Monday, August 04, 2025

गुजिश्ता खुशबुओं के दिन: कैफी और मैं


पुणे में व्यावसायिक मराठी रंगमंच काफी संवृद्ध है, वहीं हिंदी और अंग्रेजी नाटकों का भी एक अलग दर्शक वर्ग है.

पिछले दिनों चर्चित अदाकार नसीरुद्दीन शाह अपना नाटक द फादर’ लेकर आए थे, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा. वहीं रविवार को पुणे के रंगमंच पर मशहूर अदाकारा शबाना आजमी दिखाई थी. खचाखच भरे सभागार में दर्शकों का उत्साह देखते बना.

असल में,  रमेश तलवार निर्देशित बहुचर्चित नाटक कैफी और मैं’ में शबाना आजमी एक बार फिर से दर्शकों से रू-ब-रू थी. यह नाटक अपने बीसवें साल में है. अगले महीने वे पचहत्तर वर्ष की हो जाएँगी, ऐसे में रंगमंच पर उनकी सक्रियता थिएटर को लेकर उनके जुनून को दिखाता है.

संस्कृतिकर्मी और अदाकार शौकत आजमी की आपबीती याद की रहगुजर और कैफी आजमी के साक्षात्कारों, खतो-किताबत को यह नाटक समेटे है जिसे जावेद अख्तर ने बुना है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है शौकत के नजरिए से कैफी और उनके संबंधों, कैफी की शायरी, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार यहाँ दिखाई देते हैं.

शौकत की भूमिका में शबाना आजमी और कैफी की भूमिका में कंवलजीत सिंह मंच पर थे. पर ऐसा नहीं कि यह नाटक केवल दो तरक्कीपसंद लोगों के आपसी प्रेम संबंधों का दस्तावेज बन कर रह गया है, बल्कि इसके मार्फत मानवीय मूल्यों, सहजीवन और आजाद भारत के सपनों की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. एक ऐसे दौर को हम जीते हैं, जो अतीत का पन्ना हो चला है. हमारे हिस्से महज खुशबू रह गई है!

कैफी की जीवन यात्रा के कई रंग हैं. वे उर्दू के प्रगतिशील धारा के प्रमुख शायर रहे और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अग्रणी स्वर. वहीं हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने जी गीत रचे, वे हमारी थाती हैं. आश्चर्य नहीं मंच पर उनके लिखे गीतों के टुकड़ों को जसविंदर सिंह ने गाया और दर्शक उनसे पूरा गाने की फरमाइश करते रहे.

चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा थावह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. गीत-संगीतनृत्यनाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया थाजिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी. कैफी के साथ शौकत भी इप्टा से एक अदाकार के रूप में जुड़ी थी. देश विभाजन को आधार बना कर बनी फिल्म गर्म हवा’ (1974) में उनका अभिनय आज भी याद किया जाता है.

सज्जाद जहीर, चेतन आनंद, के ए अब्बास, सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मजरूह सुल्तानपुरी, दीना पाठक, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, कृष्ण चंदर जैसे उर्दू-हिंदी साहित्य के कद्दावर नाम इस नाटक में लिपटे चले आते हैं. इस तरह से यह नाटक साहित्य-सिनेमा के एक सुनहरे दौर का वृत्तांत भी रचता है.  


इस साल गुरुदत्त की जन्मशती मनाई जा रही है. कागज के फूल के लिए कैफी आजमी के लिखे गीतवक्त ने किया क्या हंसी सितम’ और बिछड़े सभी बारी बारी’ को समीक्षकों ने रेखांकित किया. जहाँ ये गीत लोगों की जबान पर बस गए, वहीं फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई. उन्हें सफलता मिली चेतन आनंद की फिल्म हकीकत के लिखे गानों के साथ, जो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही और चेतन आनंद-मदन मोहन-कैफी आज़मी की जोड़ी चल निकली.

कैफी ने पहली नज्म महज  ग्यारह साल की उम्र में पढ़ी थी. मुंबई आने से पहले ही उनकी प्रसिद्धि औरत नज्म (उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे...) से फैल चुकी थी. इसी नज्म को सुन कर शौकत ने ठान लिया था कैफी ही उनके जीवन साथी बनेंगे और उन्होंने उनके साथ बंबई के एक 'होल टाइमर कम्युनिस्ट' के साथ कम्यून में रहने  का फैसला किया.

जब कैफी समाज के हाशिए पर रहने वालों के साथ काम कर रहे थे तभी उन्होंने मकान नज्म लिखा था. जब मंच से कैफी के इन नज्म से इन पंक्तियों का पाठ किया गयाआज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी/सब उठोमैं भी उठूँ तुम भी उठोतुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी, तब लगा कि किस तरह उनकी कविता समकालीन है. कैफी जैसा रचनाकार समय-सीमा के परे है.

इन नाटक के लिए मंच पर बेहद कम साजो-सामान का इस्तेमाल किया गया. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृतानाटक में हमने शबाना को देखा है. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. ठीक वही शैली इस नाटक में भी अपनाई गई है. जहाँ शौकत के किरदार में शबाना ने प्रभावित किया वहीं ऐसा लगा कि कंवलजीत कैफी ने किरदार के लिए तैयारी करके नहीं आए थे. कई बार संवाद अदायगी में वे फिसले. वे रसास्वादन में बाधा बन कर सामने आया. उल्लेखनीय है कि कैफी के किरदार को जावेद अख्तर निभाते रहे हैं, हमने उन्हें मिस किया. 

आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव में जन्मे कैफी आजमी भले गाँव से वर्षों से दूर रहे, पर उनकी शायरी में गाँव-जवार रचा-बसा रहा. वर्षों बाद वे गाँव लौटे और शौकत के साथ मिल कर घर बनाया, बच्चों के लिए स्कूल, सड़क और अन्य सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ी थी.

याद आया कि पाँच साल पहले मी रक्सम’ फिल्म कैफी के पुत्र बाबा आजमी से निर्देशित किया और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया था. इस फिल्म में निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. मी रक्सम’ फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’

फिल्म की तरह ही यह नाटक मशहूर शायर, नग्मा-निगार और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध कैफी के प्रति श्रद्धांजलि है.


(एनडीटीवी के लिए)

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