Friday, December 23, 2022

पुष्पेंद्र सिंह का सिनेमा संसार: सौंदर्य का संगीत


पिछले महीने युवा फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह ने फेसबुक पर लिखा कि जो दोस्त मुझसे मेरी फिल्मों के बारे में पूछते रहते हैंउनके लिए मेरी फिल्म देखने का मौका मूबी (ऑनलाइन वेबसाइट) पर है. असल में उनकी दो फिल्मोंलजवंती’ (2014) और अश्वात्थामा (2017) के साथ मारु रो मोती’ (2019) डॉक्यूमेंट्री स्ट्रीम हो रही है. पुष्पेंद्र सिंह हमारे समय के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं. पुष्पेंद्र की फिल्में देश-विदेश के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों का हिस्सा भले रही हैपर आम जनता के लिए उसका प्रदर्शन नहीं हो पाया है.

इससे पहले सितंबर-अक्टूबर में न्यूयॉर्क के द म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा) में नई पीढ़ी के भारतीय स्वतंत्र फिल्मकारों की जो फिल्में दिखाई गई उसमें लजवंती और लैला और सात गीत (2020) भी शामिल थी. आगरा के नजदीक सैंया कस्बे में जन्मे और राजस्थान में पले-बढ़े, पुष्पेंद्र ने पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से अभिनय में प्रशिक्षण लिया और फिर चर्चित फिल्मकार अनूप सिंह (किस्सा और सांग ऑफ स्कॉर्पियंस) के सहायक रहे. अमित दत्ता (हिंदी)गुरविंदर सिंह (पंजाबी)उमेश विनायक कुलकर्णी (मराठी), चैतन्य ताम्हाणे (मराठी) जैसे फिल्मकारों की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्में समकालीन भारतीय सिनेमा और उसकी परंपरा के उज्ज्वल पक्ष को अपनी कला में समाहित करती हैं.

लैला और सात गीत और लजवंती राजस्थान के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा (बिज्जी) की कहानियों पर आधारित है. लैला और सात गीत केंचुली कहानी को आधार बनाती हैलेकिन उसकी कथाभूमि राजस्थान न होकर जम्मू-कश्मीर है. जाहिर है कथाभूमि बदलने से विषय-वस्तु के निरूपण और परदे पर उसके फिल्मांकन में भी बदलाव आया हैहालांकि स्त्री के मनोभावइच्छा, द्वंद और स्वतंत्रता की आकांक्षा सार्वभौमिक है. यहाँ जंगल में एक जलता हुए पेड़ भी है जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को इंगित करता है. पुलिस राजसत्ता का प्रतीक है और लैला कश्मीर का रूपक.

सब जानते हैं कि बिज्जी लोक-कथा को आधुनिक रंग में अपनी कहानियों में ढालने में सिद्धस्थ थे. यही कारण है कि मणि कौल (दुविधा1973), श्याम बेनेगल (चरणदास चोर1975) से लेकर पुष्पेंद्र जैसे युवा फिल्मकार भी उनकी कहानियों की ओर रुख करते रहे हैं. प्रसंगवशएक मुलाकात में जब मैंने मणि कौल से पूछा था कि क्या वे बिज्जी की किसी और कहानी पर फिल्म बनाना चाह रहे थेउन्होंने कहा था कि हांचरण दास चोर पर मैं फिल्म बनाना चाह रहा था पर श्याम ने उस पर फिल्म बना ली थी.

पुष्पेंद्र की पहली फिल्म लजवंती (बिज्जी की इसी नाम से कहानी है) राजस्थान के थार मरुस्थल को केंद्र में रखती है. फिल्म के लैंडस्केप में रेत के धोरोंखेजड़ी का पेड़पवनचक्की का सौंदर्य शामिल है. यहाँ ऊंटबकरी और कबूतर भी लोक में घुले-मिले हैं. घूंघट काढ़े एक शादी-शुदा स्त्री की पितृसत्तात्मक बंधन में जकड़नप्रेम की उत्कट चाह और मुक्ति की चेतना को फिल्म ने खूबसूरत दृश्यों से रचा है. दुविधा की तरह (जहाँ भूत भी एक प्रेमी हो सकता है) लजवंती’ पाठ का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि गल्प को बिंबों और ध्वनि के सहारे परदे पर उकेरती है. जिस तरह मणि कौल अपनी फिल्मों में ध्वनि पर खास जोर देते थेउसी तरह पुष्पेंद्र की फिल्मों में ध्वनि का संयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. महिलाओं के परिधान में यहां चटक रंगों के इस्तेमाल के साथ सफेद कबूतरों की सोहबत में नायक (पुष्पेंद्र सिंह) का सफेद लिबास अंतर्मन और बहिर्मन के द्वंद्व को उभारने में सहायक है.

भारतीय कला सिनेमा के चर्चित नाम कुमार शहानीमणि कौल की परंपरा में ही पुष्पेंद्र की फिल्में आती हैं. कई दृश्यों के संयोजन में भी इन निर्देशकों का असर दिखाई पड़ता है. उनकी फिल्मों के कई दृश्य देशी-विदेशी पेंटिंग ( भारतीय मिनिएचर और यूरोपीय नवजागरण की पेंटिंग) से भी प्रभावित हैंजिसे पुष्पेंद्र स्वीकारते भी हैं. दोनों ही फिल्मों में लोक गीत-संगीत का प्रयोग फिल्म के विन्यास के साथ गुंथा हुआ है. साथ ही फिल्म में जिस तरह से दृश्य को फ्रेम किया गया है, वह संगीतात्मकता और काव्यात्मकता से ओत-प्रोत है. लैला और सात गीत देखते हुए मणि कौल की सिद्धेश्वरी और कुमार शहानी की 'विरह भरयो घर आंगन कोने वृत्तचित्र की याद आती रही.

जहाँ लाजवंती की भाषा हिंदी और मारवाड़ी है वहीं लैला और सात गीत  में हिंदी और गूजरी का प्रयोग है. लजवंती से हट कर यह फिल्म कहानी के मूल को विस्तार देती है और यहाँ फिल्म में समकालीन राजनीतिक घटनाओं की ध्वनि जुड़ती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस फिल्म के केंद्र में लैला है (कहानी में लाछी) जो अपने पति के साथ रहती है पर उसके मन में एक दुविधा हैउथल-पुथल है. यह प्रेम की अतृप्ता से उपजी है. पर  पूरा होने पर क्या प्रेम बचा रहता है? 

निर्देशक ने कहानी को खानाबदोश जनजाति--बकरवाल के जीवन यथार्थ के बीच अवस्थित किया है. पहाड़, जंगल, बकरे और जीव-जंतुओं के संग बसा घर-परिवार एक ठहराव के साथ लांग शॉट्स के माध्यम से हमारे सामने आता है. लैला का सौंदर्य उसकी वेशभूषा, बोली-वाणी, हाव-भाव में है. निर्देशक ने क्लोज-अप से परहेज किया है.

पति के दब्बूपन के प्रति लैला के स्वाभिमानी व्यक्तित्व में एक तरह का विद्रोह है. पर इस विद्रोह की क्या दिशा होगी इस कहानी में लाछी एक जगह कहती हैऔरतों की इस जिंदगी में वह इस जकड़ से कभी मुक्त होगी कि नहीं?".  फिल्म को क्रमश: सात अध्यायों में बांटा गया है- सांग ऑफ मैरिजसांग ऑफ माइग्रेशनसांग ऑफ रिग्रेटसांग ऑफ प्लेफुलनेससांग ऑफ एक्ट्रैक्शनसांग ऑफ रियलाइजेशन और सांग ऑफ रिनंसीएशन. आखिर में घर-परिवारनाते-रिश्ते को छोड़निर्वसन लैला प्रकृति के साथ एकमेक हो जाती है. मणि कौल की फिल्मों की बालो’, ‘मल्लिका और लच्छी की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्मों की लजवंती (संघमित्रा हितैषी) और लैला (नवजोत रंधावा) अंतर्मन के द्वंद के साथ स्वतंत्रता की चेतना और मुक्ति कामना से लैस है.

 

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