, तब उनकी फिल्में सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हुई. 

21वीं सदी में अनुराग कश्यप, हंसल मेहता, दिवाकर बनर्जी जैसे निर्देशकों के यहाँ व्यावसायिक और कला फिल्मों के बीच की रेखा धुंधली हुई है. आज विभिन्न भारतीय भाषाओं के कई फिल्म निर्देशकों की फिल्मों पर मणि कौल का असर है. ओटीटी प्लेटफॉर्म और इंटरनेट पर उनकी फिल्में (आषाढ़ का एक दिन, दुविधा आदि) खूब देखी जा रही हैं. उस दौर में ये फिल्में फिल्म समारोहों में तो दिखाई गई, लेकिन आम दर्शक इसे नसीब नहीं हुए.

वर्ष 1969 में मणि कौल की फिल्म उसकी रोटी’, बासु चटर्जी की सारा आकाशऔर मृणाल सेन की भुवन सोमने भारतीय फिल्मों की एक नई धारा की शुरुआत की जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया. फिल्मकार और समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता इस धारा की फिल्मों को अनपापुलर फिल्मकहते थे. इस धारा की फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को कई बेहतरीन अभिनेता दिए.

मुख्यधारा का सिनेमा हमेशा से ही बड़ी पूंजी की मांग करता है और वितरक प्रयोगशील सिनेमा पर हाथ डालने से कतराते रहते हैं. वर्ष 1969 में ही फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन’ (फिल्म वित्त निगम) ने प्रतिभावान और संभावनाशील फिल्मकारों की ऑफ बीटफिल्मों को कर्ज देकर सहायता पहुँचाने का निर्देश जारी किया था. इसका लाभ मणि कौल, मृणाल सेन, बासु चटर्जी जैसे निर्देशक उठाने में सफल रहे. इसी दौर में हिंदी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं मसलन, मलयालम, बांगला, कन्नड़ आदि में भी कई बेहतरीन फिल्मकार उभरे जिनकी फिल्में दर्शकों के सामने एक अलग भाषा और सौंदर्यबोध लेकर आई.

समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए 70 और 80 का दशक मुफीद रहा. पर ऐसा भी नहीं कि इस दौर की सारी फिल्में दर्शकों से दूररही. इस दौर में कई ऐसी फिल्में बनी जो कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही कसौटियों पर सफल कही गई.

 हिंदी के रचनाकार राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाशपर जब बासु चटर्जी ने पहली फिल्म बनाई, तो वह उनकी पहली व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म भी साबित हुई. मध्यवर्गीय परिवार की इस यथार्थवादी कहानी को समीक्षकों के साथ-साथ दर्शकों ने भी खूब ने पसंद किया. इसी तरह उत्पल दत्त अभिनीत भुवन सोमभी सफल रही. इन फिल्मों की कलात्मक और व्यावसायिक सफलता ने हिंदी सिनेमा के निर्देशकों को प्रयोग करने, नए विषयों को टटोलने के लिए प्रोत्साहित किया.

 एफटीआईआई, पुणे से प्रशिक्षित होकर निकले हिंदी के फिल्मकार कुमार शहानी, केतन मेहता, अडूर गोपालकृष्णन (मलयालम), गिरीश कसरावल्ली (कन्नड़), जानू बरुआ (असमिया) और के के महाजन जैसे कैमरामैन ने भारतीय सिनेमा की इस धारा को समृद्ध किया. लेकिन कई ऐसे नाम  भी थे जो एफटीआईआई से बाहर थे, जैसे कि श्याम बेनेगल. उनकी फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल होने के साथ ही विभिन्न फिल्म समारोहों में पुरस्कृत भी हुई. श्याम बेनेगल ने फिल्म बनाने के लिए फिल्म वित्त निगम से ऋण नहीं लिया था. उनकी पहली फिल्म 'अंकुर (1974)' और दूसरी फिल्म 'निशांत (1975)' को ब्लेज एडवरटाइजिंगने वित्तीय सहायता दी थी, जबकि तीसरी फिल्म 'मंथन (1976)' गुजरात के दुग्ध सहकारी संस्था के सदस्यों की सहायता से बनी. यह तीनों ही फिल्में व्यावसायिक रूप ले सफल रही. व्यावसायिक रूप से बेनेगल की फिल्मों की तुलना मलयालम फिल्म के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन से की जा सकती है, जिनकी अधिकांश फिल्में बाक्स ऑफिसपर भी सफल रही. उनकी पहली फिल्म स्वयंवरम’ (1972) को चार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुए. इसी तरह एलिप्पथाएम’, ‘अनंतरम’, ‘मुखामुखम’, ‘कथापुरुषनआदि  भी कलात्मक रूप से उत्कृष्ट और विचारोत्तेजक हैं, जिसे देश-विदेश में कई पुरस्कार मिले.

हिंदी सिनेमा की बात करें तो  देश विभाजन की पृष्ठभूमि पर बनी एम एस सथ्यू की 'गर्म हवा (1973)', गोविंद निहलानी की 'आक्रोश (1980)', 'अर्धसत्य (1983)' और केतन मेहता की 'मिर्च मसाला (1988)' भी व्यावसायिक रूप से सफल कही जाएँगी. इन यथार्थपरक फिल्मों में सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों को कलात्मक रूप से समाहित किया गया.

आखिर में, कन्नड़ भाषा में समांतर सिनेमा का सूत्रपात करने वाली फिल्म 'संस्कार (निर्देशक, पट्टाभिराम रेड्डी, 1970)' के बारे में इस फिल्म के मुख्य अभिनेता गिरीश कर्नाड क्या कहते हैं, उस पर एक नजर डालते हैं. अपनी किताब दिस लाइफ एट प्लेमें उन्होंने लिखा है: 'पूरी फिल्म 95 हजार रुपए में बन गई थी. न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म ने अच्छा प्रदर्शन किया, बल्कि उस साल का बेस्ट फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार- स्वर्ण कमल, से भी नवाजा गया.

असल में, समांतर सिनेमा के दौर में महज कुछ हजार रुपए में फिल्में बन रही थी. इसमें 'स्टार' नहीं होते थे. कम बजट की इन फिल्मों का लागत कम होने की वजह से उसकी भरपाई हो जाती थी. साथ ही कई फिल्मों से मुनाफा भी हो जाता था.

समांतर सिनेमा को हम कलात्मक मूल्यों की वजह से ही देखते-परखते हैं. इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता हम आज की या उस दौर में बनी मुख्यधारा की फिल्मों से नहीं कर सकते.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Saturday, September 04, 2021

समांतर सिनेमा और मणि कौल

वर्ष 1969 में मणि कौल की फिल्म ‘उसकी रोटी’, बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ और मृणाल सेन की ‘भुवन सोम’ ने भारतीय फिल्मों की एक नई धारा की शुरुआत की जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया. फिल्मकार और समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता इस धारा की फिल्मों को ‘अनपापुलर फिल्म’[i] कहते हैं. जाहिर है, भारतीय सिनेमा और खास कर बॉलीवुड की मनोरंजन प्रधान फिल्मों, जिसमें नाच-गाने पर जोर रहता है और सितारों (‘स्टारों’) की केंद्रीयता रहती है, उससे अलगाने के लिए समीक्षक इस तरह की संज्ञा देते हैं. इसे कला सिनेमा भी कहा गया. मणि कौल (1942-2011), फिल्म संस्थान, पुणे के उनके समकालीन कुमार शहानी और कैमरामैन के के महाजन की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा में मनोरंजन से अलग सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों को कलात्मक रूप से समाहित किया. इसके लिए हिंदी साहित्य (नयी कहानियों) की ओर उन्होंने रुख किया.

मुख्यधारा का सिनेमा हमेशा से ही बड़ी पूंजी की मांग करता है और वितरक प्रयोगशील सिनेमा पर हाथ डालने से कतराते रहते हैं. सन 1969 में ही ‘फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन’ ने प्रतिभावान और संभावनाशील फिल्मकारों की ‘ऑफ बीट’ फिल्मों को कर्ज देकर सहायता पहुँचाने का निर्देश जारी किया था. इसका लाभ मणि कौल जैसे निर्देशक उठाने में सफल रहे. इसी दौर में हिंदी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं मसलन, मलयालम, बांगला, कन्नड़ आदि में भी कई बेहतरीन फिल्मकार उभरे जिनकी फिल्में दर्शकों के सामने एक अलग भाषा और सौंदर्यबोध लेकर आई. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन फिल्मों की आज भी चर्चा होती है.
समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए 70 और 80 का दशक मुफीद रहा. हालांकि इन फिल्मों की आलोचना एक बड़े दर्शक तक नहीं पहुँच पाने की वजह से होती रही है. उसी दौर में सत्यजीत रे (2012: 99) ने फिल्म को मास मीडिया मानते हुए एक अलहदा दर्शक वर्ग के लिए फिल्म बनाने के विचार की आलोचना की थी. उन्होंने 'भुवन सोम' के बारे में कटाक्ष करते हुए सात शब्दों में फिल्म का सार इस तरह लिखा था- ‘बिग बैड ब्यूरोक्रेट रिफार्मड बाय रस्टिक बेल’[ii]. वे कुमार शहानी की ‘माया दर्पण’ से भी बहुत प्रभावित नहीं थे. पर मृणाल सेन, मणि कौल, कुमार शहानी जैसे फिल्मकार, सत्यजीत रे से अलग रास्ता अपनाए हुए थे और अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से कभी नहीं हिचके. वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक सोचें, विचारें और उद्वेलित हों. पॉपुलर सिनेमा की तरह उनकी फिल्में हमारा मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि संवेदनाओं को संवृद्ध करती हैं. यहाँ नोट करना उचित होगा कि समांतर सिनेमा के बीज सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों में छुपे थे.
वर्ष 2006 में दिल्ली में हुए एक फिल्म महोत्सव के दौरान मैंने मणि कौल से उनकी फिल्मों, समांतर और मुख्यधारा की फिल्मों के बीच रिश्ते और ऋत्विक घटक के बारे में लंबी बातचीत की थी. मणि कौल ने कहा था कि उन्हें मोहन राकेश की इस कहानी में जो इंतजार और विछोह है, काफी प्रभावित किया था. ‘उसकी रोटी’ में बालो अपने पति सुच्चा सिंह के लिए रोज रोटी बना मीलों पैदल चल कर हाई वे की सड़क पर आती है, जहाँ सुच्चा सिंह बस चलाता है. हफ्ते में वह एक दिन घर आता है. इंतजार की इस चक्र की तरह बालो का जीवन बीतता है. हिंदी की नई कहानियों की तरह ही इस फिल्म में आदि, मध्य, अंत के क्रम का पालन नहीं किया है, फिल्म एक रैखिक नैरेटिव के तहत नहीं चलती है. इस फिल्म की पटकथा मोहन राकेश के साथ मिल कर लिखी थी, पर मणि कौल ने शूटिंग के दौरान उसका पालन नहीं किया. आशीष राजध्यक्षया (2012: 322-323) ने ठीक ही नोट किया है कि “यह अस्पष्ट है कि उसकी रोटी में ऐसा क्या था जिसने मणि कौल को इस तक जाने के लिए अनुशंसित (रिकॉमेंड) किया...जो भी कारण हो, तथ्य यह है कि पंजाब के एक दोपहर की इस कहानी को भारतीय सिनेमा की पूरी तरह से पहली अवांगार्द प्रयोग के असंभाव्य विषय के रूप में चुना गया.”[iii] मणि कौल ने मुझे कहा था कि ‘यह इंतजार हमें अनुभवजन्य समय से दूर ले जाता है, जहाँ एक मिनट भी एक घंटा हो सकता है.’[iv] बाद में जब वे संगीत की शिक्षा ले रहे थे (वे ध्रुपद के सिद्ध गायक थे), तब सम और विषम के अंतराल में इस बात को काफी अनुभव करते थे. ‘उसकी रोटी’ की तरह ही ‘ आषाढ़ का एक दिन’ और ‘दुविधा’ में भी स्त्रियों के द्वारा विभिन्न देश-काल में इस इंतजार का चित्रण मिलता है. इन तीनों फिल्मों की अवस्थिति साफ अलग है. पंजाब, कश्मीर (पहाड़) और राजस्थान का देश-काल इनमें उभर कर आया है. खास कर चर्चित रचनाकार विजयदान देथा की कहानी पर आधारित ‘दुविधा’ फिल्म में चटक रंगों का इस्तेमाल है. बालो, मल्लिका और लच्छी के इंतजार के साथ ही अंतर्मन की पीड़ा उभर कर आती है, जिसे हम लेख में आगे देखेंगे. इन फिल्मों में पार्श्व संगीत का मणि कौल ने बेहद सादगी से इस्तेमाल किया है. पर हिंदुस्तानी संगीत के प्रति उनका लगाव 'ध्रुपद' और 'सिद्धेश्वरी' डॉक्यूमेंट्री फिल्म में दिखता है. मणि कौल साहित्य, संगीत और चित्र कला के बीच सहजता से आवाजाही करते थे.
हिंदी के चर्चित रचनाकार उदय प्रकाश ने पिछले दिनों मुझसे एक बातचीत के दौरान मणि कौल की इसी सहजता को रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध पर बनी उनकी फिल्म ‘सतह से उठता आदमी’ का उदाहरण दिया था और कहा था कि ‘मणि ही मुक्तिबोध को दाल-भात खाता हुआ दिखा सकते थे.’[v] सत्यजीत रे (2012) ने मणि कौल और समांतर सिनेमा के एक और प्रतिनिधि फिल्मकार कुमार शहानी की फिल्मों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि इनकी फिल्मों में ऋत्विक घटक की तरह ही ‘ह्यूमर’ नहीं मिलता. ये दोनों फिल्म संस्थान (एफटीआईआई), पुणे में घटक के शिष्य थे. पर निजी मुलाकातों में मणि कौल बेहद मजाकिया थे. बातचीत में उन्होंने हँसते हुए कहा था- ‘मुझसे ज्यादा एक्सट्रीम में बहुत कम लोग गए. जितनी फिल्में बनाई, सारी फ्लॉप!’
मणि कौल की फिल्में हिंदी सिनेमा को एक कला के रूप में स्थापित करती है. मणि कौल हालांकि एक निर्देशक के साथ-साथ सिनेमा के कुशल शिक्षक भी थे. वर्ष 2010 में जब मैं फिल्म एप्रिसिएशन का पाठ्यक्रम पूरा कर रहा था तब पुणे फिल्म संस्थान में एक व्याख्यान के दौरान उन्होंने बताया कि ‘सिनेमा ध्वनि और बिंब का कुशल संयोजन होता है और उसे उसी रूप में पढ़ना चाहिए.’[vi] उस व्याख्यान के बाद हमें उनकी बहुचर्चित फिल्म ‘सिद्धेश्वरी’ दिखाई गई थी. फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म की भूमिका बांधते हुए उन्होंने अपने परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा था कि ‘अगर कुछ चीजें समझ में नहीं आए तो ज्यादा दिमाग मत लगाइएगा, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है.’ लेकिन ‘सिद्देश्वरी’ देखते हुए ऐसे लगा कि हम एक लंबी कविता को परदे पर पढ़ रहे हैं.
सत्यजीत रे जब मणि कौल की फिल्मों की आलोचना यह कह कर करते हैं कि उनकी पहुँच बेहद सीमित तबके तक रही तो यह सच के करीब है. उनकी फिल्मों का सिनेमाघरों में प्रदर्शन नहीं हुआ. पर वे इस बात को खुद भी स्वीकार करते थे. दर्शकों के बीच अपनी फिल्म की पहुँच को लेकर उन्होंने मुझे एक वाकया सुनाया था. हिंदी सिनेमा के चर्चित अभिनेता राज कुमार उनके चाचा थे. एक फिल्म पार्टी के दौरान उन्होंने आवाज देकर मणि कौल को बुलाया और कहा, ‘जानी, मैंने सुना है कि तुमने फिल्म बनाई है..उसकी रोटी. क्या है यह? रोटी के ऊपर फिल्म! और वह भी उसकी रोटी?तुम मेरे साथ आ जाओ हम मिल कर अपनी फिल्म बनाएँगे- अपना हलवा.” बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘मैं हिंदी में ही सोचता और लिखता हूँ.’ उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन, दुविधा, सतह से उठता आदमी और नौकर की कमीज’ हिंदी की चर्चित कृतियाँ है. मणि कौल ने हिंदी साहित्य की इन कृतियों को आधार बना कर फिल्म रची और इन्हें एक नया आयाम दिया. मुंबइया फिल्मों के कितने फिल्मकार आज हिंदी में सोचते और रचते हैं?
मणि कौल ने माना था कि उन्हें फिल्म बनाने में हमेशा वित्तीय संकट से जूझना पड़ा था. पर सृजनात्मकता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. जीवन के अंतिम दिनों में वे विनोद कुमार शुक्ल की कृति ‘खिलेगा तो देखेंगे’ को सिनेमाई भाषा में रच रहे थे. समांतर सिनेमा के निर्देशक इस बात पर जोर देते रहे हैं कि व्यावसायिकता को लेकर मुख्याधारा और कला फिल्मों की तुलना नहीं की जा सकती. कुमार शहानी कहते हैं, “हम पूंजीवादी व्यवस्था में रहते हैं जिसमें कारोबार मुख्य होता है, हम इसे चाहें या ना चाहें. मेनस्ट्रीम फिल्में लाभ से संचालित होती हैं, बिना इसके उनका खर्च नहीं निकल सकता. उनका कला से कोई ताल्लुक नहीं होता. इस लिहाज से हमें मेनस्ट्रीम और कला सिनेमा की तुलना नहीं करनी चाहिए.”[vii]
वर्ष 1964-65 में ऋत्विक घटक उप प्राचार्य के रूप में एफटीआईआई नियुक्त हुए थे और एक पूरी पीढ़ी को सिनेमा की नई भाषा से रू-ब-रू करवाया. मणि कौल ऋत्विक घटक के शिष्य थे. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन अक्सर बातचीत में यह बताते हैं कि मणि कौल घटक के सबसे ज्यादा करीब थे. अपने गुरु ऋत्विक घटक के प्रति मणि कौल बेहद कृतज्ञ थे. उनका कहना था “मैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नव यथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.” अक्सर ऋत्विक घटक की फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. मणि कौल का कहना था कि वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए.
‘उसकी रोटी’ फिल्म में जिस तरह के आख्यान शैली का इस्तेमाल किया गया है, उसे आशीष राजध्यक्षया (2012) ने लिखा है, मणि कौल के शब्दों में ‘यथार्थवाद में द्रष्टा का निवेश’ के तहत ही समझा जा सकता है. यहाँ दर्शक जो ग्रहण कर रहा है, उसकी व्यक्तिनिष्ठता पर जोर है. वे कहते थे कि ‘देखने के तरीके में बहुत कुछ छुपा होता है’. यहां मणि कौल यथार्थवाद की गति को अपने प्रयोगात्मक विजुल्स से पकड़ने की कोशिश करते हैं. जाहिर है फिल्म देखने के क्रम में दर्शकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो उठती है और उसे अपने अनुभवों का निवेश फिल्म देखने के क्रम में करना पड़ता है. फिल्म के कई दृश्यों के फिल्मांकन की शैली पेंटिंग (अमृता शेरगिल) से प्रभावित है. फिल्म की गति बेहद धीमी है और बॉलीवुड की फार्मूला फिल्मों के अभ्यस्त दर्शकों के लिए यह फिल्म बहुत धैर्य की मांग करती है! यहाँ हम मणि कौल की एक अन्य फिल्म ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर एक दृष्टि डालते हैं.
जहाँ हिंदी में आधुनिक नाटक के प्रणेता मोहन राकेश के चर्चित नाट्य कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ की चर्चा होती रहती है, मणि कौल निर्देशित इस फिल्म की चर्चा छूट जाती है. उन्होंने वर्ष 1971 में इस फिल्म को निर्देशित किया था. ‘उसकी रोटी’, ‘दुविधा’, ‘सिद्धेश्वरी’ की तरह ही सिनेमाई दृष्टि और भाषा के लिहाज से ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इस फिल्म में मल्लिका (रेखा सबनीस) कालिदास (अरुण खोपकर) और विलोम (ओम शिव पुरी) की प्रमुख भूमिका है. मल्लिका कालिदास की प्रेयसी है. हिमालय की वादियों में बसे एक ग्राम प्रांतर में दोनों के बीच साहचर्य से विकसित प्रेम है. कालिदास को उज्जयिनी के राजकवि बनाए जाने की खबर मिलती है. मल्लिका और राजसत्ता को लेकर उनके मन में दुचित्तापन है. वहीं मल्लिका कालिदास को सफल होते देखना चाहती है और उन्हें स्नेह डोर से मुक्त करती है. उज्जयिनी और कश्मीर जाकर कालिदास सत्ता और प्रभुता के बीच रम जाते हैं. वे मल्लिका के पास लौट कर नहीं आते और राजकन्या से शादी कर लेते हैं. और जब वापस लौटते हैं तब तक समय अपना एक चक्र पूरा कर चुका होता है. सत्ता का मोह और रचनाकार का आत्म संघर्ष ऐतिहासिकता के आवरण में इस फिल्म के कथानक को समकालीन बनाता है.
दृश्य, प्रकाश, ध्वनि के संयोजन और परिवेश (मेघ, बारिश, बिजली) के माध्यम से सिनेमा में यह सब साकार हुआ है. कोलाहल के बीच एक रागात्मक शांति पूरी फिल्म पर छाई हुई है. मोहन राकेश के नाटक से इतर एक अलग अनुभव लेकर यह फिल्म हमारे सामने आती है. फिल्म में भावों की घनीभूत व्यंजना के लिए ‘क्लोज अप’ का इस्तेमाल किया गया है. मणि कौल के सहयोगी रह चुके, चर्चित फिल्म निर्देशक कमल स्वरूप कहते हैं कि इस फिल्म में मणि कौल ने ‘विजुअल्स’ पर ज्यादा ध्यान रखा था. वे कहते हैं, “बजट कम था और उसी के हिसाब से ही फिल्म बनी है. सिंक साउंड में ज्यादा खर्च होता इसलिए नाटक के संवाद ट्रैक को पहले रिकॉर्ड कर लिया गया था. जैसे हम गाना प्ले बैक करते हैं उसी तरह फिल्म में साउंड प्ले बैक करती है. सबनीस भी पहले से सत्यदेब दुबे के प्ले में एक्टिंग करती थीं और बहुत अच्छी अदाकार थीं. मणि को बहुत कुछ रेडिमेड मिल गया था. उन्होंने आउटडोर सेट बनाया. इसमें प्रकृति और अंदर का सेट दोनों आ गया है.”[viii]
मणि कौल की फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी, हालांकि सबका आस्वाद अलग है. उनकी फिल्मों में एक उत्तरोतर विकास दिखाई पड़ता है, पर पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत का स्वर सबमें मुखर रहा है. असल में, उनकी फिल्मों में विभिन्न कला रूपों की आवाजाही सहजता से होती है. जहाँ वे भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगे थे और ध्रुपद संगीत के गुरु थे, वहीं वे अपनी कला में फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां और आंद्रेई तार्कोवस्की के प्रभाव को स्वीकार करते थे. ब्रेसां की फिल्मों की ‘मिनिमलिज्म’ यानी सादगी का प्रभाव उनकी फिल्मों पर है. ब्रेसां का प्रभाव कुमार शहानी की फिल्मों पर भी है, जिसे वे सहज रूप से स्वीकार भी करते हैं. बातचीत में वे अक्सर एक गधे को केंद्र पर रख कर बनाई गई उनकी फिल्म ‘बालथाजार’ की चर्चा करते हैं. प्रसंगवश, कुमार शहानी रॉबर्ट ब्रेसां के सहयोगी भी रह चुके हैं.
मणि कौल बातचीत में अक्सर ‘स्व भाव’ की बात करते थे. सारे प्रभावों के बावजूद जिस ‘स्पेस’ में वे अपनी कला रच थे वह नितांत वैयक्तिक है, जो फिल्म के हर शॉट और फ्रेम में महसूस किया जा सकता है. इस फिल्म में प्रेम पूरी गरिमा और लालित्य के साथ मौजूद है. मल्लिका की आँखें जिस तरह से अंतर्मन के भावों, अंतर्द्वंद को सामने लाती हैं बरबस वह कृष्ण के वियोग में गोपियों के कहे-‘अंखियां अति अनुरागी’ की याद दिलाती है. पर यहाँ आषाढ़ मास में जायसी के नागमती का विरह नहीं है. नागमती कहती हैं-‘मोहिं बिनु पिउ को आदर देई’. जबकि फिल्म के शुरुआत में ही मल्लिका कहती है- ‘मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है. वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है?’ इस फिल्म में मल्लिका के अपरूप रूप और सौंदर्य के साथ उसकी चेतना उभर कर सामने आई है. इस फिल्म में मणि कौल के ऊपर भारतीय सौंदर्यशास्त्र का प्रभाव स्पष्ट दिखता है. वे अपनी फिल्मों में ‘ध्वनि’ पर बहुत जोर देते थे. इस फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जहाँ परस्पर संवाद करते पात्रों में अजंता भित्तिचित्र और मिथिला चित्रकला शैली की झलक मिलती है. छायांकन में एक लय है. कमल स्वरूप कहते हैं कि मणि कौल देश-विदेश की पेंटिंग शैली के रेफरेंस को सामने रख कर सचेत होकर फ्रेम बनाते थे. वे सिद्धेश्वरी फिल्म के एक दृश्य का खास तौर पर उदाहरण देते हैं, जहाँ वे पिकासो की पेंटिंग-थ्री म्यूजिशियन, से प्रेरित हैं. खुद मणि कौल हेनरी मातिस के प्रभाव को स्वीकार करते थे. पर मणि की फिल्मों में संगीत, चित्र और ध्वनि मिल कर एक ऐसा कला संसार रचता है जो सिनेमा कला की महत्ता को सिद्ध करता है.
उल्लेखनीय है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ के बाद, वर्ष 1972 में, कुमार शहानी ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ को निर्देशित किया था. दोनों ही फिल्मों को फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था. दोनों निर्देशकों के फिल्म निर्माण की शैली मिलती जुलती भले हो (संगीत, पेंटिंग के इस्तेमाल को लेकर), विषय-वस्तु का ट्रीटमेंट काफी अलहदा है. मसलन, शहानी की तरण (माया दर्पण) फिल्म में सामंतवादी उत्पीड़न को तोड़ती है. जबकि निर्मल वर्मा की कहानी में सामंतवाद के खिलाफ विरोध नहीं दिखता है. शहानी का रुझान मार्क्सवादी विचारों की ओर रहा, जबकि मणि कौल अपनी कला में विचारधारा की सीमा का अतिक्रमण करते रहे. कमल स्वरूप कहते हैं कि मणि कौल राजनीतिक नहीं, रसिक थे.
बहरहाल, न सिर्फ मणि कौल की फिल्में, बल्कि 70 और 80 के दशक में समांतर सिनेमा के दौर में बनी अधिकांश फिल्मों का प्रदर्शन मुश्किल था. मलायमल फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन अपवाद कहें जाएँगे जिनकी फिल्में सिनेमाघरों में पहुँची. पर अधिकांश कला फिल्मकारों के दर्शकों का एक सीमित वर्ग था. ज्यादातर फिल्म समारोहों, समीक्षकों तक ही इन फिल्मों की पहुँच रही. कोई आश्चर्य नहीं कि 90 के दशक में होश संभालने वाली हमारी पीढ़ी की पहुँच से ये फिल्में बाहर थीं. जैसा कि हमने ऊपर नोट किया मणि कौल से उनकी फिल्मों के बारे में पूछने पर वह बेतकल्लुफी से बात करते थे. उनकी फिल्में भी अमूमन सिनेमा समारोहों तक ही सीमित थीं. उदयन वाजपेयी से बातचीत करते हुए (2012:45) उन्होंने 'अभेद आकाश' किताब में स्वीकारा था, “शायद हमें फिल्म देखने की नयी पद्धति विकसित करनी होगी. फिल्मकार तो हैं लेकिन देखने वाले नहीं हैं. अगर देखने वाले हों तो फिल्मो में बहुत बदलाव आएगा. बिना देखने वालों के फिल्मकार नहीं होता.”[ix]
सिनेमा को एक कला माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने में समांतर सिनेमा के प्रयोगशील फिल्मकारों की भूमिका ऐतिहासिक है. पिछले दशकों में संचार की नई तकनीकी, इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने के बाद मणि कौल जैसे प्रयोगशील फिल्मकारों को एक नया दर्शक वर्ग मिला है. आज कई समकालीन फिल्म निर्देशकों मसलन अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह, अनूप सिंह आदि की फिल्मों में समांतर सिनेमा के पुरोधाओं की छाप स्पष्ट दिखाई देती है. युवा प्रयोगशील फिल्मकारों में एक तरह से समांतर सिनेमा की धारा का विकास देखने को मिल रहा है. मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में भी बदलाव की इस बयार को महसूस किया जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि एफटीआईआई से निकले कई युवा फिल्मकार मणि कौल को अपना गुरु मानते हैं. वे मणि कौल की फिल्मों से प्रेरणा ग्रहण कर भीड़ और लीक से हट कर हिंदी सिनेमा का एक नया संसार रच रहे हैं. यही उनकी फिल्मों की सार्थकता है.
संदर्भ:
[i] चिदानंद दास गुप्ता (2008), सीइंग इज विलिविंग, पेंग्विन रेंडम हाउस: इंडिया
[ii] सत्यजीत रे (2012), आवर फिल्मस देयर फिल्मस, ओरियंट ब्लैक स्वान: नय़ी दिल्ली पेज, 81-99
[iii] आशीष राजाध्यक्षया (2012), इंडियन सिनेमा इन द टाइम ऑफ सेल्यूलाइड, तुलिका बुक्स: नयी दिल्ली
[iv] अरविंद दास, समांतर सिनेमा के पचास साल, प्रभात खबर, 9 जुलाई 2019
[v] निजी बातचीत
[vi] अरविंद दास (2019), बेखुदी में खोया शहर, अनुज्ञा बुक्स: नयी दिल्ली
[vii] अरविंद दास से कुमार शहानी की बातचीत, फिल्मों में तकनीकी दखल ज्यादा हो गया है, नवभारत टाइम्स, 29 जून 2019
[viii] निजी बातचीत
[ix] उदयन वाजपेयी (2012), अभेद आकाश, वाणी प्रकाशन: नयी दिल्ली

(संवाद पथ पत्रिका में प्रकाशित, जनवरी-मार्च 2020)