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Sunday, October 10, 2021

मानसिक स्वास्थ्य बरास्ते सिनेमा

 मनोरंजन का आयाम सिनेमा के साथ ऐसा जुड़ा कि दृश्य-श्रव्य शैक्षणिक माध्मय के रूप में इसके इस्तेमाल की पहल दुनिया में कम ही हुई. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान मनोचिकित्सक, सिनेमा और थिएटर के नामचीन अदाकार डॉक्टर मोहन आगाशे मानसिक स्वास्थ्य के हवाले से सिनेमा की अहमियत को रेखांकित कर रहे थे. कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर के मनोचिकित्सक बुर्जगों और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की देख-रेख पर खास कर जोर दे रहे हैं. आज ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ पर इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि हमारा सिनेमा इस मुद्दे को लेकर कितना संवेदनशील रहा है. किस तरह से सिनेमा में इस समस्या का निरुपण हुआ है और वे अपनी बात दर्शकों तक पहुँचाने में कितने सफल रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि सिनेमा या बॉलीवुड में मानसिक स्वास्थ्य के सवाल पर चुप्पी है. पिछले सदी में ‘खिलौना’, ‘सदमा’, ‘दिलवाले’ कुछ ऐसी फिल्में थी जिसमें मानसिक बीमारी से पीड़ितों को केंद्र में रखा गया है. हाल के दशकों में ‘तारे जमीन पर’, ‘डियर जिंदगी’ आदि फिल्मों में इस बीमारी से इलाज की तरफ भी इशारा किया गया है. पर बॉलीवुड फिल्मों की अपनी सीमा है. मानसिक स्वास्थ्य जैसे मुद्दों की पड़ताल करते हुए इन फिल्मों में कैशोर्य भावुकता का अनायास समावेश हो जाता है.
यहां पर खास तौर से मराठी के फिल्मकार सुमित्रा भावे (1943-2021) का जिक्र जरूरी है जिन्होंने पिछले दशक में सुनील सुकथनकर के साथ मानसिक स्वास्थ्य को केंद्र में रख बेहतरीन फिल्में निर्देशित की. दुर्भाग्यवश इस वर्ष अप्रैल में उनका निधन हो गया. बात ‘देवराई (2004)’ फिल्म की हो जिसके केंद्र में सिजोफ्रेनिया है, ‘अस्तु (2016)’ की हो जिसके केंद्र मे डिमेंशिया/अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है या ‘कासव (2017)’ की जिसके केंद्र में डिप्रेशन (अवसाद) की समस्या है. इन तीनों फिल्मों में संवेदनशीलता के साथ मानसिक स्वास्थ्य, बीमार व्यक्ति की देख-रेख और देखभाल करने वालों को होने वाली परेशानियों का निरूपण है.

‘अस्तु’ फिल्म एक ऐसे पिता के इर्द-गिर्द है जो सारी जिंदगी परिवार के केंद्र में रहने के बाद बुढापे में हाशिए पर है. एक दिन वह अपनी बेटी के साथ बाजार जाता है और एक हाथी को देख कर सवारी करने की उसमें बच्चों सी उत्कंठा जग जाती है. वह हाथी वाले के साथ चला जाता है और बेटी से बिछुड़ जाता है. उसे न अपना भूत याद है न ही वर्तमान. मोहन आगाशे ने खूबसूरती से अल्जाइमर से पीड़ित बुर्जुग की भूमिका निभाई है, जो मर्म को छूती है. उसकी स्थिति एक बच्चे की तरह है. वह समझ ही नहीं पता कि उसके साथ क्या हो रहा है. बेटी जिसे उसने जन्म दिया है अब उसके लिए माँ की तरह है!
आगाशे कहते हैं कि सुमित्रा भावे दुनिया की एक मात्र ऐसी निर्देशक थी जिन्होंने एचआईवी-एड्स से लेकर अवसाद जैसे मुद्दों पर फिल्में निर्देशित की. समाज में आज भी मानसिक बीमारियों को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता और बीमार व्यक्ति के ऊपर लांछन लगाया जाता है. उल्लेखनीय है कि इन फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया. वे कहते हैं कि एक मनोचिकित्सक के रूप में मैं इन फिल्मों का इस्तेमाल शिक्षण-प्रशिक्षण में करता हूँ.

(प्रभात खबर, 10 अक्टूबर 2021)