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Wednesday, August 24, 2016

हवेली में भित्तिचित्र

जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर की एक प्रसिद्ध किताब है- प्रोटेस्टेंट इथिक एंड स्पिरीट ऑफ कैपिटलिज्म. इस किताब में वे लिखते हैं कि किस तरह प्रोटेस्टेंट संबंधी धार्मिक मान्यताओं से यूरोप में पूंजीवाद के प्रचार-प्रसार को बल मिला. इसमें वे ईसाई धर्म की इस शाखा की उन विशेषताओं को रेखांकित करते हैं जो आधुनिक पूंजीवादी विचारधारा की प्रेरक हैं. वर्षों पहले समाजशास्त्र के एक शिक्षक ने मारवाड़ी बनिया समुदाय के भारतीय पूंजीवाद में योगदान और उनके रीति-रिवाजों, रहन-सहन, धर्म से उनके जुड़ाव और रिश्तों की बात की थी. पता नहीं, इस बारे में कोई अध्ययन किया गया है या नहीं. अमूमन भारत के अकादमिक जगत में कारोबारी घराने, महाराजाओं के बारे में एक तरह की उपेक्षा का भाव है, जिस वजह से इनके बारे में कम ही शोध उपलब्ध हैं.

राजस्थान के शेखावटी इलाके ने भारत में कारोबारियों के कई घराने दिए हैं. बिड़ला, मित्तल, बजाज, गोयनका, झुनझुनवाला, डालमिया, पोद्दार, चोखानी आदि की जड़ें इन्हीं इलाकों से जुड़ी हैं. आधुनिक भारत के निर्माण में इन कारोबारियों की भूमिका असंदिग्ध है. इन घरानों के कई कारोबारी आजादी के दौरान राष्ट्रीय आंदोलनों से भी जुड़े हुए थे. उन्नीसवीं सदी में अफीम, कपड़ों, मसालों के कारोबार से इन इलाकों के कारोबारियों ने अकूत धन अर्जित किया था. इन धनिकों की हवेलियों को देखने पर उनकी संपत्ति, माल-असबाब की एक झलक मिलती है, हालांकि हवेलियों से कारोबारियों के कला-संस्कृति के प्रति रुझान, उनके दृष्टिकोण का भी पता चलता है.

सीकर से तीस-चालीस किलोमीटर दूर मंडावा और नवलगढ़ इलाकों में भारत के चर्चित इन कारोबारी घरानों की हवेलियां स्थित हैं. तकरीबन सौ साल पहले इनके बाशिंदे कारोबार की खोज में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और सुदूर देश चले गए, तब से ये हवेलियां वीरान पड़ी हैं. कई हवेलियों पर ताले जड़े हैं और कुछ रखवालों, चौकीदारों के भरोसे हैं. ऐसी ही एक हवेली में रह रहे एक चौकीदार ने मुझे बताया कि हवेली के मालिक-कारोबारी दो-चार साल में मांगलिक कार्यों के दौरान अपने कुल देवता के दर्शन के लिए आते हैं.

बहरहाल, इस समय जो चीज इन हवेलियों को विशिष्ट बनाती है, वह है इन पर बने भित्ति-चित्र. इन हवेलियों की दीवारों, मेहराबों, खंभों पर बने करीब सौ-डेढ़ सौ साल पुराने इन भित्ति-चित्रों की शैली और इनका सौंदर्य मनमोहक है. साथ ही राजस्थानी लोक कथाओं, पशु-पक्षी, मिथकों, धार्मिक रीति-रिवाजों, आधुनिक रेल, जहाज, मोटर, ईसा मसीह आदि के चित्रों का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व भी है. इन चित्रों से उस जमाने में लोगों के रहन-सहन, सामाजिक स्थिति, संस्कृतियों के मेल-जोल का भी पता चलता है. अनाम कलाकारोंके बनाए इन भित्ति-चित्रों में इस्तेमाल किए गए रंग प्राकृतिक हैं. मसलन, लाल के लिए सिंदूर, काले रंग के लिए काजल, नीले रंग के नील का प्रयोग किया गया है. हालांकि बाद के दिनों में इन चित्रों के संरक्षण के दौरान सिंथेटिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा. जिस तरह मिथिला पेंटिंग में मछली, वर्ली पेटिंग में मोर, पट चित्र में घोड़े का चित्रण कलाकार बार-बार करते हैं, उसी तरह शेखावटी के इन भित्ति-चित्रों में ऊंट का चित्रण खूब किया गया है.


इन हवेलियों में प्रवेश करने पर ऐसा लगता है जैसे कि यह कोई कला-दीर्घा हो. पर कुछ हवेलियों को छोड़ कर (मंडावा के किले, पोद्दार म्यूजियम, मोरारका म्यूजियम आदि) बाकी की हालत खस्ता है. कुछ हवेलियों में होटल खोल दिए गए हैं. उपेक्षा और वर्षों धूल, हवा, प्रदूषण और रख-रखाव के अभाव में चित्रों से रंग उड़ गए हैं तो कहीं भीत उखड़ रही है. चित्रकार भैरोंलाल स्वर्णकार पोद्दार म्यूजियम के पुनर्नवा अभियान में वर्षों से जुटे हुए हैं. वे बताते हैं कि इस हवेली के मालिक ने बीसवीं सदी की शुरुआत में इन दीवारों पर रेलगाड़ी का अंकन तब करवाया था, जब इस इलाके के लोग रेलगाड़ी से अपरिचित थे. कई भित्ति-चित्र ऐसे हैं जिन्हें देख कर समय और काल के साथ इन चित्रों के रिश्ते को देख कर अचंभा होता है. मुझे उन्होंने बताया कि इस म्यूजियम में अब तक करीब आठ सौ भित्ति-चित्रों का संरक्षण किया जा चुका है. करीब दो सौ हवेलियों में इन भित्ति-चित्रों का एक ऐसा संसार फैला है जो अनमोल है. पूरे देश में एक साथ हजारों भित्ति-चित्र शायद ही कहीं और बिखरे पड़े हों!


पिछले दिनों चर्चित फिल्म पीकेऔर बजरंगी भाईजानकी शूटिंग इन इलाकों में हुई, जिसके कारण एक बार फिर से ये इलाके चर्चा में आए हैं. साथ ही पिछले कुछ वर्षों में विदेशी सैलानियों के बीच यह इलाका तेजी से एक पर्यटक स्थल के रूप में उभरा है. धनकुबेरों को अपने इस पुराने ठौर से आज कोई खास मतलब नहीं दिखता है. आस-पड़ोस के लोगों और सरकार के लिए भी कला के इस खजाने का कोई मूल्य नहीं है और न ही शायद उन्हें इसके संरक्षण की कोई चिंता है.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 24 अगस्त 2016 को प्रकाशित)

Thursday, March 15, 2012

एक दोपहर सपनों के गाँव में: तिलोनिया

अजमेर जिले में किशनगढ़ के रास्ते मार्बल और ग्रेनाइट के धनकुबेरों के शो रुमों को छूती ऑटो रिक्शा जैसे ही तिलोनिया जाने को नीचे उतरती है, लगता है कि हम गाँव जा रहे हैं.

हवाओं में फगुनाहट है और सूर्य की किरणों में गर्मी.

तिलोनिया जाने की सड़क आम भारतीय गाँवों की सड़कों की तरह ही खास्ताहाल है. नाम मात्र को पक्की. कंक्रीट और कोलतार यहाँ-वहाँ बिखरी हुई. ड्राइवर का कहना है कि मार्बल-ग्रेनाइट ढोने वाली भारवाहक गाड़ियों की वजह से सड़कों का यह हाल है!

बहरहाल, खेचड़ी के पेड़ों और कंटीले झाड़ों के बीच 10-12 किलोमीटर की वीरान सड़कों पर यात्रा के बाद जैसे ही हम तिलोनिया रेलवे स्टेशन के क़रीब पहुँचते हैं लोगों की चहल-पहल दिखाई पड़ती है.

सामने बेयरफुट कॉलेज कैंपस का एक बोर्ड दिखता है. बोर्ड पर लिखी इबारत एक दौर के सामूहिक सपने की अभिव्यक्ति है. यह सपना आज़ादी के बाद 60 के दशक में जवान होती पीढ़ी ने देखा था. वे सौभाग्यशाली थे, उनके कुछ सपने थे.

60 के दशक में देश के प्रतिष्ठित कॉलेज के छात्र अपने संभ्रांत, अभिजात्य जीवन शैली को छोड़ खेत-खलिहानों में काम करने गए. वह देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दौर था.

उनमें से कुछ खेत रहे, कुछ ने रास्ता बदल लिया और कुछ सतत उस राह पर चलते रहे जो उन्हें देश के उन हिस्सों तक लेकर गया जहाँ लोग अपनी छोटी दुनिया में छोटे सपनों के साथ जीते और मर जाते हैं.

तिलोनिया ऐसी ही सपनों की गाथा है. एक गैर सरकारी संस्था सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर ने बेयरफुट कॉलेज के माध्यम से गाँव वालों के साथ मिल कर पिछले 40 वर्षों से इस सपने को जिया है. और अब यह सपना सरहदों के पार जाकर देश-विदेश के गाँवों में भी फल-फूल रहा है, सच हो रहा है.

दून स्कूल और दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़े अंग्रेजीदां संजीत उर्फ बंकर रॉय के लिए लीक पर चलते हुए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं थी.

सब कुछ उनके कदमों पे था. वे आराम से एक नौकरशाह, पत्रकार या प्रोफेसर बन सकते थे.

पर आजाद भारत में ग्रामीण जीवन के एक अनुभव ने उनके जीवन की धारा बदल दी.

वे कहते हैं, जब में कॉलेज में था तो मेरे मन में गाँव देखने की इच्छा जगी. और मैं वर्ष 1965 में बिहार में पड़े भीषण अकाल के दौरान वहाँ के गाँवों में गया. पहली बार मैंने भूख से मरते लोगों को देखा.

वापस लौट कर मैंने जब अपनी माँ से कहा कि मैं गाँव जा कर रहना चाहता हूँ तो वह कोमा में चली गई!’

कई वर्षों तक तो उन्होंने मुझसे बात नहीं की. उन्हें लगता रहा है मैंने परिवार का नाम डुबो दिया.

बंकर रॉय ने चीन के बेयरफुट कॉलेज से प्रेरणा लेते हुए अपने कुछ मित्रों के साथ गॉव के हाशिए पर रहने वालों के अनुभवों से ही उनके जीवन में कुछ बदलाव लाने की ठानी.

माओ के दौर में ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले चीनी बेयरफुट डॉक्टरों की कार्यशैली को गॉधी के आदर्शों और उसूलों के साथ मिला कर इन्होंने एक ऐसा प्रयोग किया जो देश-विदेश में एक मिसाल बन गया है.

तिलोनिया कैंपस में सबसे पहले नज़र उसके अदभुत वास्तुशिल्प पर पड़ती है जिसे गाँव वालों ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा के तैयार किया है.

छतों पर सौर उर्जा की प्लेटों, जलसंग्रहण के हौदे, हैंडी क्राफ्ट और सेनेटरी नैपकिन के उत्पादन में लगी महिलाएँ, अस्पताल में लोक अनुभवों से पके डॉक्टर और नाइट स्कूल में बच्चों की पढ़ाई की तैयारी की पहल में जुटे लोग आपका स्वागत करते हैं.

एक कमरे में कठपुतलियों के माध्यम से राम निवास और बजरंग पास के केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुछ बच्चों को बेयरफुट कॉलेज के इतिहास और कार्यशैली से रू-ब-रू करवा रहे हैं. पास ही कुछ अफ्रीकी महिलाएँ सौर ऊर्जा की बारीकियों को सीख रही है.

अपनी पीएचडी की डिग्री को नेहरू जैकेट में छिपाए, कमरे के बाहर जूते उतार मैं भी जोखिम चाचाके अनुभवों को नीचे फर्श पर बैठ सुनने लगा.

बेयरफुट कॉलेज में दाखिले की पहली शर्त निरक्षर या अपढ़ होना जो है! अरे हां, जोखिम चाचा अपनी उम्र 365 वर्ष बताते हैं. उनके अनुभवों के सामने आप को सहसा विश्वास होता है, पंडिताई भी एक बोझ है.

(तस्वीरों में, बेयरफुट कॉलेज कैंपस की एक तस्वीर और नीचे जोखिम चाचा)