Sunday, April 07, 2024

पहरेदारी में जीवन: एवलांच


पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.

नाटक को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा के माध्यम से देशकाल का बोध करवाया गया था. असल में, तुर्की के नाटककार टूनजेर जूजुनलू के इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित यह नाटक पहाड़ी इलाके में एक गाँव में अवस्थित है. यहाँ नौ महीने तक हिमस्खलन का खतरा रहता है. इस अवधि में जोर से बोलने, हंसने, चीखने यहाँ तक कि प्रसव की भी मनाही है.
एक तरह से सत्ता ने नौ महीने तक बोलने की मनाही कर रखी है. इस नाटक में न तो पात्रों का कोई नाम हैं न किसी देश या स्थान का ही नाम लेखक-निर्देशक ने दिया है. सब पात्र आपस में फुसफुसाहट में ही बात करते हैं. यहाँ तक कि उनके कदमों की आहट भी सुनाई नहीं देती.
बोलने या दूसरो शब्दों में सत्ता से सवाल करने की मनाही एक ऐसा सच है, जो आज पूरी दुनिया में कमोबेश व्याप्त है. इस लिहाज से नाटक का विषय अति प्रासंगिक है. काफ्का के साहित्य में जो हताशा और मानवीय संत्रास है, यह नाटक देखते हुए भी हमें उसी तरह का बोध होता है.
नाटक के दौरान बंद स्पेस में घुटन और भय को हम तेजी से महसूस करते हैं. मंच पर प्रवेश करते ही जूजुनलू यह कथन लिखा हुआ दिखता है: ‘हिमस्खलन महज एक प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि हमने अपने मन में इस भय का निर्माण कर रखा है’.
शार्दूल भारद्वाज, जिन्हें हमने ‘ईब आले ऊ’ फिल्म में देखा था, इस नाटक में युवा पुरुष की भूमिका में थे, वहीं श्वेता पासरिचा उनकी पत्नी की भूमिका में थी. पति के किरदार को भारद्वाज और आसन्न प्रसवा स्त्री की भूमिका को पासरिचा ने कुशलता से निभाया. विक्रम कोचर, अश्वथ भट्ट के साथ-साथ स्वरूपा घोष और राजीव गौर सिंह जैसे मंजे अभिनेता बूढ़े पति-पत्नी की प्रभावी भूमिका में मौजूद थे.
दो अंक के इस नाटक में पहला अंक बेहद धीमा है, दूसरे अंक में तीव्रता आती है. समाज के मुखिया का युवा स्त्री (पासरिचा) को जिंदा दफनाने का फरमान दिया जाता है, चूंकि उसका बच्चा समय से पहले जन्म लेने को है. अंत में उसका पति (भारद्वाज) इस फैसले का विरोध करता है और बंदूक उठा लेता है.
प्रतीकात्मक रूप से यह नाटक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवालों को घेरे में लेती है. बोलने पर पहरेदारी सत्ता के स्वभाव के अनुकूल है, पर यह हमारी स्वतंत्रता पर भी प्रश्नचिह्न है. जैसा कि हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने अपनी एक कविता में लिखा है: आदमी/मरने के बाद/.कुछ नहीं सोचता/ आदमी/ मरने के बाद/ कुछ नहीं बोलता/ कुछ नहीं सोचने/और कुछ नहीं बोलने पर/ आदमी मर जाता है.

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