Wednesday, June 25, 2025

Digital Convergence and Disruption in Hindi Media

 

Digital Convergence in Media:

Vietnam and Transnational Perspectives
Nomos, 1. Edition 2025, 519 Pages

Chapter by Arvind Das: Digital Convergence and Disruption in Hindi Media, Page- 387-400



Sunday, June 22, 2025

रंगमंच पर नसीरुद्दीन शाह


पिछले दिनों लंबे अरसे के बाद नसीरुद्दीन शाह को रंगमंच पर देखा. श्रीराम लागू रंग अवकाश, पुणे में ‘द फादर’ का मंचन था, जिसे उन्होंने निर्देशित किया था और खुद मुख्य भूमिका में थे. असल में, यह नाटक मुंबई और आस-पास तो पिछले सात सालों से होता रहा पर मुझे याद नहीं कि दिल्ली में मोटले प्रोडक्शन ने इसका मंचन किया हो.


बहरहाल, फ्लोरियन जेलर के लिखे बहुचर्चित फ्रेंच नाटक ‘द पेरे’ पर आधारित इस नाटक के केंद्र में डिमेंशिया/अल्जाइमर से पीड़ित एक पिता (आंद्रे) हैं, जिसके बहाने मानवीय संबंधों, एक वृद्ध के अंतर्मन की व्यथा को हम देखते हैं. यह नाटक जितना इस बीमारी से प्रभावित व्यक्ति के आत्मसम्मान और असहायता बोध से उपजा है, उतना ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द रहने वाले, उसकी देखभाल करने वालों (केयर गिवर) के बारे में भी है. मानसिक बीमारी, मतिभ्रम और विगत स्मृतियों में लौटना जहाँ बीमार व्यक्ति के लिए दुखद है, वहीं परिवार के लिए यह ऐसा अनुभव होता है जिससे व्यक्ति के प्रति सारी संवेदनाओं के बावजूद पार पाना आसान नहीं.

मंच पर नसीरुद्दीन शाह के साथ रत्ना पाठक शाह भी थीं. बेटी के किरदार में रत्ना ने पिता के प्रति प्रेम, सब कुछ करके भी पिता की स्थिति को न बदल पाने की झुंझलाहट, अपने पति के साथ संबंध को बचाए रखने की जद्दोजहद और खीझ को खूबसूरती से निभाया है.

नसीरुद्दीन शाह हमारे समय के सर्वाधिक सशक्त अभिनेता हैं. हिंदी समांतर सिनेमा के दौर की कहानी बिना उनके लिखी ही नहीं जा सकती. सिनेमा के अभिनेता से पहले वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित थिएटर के कलाकार रहे हैं. उल्लेखनीय है कि फिल्म संस्थान, पुणे से एक्टिंग में प्रशिक्षण के बाद संस्थान के ही एक सहयोगी के साथ मिलकर वर्ष 1979 में उन्होंने मोटले प्रोडक्शन की स्थापना की थी. पिछले पैतालीस वर्षों में मोटले ने विभिन्न प्रस्तुतियों के जरिए रंगमंच को संवृद्ध किया है. सिनेमा में मिली प्रसिद्धि के बावजूद उन्होंने रंगमंच से अपने प्रेम को नहीं छोड़ा. रंगमंच से सिनेमा की ओर कदम बढ़ा चुके अभिनेता मुश्किल से ही पुराने प्रेम की ओर लौटते हैं, वे बॉलीवुड के ही होकर रह जाते हैं! हमारे आसपास कई ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं. नसीरुद्दीन शाह ने अपनी संस्मरण की किताब ‘एंड देन वन डे’ में लिखा है कि कैसे 11 वर्ष की उम्र में मंच पर उन्होंने ‘स्व’ को पाया और किस तरह यह उनके जीवन का निर्णायक क्षण था!

अगले महीने नसीरुद्दीन शाह 75 वर्ष के हो जाएँगे. मंच पर उन्हें देखते हुए बरबस वर्ष 2020 में रिलीज हुई और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित ‘द फादर’ की याद आती रही. इस फिल्म में एंथनी हॉपकिंस बार-बार यह सवाल पूछते हैं-व्हाट अबाउट मी?’ यह सवाल नाटक देखने के बाद काफी कचोटता है.

यदि आप अल्जाइमर से पीड़ित किसी व्यक्ति संसर्ग में आए हैं तो पता होगा कि हिंदुस्तान में इन बीमारियों के प्रति लोगों में सूचना और संवेदना का अभाव है. जिस सहजता और मार्मिकता से नसीरुद्दीन शाह ने किरदार को निभाया है, वह अल्जाइमर पर लिखे सैकड़ों लेखों और किताबों पर भारी है

Sunday, June 01, 2025

महेश एलकुंचवार की रंग यात्रा


पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.

पिछले दिनों पुणे और मुंबई में एलकुंचवार के लिखे आत्मकथा (ऑटोबायोग्राफी) नाटक का मंचन लिलेट दुबे के निर्देशन में हुआ. इस नाटक के केंद्र में मराठी का एक लेखक है. एक लेखक की आत्मकथा के बहाने मानवीय संबंधों, सुरक्षा, स्त्री स्वतंत्रता और लेखकीय दुचित्तापन को बखूबी यह नाटक हमारे सामने लाता है. अंग्रेजी में इस बहुआयामी और सशक्त नाटक को मंच पर लिलेट दुबे, डेंजिल स्मिथ जैसे सिद्ध कलाकार लेकर आए. उन्हें सुचित्रा पिल्लई और सारा हाश्मी का भरपूर सहयोग मिला.

महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में जन्मे एलकुंचवार के नाटकों का हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. पिछले साल दिल्ली में हुए भारत रंग महोत्सव के दौरान अनिरुद्ध खुटवड के निर्देशन में मैंने इनका लिखा बहुचर्चित नाटक 'विरासत (वाडा चिरेबंदी, 1987)' नाटक देखा था. आजादी के बाद विदर्भ इलाके के सामंती परिवेश में संयुक्त परिवार के विघटन को केंद्र में रख कर लिखा नाटक आज भी उद्वेलित करता है.

हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने उनके लिखे नाटक ‘पार्टी’ (1981) का मंचन किया. उल्लेखनीय है कि गोविंद निहलानी ने नाटक को आधार बना कर इसी नाम से फिल्म भी निर्देशित किया है, जो आज भी लेखकीय समाज और बुद्धिजीवियों की निर्मम आलोचना के लिए याद की जाती है.

भारतीय रंगमंच के नामी निर्देशकों, जैसे इब्राहिम अल्काजी, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, डॉ श्रीराम लागू आदि ने विभिन्न समय पर एलकुंचवार के नाटकों को निर्देशित किया. साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित एलकुंचवार ने साठ साल के लेखन कर्म के दौरान ने बीस से ज्यादा नाटकों की रचना की है.

एलकुंचवार के नाटकों की विशेषता उनके प्रयोगात्मक शैली में है. सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाते हुए इन नाटकों में भाषा की मितव्ययिता अलग से रेखांकित की जाती रही है. अल्पविराम, मौन भी यहाँ मुखर होकर बोलता है. इनके किरदार किसी ओढ़ी हुई भाषा में संवाद नहीं करते हैं! मैंने जब उनके लेखन पर पड़े प्रभाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘हर रचनाकार जिसे मैंने पढ़ा है, उसका प्रभाव मेरे लेखन पर है.’ तेंदुलकर और विजया मेहता के साथ उनके संबंध काफी गहरे रहे.

एलकुंचवार ने कई बार कहा है कि जब उन्होंने विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक ‘मी जिंकलो, मी हरलो’ देखा तब नाटक लिखने की इच्छा जागी. वर्ष 1970 में उनका लिखा सुल्तान (एकांकी) मराठी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सत्यकथा’ में छपा, जिस पर विजया मेहता की नजर गई और उन्होंने इसे प्रोड्यूस किया. मैंने पूछा कि आप अपनी कला यात्रा को कैसे देखते हैं, उन्होंने कहा कि 'मैं अभी भी लिख रहा हूँ, पीछे मुड़ कर क्यों देखूं?'.