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Tuesday, July 17, 2012

विचलन के दौर में विचारधारा


पिछले दिनों मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने जेएनयू स्थित अपनी छात्र इकाई एसएफआई को भंग कर युवा नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया. जेएनयू के छात्र रहे सीपीएम के एक युवा नेता प्रसेनजीत बोस ने राष्ट्रपति पद के यूपीए प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को दिए जा रहे पार्टी के समर्थन के खिलाफ खुलेआम आवाज उठाई थी और जेएनयू के छात्र नेताओं ने भी प्रसेनजीत बोस को अपना समर्थन दिया था.

जेएनयू को एक बौद्धिक और प्रगतिशील तेवर देने में एसएफआई की एक बड़ी भूमिका रही है. सीपीएम के दो कद्दावर नेता प्रकाश करात और सीताराम येचुरी ने वाम राजनीति का ककहरा यहीं सीखा था और वे छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे. गौरतलब है कि आपातकाल के दौरान कांग्रेस विरोध के ये अगुआ थे.

हाल ही में एक लेख में जेएनयू के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में एनसीपी के नेता और राज्यसभा सांसद डीपी त्रिपाठी ने सीपीएम के खिलाफ युवा छात्र नेताओं के इस कदम को अप्रत्याशित और कॉमन सेंस से रहित कहा.  उनका कहना है कि जेएनयू के छात्र नेता समय की नब्ज नहीं पहचान रहे!

जेएनयू परिसर वामपंथी रुझानों के लिए शुरुआती दिनों से ही जाना जाता रहा है. वर्ष 1971 में जबसे जेएनयू छात्रसंघ अस्तित्व में आया कैंपस में वामपंथी पार्टियों का वर्चस्व रहा. लेकिन जहाँ 90 तक चुनाव मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई एसएफआई और फ्री थिंकर्स के बीच मुकाबले तक सीमित रहता था, 90 के बाद एबीवीपी, एनएसयूआई और भाकपा माले की छात्र इकाई आइसा के स्वर और नारे भी कैंपस में सुनाई पड़ने लगे. राष्ट्रीय राजनीति में जो मंडल और कमंडल की अनुगूंज थी वह कैंपस तक पहुँचने लगी. इन वर्षों में दक्षिणपंथी राजनीति ने कैंपस में सिर उठाने की कोशिश की, लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़ छात्र संघ चुनावों में दबदबा विशेष कर एसएफआई का ही रहा.

कुछ महीने पहले चार वर्षों के अंतराल पर हुए जेएनयू छात्र संघ चुनाव में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के प्रत्याशी चारों प्रमुख पदों पर काबिज रहे. एसएफआई की बुरी हार हुई. इससे पहले भी नवंबर 2007 में हुए चुनाव में सिंगुर और नंदीग्राम में सीपीएम की नीतियों के खिलाफ कैंपस में छात्रों ने एसएफआई को नकारा था और आइसा की जीत हुई थी. प्रेसनजीत बोस ने भी सिंगूर और नंदीग्राम में जो किसान विरोधी नीतियाँ सीपीएम ने अपनाई थी उसे लेकर पार्टी को कोसा है.

राजनीतिक नारे अपने समय की राजनीति को बयां करने में कई बार घोषणा पत्रों से ज्यादा प्रभावशाली और सटीक होते हैं. कहते हैं कि वर्ष 1992 में जेएनयू छात्रों का एक नारा था,  ‘जब लाल लाल लहराएगा तो होश ठिकाने आएगा!नव उदारवादी नीतियों की पृष्ठभूमि में यह नारा वामपंथियों के जोश और जुनून को व्यक्त करता था. लेकिन नवउदारवादी नीतियों के 20 वर्षों के बाद होने वाले इस चुनाव के दौरान और प्रेसिडेंशियल डिबेटमें एसएफआई की तरफ से ऐसा कोई नारा सुनाई नहीं पड़ा जो देश-दुनिया के सरोकारों को स्वर दे सके. बस, एक नए विहान का वादा था!

जेएनयू की छात्र राजनीति हाशिए पर रहने वालों के प्रति अपने सरोकार और सक्रियता के लिए जानी जाती रही है. लेकिन इन वर्षों में बाजार और कैरियर का दबाव वाम कार्यकर्ताओं पर भी भारी पड़ा है. पिछले वर्षों में जेएनयू के आस-पास की दुनिया भी बड़ी तेजी से बदली है. जेएनयू के ठीक पीछे वसंत कुंज में बने बड़े-बड़े मॉल और आस-पास दिल्ली में आई 'खुशहाली' से एक समय टापू माने जाने वाले यह कैंपस भी अछूता नहीं रहा है. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कामरेडों को कैरियर की चिंता ज्यादा और देश-दुनिया की चिंता कम ही सताती रही! कई छात्र बताते हैं कि अब तो ज्यादातर कामरेड राजनीति को अपनी बायो-डाटा में एक और उपलब्धि के रूप में जोड़ते हैं, ताकि किसी विश्वविद्यालय में या गैर सरकारी संगठनों में नौकरी मिलने में आसानी रहे. ऐसे में सत्ता के नजदीक रहने में ही ये भी अपनी भलाई समझते रहे. 

वामपंथी बुद्धिजीवी और नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान सेंट स्टीफेंस कॉलेज के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे अरविंद एन दास ने डीडी कौंसाबी के हवाले से अपने एक लेख में लिखा है कि शुरु से ही जेएनयू में ऑफिशियल मार्क्सवादी सत्ता के इशारों पर काम करते रहे...चंद्रशेखर जैसे छात्रों ने जब किसानों के बीच जाकर उग्र राजनीतिक एक्टिविज्म और अकादमिक सिद्धांतों के बीच तालमेल बनाई तब कहीं जा कर जेएनयू कुछ समय के लिए अपनी खोई जमीन को पुन: पा सका.'  कैंपस के अंदर आज भी छात्र चंद्रशेखर के जीवन और उनके जुझारू व्यक्तित्व को याद करते है. 'चंदू तुम जिंदा हो, खेतों में खलिहानों में छात्रों के अरमानों में', े नारा आइसा आज भी दोहराते नहीं थकती. चंद्रशेखर दो बार आइसा से छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. वर्ष 1997 में सिवान में कथित तौर पर शहाबुद्दीन के गुंडों ने तब उनकी नृशंस हत्या कर दी थी जब वे एक राजनीतिक सभा को संबोधित कर रहे थे. एसएफआई चंद्रशेखर जैसे छात्र नेता को ढूंढने में विफल रहा है जो अकादमिक वामपंथ के सिद्धांतों और राजनीतिक पक्षधरता को मूर्त रूप दे सके. 

बाजारीकरण और विचारधाराओं के विचलन के इस दौर में ऑफिशियल लेफ्टने जो रास्ता अख्तियार किया है उसके खिलाफ जाकर एसएफआई के कामरेडो ने असल में जेएनयू के बहुसंख्यक छात्रों की आवाज उठाई है. कैंपस में खोई हुई जमीन को पुन: पाने का एसएफआई का यह एक प्रयास था, जिसे सीपीएम के अलाकमान ने मटियामेट कर दिया. जब देश के अन्य हिस्सों में सीपीएम के किले ढह रहे हैं, वाम के इस गढ़ में युवा कामरेडो के खिलाफ जाकर सीपीएम ने कितना सही कदम उठाया है यह समय के गर्भ में है.  
 (जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 24 जुलाई 2012 को प्रकाशित)