Sunday, December 21, 2025

द ग्रेट शम्मुद्दीन फैमिली: नागरिक राष्ट्रवाद की अनुगूंज

 


फ्रेंच फिल्मकार जां रेनुआ ने कहा था कि ‘सिनेमा की शब्दावली में ‘कमर्शियल’ फिल्म वह नहीं होती जो पैसा कमाए, बल्कि वह फ़िल्म होती है जिसकी कल्पना और निर्माण व्यवसायी के मानदंडों के अनुसार किया गया हो.’ सुर्खियां ओर बॉक्स ऑफिस पर पैसे बटोर रही आदित्य धर की फिल्म ‘धुरंधर’ देखते हुए यह बात मन में आती रही.

भारत और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में अति राष्ट्रवाद, हिंसा, जासूसी के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म में पिछले दो दशक में घटी आतंकवादी घटनाओं का इतिवृत्त मिलता है पर कल्पना और यथार्थ का घालमेल है. यहां कला कम, राजनीतिक स्वर ज्यादा स्पष्ट हैं. लेकिन जैसा कि कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा है: जो नहीं है/ जैसे कि ‘सुरुचि’/उसका ग़म क्या?
'घर में घुस कर मारने' की बात करने के वाली, 'धुरंधर' के साथ ‘द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली’ का होना सुखद है, जो पिछले दिनों ही जियो-हॉट स्टार प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हुई. स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए आज भी वितरण बड़ी समस्या बनी हुई है. बहरहाल, पंद्रह वर्ष पहले ‘पीपली लाइव’ फिल्म से चर्चा में आई अनुषा रिजवी की यह फिल्म धुरंधर के साफ विपरीत है. यहाँ प्रोपगैंडा नहीं है, बल्कि नागरिक राष्ट्रवाद की अनुगूंज है. सब लोग साथ-साथ मिल जुल कर रह सकते हैं, फल-फूल सकते हैं. परेशानियों के बावजूद जहाँ चांदनी रात में ‘बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक/हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक’ गुनगुनाया जा सकता है.
यहाँ राष्ट्र में जो उठा-पठक चल रहा है उसे घर के अंदर चल रहे ‘ड्रामे’ से जोर कर देखा गया है. घर के अंदर एक युवा जोड़े की शादी का तनाव है क्योंकि दोनों के धर्म अलग हैं. पर इसे मनोरंजक तरीके से हल्के-फुल्के अंदाज में परोसा गया है, एक बहाव में हम कहानी से साथ आगे बढ़ते हैं. ऐसा लगता है कि हुमायूं का मकबरा चश्मदीद की तरह समकालीन समय को परख रहा है और कह रहा है कि यह समय भी बीत जाएगा!
किस्सागोई शैली में बुनी गई इस फिल्म में महज एक दिन की कहानी है जो दक्षिण दिल्ली के एक घर के अंदर घटित होती है. केंद्र में दिल्ली का एक उच्च मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार है. जहाँ ‘धुरंधर’ में स्त्री पात्रों के लिए जगह बेहद कम है, वहीं शम्सुद्दीन परिवार में स्त्रियों का जोर है.
बानी जो कि एक लेखिका है, अपने लिए विदेश में अवसर ढूंढ़ रही है. ‘डेडलाइन’ का दबाव उसके सिर पर है, पर एक के बाद एक ‘अतिथि’ उसके घर आते जा रहे हैं. दो पीढ़ियों की नोंक-झोंक या जुगलबंदी के बीच बात से बात निकलती चलती है. यहाँ शादी, प्रेम, तलाक की बातचीत बेहद सहज है, हालांकि जो सहज नहीं है वह है एक लेखक के अंदर का डर कि कौन सी बात किसे बुरी लग जाएगी? क्या लिखा जाए, क्या नहीं? और यहीं पर यह फिल्म प्रभावी हो उठती है कि अभिव्यक्ति की आजादी न हो तो फिर लोकतंत्र के क्या मायने रह जाएँगे? महज डेढ़ घंटे फिल्म में कई गैप्स हैं, जिसे दर्शकों की उम्मीद के सहारे भरने, सोचने-विचारने के लिए छोड़ दिया गया है.

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