Sunday, June 01, 2025

महेश एलकुंचवार की रंग यात्रा


पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.

पिछले दिनों पुणे और मुंबई में एलकुंचवार के लिखे आत्मकथा (ऑटोबायोग्राफी) नाटक का मंचन लिलेट दुबे के निर्देशन में हुआ. इस नाटक के केंद्र में मराठी का एक लेखक है. एक लेखक की आत्मकथा के बहाने मानवीय संबंधों, सुरक्षा, स्त्री स्वतंत्रता और लेखकीय दुचित्तापन को बखूबी यह नाटक हमारे सामने लाता है. अंग्रेजी में इस बहुआयामी और सशक्त नाटक को मंच पर लिलेट दुबे, डेंजिल स्मिथ जैसे सिद्ध कलाकार लेकर आए. उन्हें सुचित्रा पिल्लई और सारा हाश्मी का भरपूर सहयोग मिला.

महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में जन्मे एलकुंचवार के नाटकों का हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. पिछले साल दिल्ली में हुए भारत रंग महोत्सव के दौरान अनिरुद्ध खुटवड के निर्देशन में मैंने इनका लिखा बहुचर्चित नाटक 'विरासत (वाडा चिरेबंदी, 1987)' नाटक देखा था. आजादी के बाद विदर्भ इलाके के सामंती परिवेश में संयुक्त परिवार के विघटन को केंद्र में रख कर लिखा नाटक आज भी उद्वेलित करता है.

हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने उनके लिखे नाटक ‘पार्टी’ (1981) का मंचन किया. उल्लेखनीय है कि गोविंद निहलानी ने नाटक को आधार बना कर इसी नाम से फिल्म भी निर्देशित किया है, जो आज भी लेखकीय समाज और बुद्धिजीवियों की निर्मम आलोचना के लिए याद की जाती है.

भारतीय रंगमंच के नामी निर्देशकों, जैसे इब्राहिम अल्काजी, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, डॉ श्रीराम लागू आदि ने विभिन्न समय पर एलकुंचवार के नाटकों को निर्देशित किया. साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित एलकुंचवार ने साठ साल के लेखन कर्म के दौरान ने बीस से ज्यादा नाटकों की रचना की है.

एलकुंचवार के नाटकों की विशेषता उनके प्रयोगात्मक शैली में है. सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाते हुए इन नाटकों में भाषा की मितव्ययिता अलग से रेखांकित की जाती रही है. अल्पविराम, मौन भी यहाँ मुखर होकर बोलता है. इनके किरदार किसी ओढ़ी हुई भाषा में संवाद नहीं करते हैं! मैंने जब उनके लेखन पर पड़े प्रभाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘हर रचनाकार जिसे मैंने पढ़ा है, उसका प्रभाव मेरे लेखन पर है.’ तेंदुलकर और विजया मेहता के साथ उनके संबंध काफी गहरे रहे.

एलकुंचवार ने कई बार कहा है कि जब उन्होंने विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक ‘मी जिंकलो, मी हरलो’ देखा तब नाटक लिखने की इच्छा जागी. वर्ष 1970 में उनका लिखा सुल्तान (एकांकी) मराठी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सत्यकथा’ में छपा, जिस पर विजया मेहता की नजर गई और उन्होंने इसे प्रोड्यूस किया. मैंने पूछा कि आप अपनी कला यात्रा को कैसे देखते हैं, उन्होंने कहा कि 'मैं अभी भी लिख रहा हूँ, पीछे मुड़ कर क्यों देखूं?'.

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